विष्णु में विश्व इतिहास ➡ 04

   विश्व इतिहास का तृतीय अध्याय🔵
     👑 वराह युग- तृतीय संभूति

           उभयचर जीवों के बाद जीवों की एक ऐसी प्रजाति आई। स्थायी रुप से पृथ्वी पर वास करने लगी। यह युग अंडज से जरायुज वर्गीय जीवों के इतिहास का  है। इस युग में जीवों की विभिन्न श्रेणियों के साथ पादपों की विशालता दिखाई देने लगी। पृथ्वी के स्थायी निवासी कच्छप, सरीसृप, नभचर, कुकुर, गाय, लोमड़, हिरण्य,  बिल्ली एवं वानर प्रजाति के  जीवों का प्रतिनिधित्व वराह ने किया। यह जगली एवं पालतू दोनों ही रुप में पाया है। शाकाहार एवं मांसाहार दोनों के गुण विद्यमान हैं। यह विशालकाय एवं लधुकाय दोनों में योजक बन सकता है। थलचर, उभयचर एवं जलचर तीनों में सामंजस्य स्थापित कर सकता है। नभचर भी इसे अपने प्रतिनिधि प्रदान कर सकते है। क्योंकि उनके लिए सफाई का कार्य सम्पादित करने के लिए तत्पर रहता है।

         वराह संभूति की कथा में कहा गया है कि हिरण्याक्ष नामक दैत्य ने पृथ्वी को जल की गहराइयों छिपा दिया था। श्री हरि विष्णु ने वराह रुप धरकर पृथ्वी को पुनः उसके निर्धारित कक्ष में स्थापित किया। मैंने पूर्व ही लिखा है कि कथाओं की वास्तविकता एवं अवास्तविकता रेखांकित करना मेरा विषय नहीं है। हिरण्य अर्थात स्वर्ण एवं आभूषण इत्यादि बहुमूल्य रत्नों के जल से थल पर प्रकट होने की बात को रेखांकित करने के प्रतीकात्मक स्वरूप में भूमि को खोदने वाले के प्रतिबिंब के रुप में सुअर को चित्रित किया होगा। यह युग स्तनधारी जीवों का युग है। 

वराह युग का ऐतिहासिक मूल्यांकन   विश्व के इतिहास का तृतीय अध्याय एवं चतुर्थ पन्ना लिखा जा रहा है। इतिहास के परिप्रेक्ष्य में परीक्षा देकर इसे आगे बढ़ना होगा। जैविक युग इतिहास लिखा जा रहा ऐतिहासिक मूल्यांकन इतिहासकारों के हास्य का विषय हो सकता है लेकिन शोधकर्ताओं के एक दिशा निर्देश लाइन खिंचना भी लेखन का उद्देश्य होता है। वराह युग इतिहास की प्रत्येक कसौटी पर कसना इसके साथ न्याय है। इससे पूर्व कूर्म, मत्स्य एवं पाक ऐतिहासिक युग ने भी कठिन परीक्षा दी है।

(१) राजनैतिक जीवन   वराह युग में जीवों की विभिन्न प्रजातियों एवं जैविक परिवार की स्पष्ट रेखा दिखायी देती है। इसके साथ कहीं न कहीं जैव जगत का एक सामान्य अनुशासन भी है। जीव अपनी-अपनी सुरक्षा एवं भोजन संग्रहण के लिए झुंड में रहता था। संघात्मक शासन का प्रथम स्वरुप यहाँ दिखाई देता है। यह पशु अपने में से चतुर्थ एवं धूर्त शक्तिशाली का नेतृत्व स्वीकार करते थे तथा अपनी प्रजाति के निर्बल एवं अकेले पर हमला अथवा अन्य आपदा आने पर सामूहिक सहयोग का परिचय देते हैं। संधात्मक भावना है। नभ, जगल, गिरी कंधरा, बिल, वृक्ष, दलदली एवं मैदान धरती पर मानो प्रकृति के दिए राज्य है।

(२) सामाजिक जीवन इस युग के जीवों में ममत्व का भाव अंकुरित हुआ था। जो सामाजिकता की रेखा खींचने के लिए पर्याप्त आधार रेखा है। चूंकि यह स्तनधारी जानवरों का युग था। जहाँ शिशु से लगाव होना मातृ सत्तात्मक समाज के चित्रण का एक सुंदर उदाहरण है। 

(३) धार्मिक जीवन जैव धर्म के अंग  अहार, भय, निंद्रा तथा मैथुनीय यहाँ दिखाई देते है। निर्बल एवं असहाय के प्रति सहानुभूति की वृत्ति ने मदद करने के धार्मिक मूल्यों को परिभाषित करने का अवसर दिया है। जो इस युग के धार्मिक जीवन के मजबूत रेखा है।

(४) आर्थिक जीवन - स्वयं एवं संतान के लिए आहार जुटाना के भाव का अंकुरण आर्थिकता के जीवन रेखा है। युथबद्ध जीवों में मिलकर भोजन की तलाश के लिए जाने की वृत्ति सहकारिता के सूत्र का रेखांकित करने का अच्छा उदाहरण बन सकता है।

(५) मनोरंजनात्मक दशा इस युग में मनोरंजन की प्रचुरता मिली है। विभिन्न जीवों का सजातीय मित्रों के साथ क्रीड़ा करना तथा एक मांग के लिए लड़ना मनोरंजन का स्वरुप है। दो नर पशुओं को लड़ाकर आनन्द लेने वाले इस काल की मनोरंजनात्मक दुनिया से कैसे इनकार कर सकते है। पहाड़ों पर चढ़ाई, मिट्टी एवं जल में खेलना भी इस युग के जीवों के मनोरंजन था।

(६) विश्व को देन   इस युग ने मनुष्य को शिक्षा के लिए पंचतंत्र जैसे शिक्षा मूलक कहानियाँ लिखने के लिए स्वयं का मंच दिया है। विश्व को 'संगठन में शक्ति है' सूत्र प्रदान करने की शिक्षा इस युग के जीवों की जीवन शैली ने दी है।

         यह सामाजिक अर्थनीति सिद्धांत की विप्र युग की अवस्था है। शरीर प्रधान जीव भी कुछ चातुर्य का उपयोग करने लगे थे। बल के स्थान पर युक्ति की जीत के सूत्र के बल पर यह जीव रक्षा करते थे, जो विप्र युग कहने के पर्याप्त आधार है । सतयुग अब अधिक प्रौढ़ हुआ था।

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लेखक - श्री आनन्द किरण
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अंकल मुझे मुसलमान नहीं बनना....
        
रोता बिलखता मेरा 12 वर्षीय भतीज कृष्ण मेरे पास आकर कहने लगा कि मेरे कानों का छेदन करवाओं
अन्यथा में अगले जन्म में मुसलमान बन जाऊँगा। मैनें कृष्ण को ढढास बंधवाते कहा कि इस कपोल कल्पित
बातों पर तु विश्वास मत कर । उसका रोना फिर से जारी रहा एवं रोते-रोते मुझसे कहा कि भगवान करें आपने
कहा वह बात शत प्रतिशत सत्य हो, पर यदि मैं मुसलमान बन गया तो बहुत बड़ा पाप हो जाएगा। मेरे ज्ञान को
चुनौती देने वाला प्रश्न एक नौनिहाल के मुख सुन कर में सज्जनों की भाषा में कहा बेटे मुसलमान बनने में क्या
हर्ज है। मुसलमान ही सही कम से कम इंसान तो बन जाएंगे । इस पर कृष्ण ने तापाक जबाव दिया - नहीं नहीं
और नहीं। मैं कुछ भी बन सकता हूं लेकिन मुसलमान नहीं। मैने बाल मन की पीड़ा जानने का प्रयास किया। 
मैनें कहा कि मुसलमान बनने में क्या बुराई है ? उसने तुरन्त जबाब दिया कि बुराई तो कुछ नहीं लेकिन एक
मुसलमान लाख प्रयास करे तो भी भगवान (अल्लाह) नहीं बन सकता है। एक सच्चा भागवत अपनी कर्म साधना के    बल पर परम तत्व को प्राप्त कर सकता है।
        
        मैने कहा नहीं, नहीं ऐसा कुछ भी नहीं सत्य सर्वत्र व्याप्त है। तुम कुरान ए शरीफ़ एवं मोहम्मद साहब के संदेश को पढ़ चिन्ता मग्न मत हो, सूफी परंपरा में आध्यात्म की गहराइयों का स्मरण है। सूफ़ी अल्लाह तक पहुंच की सच्ची राह है। अंकल में इतनी बड़ी बातें तो नहीं जानता पर आज तक एक भी सूफी इस्लाम अल्लाह के रूप में गण्य हुआ हो बताओ । मेरे पास बाल मन को उदाहरण देने के लिए कोई पात्र नहीं था फिर अचानक मेरा ध्यान साई बाबा की ओर गया मैनें कृष्ण से कहा कि देखो साई बाबा इस्लाम में होते हुए भी भगवान बने। कृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा साई को ईश्वर हम भागवत धर्मियों बनाया है,  यदि वे इस्लाम का दामन ही थामें बैठे होते तो किसी ख्वाजा की तरह दरगाह में दफ़न होकर कयामत की रात की इंतजार करते होते। अपने पुरुषार्थ की बली देने को विवश होना पड़ता। भागवत धर्म ही तो पुरुषार्थ के बल पर परम तत्व तक पहुंचने की बात करता है। कृष्ण की ज्ञान भरी बातों ने मुझे कीकर्तव्यविमुढ स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया। मैंने कृष्ण को ईसा मसीह के कृपावाद, बुद्ध के शून्यवाद, महावीर की जिन धारणा, सनातन के मिथ्यावाद एवं अन्यन की अपूर्णता में उलझाना उचित नहीं समझा। मैनें कृष्ण से वेदों की प्रकृति पूजा पर प्रश्न नहीं किया क्योंकि रहस्यवाद की इस प्रथम खोज में उपस्थित ब्रह्म विज्ञान से ही तो हमें उपनिषदों का दर्शन ज्ञान प्राप्त हुआ है। इसे चरम सत्य मानने की बजाय आध्यात्मिक खोज का क्रमिक विकास मानना ही सत्य के साथ किया गया न्याय है। मैनें कृष्ण को हिन्दूओं के अवतारवाद की ओर ले जाकर प्रश्न किया कि पूर्णत्व तो जन्म लेता, पुरुषार्थ योग तो गीता के उपदेश के ध्वज तलें दब गया है। कृष्ण मेरे प्रश्न का सिधा उत्तर देने की बजाय मेरे से प्रश्न किया कि ब्रह्मा को सृजन का कार्य दिया है, विष्णु को पालन तो महेश को संहार की शक्ति प्रदान है लेकिन हिन्दू अवतारों में राक्षसों के संहारक के रुप में विष्णु को दिखाया गया है महेश को तो राक्षसों के आराध्य के रूप में दिखाया है, जो इनको मन चाह वरदान दे देते हैं । अंकल अवतारवाद तो यही पर घुटने टेक लेता है। मैनें कृष्ण की आँखों में गीता में पूर्णत्व के आगमन की घोषणा को वैष्णव एवं शैव के भेद से ऊपर विशुद्ध भागवत दर्शन को देखा जो पुरुषार्थ को दफ़न किये बिना पूर्णत्व के साक्षात्कार को स्वीकार करता है। विष्णु का कोई भी अवतार पूर्ण नहीं है क्योंकि विष्णु में ब्रह्मा एवं महेश की शक्ति नहीं समा सकती है। विष्णु में दोनो समेलित करने का प्रयास करे विष्णु अस्तित्वहीन हो जाएगा। हिन्दूओं का देवतावाद भी पूर्णत्व को छु ही नहीं सकता है। पूर्णत्व एवं पुरुषार्थ की इस जंग में धर्म की ग्लानि, अधर्म का उत्थान, साधुओं का परित्राण एवं दुष्टों का विनाश के प्रश्नों पर कृष्ण को घेरना बाल मन के साथ कपटता खेलना है। पूर्णत्व पुरुषार्थ से प्राप्त किया जाता है, तो पूर्णत्व का महासम्भुति काल पुरुषार्थ की शिक्षा देने वाला गुरु युग हैं। कृष्ण के प्रश्न भागवत धर्म जो मानव धर्म है को समझने पर बल देता है। भागवत धर्म पंथवाद एवं मतवाद से ऊपर विशुद्ध मानव धर्म है। यही साधना मार्ग आनन्द मार्ग हैं।
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लेखक -- श्री आनन्द किरण (करण सिंह) शिवतलाव

December 20, 2015 at 12:59pm ·

मुख में राम बगल में छुरी..
                     मुख में राम बगल में छुरी...। यह उक्ति सुनते ही मन में एक कपटाचारी व्यक्ति की छवि उभर कर सामने आती है। मैं उक्ति के संदर्भ में समाज से प्रश्न करना चाहूंगा कि सनातन परम्परा में वर्णित देवी - देवता सत्य व धर्म के अवतार माने जाते है फिर उन सबके बगल में हथियार क्यों है ? क्या यह मिथ्याचारी है ?  इन प्रश्नों के उत्तर देना, क्या उक्ति कहने वालों के लिए आवश्यक नहीं है ?

                         सत्य तो यह है कि हम लकीर के फकीर है, जो हमने कभी उक्ति के मूल भाव को समझने कि आवश्यकता ही नहीं समझी। साधारण जन तो यह कह कर मुक्ति पा लेगा कि हमें ज्ञान ही नहीं है, पर समाज के अग्रदूत साहित्यकार, पत्रकार, नेतृत्ववृंद, व बुद्धिजीवियों के बचने का कोई उपाय नहीं है। कल जब इस पर नूतन शोध हो जाएगा, तब वे हमारी अक्ल पर ठहाके लगाएंगे। मैं भावी पीढी को कदापि अवसर नहीं देना चाहता कि हम निपट मूढ़ है। पूर्ण नहीं तो कम से कम कुछ अंश तो भावी पीढ़ी के शोधार्थ रखे। यदि उक्ति कहने वालों से आदर्श चरित्रों से साक्षात्कार हो गया, तो उनके प्रश्नों क्या उत्तर देंगे। हमने उनके सत कर्मों फल कपट के रूप चित्रित करके दिया। अत: इस उक्ति पर शोध करना अतिआवश्यक है।


मुख शब्द का अर्थ ➡ मुख शब्द के शब्दार्थ एवं भावार्थ पर विचार करे। प्रथम मुख शब्द का अर्थ मुंह :- जीभ दांत की पंक्ति युक्त शरीर का अंग। द्वितीय मुख माने हुआ मुख्य :- सभी में से खास या प्रमुख। तृतीय मुख यानी प्रथम :- मुख पृष्ठ, मुखिया या प्रथम नागरिक। इन तीनों का गूढार्थ एक ही है। जिसका प्रथम लक्ष्य या मुख्य उद्देश्य अथवा मध्य बिन्दु यानी प्रमुख कार्य हैं। उक्ति में कहा गया है कि मुख में राम यानी जिसके जीवन का मूल उद्देश्य या लक्ष्य राम हो। जिसकी वाणी में राम विराजमान हो। राम जैसा आदर्श को जिन्होंने अंगीकार कर लिया हो।

राम शब्द का निर्माण ➡ अब राम शब्द के निर्माण के विज्ञान को समझना हो। इसका निर्माण एक नकारात्मक
शब्दावली से है। साहित्य में कहा गया है कि एक जड़ बुद्धि युक्त मानव देहधारी जीव को कुछ व्यष्टि सत् पथ पर लाने की चेष्टा कर रहे थे, उस समय उनके सभी यंत्र मंत्र व तंत्र निष्फल सिद्ध हो जाने पर नाम रूपी साधन का उपयोग किया गया। पर यह उपयोग भी उसके लिए कारगर नहीं हुआ, तब उसके दैनिक जीवन का खास तुका मरा को नाम रूप में उपयोग किया गया। उसकी निष्ठा की बुनियाद पर यह मंत्र बन गया। जब वह व्यक्ति
साधना में बैठा तब मरा मरा उच्चारण कर रहा था लेकिन जब वह योग निन्द्रा से उठा तो राम राम उच्चारण
करते हुए अपने को पाया। वही कालान्तर में मंत्र बन गया। जो लाखों व्यष्टियों के त्राण का माध्यम बना। मरा
माने मृत्यु। उसका विलोम राम माने हुआ जीवन, नूतन चेतना।

                उक्ति कहती है कि मुख में राम अर्थात जिसके जीवन का मुख्य उद्देश्य राम हो यानी समाज व प्राणी
जगत का जीवन हो तथा उसके सभी व्यवस्था उपलब्ध कराने के लिए कृत संकल्प हो। जो सर्व जन हितार्थ सर्व
जन सुखार्थ का आदर्श ग्रहण किये हो। उसके बगल में छुरी होनी चाहिए। छुरी का माने हुआ रक्षार्थ उपयोग की
गई शक्ति :- छ = छत्रक, रक्षक । उरी = औजार या हथियार छत्रपाल मानी रक्षार्थ नियुक्ति सैनिक। रक्षार्थ ही
नव दुल्हा को शस्त्र दिया जाता है। तलवार पर मायान उसकी नियंत्रक शक्ति के लिए ही डाली जाती है। शस्त्र
जब रक्षार्थ उठाये जाते है तब कल्याणकारी होते है। धर्म रक्षार्थ, समाज रक्षार्थ, नारी रक्षार्थ व गौ रक्षार्थ शस्त्र
उठाने वाले समाज नायक हुए है। इसलिए गुरू गोविन्द सिंह ने सिखों को कटार दी थी। नारी को उग्र सुरक्षा की
जरूरत होती है अतः त्रिशूल दिया जाता है। जिसकी तीनों शूलें भूत, वर्तमान व भविष्य की सुरक्षा करता है। जो
आकाश पाताल व धरती में सुरक्षा का उपाय खोज निकालता है।

बगल शब्द का भावार्थ ➡ बगल माने हुआ पास में, एक ओर, दोनों ओर, मुख्य नहीं गौण रूपेण व प्राथमिक
नहीं द्वितीयक। अगल - बगल माने दोनों ओर। मुख में राम बगल में छुरी अर्थात जिसका मुख्य उद्देश्य राम राज्य हो तथा पास में शक्ति हो। वही समाज में कुछ नूतन कर गुजरता है। इतिहास गवाह कि यदि किसी का आदर्श महान लेकिन उनके पास शक्ति नहीं है तो धरती की कठोर माटी पर कोई आदर्श फलीभूत नहीं होता है। समाज उसे हर्ष परिहास में उडा देगा। धरती का सत्य है कि कई विद्वान अपनी भावना को अपने ही आंचल में छिपाये इस धरती से विदा हो गये। कई आदर्श शक्ति के अभाव में धरती पर महान कार्य किये बिना ही काल के गोद में समा गये है। धरती पर कुछ अच्छा कर गुजरना है तो जीवन का मूल लक्ष्य रामराज्य यानी सर्वजन हितार्थ सर्वजन सुखार्थ आदर्श जो नव्य मानवतावाद की आधार की शीला पर स्थापित विश्व बन्धुत्व कायम कर सकने वाला आदर्श प्रगतिशील उपयोगी तत्व हो। तथा पास में समग्र शक्ति का संचय करे ताकि वह समाज का का चक्रनाभी सदविप्र बन सकता है। आनन्द मार्ग के संस्थापक श्री श्री आनन्द मूर्ति जी ने प्रउत का महान आदर्श दिया तथा सदविप्र की वर्दी में ही छुरी का समावेश करते हुए शक्ति संचय का आदेश दिया है ताकि एक मानव समाज बनाने की उनकी योजना पूर्ण हो सके।

मुख में राम, बगल में छुरी।
यही है, समाज की धुरी ।।
--ः-- श्री आनन्द किरण

यह सूत्र कहता है कि समाज उसी के इर्द गिर्द घूमता है जिसके मुख में राम सा आदर्श हो। राम जिसके मन
में भरत के लिए जितना स्नेह है उतना ही रावण के लिए भी है। वह भरत को स्नेहशील भेट चरण पादूका दे
सकते है, तो दुष्ट रावण के लिए भी अंगद को शान्ति दूत बनाकर भेज सकते है। राम वह चरित्र जिसके दिल में
पिता महाराजा के दु:ख एवं वचन की कीमत है उतनी ही है, जितनी साधारण धोबिन के दु:ख की। वह पिता
महाराजा के लिए जन्मभूमि अयोध्या का परित्याग कर सकता है तो धोबिन के खातिर प्राण प्रिया सीता का भी
परित्याग कर लेता है। राम राज्य अर्थात सभी के लिए कल्याणकारी व्यवस्था सर्वजन हितार्थ एवं सर्वजन
सुखार्थ प्रगतिशील उपयोगी तत्व जिसका मुख्य उद्देश्य हो एवं पास में शक्ति हो शक्ति का अर्थ अस्त्र शस्त्र की
होड नहीं शक्ति का अर्थ छुरी से है अर्थात व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जिसका उपयोग किया जाता है।
लोकतंत्र में जनमत सबसे बड़ी शक्ति है। जिसके पास में जनमत की शक्ति जिसके पास है एवं मूल उद्देश्य या
लक्ष्य राम राज्य का आदर्श हो। राम राज्य अर्थात सर्वजन हितार्थ एवं सर्वजन सुखार्थ व्यवस्था प्रउत हो। वही
इस समाज की धुरी है। समाज में यही व्यक्ति कुछ कर गुजर सकते हैं। इसलिए समाज में यदि सत व्यवस्था देना चाहते हो तो मुख में राम एवं बगल में छुरी रखनी होगी।
photo take from google.

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लेखक -- श्री आनन्द किरण (करण सिंह) शिवतलाव
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राजनीति से समाजनीति की ओर
              भारतवर्ष को आधुनिक राष्ट्र निर्माता एवं कर्णधार समाजनीति से राजनीति की ओर ले गए थे। यहाँ
भारतवर्ष अपने गौरवमय इतिहास की झलक को कोटिशः कदम पीछे छोड़ मात्र सत्ता लोलुपता की गणित में
उलझ गया। यह दृश्य, भारतवर्ष की आन, मान एवं शान को ललकार रहा है। गौरवशाली भारतवर्ष के निर्माण
के वर्तमान परिवेश उपयुक्त नहीं है। भारतवर्ष के शुभचिंतकों को इस दृश्य को बदलने के दृढ़ संकल्पित होने की
आवश्यकता है। भारतवर्ष का संचालन राजनीति की बजाए समाजनीति से हो। इस ओर पुनः बढ़ने की जरुरत
है। इस यात्रा को राजनीति से समाजनीति ओर चलना कहा जाएगा ।

             राजनीति से समाजनीति की ओर यात्रा के क्रम में हमें स्वर्णिम, सुखद एवं खुशहाल संसार मिलेगा। विश्व शांति का वास्तविक अध्याय लिखने के लिए विश्व को राजनीति से समाजनीति की ओर ले चलने में अधिक विलंब नहीं करना चाहिए। भारतवर्ष इसी नीति के बल पर विश्व गुरू की उपमा से अलंकृत किया गया था। प्राचीन भारतवर्ष की महान संस्कृति के निर्माण में समाजनीति से चलयमान भारतवर्ष की महत्ती भूमिका है। राजनीति से समाजनीति की ओर चलने के क्रम में वर्तमान व्यवस्था में निम्न आमूल चूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है।
(१) शिक्षण व्यवस्था का संचालन शिक्षाविदों के द्वारा किया जाए➡ भविष्य का समाज आज की शिक्षण
संस्थानों में निर्मित होता है। भविष्य के समाज की सुदृढ़ता एवं सुव्यवस्था शिक्षण संस्थानों के संचालन की
प्रक्रिया पर निर्भर करती है। जब तक शिक्षण संस्थान को संचालन राजनीति एवं अर्थनीति तथा इनसे प्रेरित
संस्थानों के द्वारा होगा, तब तक समाज की व्यवस्था सफल एवं सुफल नहीं हो सकती है। इसलिए एक स्पष्ट
नीति होनी चाहिए कि शिक्षा व्यवस्था का संचालन राजनीति एवं अर्थ शक्ति से मुक्त आध्यात्मिक शिक्षाविदों के द्वारा हो। यह शिक्षाविद् शिक्षार्थी को विश्व उच्च मानवीय मूल्यों के द्वारा दिखाएगें। इनके द्वारा शिक्षार्थी की सोच को नव्य मानवतावादी एवं चिन्तन सार्वभौमिकता सूत्र में परिणीत करेंगे। जिससे शिक्षार्थी भविष्य में
समग्र एवं पूर्ण मानव बनेगा। उसकी वफादारी किसी राज शक्ति के प्रति नहीं समाज के प्रति होगी एवं व्यवस्था
का संचालन समाजनीति के बल पर होने लगेगा। आज के परिदृश्य में शिक्षा व्यवस्था राजनैतिक सत्ताधारी के
हाथों की कठपुतली बनी हुई है। इस परिस्थिति जो शिक्षक का अधिकांश ध्यान समाज निर्माण की बजाए
राजनैतिक दल के हितों को साधने में अधिक रहता है। वह सर्वश्रेष्ठ के खिताब से नवाजा जाता है। शिक्षण
व्यवस्था को अर्थ शक्ति के हवाले करना भी उचित रास्ता नहीं है। आजकल शिक्षण प्रक्रिया को धन कमाने के
साधन के रुप में देखा जाना तथा शिक्षक गण वेतन एवं भत्तों के गणित उलझे रहना, निश्चित रूप से सोचनीय
विषय है। ऐसे व्यवस्था आदर्श मानव समाज का निर्माण नहीं कर सकती है। राजनीति से समाजनीति की ओर
बढ़ते कदमों को प्रथम साहरा शिक्षण संस्थानों को आध्यात्मिक नैतिकवान एवं सामाजिक शिक्षाविदों के हाथों
सौपना।

(२) अर्थनीति एवं राजनीति का पृथक्करण किया जाना ➡ राजनीति के मूल में सेवा जबकि अर्थनीति के मूल में
धनोपार्जन विद्यमान है। इसलिए दोनों के क्षेत्राधिकार अलग-अलग होते हैं। दोनों शक्तियों को एक सत्ता में
निहित रहने से सामाजिक न्याय व्यवस्था ठीक से कार्य नहीं करती है। समाज व्यवस्था के सुचारु संचालन के
लिए राजनीति एवं अर्थनीति का पृथक्करण नितांत आवश्यक है। इससे राजनीति का मूल सेवावृति पेशावृति में
रूपांतरित नहीं हो। आजकल इस व्यवस्था के अभाव में राजनीति एक पेशा बन गया था। जिसमें समीकरणों के
संतुलन के नाम एक व्यवसायिक प्रक्रिया चलती है। जो राजनेता जनता से सेवा करने का वचन देकर राजनीति
में उतरा था। वह दूषित व्यवस्था के चलते धन एठन की विद्या में निपुण हो जाता है। जिससे सार्वजनिक जीवन में अवांछित हथकंडे भ्रष्टाचार, रिश्वत एवं भाईभतीजावाद का बोलबाला शुरु हो जाता है। जिस रोकने सभी कानून उपाय निष्फल सिद्ध होते हैं। व्यक्ति कितना भी अच्छा क्यों न हो जब तक व्यवस्था को दीमक लगा हुआ है। वह आशानुकूल फल नहीं दे सकता है। आदर्श व्यवस्था के लिए राजनीति एवं अर्थनीति का पृथक्करण का सिद्धांत आवश्यक है।

(३) आर्थिक जगत में प्रजातंत्र की स्थापना करना ➡ वर्तमान युग लोकतंत्र का युग है। विश्व के अधिकांश राष्ट्रों में राजनैतिक प्रजातंत्र चल रहा है। लेकिन आर्थिक जगत में प्रजातंत्र दिखाई नहीं देता है। लोकतंत्र की परिभाषा
जनता का, जनता के द्वारा एवं जनता के लिए को सही अर्थों में प्रतिफलित करने के लिए आर्थिक प्रजातंत्र
आवश्यक है। व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में प्रजातंत्र स्थापित हो जाने मालिक एवं मजदूर के शोषण तंत्र का अंत हो
जाएगा। निर्णय लेने में मजदूर की भागीदारी उस प्रतिष्ठान के प्रति मजदूर के मन में अपनापन जगाएगा। इससे कारीगरों की कार्य कुशलता भी सुरक्षित एवं संरक्षित रहती है। यह प्रशासनिक अधिकारियों की कुशलता को लालफिताशाही की भेंट नहीं चढ़ने देता है। किसी भी समाज की सुव्यवस्था के लिए राजनैतिक जगत की अपेक्षा आर्थिक जगत प्रजातंत्र की आवश्यकता है। प्राचीन भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था एक आर्थिक प्रजातंत्र की प्रक्रिया थी। जिसे रामराज्य के नाम से अलंकृत किया गया था। आदर्श समाज के लिए आर्थिक प्रजातंत्र एक
न्यायपूर्ण व्यवस्था का नाम है।

(४} प्रगतिशील उपयोग तत्व मूलक अर्थव्यवस्था की आवश्यकता ➡ समाजनीति की राह के बढ़ रही सभ्यता
को प्रगतिशील उपयोग तत्व अर्थव्यवस्था को धारण करना होता है। जिस समाज के आर्थिक मूल्य दूषित होते
वह समाज कितना भी अच्छा होने पर भी धराशायी हो जाता है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने व्यक्ति की दशा
एवं दिशा का गलत निर्धारण कर समाज को अर्थव्यवस्था प्रदान की है। वर्तमान में प्रचलित अर्थशास्त्र कहता है
कि मनुष्य एक आर्थिक प्राणी है। यही से अर्थव्यवस्था गलत रास्ते पर बढ़ जाती है । वस्तुतः मनुष्य एक
आध्यात्मिक प्राणी हैं। अर्थ उसके जीवन का एक हिस्सा है। जो उसकी सर्वांगीण गति का सहायक पहलू है। जब
मनुष्य को एक आध्यात्मिक लक्ष्यधारी नागरिक मानकर अर्थव्यवस्था का निर्माण किया जाता है। वह
प्रगतिशील उपयोग तत्वों को अभिधारण करती है। यह अर्थ व्यवस्था राजनीति मुक्त आर्थिक प्रजातंत्र की
स्थापना करता है। जहाँ समाज का संचालन समाज नीति से होता है।

(५) समाज की प्रकृति नव्य मानवतावादी होना आवश्यक ➡ राजनीति से समाजनीति की ओर चलयमान
समाज की स्वभाव एवं प्रकृति नव्य मानवतावादी होना एक आवश्यक घटक है। इसके अभाव में व्यक्ति की
प्रगति अवरुद्ध हो जाती है तथा अर्थव्यवस्था रुग्ण हो जाती है। यह समाजनीति का नहीं राजनीति का
क्षेत्राधिकार है। समाज की व्यष्टिगत एवं समष्टिगत चिन्तन एवं सोच नव्य मानवतावाद के सांचे में होने से
समाज की व्यवस्था न्यायपूर्ण रहती है। वर्तमान में स्मृतिकारों ने समाज व्यवस्था पर बहुत अधिक चिन्तन किया है लेकिन मनुष्य की सोच निर्माण पर ध्यान केन्द्रित नहीं किया। यदि ऐसा किया जाता तो समाज व्यवस्था में त्रुटिपूर्ण होने पर भी इतनी अधिक क्षति नहीं होती।

(६) मनुष्य का जीवन लक्ष्य, आनन्द की उपलब्धि ➡ स्मृति शास्त्र का लक्ष्य मात्र समाज व्यवस्था को सुदृढ़
करना एवं समाज एवं व्यक्ति में संबंध स्थापन्न तक ही नहीं होना चाहिए। समाजनीति से चलयमान व्यवस्था
मनुष्य को जीवन लक्ष्य से परिचित करवाना है। धर्मशास्त्र में बताया गया मनुष्य के जीवन का लक्ष्य सत्य से
साक्षात्कार करना बताया गया है। आदर्श स्मृति सत्य से साक्षात्कार की अवस्था आनन्द की उपलब्धि को जीवन लक्ष्य बताता है। समाजनीति से चलयमान समाज एवं देश व्यष्टि को आनन्द की ओर ले चलना। व्यष्टिगत आनन्द में वृद्धि से समष्टि जगत प्रगतिशील एवं सर्वांगीण कल्याण एवं सुख का निर्माण होता है।


                      राजनीति से समाजनीति की ओर यात्रा की परिपूर्णता समाज व्यवस्था में जीवन के सभी पक्षों का समावेश कर एक परिपूर्ण मानव का निर्माण करना है। पूर्णत्व की उपलब्धि एक आदर्श सामाजिक अर्थनीति की विषय वस्तु भी है।

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 Writer:- Karan Singh Rajpurohit ( Anand Kiran)
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प्रउत विचारधारा बनाम भारतीय राजनैतिक दल
हम प्रउत विचारधारा के साथ सभ्यता के स्वर्णिम युग में प्रवेश करने जा रहा है। इस विचारधारा का जन्म भारतवर्ष की धरती पर हुआ है। इसलिए विश्व सभ्यता प्रथम अध्याय में भारतवर्ष में लिखकर आगे बढ़ते हैं। वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था को संचालित करने वाले राजनैतिक दलों के सिद्धांत एवं नीतियों से उभरने वाली भारतवर्ष की तस्वीर को देखकर हम प्रउत द्वारा बनाए जाने वाले भारतवर्ष में प्रवेश करते है। प्रउत विचारधारा एक विशुद्ध नूतन विचारधारा है। जिसका राजनैतिक दलों की पृष्ठभूमि एवं कार्यप्रणाली से दूर-दूर तक का कोई संबंध नहीं है, प्रउत विचारधारा को लेकर चलने वाले योद्धाओं को भारतवर्ष के राजनैतिक परिदृश्य सुस्पष्ट समझकर एवं देखकर प्रउत व्यवस्था को सफलतापूर्वक स्थापित करने के समर के लिए कमर कसनी हैं। यह सत्य है प्रउत विचारधारा एक विश्व सरकार का ढांचा लेकर चलती है। प्रउत विचारधारा को
स्थापित करने के लिए सदविप्रों को विश्व सरकार परिवेश तैयार करना होगा। यह नव्य मानवतावादी सोच पर आधारित आध्यात्मिक मूल्यों द्वारा संचित सामाजिक आर्थिक व्यवस्था है। इसके लिए न्यूनतम परिवेश विश्व सरकार की अवधारणा है। विश्व सरकार की अवधारणा प्रस्तुत करने से पूर्व विश्व के विभिन्न देशों में चलयमान सामाजिक आर्थिक परिदृश्य एवं इसको संचालित करने वाले राजनैतिक परिवेश का अध्ययन करते हैं। इसी क्रम में प्रथम शुरूआत भारतवर्ष के राजनैतिक दलों के सिद्धांत, कार्य पद्धति एवं विचारधारा पर दृष्टिपात कर करते हैं। यहाँ एक बात याद रखनी होगी कि प्रउत व्यवस्था इनका विकल्प नहीं है अपितु प्रउत व्यवस्था एक संकल्प है। जो सर्वे भवन्तु सुखिन: के भारतवर्ष का निर्माण करेगी।
भारतवर्ष विश्व गुरु था एवं पुनः विश्व गुरु की मंजिल को प्राप्त करना चाहता है तो प्रउत विचारधारा की स्वीकार्यता अनिवार्य है। प्रउत विचारधारा अर्थव्यवस्था के प्रगतिशील आयामों की द्योतक है। यह आध्यात्मिकता पर आधारित विश्व की प्रथम एवं एकमात्र आर्थिक सिद्धांत है। यह विचार प्रकृत विज्ञान के अनुकूल समाज की गतिधारा एवं विचित्रता को अंगीकार कर सम सामाजिकता की आधार आर्थिक सूत्रों को परिभाषित करता है। इस अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता यह है यह सर्वजन के हित एवं सर्वजन सुख पर आधारित अर्थव्यवस्था है।
भारतवर्ष के इतिहास, भूगोल, प्राकृतिक व आर्थिक संपदा तथा सभ्यता व संस्कृति में विद्यमान तथ्यों को अवलोकन करने से ज्ञात हुआ कि इस धरा पर भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक सम्पदा से समृद्ध राष्ट्र था, हैं
एवं भविष्य में भी इस विपुल संपदा का धनी रहने की संभावना स्पष्ट दिखाई देती है। राजनैतिक इच्छाशक्ति की विवेकहीनता के कारण समृद्ध राष्ट्र को कंगाल सदृश बना दिखाई दे रहा है वस्तुतः भारतवर्ष कभी भी दरिद्र न था, है एवं रहेगा। मात्र सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक परिदृश्य सही नहीं होने के कारण भारतवर्ष को इस घृणित उपमा को धारण करना पड़ रहा है।
स्वतंत्र भारत के राजनैतिक परिदृश्य का अवलोकन कर हम प्रउत विचारधारा की स्वीकार्यता अनिवार्यता पर विचार करते हैं।

(1) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सन् 1857 की सैनिक क्रांति एवं कतिपय समाज सुधार आंदोलनों ने शिक्षित
भारतीयों के मन में अपने अधिकार एवं स्वाभिमान का जागरण किया। इन युवाओं संगठित होने की आवश्यकता महसूस की तथा अंग्रेजों ने संभावित विद्रोह को टालने के लिए शिक्षित भारतीय के संगठन की राय के आधार पर कतिपय सुविधा भारतीय समुदाय को उपलब्ध करवाने की आवश्यक महसूस की। जिसकी बदौलत सन् 1885 को भारतवर्ष को कांग्रेस पार्टी मिली। अंग्रेजों के पास संवैधानिक माध्यम से परिवर्तन राह देने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। ताकि वे अपने राज्य निर्विध्न चला सके। यदि कांग्रेस का आंदोलन आर्थिक स्वाधीनता लेकर चला होता तो अंग्रेज भी चले जाते एवं भारत आर्थिक समृद्धि की राह पर बढ़ जाता। कांग्रेस के राजनैतिक सुधार से स्वाधीनता की यात्रा के क्रम में एक ओर साम्प्रदायिक राजनीति का जन्म
मुस्लिम लीग व हिन्दू महासभा के रुप में हुआ। दूसरी ओर अहिंसा की हठी धारणा के विरुद्ध क्रांतिकारी, खून देने एवं लेने विचारधारा का जन्म हुआ। इसके स्थान पर आर्थिक आजादी की लड़ाई लड़ी जाती तो एक सुदृढ़ भारत प्राप्त होता। स्वाधीनता के बाद एक राजनैतिक पार्टी के रुप में कांग्रेस ने मिश्रित अर्थव्यवस्था के नाम एक छल
किया तथा यूरोपीय दूषित आर्थिक चिन्तन को भारतवर्ष दिलोदिमाग में भरने का प्रयास साबित हुआ। मिश्रित
अर्थव्यवस्था को भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में निहित आर्थिक मूल्यों एवं उसकी संचालन पद्धति से सिंचित
करने का प्रयास एक समृद्ध भारतवर्ष की ओर ले जाता। जन गण मन में नैतिकता का संचार नहीं करने कारण
राष्ट्र नेता भक्षक बनते गए तथा कांग्रेस जनता की साख खोती गई। स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस अपनी दोषपूर्ण सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक नीतियों के चलते जातिवादी, क्षेत्रवादी एवं साम्प्रदायिक विचारधारा के समक्ष अपना अस्तित्व नहीं बसा पाई। प्रथम बार जब कांग्रेस के हाथ से निकल कर तमिलनाडु क्षेत्रीयता की भेंट चढ़ा, तब कांग्रेस ने मंथन किया होता तो अवश्य काम बनता। कांग्रेस की दीर्घ निंद्रा ने भारतवर्ष अपने हाथ से
खिचकने दिया। लोकतंत्र जन आकांक्षाओं की पूर्ति के सिद्धांत पर कार्य करता है। कांग्रेस जन आकांक्षाओं को समझने में निष्फल रही। यदि कोई दल जन आकांक्षाओं पर समाज एवं राष्ट्र हित की तरह मोड़ देता है तो वह दल राजनैतिक अस्तित्व कुछ समय के लिए बसा सकता है। जन आकांक्षाओं में सर्वजन हित एवं सर्वजन सुख की
अभिलाषा में सिंचित करने से आदर्श व्यवस्था का निर्माण किया जा सकता है।

(2) कम्युनिस्ट पार्टी भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान यूरोप की साम्यवादी विचारधारा ने युवाओं को प्रभावित किया। कांग्रेस के समक्ष इस अधिक सफलता प्राप्त नहीं हुई। केरल एवं बंगाल के लोगों का हृदय परिवर्तन करने में सक्षम हुए लेकिन यह अपने मूल आदर्श पर कभी भी काम नहीं कर सकी। कार्ल माक्स की रिलिजन से दूर रहने का संदेश भारतीय कम्युनिस्टों के समझ में नहीं आया तथा उन्होंने इसे धर्म और आध्यात्मिक के विरुद्ध खड़ा कर दिया। भारतीय जनमानस जिसने आध्यात्मिक को प्राण धर्म के रुप में अंगीकार किया हुआ है, उसने इसे आत्मा से अंगीकार नहीं किया, जिसके चलते साम्यवादियों का यह आंदोलन मुह के बल गिर गया। यदि यह भारतवर्ष में सफलीभूत हो जाता तो विश्व सभ्यता का अस्तित्व संकटग्रस्त हो जाता। इसके विपरीत साम्यवादी आंदोलन आध्यात्म एवं धार्मिक मूल्यों के साथ छेड़छाड़ नहीं करता तो धराशायी हो रही कांग्रेस के समक्ष मजबूत विकल्प बनकर खड़ा रहता।

(3) समाजवादी विचारधारा पर आधारित जनता पार्टी, जनता दल इत्यादि नेहरू जी की नीतियों से
असंतुष्ट कतिपय कांग्रेस नेताओं तथाकथित समाजवाद की ओर आकृष्ट हुए इसका सबसे बड़ा विस्फोट जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में फूटा। यहाँ कांग्रेस को पदच्युत कर सत्ता पर आसीन होने की महत्वाकांक्षा ने विभिन्न विचारधाराओं के मिश्रण करने की भूल की गई। यह भूल अल्पकाल में ही जनता पार्टी को तीन तेरह कर दिया। जनता दल समाजवाद की बजाए जातिगत गणित में उलझ गया और परिवारवाद व व्यक्तिवाद में बट गया। सामाजिक समरसता का सिद्धांत स्वार्थ में खो गया। समाजवादी सच्चे अर्थों में समाजवाद की लड़ाई लड़ते तथा सत्ता के गणित में नहीं उलझते तो अवश्य ही सत्ता देर से प्राप्त करते लेकिन आंदोलन अपने मूल उद्देश्य में सफलहोता। इनकी यह भूल समाजवाद के असामयिक मृत्यु का कारण बना।

(4) साम्प्रदायिक, जातिवादी एवं क्षेत्रवादी राजनीति अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की नीति तथा कांग्रेस की तुष्टीकरण की नीति ने भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिक राजनीति को प्रवेश दिया। अंबेडकर की आरक्षण सोच एवं कांग्रेस के जातिगत चुनावी गणित ने भारतीय राजनीति जातिवाद राजनीति को खड़ा होने दिया। राज्य एवं भाषाई नीति ने क्षेत्रवाद की राजनीति को पनपने का अवसर दिया। यह राजनीति कितनी
सफल रही यह बड़ा प्रश्न नहीं रहता है। बड़ा प्रश्न यह है कि इसने भारतवर्ष की महान सभ्यता एवं संस्कृति का
कितना नुकसान किया। राजनीति में इन तत्वों का पनपना लोकतंत्र पर मूर्खतंत्र के प्रभावी होने का परिणाम है। यदि कांग्रेस ने अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की नीति का प्रति उत्तर तुष्टीकरण से नहीं दिया होता तो हमारे संस्कार साम्प्रदायिक सोच को दफना देते। ठीक इसी प्रकार अंबेडकर की आरक्षण की बैसाखी के सामने कांग्रेस नतमस्तक हुए बिना समाज संगठन को मजबूत करने पर ध्यान देती तो अवश्य ही जातिवाद जहर राजनीति में नहीं घुलता। राज्य के संदर्भ भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक परंपरा के आधार पर आर्थिक इकाइयों का गठन किया जाता तो अवश्य एक मजबूत भारत का निर्माण करने में कांग्रेस सफल होती। मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा सभा, शिवसेना, बहुजन समाज पार्टी तेलुगू देशम् द्रविड़ मुनेत्र कडगम, अकाली दल , असमगण परिषद, नागाफंड इत्यादि इत्यादि राजनैतिक दल की मार भारतीय राजनीति को झेलनी पड़ रही है। यह बड़ी सोच के समक्ष स्वतः ही धूमिल होती नज़र आ रही है।

(5) राष्ट्रवादी एवं हिन्दूत्ववादी भारतीय जनता पार्टी पूर्व कांग्रेसी एवं हिन्दू महासभा के नेता डॉ केशवराव बलिराव हेडगेवार द्वारा पौषित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनैतिक शाखा जनसंघ अब भारतीय जनता पार्टी हिन्दूत्व एवं राष्ट्रवाद को लेकर चलती है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के दर्शन को लेकर चलने वाली भाजपा भारतीय राजनीति में इकलौती पार्टी हैं, जो अपनी अलग राजनीति विचारधारा को कारण
चर्चित रही है। इस पर साम्प्रदायिकता आरोप सदा लगा रहता है। वर्तमान में इसके नेतृत्व को हिटलर शाही नीति के अनुगामी कहकर आलोचना की जाती है। इस पार्टी के सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि शेष सभी का भारतीयकरण करना चाहती है लेकिन अर्थव्यवस्था के दोषपूर्ण सूत्र को कांग्रेस की भाँति ज्योंह का त्योंह धारण करके रखा है। यह दोष ही इस असफल करने में काफी है। अन्य दोष यह हिन्दूत्व के नाम पर भावजड़ता (Dogma) को बलपूर्वक पकड़ रखा है। यह एक स्वयं संघवादियों गले की हड्डी बन जाएगा। यह युग विश्व एक्कीकरण की ओर बढ़ रहा है। यहाँ राष्ट्रवाद को आर्थिक इकाई के रुप में परिभाषित कर लेकर चले तब तक स्वीकार्य हैं लेकिन जीवन मिशन एवं जीवन लक्ष्य के रुप लेकर चलना स्वयं भारतीय संस्कृति को आत्महत्या के विवश करने जैसा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यह नीति भारतवर्ष की सभ्यता व संस्कृति के विपरीत जा रही है। इसके दुष्परिणाम जातिगत जहर उगलते आंदोलन एवं भारतीय मूल निवासी के नाम संगठित जन आर्य सभ्यता को तहस नहस करने को उतारू के रुप में दिखाई दे रहे हैं। कल तक जो तलवार इन्होंने हिन्दूत्व एवं राष्ट्रवाद को मजबूत करने के लिए धारण करवाइ थी। वही तलवार समाज व्यवस्था को ठीक नहीं करने के कारण वह जातिवाद एवं प्रदेशवाद की भेंट चढ़ रही है। भारतीय राजनीति का उपर्युक्त स्वरूप लगभग एक जैसी लकीर को थामें फकीर बन रहा है। कांग्रेस व
भाजपा एक ही सट्टे बट्टे है। किसी से भी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में निहित महान आदर्श एवं आर्थिक समृद्धि की कहानी नहीं लिखी जाएगी । 

यह कार्य करने के लिए समाज के दुख दर्द को अपने कंधे पर धारण करने के लिए प्राउटिस्टों को आगे आना होगा। यह प्रगतिशील सोच ही भारतवर्ष का स्वर्णिम भविष्य निखार सकती है।

प्रउत विचारधारा के समक्ष चुनौतियां प्रउत व्यवस्था को भारत का ताज फूलों का ताज के रुप में नहीं मिलने वाला है। प्रउत व्यवस्था को कांटों ताज मिलेगा स्वयं को अपनी कर्म कुशलता से सुन्दर फूलों की बगिया लगानी पड़ेगी। उस बगिया से सुगंधित फूलों को चुन चुन कर समाज के लिए सुन्दर आसन बनाना
होगा। प्रउत व्यवस्था को मात्र आर्थिक समस्या से ही नहीं सामाजिक, धार्मिक राजनैतिक समस्याओं का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा। कई अन्तराष्ट्रीय समस्या भी प्राउटिस्टों रास्ते में खड़ी होगी। यह सभी हमें राजनीति व्यवस्था को विरासत में देने वाली है।
उपर्युक्त समस्याओं का होने पर भी सदविप्रों को पांव पीछे रखने की जरूरत नहीं है। सदविप्रों को धर्म की जयमाला प्रदान है। उसे धारण कर बाधाओं एवं विपदाओं को चूर्ण विचूर्ण करने की शक्ति प्रदान है। यह शक्ति सदविप्रों के मजबूत पांवों तले कचूमर हो जाएगी। सदविप्रों स्वयं में साहस भरने की जरूरत है। स्वयं के पैरों पर
खड़ा होना होगा। दृढ़ इच्छा शक्ति का जागरण कर जगत की हर समस्या को अपने कंधों पर। लेकर चलना होगा। नूतन उषा सदविप्रों की होगी। भारत की वर्तमान राजनैतिक तस्वीर बदलकर नूतन सूर्योदय करेगी।

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लेखक ➡ श्री आनन्द किरण
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(यह लेख मौलिक, अप्रकाशित एवं स्वलिखित हैं)
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भविष्य का स्वर्णिम भारत
भारतवर्ष स्वर्णिम भविष्य की ओर बढ़ रहा है। इस ओर बढ़ रहे भारत के समक्ष एक प्रश्न है कि इसका मानक मापक क्या होगा? इस प्रश्न का उत्तर जाने बिना, विषय  पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता है। विश्व की समस्त सभ्यता एवं संस्कृति का अवलोकन एवं मूल्यांकन करने पर ज्ञात होता है कि प्राचीन भारतवर्ष के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक मूल्य उपरोक्त मानदंड के अनुकूल है। भारतवर्ष जब  उपर्युक्त मानदंड को प्राप्त कर लेगा अथवा इससे भी आगे बढ़ जाएगा, तब उस अवस्था को स्वर्णिम भारत नाम दिया जाएगा
         
प्रत्येक भारतीय के मन में स्वर्णिम भारत देखने की चाहत है लेकिन वर्तमान युग की सरकारों की  नीतियों सेभारतवर्ष का यह स्वप्न पूर्ण नहीं हो सकता है। इसलिए यह प्रश्न ओर भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि स्वर्णिम भारत का निर्माण कौन करेगा तथा भारतवर्ष अपने स्वर्णिम भविष्य की दिशा में कितना आगे बढ़ा है ?  इन प्रश्नों के उत्तर पाने का प्रथम प्रयास वर्तमान भारतवर्ष के निर्माण का दावा करने वाले राष्ट्रीय राजनैतिक दलों
की कार्य पद्धति से करता हूँ। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को देश की आजादी के बाद 60 वर्ष तक देखा गया लेकिन वे
स्वर्णिम भारत का निर्माण नहीं कर सके। भारत जनता पार्टी का भी लगभग दस वर्ष का कार्यकाल देखा गया है लेकिन इनकी नीतियां एवं सिद्धांत भी भारतवर्ष का स्वर्णिम अध्याय लिखने में अक्षम हैं।
कुछ राजनैतिक विचारधारा बरसाती पानी के बुलबुल की भाँति है, जिसका जीवन काल छंद पल का है तथा अन्यन बोझ है, जिसे भारतवर्ष ढोहता आ रहा है। इसलिए भारत के स्वर्णिम अध्याय को कई ओर खोजना होगा।अनुसंधान की यात्रा के क्रम में तथाकथित सांस्कृतिक मूल्यों के जागरण करने वाली संस्थाओं की शल्यचिकित्सा
करते हैं। साम्प्रदायिक एवं मजहबीय व्यक्ति का निर्माण कर यह संस्थाएं भारतवर्ष के स्वर्णिम स्वरूप को निखारने में अक्षम हैं। एक विकलांग विचारधारा भारत के साथ न्याय नहीं कर सकती है। इसलिए तथाकथित इन संस्थाओं से आशा लगाना मूर्खता अथवा नादानी है।

यह सत्य है कि स्वर्णिम भारत का निर्माण किसी अलौकिक चमत्कार अथवा मायावी शक्ति के बल पर नहीं हो
सकता है। इसलिए विशेष साधना की आवश्यकता है। यह भी सत्य है कि स्वर्णिम भारत का निर्माण किसी
कारखाने अथवा कार्यशाला में नहीं होने वाला है। भारत का उज्ज्वल भविष्य धरती की कठोर माटी पर उरेखित
करना है। इसलिए यह संदेह हो सकता है कि उपर्युक्त आलोच्य अध्याय लिखा जाएगा अथवा नहीं? जिस अध्याय को स्वयं परम पुरुष का आशीर्वाद है, वह कदापि असंभव नहीं हो सकता है।

आखिर कौन करेगा स्वर्णिम भारतवर्ष का निर्माण? यह प्रश्न स्वभाविक है। भारतवर्ष की प्राचीन संस्कृति का निर्माण जादुई छड़ी से नहीं हुई थी। उसका निर्माण आध्यात्मिक नैतिकता के बल पर हुआ था। अत: समस्या एकदम सुस्पष्ट हो जाती है कि स्वर्णिम भारत के निर्माण की योजना आध्यात्मिक नैतिकता के बल पर संभव है।
इसको मध्य नज़र रखते हुए भारतवर्ष की आध्यात्मिक संस्थाओं की पाठशाला में प्रवेश करकर देखते हैं, कई यहाँ तो स्वर्णिम भारत का निर्माण  तो नहीं हो रहा है। तथाकथित बलात्कार के आरोपी
एवं दोषी संत समुदाय को देखकर साधारण से साधारण जन भी कह सकता है कि स्वर्णिम भारतवर्ष का निर्माण यह तथाकथित धर्म के ठेकेदार नहीं कर सकते हैं। ओशो की नैतिकता विहिन आध्यात्म से आश लगाना ,
बिन बादल के बारीश की आश लगाने जैसा है। स्वर्णिम भारत की तस्वीर वही दिखा सकता है, जिसमें आध्यात्मिक नैतिकता तथा समाज के प्रति उत्तरदायित्व बोध कराने वाले सामाजिक आर्थिक सिद्धांत होगे तथा उसका दृष्टिकोण सामाजिक होगा। वहीं स्वर्णिम भारत निर्माण कर सकता है। हम वहाँ पहुँच गए हैं, जहाँ से  स्वर्णिम भारतवर्ष का ध्वज स्पष्ट दिखाई दे रही है। आध्यात्मिक, नैतिकता, कर्मशीलता एवं सामाजिक दृष्टिकोण के बल पर ही स्वर्णिम भारतवर्ष का निर्माण होगा,  
जब तक आध्यात्मिकता की पाठशाला में जगत का मिथ्या रुप पढ़ाया जाता है तब तक आध्यात्मिकता पलायनवाद का नाम बन जाता है। इससे व्यष्टि का सामाजिक दृष्टिकोण नकारात्मकता से पौषित होता है। जिससे कर्मशीलता निष्कर्मणीयता में परिवर्तित होने लगती है। उसका परिणाम यह निकलता है कि व्यष्टि का भाव जगत एवं वस्तु जगत के बीच सामंजस्य नहीं रहता है तथा पल-पल झूठ का आलंबन करता है।
नैतिक मूल्य यहाँ शर्मसार हो जाते है तथा आध्यात्मिक समाज पर बोझ बन जाती है। यह चिन्तन  स्वर्णिम भारतवर्ष को ध्वस्त कर देते हैं। इसलिए यहाँ यह उक्ति लिखना अधिक उचित है कि

हमें तो लूटा अपनों ने, गैरों में क्या दम था।
मेरी भी किश्ती वहाँ डुबी, जहाँ पानी कम था।।
    हम भारतवर्ष की दुर्दशा के लिए कभी अंग्रेजों को  तो कभी तुर्क-अफगानों को जिम्मेदार ठहराते है। कभी भी हमने स्वयं अपने गेरेबान में नहीं झांका। हमारा स्वयं का चिन्तन ही दोषपूर्ण रहा जिसकी बदौलत हम पराधीनता के अभिशाप को वरण किया। प्राचीन भारतवर्ष का  धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष के पुरुषार्थों की सिद्धि का चिन्तन जगत के मिथ्या सिद्धांत को अंगीकार करने से सफल नहीं हो सकता है। यही चिन्तन हमारी अधोगति का जिम्मेदार है।

श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने ब्रह्म सत्य एवं जगत के आपेक्षिक सत्य के सूत्र का प्रतिपादन कर एक क्रांतिकारी
युग का शंखनाद किया है। उन्होंने भविष्य की सभ्यता के लिए छ: सूत्री फार्मूला प्रदान किया है।
आध्यात्मिक दर्शन, सामाजिक आर्थिक सिद्धांत, सामाजिक दृष्टिकोण, सुव्यवस्थित साधना पद्धति,
त्रिशास्त्र एवं पथ प्रदर्शक। यह सूत्र भविष्य के स्वर्णिम भारतवर्ष की ओर ले चलते हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित आनन्द मार्ग दर्शन एक वैज्ञानिक आध्यात्मिक दर्शन है। प्रगतिशील उपयोग तत्व एक व्यवहारिक सामाजिक आर्थिक सिद्धांत है। नव्य मानवतावाद एक समग्र सामाजिक दृष्टिकोण है। आनन्द सूत्रम, नमो शिवाय शांताय, नमामी कृष्णम् सुन्दरम्, सुभाषित संग्रह, आनन्द वचनानामृतम, कणिका में आनन्द मार्ग दर्शन, कणिका में प्रउत, शब्द चयनिका, मानव समाज इत्यादि इत्यादि एक विस्तृत त्रिशास्त्र है तथा  श्री श्री आनन्दमूर्ति जी के रुप में विश्व को पथ प्रदर्शक मिलना सभ्यता का सौभाग्य है।
        स्वर्णिम भारतवर्ष स्थापित करने हेतु श्री प्रभात रंजन सरकार द्वारा विश्लेषित सदविप्र समाज
एवं राज व्यवस्था  को जानना, समझना एवं आत्मसात करना आवश्यक है।
स्वर्णिम भारतवर्ष का ध्वजारोहण करने में अब अधिक प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं है।हे मनुष्य कमर कस ले प्राउटिष्ट यूनिवर्सल के संग सुखद, सुन्दर एवं प्रगतिशील विश्व का निर्माण करे।
साथ  भारतवर्ष में एक नये स्वर्णिम युग का ध्वजारोहण करे।
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 लेखक श्री आनन्द किरण
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(यह लेख मौलिक, अप्रकाशित एवं स्वलिखित हैं)
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एक भक्त रोया•••
🔴👉 प्रात: स्नान करके जैसे ही अपने कक्ष में आया मोबाइल फोन की घंटी बजी, मोबाइल उठाकर देखा तो एक चिर परिचित बंधु का फोन था। यद्यपि हम दोनों आपस में कभी नहीं मिले हैं लेकिन हम दोनों के बीच एक अपनापन डोर अवश्य बंधी है। अभिवादन के  बाद एक आनन्द संगीत की एक लाइन के साथ दूसरी ओर से भक्त भभक भभक के रोने की आवाज आने लगी। मैं कुछ कहता उससे पहले वे बोल उठें में जानता हूँ कि प्रियतम कई नहीं गए हैं लेकिन उनकी भौतिक अनुपस्थित तो खलती है।  फोन में एक बाल आवाज भी सुनाई दी, नानाजी मत रोइए,, नानाजी मत रोइए।  मैं भक्ति रस के अथाह सागर के समक्ष नतमस्तक गुरु कृपा ही केवलम का उच्चारण करता रहा। उनके सामान्य होने तक मैं कुछ नहीं बोल सकता था। फोन रखने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। अब मुझे साधना करनी थी। भक्ति रस के अथाह सागर के समक्ष मेरे सभी आध्यात्मिक प्रयास बौने लग रहे थे। येनकेन प्रकारेण स्वयं को साधना के लिए तैयार किया। कुछ पल साधना, आसन एवं दैनिक कर्म के बाद कार्यशाला गया। वहाँ चलती क्लास में उनका ख्याल आया। सोच अब सामान्य हो गए होंगे। उनके नम्बर मिलाया। फोन उठाते ही बातचीत प्रारंभ हुई। जैसे ही मैंने भक्त मन में झांका तो बाहर से सामान्य लग रहे थे परन्तु अन्दर वही भावधारा बह रही थी। अब मेरे पास एक ही रास्ता था कि उनको दुनियादारी में ले जाऊँ। कुछ दुनियादारी की बातें पूछने बाद उस रहस्य को जानना चाह तो महसूस किया कि मछली को पानी दूर हटाना कितना मुश्किल होता होगा। फिर भी मछुआरा अपनी जठराग्नि से मजबूर होकर एक निर्दयी कार्य करता है। हम तो उस जगत में रहते हैं जहां मीरा को प्रियतम की मोहब्बत से हटाने के लिए विषपान करवाया गया। भक्त अपने में मस्त है लेकिन उस मस्ती कभी इंसान को ईर्ष्या क्यों हो जाती है? यह मेरे जैसे अल्प ज्ञानी की समझ से परे है।
🔴👉 शास्त्र कहता है कि भक्ति भक्तस्य जीवनम् । मैं समझता था कि भक्त अपने जीवन में भक्ति स्थान अधिक नहीं देने के लिए शास्त्र हमें शिक्षा देता है लेकिन  आज भक्त का जो साक्षात्कार हुआ। वह तो मुझे यह लिखने को मजबूत करता है कि भक्त अपनी भक्ति की ताकत पर स्वयं शास्त्र को शिक्षा दे रहा है। मैं इस दृश्य को स्मरण कर अपने पुण्य कर्म को सहराता हूँ कि मुझे उस सागर में बह रहे राही से मुलाकात हुई। मैं तो साधुता की किश्ती में बैठा  था लेकिन वे तो महामिलन लहरों में गोते लगा रहे थे। काश मेरी भी किश्ती उसी पल डुब गई होती तो मेरा जीवन धन्य हो जाता।
🔴👉 आज मुझे लिखने को एक मंच भक्ति सागर मिल गया। भक्तों की इस राह पर चलने का सौभाग्य मिल गया। लेकिन मेरा मन कहता है कि हे मूर्ख! कब तक इस काल्पनिक लेखनी के सहारे भक्ति को पकड़ने दौड़ेगा। कभी तो स्वयं भी चिर सागर में उतर। तब तुझे मालूम होगा भक्ति क्या होती है? मुझ पत्थर दिल के नसीब में यह दुर्लभ स्थिति कहा। लेखनी की काल्पनिक दुनिया में ही भक्ति रसास्वादन कर मन को बहला दूंगा।
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लेखक:- आनन्द किरण @ महामिलन की आश में
 नोट ➡ भक्त नाम आध्यात्म अनुशासन के मध्य नजर रखते हुए गुप्त रखा गया है। ताकि उनके भक्ति रस में  खलन न हो। मैं पाठकों से क्षमा चाहता हूँ।
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मनुष्य की उत्पत्ति व सदाशिव
मानव उत्पत्ति के बारे में आदिकाल से ही मानव जिज्ञासु रहा हैं। वर्तमान युग में इस सिद्धान्त पर आधारित दो प्रकार की अवधारणा विद्यमान है। प्रथम दार्शनिक दृष्टिकोण द्वितीय वैज्ञानिक दृष्टिकोण। दोनो ही मानव विकास की कहानी को लेकर गहन अनुसंधान का परिणाम बताते है।

(अ) दार्शनिक दृश्टिकोण :- दर्शन शास्त्र ने सृष्टि के विकास व मानव मन की सृष्टि पर व्यापक अध्ययन किया है। इनकी मान्यता को अलग- अलग शब्दों में स्तरानुकुल परिभाषित करने की चेष्टा की गई है। विश्व में दर्शनशास्त्र मुख्यतः दो शाखाएॅ है। प्रथम पूर्वी भारतीय दृष्टिकोण व द्वितीय पश्चिमी युनानी दृष्टिकोण।

(१) भारतीय दृष्टिकोण:- भारतीय दर्शन की शाखा विस्तृत है। इस ने ईश्वर , सृष्टि, मन, नीति आदि तत्वों पर विस्तृत प्रकाश डाला है। मानव उत्पत्ति के संदर्भ में मात्र सृष्टि दर्शन की व्यख्या पर्याप्त है। मानव उत्पति के संदर्भ में भारतीय दो शाखाए है।
      (य.) वैदिक दर्शन :- वैदिक दर्शन शास्त्री सृष्टि उत्पत्ति के प्रश्न के निदानार्थ अध्ययन प्रक्रिया में वेदों के युग में                                        शोध पत्र जारी नहीं हो पाया। कालान्तर विश्व के प्रथम दार्शनिक कपिल के सांख्य दर्षन के बाद
                           में विभिन्न दर्शनो सृष्टि की उत्पत्ति के तथ्य पर प्रकाश डाला तथा मानव ने उपनिषद् युग में                                            दर्शन की गहराई में डुबकी लगाकर ज्ञात किया यह तथ्य खोजा की चेतनपुरूश से जड प्रकृति तथा                                उसे सूक्ष्म चेतन प्राण व क्रमिक विकास के अन्तिम क्रम में मानव की उत्पत्ति हुई।
      
       (र.) जैन दर्शन :- इसके अनुसार जिन नामक चेतन प्राण से जड़ की सृष्टि हुई उसे जद्गल जीन में प्राण का विकास                                    हुआ। इसी क्रम में मानव का सृजन हुआ।

       (ल.) बौद्ध दर्शन :- इसके अनुसार शुन्य बौद्धिसत्व से जडत्व तथा जडत्व से दुःखी जीव की चरम अवस्था में मानव                                    आया।

       (व.) पौरणाइक दर्शन :- इस दर्शन में विभिन्न देवताओं को केन्द्र मानव कर उनसे देवी तथा सृष्टि के विकास में ब्रह्मा                                           ने मानव को सभी प्राणियों की रक्षार्थ बनाया।

       (श.) शाक्त दर्शन  :- यह चेतन मॉ तीन चेतन पुरूश तथा उससे तीन प्रकृति तथा उसे सृश्टि  व मानव की सृजन                                             हुआ।

(२.) पश्चिमी युनानी दर्शन :-  इस दर्शन ने सृष्टि उत्पत्ति के विज्ञान को स्पष्ट नहीं करते हुए, एक बात स्वीकारी कि तत्व से ही विश्व आया। उसमें मानव ही उस तत्व का असली पहचान कृत है। ईसाई युहदी पारसी व इस्लाम ने दर्शन की बजाया नैतिक शिक्षा पर अधिक बल देता है  पर दर्शन की झलक सर्वोच्च सत से मानव के आने की बात करता है।
इस सब में एक बात उभयनिष्ठ है कि चेतन से पदार्थ व पदार्थ से पुनः चेतन तथा इसका चरम विकास ही मानव है। यद्यपि पुरूष को सभी में अलग-अलग प्रकार से परिभाषित किया है। प्रकृति को किसी ने प्रभावशाली तो किसी ने गौण बताया है। यह दर्शन विकास का क्रमिक विकास के विभिन्न स्तर का परिणाम है।
सदाशिव के जीवन के काल के बहुत बाद दर्शन शास्त्र का जन्म हुआ। सदाशिव ने तात्कालिन मानव के मन स्थिती देखकर इन झाल से दूर रहन की सलाह दी।

(ब.) वैज्ञानिक दृश्टिकोण :- विज्ञान के अनुसार पदार्थ(जड़) से जीव का सृजन हुआ है, विज्ञान पदार्थ सृजन की चार अवस्था का क्रम ठोस, द्रव, उष्मा व गैस निर्धारित कर चुका है। पर गैस कहा से आया। इस पर शोध पत्र जारी होना है, पर इतना सैद्धान्तिक रूप से स्पष्ट है। कि निर्वात में उपस्थित ईथर कण से गैस का सर्जन हो सकता है। ईथर कण ही वास्तविक निर्वात है। निर्वात कहा आया यह शोध होने के बाद स्पष्ठ हो जाएगा कि चेतन ही जड़ अवस्था में परिवर्तति हुआ। वैज्ञानिक सिद्धान्त के अनुसार वानर प्रजाति के बाद मानव की सृष्टि हुई।
इस प्रकार मानव उत्पत्ति के देनो सिद्धान्त में एक ही बात उभयनिष्ट है कि चैतन्य ही सृष्टि का आदिकारक है चैतन्य पर दर्शन ने तो काफी कुछ शोध कर दिया है विज्ञान के जानकारी में नहीं आ पाया है। मानव के विकास के बारे में दोनो ही एकमत है कि सभी जीवों अन्तिम व उन्नत प्रजाति मानव है।
आदि चैतन्य को भी दर्शन ने शिव नाम से अभिनिहित किया है। मानव उत्पत्ति के बाद के इतिहास क्रम में धातु युग के उतर में तथा सभ्यता युग पुर्वाद्ध में एक अति विकशीत चैतन्य युक्त मानव का जन्म हुआ। इस मानव ने पृथ्वी की मानव सभ्यता के विकास में अतुलनीय योगदान दिया। सृष्टि के अन्य बुद्धि सम्पन्न मानव से उस मानव की तुलना नहीं की जा सकती थी। वह मानव इतिहास में सदाशिव के नाम से जाना गया। सदाशिव का आगमन मानव के आने के कोटी युग बाद धरती पर हुआ। सदाशिव की वेश-भूषा व कार्य पद्धति उन्हें किसी आकाशीय देवता से अलग किसी वास्तविक पुरूष के रूप में चित्रित करती है। बडे दुःख की बात है कि इस महामानव को किसी सम्प्रदाय या मजबह विशेष का देवता समझ कर इस पर निश्पक्ष शोधपत्र जारी नहीं कर पाया है। इतिहास की इस महासम्भुति के साथ इतिहासकारों का किया गया। अन्याय है।
सदाशिव के महान योगादान के प्रति श्रृद्धा अर्पित करते हुए महान इतिहासकार श्री प्रभात रंजन सरकार ने उनकी स्मृति में कई प्रभात संगीत की रचना की है। साथ नमो शिवाय शान्ताय नामक पुस्तक की रचना कर सदाशिव की देन से मानव जाति को परिचित करवाया।
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   👉 लेखक:- करण सिंह राजपुरोहित उर्फ आनंद किरण
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बाल दिवस क्या एवं क्यों?
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का जन्म दिवस भारतवर्ष में बाल दिवस के रुप में मनाएँ जाने की परंपरा है। भारत सरकार ने भी इस दिवस बाल दिवस के रुप में मान्यता प्रदान की है। आज के दिन का अधिकांश समय चाचा नेहरू जी को श्रद्धांजलि देने में खर्च हो जाता है। शेष बचा समय बाल दिवस की शुभकामना देने एवं लेने में बीत जाता है। मुझे बाल दिवस की महत्ता को चित्रित करने वाला एक भी विचार अथवा विचारधारा से रूबरू होने का अवसर नहीं मिला। नेताओं की जयंतियों चिरस्थायीत्व प्रदान करने का एक सरल एवं सुगम माध्यम उनके जन्मदिन को किसी दिवस के रुप में घोषित करना है। मेरे निजी विचार से किसी दिवस विशेष को किसी एक व्यक्तित्व में केन्द्रित कर देखना उस दिवस एवं व्यक्तित्व के साथ सही मूल्यांकन करना नहीं है। दिवस की महत्ता अपने स्तर पर रहने दीजिए तथा जयंती को अपनी जगह पर।
       बाल दिवस बच्चों की भावना, जीवनशैली एवं विचारों को पढ़ने,  समझने एवं जानने का अवसर है। एक बालक जो कल समाज का नागरिक बनेगा। उसका आज समाज की दिशा एवं दशा तय करेगा। समाज का दायित्व है कि वह अपने भविष्य को अच्छे से संभाले, संवारे एवं निखारें। जो समुदाय अपने इस दायित्व का बेखुबी से निवहन कर लेता है। वह समुदाय अपना भविष्य सुरक्षित एवं सुनिश्चित कर लेता है। वह आने वाले युग में समाज का प्रतिनिधित्व करने का अवसर प्राप्त करता है। इसके विपरीत उपरोक्त दायित्व के निवहन में असफल रहता है अथवा कोई चुक करता है। उसका भविष्य भी प्रश्नों के घेरे में होता है। इसलिए समाज का एक दिवस विशेष में तदानुकुल दायित्व याद दिलाने का एक प्रयास होता है। कोई दिवस को एक तरफा माना नहीं गया है। यहाँ आदान व प्रदान दो तरफा चलने वाली प्रक्रिया है। बाल दिवस पर ही ध्यान केंद्रित करे तो इस दिन समाज अपने भविष्य के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निवहन करता तो बालक अपने उत्तरदायित्व एवं जिम्मेदारी को याद करता है। कई विद्वान इस दो तरफा चलने वाली प्रक्रिया को व्यापार की संज्ञा दी है। यह व्यापार हो सकता है, यदि दो पक्ष कुछ शर्त पर अपने उत्तरदायित्व का आदान प्रदान करता हो। इसके विपरीत अपने फर्ज को फर्ज समझकर निवहन करने वाली प्रक्रिया दो तरफा अथवा बहु तरफा होने पर व्यापार की परिधि में नहीं जाती है।
        बाल दिवस की आवश्यकता क्या है ? यह प्रश्न भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। किसी भी दिवस मात्र से उस वस्तु, व्यक्ति, पद अथवा पीढ़ी के प्रति विचार कर कोई समाज अपने दायित्व का पूर्णतया निवहन नहीं कर सकता है। इसकी परिपूर्णता एवं सफलता के के लिए सतत प्रयास करने की आवश्यकता है। दिन विशेष तो मात्र उस विशेष की आवश्यकता एवं उपयोगिता को गुरुत्व देता है तथा सतत निवहन हेतु जागरूकता एवं क्रियाशीलता का विकास करता है। बाल दिवस की आवश्यकता इसलिए है कि मनुष्य अपनी जिम्मेदारी के प्रति उदासीन नहीं बने तथा बालक के मन में भी स्वयं के कुछ होने के जिम्मेदारी का बोध करवाने के लिए होती है। यह बात सभी दिवसों पर उतनी ही सटीक एवं खरी उतरती है जितनी बाल दिवस के लिए।
      बाल दिवस की शुभ वेला पर में यह शब्दमाला भावी पीढ़ी के कल्याणार्थ प्रेषित करता हूँ।
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लेखक:- करणसिंह शिवतलाव उर्फ आनंद किरण