पुलवामा के शहीदों को श्रद्धांजलि

👉 सैनिकों की मौत राष्ट्रीय शोक का विषय है। एक सैनिक रणभूमि में लड़ते हुए, वीरगति को प्राप्त हो जाता है तब उसका जीवन राष्ट्र के काम आ जाता है। पठानकोट एवं पुलवामा में आतंकियों द्वारा अघोषित छदम युद्ध में घात लगाना अति दुखदायी बात है। इसे भर्त्सना की भाषा में कायरतापूर्ण कृत्य का जाता है। जवानों का इस भांति खो जाने पर देश का खुन खोल उठना स्वभाविक है। हम सभी करो एवं मरो के अन्तिम निर्णायक घड़ी में आ गए है। इस स्थिति में हमें युद्ध ही एक मात्र विकल्प दिखाई देता है। मेरा यह प्रश्न है कि युद्ध के बाद शांति का अध्याय लिखा जा सकता है तब तो हमारी मांग उचित है। अन्यथा शान्ति के किसी अन्य ठोस एवं निर्णायक उपाय पर विचार करना चाहिए। आप सोच रहे होंगे कि बातचीत से समस्या को सुलझाने की सलाह देने की बात कह रहा हूँ। यह बात मेरी नजर में उचित नहीं है क्योंकि बातचीत उनसे की जाती है जो बातचीत की भाषा जानते हो। जिन्होंने हथियारों की भाषा सीखी है। वे लातों के भूत बातों से नहीं मानने वाले हैं। अब आप के दिल में एक बार फिर सर्जिकल स्टाइक करने का ख्याल आ रहा होगा। मैं इसका सुझाव रखने का पक्षधर नहीं हूँ। आतंकवादियों के चश्मे से देखें तो उनके हमले उनकी ओर से हम पर किये गये सर्जिकल स्टाइक ही है। इसलिए अब तो एक सटीक निर्णय लेना ही है कि जो द्वार आतंक दुनिया में जा रहा है तथा जिस द्वार से आतंक हमारी दुनिया में आ रहा है उनको बंद कर देने होंगे तथा उस पर मजबूत एवं कठोर चौकसी रखनी होगी । मेरी बात शायद आप लोगों की समझ में नहीं आई होगी। समझ में आ गई होती तो अब तक तालिया बज चुकी होती। कदाचित तालियाँ बजाना मेरा कार्यक्षेत्र नहीं रहा है। आतंक दुनिया में व्यष्टि एवं उनके समुदाय को संकीर्ण विचारधारा ले जाती है तथा उसी द्वार से आतंक हमारी दुनिया में तबाही मचाता है। विश्व के इतिहास में जाति, सम्प्रदाय एवं नस्लों की संकीर्ण सोचने तहलका मचाया था तथा उसके समक्ष मानवता ने नंगा नृत्य किया है। यह नृत्य अगर बौद्धिक दृष्टि से अग्रणी विश्व में लिखा जाता है तो अवश्य शर्मनाक बात है। इसलिए हमें विश्व बन्धुत्व कायम करने की दिशा में ठोस, क्रांतिकारी एवं युद्ध स्तर के प्रयास करने चाहिए। इसके मार्ग में आने वाली प्रत्येक बाधाओं को ठोकर मारकर हटा देना चाहिए। इससे काम नहीं चले तो घातक प्रहार के माध्यम से भी दूर करनी चाहिए।
👉 कुछ विचारक इस आतंकी कृत्य को दोहरी नागरिकता एवं राज्य विशेष के स्वतंत्र ध्वज को मानते है तो मैं आपको संयुक्त राज्य अमेरिका ले चलता हूँ। वहाँ के प्रत्येक राज्य में यह बातें है लेकिन वह आज की दुनिया का सबसे मजबूत देश है। सांस्कृतिक विविधता विश्व की थातियाँ है। इसका संरक्षण एवं संवर्धन अवश्य ही विश्व को सुन्दरतम बनाते है। इसलिए इसे आतंक का उत्तरदायी कारण के रुप में सोचना गलत है। भारतीय संविधान की धारा 370 के बारे में मेरे विचार स्पष्ट है कि दोषपूर्ण एवं देश की एकता एवं अखंडता पर प्रश्न चिन्ह लगाने वाले प्रावधान को नष्ट कर शुद्ध आर्थिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक विकास केन्द्रित बनाकर प्रत्येक सामाजिक आर्थिक भौगोलिक इकाई में स्थापित कर देनी चाहिए तथा विश्व बन्धुत्व की भावधारा से सिंचना चाहिए।
👉 पुलवामा के शहीदों को दी गई श्रद्धाजंलि यदि आपके समझ आई हो तो इस पर गौर फरमा कर कार्य करें।
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करण सिंह शिवतलाव @ मनुष्य को मनुष्य से जोड़ों
प्रउत विचारधारा बनाम भारतीय राजनैतिक दल
हम प्रउत विचारधारा के साथ सभ्यता के स्वर्णिम युग में प्रवेश करने जा रहा है। इस विचारधारा का जन्म भारतवर्ष की धरती पर हुआ है। इसलिए विश्व सभ्यता प्रथम अध्याय में भारतवर्ष में लिखकर आगे बढ़ते हैं। वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था को संचालित करने वाले राजनैतिक दलों के सिद्धांत एवं नीतियों से उभरने वाली भारतवर्ष की तस्वीर को देखकर हम प्रउत द्वारा बनाए जाने वाले भारतवर्ष में प्रवेश करते है। प्रउत विचारधारा एक विशुद्ध नूतन विचारधारा है। जिसका राजनैतिक दलों की पृष्ठभूमि एवं कार्यप्रणाली से दूर-दूर तक का कोई संबंध नहीं है, प्रउत विचारधारा को लेकर चलने वाले योद्धाओं को भारतवर्ष के राजनैतिक परिदृश्य सुस्पष्ट समझकर एवं देखकर प्रउत व्यवस्था को सफलतापूर्वक स्थापित करने के समर के लिए कमर कसनी हैं। यह सत्य है प्रउत विचारधारा एक विश्व सरकार का ढांचा लेकर चलती है। प्रउत विचारधारा को
स्थापित करने के लिए सदविप्रों को विश्व सरकार परिवेश तैयार करना होगा। यह नव्य मानवतावादी सोच पर आधारित आध्यात्मिक मूल्यों द्वारा संचित सामाजिक आर्थिक व्यवस्था है। इसके लिए न्यूनतम परिवेश विश्व सरकार की अवधारणा है। विश्व सरकार की अवधारणा प्रस्तुत करने से पूर्व विश्व के विभिन्न देशों में चलयमान सामाजिक आर्थिक परिदृश्य एवं इसको संचालित करने वाले राजनैतिक परिवेश का अध्ययन करते हैं। इसी क्रम में प्रथम शुरूआत भारतवर्ष के राजनैतिक दलों के सिद्धांत, कार्य पद्धति एवं विचारधारा पर दृष्टिपात कर करते हैं। यहाँ एक बात याद रखनी होगी कि प्रउत व्यवस्था इनका विकल्प नहीं है अपितु प्रउत व्यवस्था एक संकल्प है। जो सर्वे भवन्तु सुखिन: के भारतवर्ष का निर्माण करेगी।
भारतवर्ष विश्व गुरु था एवं पुनः विश्व गुरु की मंजिल को प्राप्त करना चाहता है तो प्रउत विचारधारा की स्वीकार्यता अनिवार्य है। प्रउत विचारधारा अर्थव्यवस्था के प्रगतिशील आयामों की द्योतक है। यह आध्यात्मिकता पर आधारित विश्व की प्रथम एवं एकमात्र आर्थिक सिद्धांत है। यह विचार प्रकृत विज्ञान के अनुकूल समाज की गतिधारा एवं विचित्रता को अंगीकार कर सम सामाजिकता की आधार आर्थिक सूत्रों को परिभाषित करता है। इस अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता यह है यह सर्वजन के हित एवं सर्वजन सुख पर आधारित अर्थव्यवस्था है।
भारतवर्ष के इतिहास, भूगोल, प्राकृतिक व आर्थिक संपदा तथा सभ्यता व संस्कृति में विद्यमान तथ्यों को अवलोकन करने से ज्ञात हुआ कि इस धरा पर भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक सम्पदा से समृद्ध राष्ट्र था, हैं
एवं भविष्य में भी इस विपुल संपदा का धनी रहने की संभावना स्पष्ट दिखाई देती है। राजनैतिक इच्छाशक्ति की विवेकहीनता के कारण समृद्ध राष्ट्र को कंगाल सदृश बना दिखाई दे रहा है वस्तुतः भारतवर्ष कभी भी दरिद्र न था, है एवं रहेगा। मात्र सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक परिदृश्य सही नहीं होने के कारण भारतवर्ष को इस घृणित उपमा को धारण करना पड़ रहा है।
स्वतंत्र भारत के राजनैतिक परिदृश्य का अवलोकन कर हम प्रउत विचारधारा की स्वीकार्यता अनिवार्यता पर विचार करते हैं।

(1) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सन् 1857 की सैनिक क्रांति एवं कतिपय समाज सुधार आंदोलनों ने शिक्षित
भारतीयों के मन में अपने अधिकार एवं स्वाभिमान का जागरण किया। इन युवाओं संगठित होने की आवश्यकता महसूस की तथा अंग्रेजों ने संभावित विद्रोह को टालने के लिए शिक्षित भारतीय के संगठन की राय के आधार पर कतिपय सुविधा भारतीय समुदाय को उपलब्ध करवाने की आवश्यक महसूस की। जिसकी बदौलत सन् 1885 को भारतवर्ष को कांग्रेस पार्टी मिली। अंग्रेजों के पास संवैधानिक माध्यम से परिवर्तन राह देने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। ताकि वे अपने राज्य निर्विध्न चला सके। यदि कांग्रेस का आंदोलन आर्थिक स्वाधीनता लेकर चला होता तो अंग्रेज भी चले जाते एवं भारत आर्थिक समृद्धि की राह पर बढ़ जाता। कांग्रेस के राजनैतिक सुधार से स्वाधीनता की यात्रा के क्रम में एक ओर साम्प्रदायिक राजनीति का जन्म
मुस्लिम लीग व हिन्दू महासभा के रुप में हुआ। दूसरी ओर अहिंसा की हठी धारणा के विरुद्ध क्रांतिकारी, खून देने एवं लेने विचारधारा का जन्म हुआ। इसके स्थान पर आर्थिक आजादी की लड़ाई लड़ी जाती तो एक सुदृढ़ भारत प्राप्त होता। स्वाधीनता के बाद एक राजनैतिक पार्टी के रुप में कांग्रेस ने मिश्रित अर्थव्यवस्था के नाम एक छल
किया तथा यूरोपीय दूषित आर्थिक चिन्तन को भारतवर्ष दिलोदिमाग में भरने का प्रयास साबित हुआ। मिश्रित
अर्थव्यवस्था को भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में निहित आर्थिक मूल्यों एवं उसकी संचालन पद्धति से सिंचित
करने का प्रयास एक समृद्ध भारतवर्ष की ओर ले जाता। जन गण मन में नैतिकता का संचार नहीं करने कारण
राष्ट्र नेता भक्षक बनते गए तथा कांग्रेस जनता की साख खोती गई। स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस अपनी दोषपूर्ण सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक नीतियों के चलते जातिवादी, क्षेत्रवादी एवं साम्प्रदायिक विचारधारा के समक्ष अपना अस्तित्व नहीं बसा पाई। प्रथम बार जब कांग्रेस के हाथ से निकल कर तमिलनाडु क्षेत्रीयता की भेंट चढ़ा, तब कांग्रेस ने मंथन किया होता तो अवश्य काम बनता। कांग्रेस की दीर्घ निंद्रा ने भारतवर्ष अपने हाथ से
खिचकने दिया। लोकतंत्र जन आकांक्षाओं की पूर्ति के सिद्धांत पर कार्य करता है। कांग्रेस जन आकांक्षाओं को समझने में निष्फल रही। यदि कोई दल जन आकांक्षाओं पर समाज एवं राष्ट्र हित की तरह मोड़ देता है तो वह दल राजनैतिक अस्तित्व कुछ समय के लिए बसा सकता है। जन आकांक्षाओं में सर्वजन हित एवं सर्वजन सुख की
अभिलाषा में सिंचित करने से आदर्श व्यवस्था का निर्माण किया जा सकता है।

(2) कम्युनिस्ट पार्टी भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान यूरोप की साम्यवादी विचारधारा ने युवाओं को प्रभावित किया। कांग्रेस के समक्ष इस अधिक सफलता प्राप्त नहीं हुई। केरल एवं बंगाल के लोगों का हृदय परिवर्तन करने में सक्षम हुए लेकिन यह अपने मूल आदर्श पर कभी भी काम नहीं कर सकी। कार्ल माक्स की रिलिजन से दूर रहने का संदेश भारतीय कम्युनिस्टों के समझ में नहीं आया तथा उन्होंने इसे धर्म और आध्यात्मिक के विरुद्ध खड़ा कर दिया। भारतीय जनमानस जिसने आध्यात्मिक को प्राण धर्म के रुप में अंगीकार किया हुआ है, उसने इसे आत्मा से अंगीकार नहीं किया, जिसके चलते साम्यवादियों का यह आंदोलन मुह के बल गिर गया। यदि यह भारतवर्ष में सफलीभूत हो जाता तो विश्व सभ्यता का अस्तित्व संकटग्रस्त हो जाता। इसके विपरीत साम्यवादी आंदोलन आध्यात्म एवं धार्मिक मूल्यों के साथ छेड़छाड़ नहीं करता तो धराशायी हो रही कांग्रेस के समक्ष मजबूत विकल्प बनकर खड़ा रहता।

(3) समाजवादी विचारधारा पर आधारित जनता पार्टी, जनता दल इत्यादि नेहरू जी की नीतियों से
असंतुष्ट कतिपय कांग्रेस नेताओं तथाकथित समाजवाद की ओर आकृष्ट हुए इसका सबसे बड़ा विस्फोट जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में फूटा। यहाँ कांग्रेस को पदच्युत कर सत्ता पर आसीन होने की महत्वाकांक्षा ने विभिन्न विचारधाराओं के मिश्रण करने की भूल की गई। यह भूल अल्पकाल में ही जनता पार्टी को तीन तेरह कर दिया। जनता दल समाजवाद की बजाए जातिगत गणित में उलझ गया और परिवारवाद व व्यक्तिवाद में बट गया। सामाजिक समरसता का सिद्धांत स्वार्थ में खो गया। समाजवादी सच्चे अर्थों में समाजवाद की लड़ाई लड़ते तथा सत्ता के गणित में नहीं उलझते तो अवश्य ही सत्ता देर से प्राप्त करते लेकिन आंदोलन अपने मूल उद्देश्य में सफलहोता। इनकी यह भूल समाजवाद के असामयिक मृत्यु का कारण बना।

(4) साम्प्रदायिक, जातिवादी एवं क्षेत्रवादी राजनीति अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की नीति तथा कांग्रेस की तुष्टीकरण की नीति ने भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिक राजनीति को प्रवेश दिया। अंबेडकर की आरक्षण सोच एवं कांग्रेस के जातिगत चुनावी गणित ने भारतीय राजनीति जातिवाद राजनीति को खड़ा होने दिया। राज्य एवं भाषाई नीति ने क्षेत्रवाद की राजनीति को पनपने का अवसर दिया। यह राजनीति कितनी
सफल रही यह बड़ा प्रश्न नहीं रहता है। बड़ा प्रश्न यह है कि इसने भारतवर्ष की महान सभ्यता एवं संस्कृति का
कितना नुकसान किया। राजनीति में इन तत्वों का पनपना लोकतंत्र पर मूर्खतंत्र के प्रभावी होने का परिणाम है। यदि कांग्रेस ने अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की नीति का प्रति उत्तर तुष्टीकरण से नहीं दिया होता तो हमारे संस्कार साम्प्रदायिक सोच को दफना देते। ठीक इसी प्रकार अंबेडकर की आरक्षण की बैसाखी के सामने कांग्रेस नतमस्तक हुए बिना समाज संगठन को मजबूत करने पर ध्यान देती तो अवश्य ही जातिवाद जहर राजनीति में नहीं घुलता। राज्य के संदर्भ भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक परंपरा के आधार पर आर्थिक इकाइयों का गठन किया जाता तो अवश्य एक मजबूत भारत का निर्माण करने में कांग्रेस सफल होती। मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा सभा, शिवसेना, बहुजन समाज पार्टी तेलुगू देशम् द्रविड़ मुनेत्र कडगम, अकाली दल , असमगण परिषद, नागाफंड इत्यादि इत्यादि राजनैतिक दल की मार भारतीय राजनीति को झेलनी पड़ रही है। यह बड़ी सोच के समक्ष स्वतः ही धूमिल होती नज़र आ रही है।

(5) राष्ट्रवादी एवं हिन्दूत्ववादी भारतीय जनता पार्टी पूर्व कांग्रेसी एवं हिन्दू महासभा के नेता डॉ केशवराव बलिराव हेडगेवार द्वारा पौषित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनैतिक शाखा जनसंघ अब भारतीय जनता पार्टी हिन्दूत्व एवं राष्ट्रवाद को लेकर चलती है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के दर्शन को लेकर चलने वाली भाजपा भारतीय राजनीति में इकलौती पार्टी हैं, जो अपनी अलग राजनीति विचारधारा को कारण
चर्चित रही है। इस पर साम्प्रदायिकता आरोप सदा लगा रहता है। वर्तमान में इसके नेतृत्व को हिटलर शाही नीति के अनुगामी कहकर आलोचना की जाती है। इस पार्टी के सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि शेष सभी का भारतीयकरण करना चाहती है लेकिन अर्थव्यवस्था के दोषपूर्ण सूत्र को कांग्रेस की भाँति ज्योंह का त्योंह धारण करके रखा है। यह दोष ही इस असफल करने में काफी है। अन्य दोष यह हिन्दूत्व के नाम पर भावजड़ता (Dogma) को बलपूर्वक पकड़ रखा है। यह एक स्वयं संघवादियों गले की हड्डी बन जाएगा। यह युग विश्व एक्कीकरण की ओर बढ़ रहा है। यहाँ राष्ट्रवाद को आर्थिक इकाई के रुप में परिभाषित कर लेकर चले तब तक स्वीकार्य हैं लेकिन जीवन मिशन एवं जीवन लक्ष्य के रुप लेकर चलना स्वयं भारतीय संस्कृति को आत्महत्या के विवश करने जैसा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यह नीति भारतवर्ष की सभ्यता व संस्कृति के विपरीत जा रही है। इसके दुष्परिणाम जातिगत जहर उगलते आंदोलन एवं भारतीय मूल निवासी के नाम संगठित जन आर्य सभ्यता को तहस नहस करने को उतारू के रुप में दिखाई दे रहे हैं। कल तक जो तलवार इन्होंने हिन्दूत्व एवं राष्ट्रवाद को मजबूत करने के लिए धारण करवाइ थी। वही तलवार समाज व्यवस्था को ठीक नहीं करने के कारण वह जातिवाद एवं प्रदेशवाद की भेंट चढ़ रही है। भारतीय राजनीति का उपर्युक्त स्वरूप लगभग एक जैसी लकीर को थामें फकीर बन रहा है। कांग्रेस व
भाजपा एक ही सट्टे बट्टे है। किसी से भी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में निहित महान आदर्श एवं आर्थिक समृद्धि की कहानी नहीं लिखी जाएगी । 

यह कार्य करने के लिए समाज के दुख दर्द को अपने कंधे पर धारण करने के लिए प्राउटिस्टों को आगे आना होगा। यह प्रगतिशील सोच ही भारतवर्ष का स्वर्णिम भविष्य निखार सकती है।

प्रउत विचारधारा के समक्ष चुनौतियां प्रउत व्यवस्था को भारत का ताज फूलों का ताज के रुप में नहीं मिलने वाला है। प्रउत व्यवस्था को कांटों ताज मिलेगा स्वयं को अपनी कर्म कुशलता से सुन्दर फूलों की बगिया लगानी पड़ेगी। उस बगिया से सुगंधित फूलों को चुन चुन कर समाज के लिए सुन्दर आसन बनाना
होगा। प्रउत व्यवस्था को मात्र आर्थिक समस्या से ही नहीं सामाजिक, धार्मिक राजनैतिक समस्याओं का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा। कई अन्तराष्ट्रीय समस्या भी प्राउटिस्टों रास्ते में खड़ी होगी। यह सभी हमें राजनीति व्यवस्था को विरासत में देने वाली है।
उपर्युक्त समस्याओं का होने पर भी सदविप्रों को पांव पीछे रखने की जरूरत नहीं है। सदविप्रों को धर्म की जयमाला प्रदान है। उसे धारण कर बाधाओं एवं विपदाओं को चूर्ण विचूर्ण करने की शक्ति प्रदान है। यह शक्ति सदविप्रों के मजबूत पांवों तले कचूमर हो जाएगी। सदविप्रों स्वयं में साहस भरने की जरूरत है। स्वयं के पैरों पर
खड़ा होना होगा। दृढ़ इच्छा शक्ति का जागरण कर जगत की हर समस्या को अपने कंधों पर। लेकर चलना होगा। नूतन उषा सदविप्रों की होगी। भारत की वर्तमान राजनैतिक तस्वीर बदलकर नूतन सूर्योदय करेगी।

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लेखक ➡ श्री आनन्द किरण
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(यह लेख मौलिक, अप्रकाशित एवं स्वलिखित हैं)
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9982322405





कौनसा राजनैतिक दल श्रेष्ठ है
भारतवर्ष में एक वर्ष बाद आम चुनाव होने वाले है। इसलिए आम आदमी की जिज्ञासा रहती है कि अबकी बार
मेरा  वोट किस राजनैतिक दल को देने से देश एवं समाज के लिए हितकारी सिद्ध हो सकता है।
राष्ट्रनेता संत श्री विनोबा भावे की उक्ति - "चुनावों में आत्म प्रशंसा, परनिंदा एवं मिथ्या भाषण होते हैं" को
समक्ष रखकर विषय को आगे ले चलता हूँ। चुनावी मौसम में प्रत्येक राजनैतिक दल एवं राजनेता स्वयं को
शत प्रतिशत सत्य प्रमाणित करने की कोशिश करता है तथा विरोधी को शत प्रतिशत गलत बताने का हर संभव
प्रयास करता है। इतने पर भी काम नहीं होने पर इधर-उधर की बातें कर भ्रम फैलाने से भी नहीं चूकते है।
राजनीति के इस दूषित माहौल में किसी भी एक दल को श्रेष्ठ बताना विषय के साथ न्याय नहीं हो सकता है।
महान सामाजिक व आर्थिक चिन्तक एवं युगप्रवर्तक श्री प्रभात रंजन सरकार की लोकतंत्र पर
एक राय - "लोकतंत्र एक मूर्खतंत्र है। यदि एक विद्यालय में लोकतंत्र स्थापित कर दिया जाए तो सदैव बहुमत
विद्यार्थियों का रहता है तथा इस बहुमत ने यह फैसला ले लिया कि हमारी उत्तर पुस्तिका हम ही जांच करेंगे तो
परीक्षा तंत्र ही अर्थहीन हो जाएगा।" को भी समक्ष रखकर विषय पर मंथन करते है। समाज नीति में कहा जाता कि सौ मूर्खों पर एक विद्वान भारी लेकिन राजनीति सौ मूर्खों का दामन छोड़कर एक विद्वान का हाथ नहीं थाम सकती है। इस परिस्थिति में किसी एक राजनैतिक दल को श्रेष्ठता की जय माला पहनना एक दुष्कर कार्य है। चूंकि विषय चल पड़ा है इसलिए विषय के साथ न्याय तो करना ही होगा।
राजनैतिक दलों की श्रेष्ठता का एक मानक पैमाना तय किए बिना विषय  के साथ सही न्याय नहीं कर सकते है।
हम सभी जानते हैं कि यह पैमाना तय करने का अधिकार कानून का है, लेकिन लोकतंत्र ने यह अधिकार जनता
को दे रखा है तथा  जनता राजनीति को अपने सभी अधिकार दे देती है। राजनीति जनता नचाती रहती है तथा
यही से तो समस्या ने जन्म लिया है कि कौनसा राजनैतिक दल श्रेष्ठ?
संविधान सभा को राजनेताओं के लिए एक आचरण संहिता एवं राजनैतिक दलों के लिए एक मर्यादा की लक्ष्मण
रेखा खींच लेनी चाहिए थी तो उक्त समस्या के स्थान पर प्रश्न होता कि किस उम्मीदवार को वोट दिया पाए?
जिसका उत्तर मतदाता  सहज खोज लेता। यदि यह प्रश्न आम आदमी के समक्ष होता तो इतना सोचना नहीं
पड़ता। राजनैतिक दलों की श्रेष्ठता प्रमाणित करने का अर्थ यह है कि उस दल की विचारधारा के आधार पर राष्ट्र
एवं समाज का निर्माण करना। यह कार्य तो संविधान सभा है। इसलिए  समाज को प्रथम एक गतिशील एवं
जीवित संविधान सभा देनी होगी। जो मूल्यों का निर्धारण, संरक्षण व संवृद्धन करने का कार्य करें।
यह हो जाने पर राजनैतिक विचारधारा से आम आदमी को राहत मिल जाएगी लेकिन राजनैतिक दलों की श्रेष्ठता
से पीछा नहीं छूट सकता है। समस्या को अधिक गंभीरता से लेने की आवश्यकता है।
राजनैतिक दल का रहना अर्थात एक विचारधारा का रहना है। संविधान सभा यह तय कर सकती है कि राजनैतिक
दलों को नव्य मानवतावादी दृष्टिकोण एवं प्रगतिशील अर्थव्यवस्था के सूत्रों को लेकर एक कार्य योजना निर्माण
करना एवं इसे लेकर जनता के बीच में जाना एवं जनादेश लेकर आना। जनादेश लेकर आने वाला राजनैतिक दल
यदि अपने उत्तरदायित्व का निर्धारित समय सीमा में पूर्ण नहीं करें तो  संविधान सभा को उसके भविष्य का
निर्णय करने का भी अधिकार रखना चाहिए। यदि यह हो जाता है तो राजनैतिक दल की श्रेष्ठता की समस्या का
समाधान सरल हो जाएगा। जिसका समाधान जनता के पास मिल सकता है लेकिन स्थायी समाधान के लिए
समस्या को ओर अधिक गंभीरता से लेने की आवश्यकता है।

यदि  एक राजनैतिक दल की कार्य योजना अच्छी है, लेकिन उसको क्रियान्वयन करने वाला मात्र एक ही
समयावधि को लेकर आता है तथा समाज  को तीन तेरह करके चले जाते हैं तो समस्या ओर भी गंभीर रुप धारण
कर लेती है। इसलिए राजनेताओं की आचरण संहिता को गंभीरता से लेना होगा। नैतिकवान राजनेताओं की
आवश्यकता को स्वीकार किया बिना राजनैतिक दलों की श्रेष्ठता अर्थहीन  है। नैतिकता के पीछे एक आंतरिक बल
की आवश्यकता है। इसको आत्मिक अथवा आध्यात्मिक बल कहते है। आध्यात्मिकता एवं नैतिकता एक दूसरे
की पूरक एवं सहयोगी शक्ति के रुप लेने से काम चलेगा। अर्थात राजनेता को आध्यात्मिक नैतिकवान होना ही
होगा। आध्यात्मिक नैतिकवान नेता ही समाज को श्रेष्ठता की ओर ले जा सकते हैं। राजनीति को पंथ, सम्प्रदाय
एवं मत मतान्तर से एतराज था। इसकी सजा समाज को देना उचित नहीं है। कर्तव्य , दायित्व तथा धर्म से दूरी
बनाना एक गलत दिशा थी। समय रहते इस भूल को नहीं सुधार गया तो व्यवस्था कितनी भी अच्छी क्यों न हो
वह अच्छाई को प्रदर्शित नहीं कर सकती है। श्रेष्ठ राजनैतिक व्यवस्था के लिए उन्नत एवं सर्वांगीण,  सामाजिक
सोच तथा मजबूत एवं प्रगतिशील आर्थिक सूत्र की आवश्यकता के साथ आध्यात्मिक नैतिकवान नेतृत्व की
आवश्यकता है।
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contact to writer:-karansinghshivtalv@gmail.com




भविष्य का स्वर्णिम भारत
भारतवर्ष स्वर्णिम भविष्य की ओर बढ़ रहा है। इस ओर बढ़ रहे भारत के समक्ष एक प्रश्न है कि इसका मानक मापक क्या होगा? इस प्रश्न का उत्तर जाने बिना, विषय  पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता है। विश्व की समस्त सभ्यता एवं संस्कृति का अवलोकन एवं मूल्यांकन करने पर ज्ञात होता है कि प्राचीन भारतवर्ष के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक मूल्य उपरोक्त मानदंड के अनुकूल है। भारतवर्ष जब  उपर्युक्त मानदंड को प्राप्त कर लेगा अथवा इससे भी आगे बढ़ जाएगा, तब उस अवस्था को स्वर्णिम भारत नाम दिया जाएगा
         
प्रत्येक भारतीय के मन में स्वर्णिम भारत देखने की चाहत है लेकिन वर्तमान युग की सरकारों की  नीतियों सेभारतवर्ष का यह स्वप्न पूर्ण नहीं हो सकता है। इसलिए यह प्रश्न ओर भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि स्वर्णिम भारत का निर्माण कौन करेगा तथा भारतवर्ष अपने स्वर्णिम भविष्य की दिशा में कितना आगे बढ़ा है ?  इन प्रश्नों के उत्तर पाने का प्रथम प्रयास वर्तमान भारतवर्ष के निर्माण का दावा करने वाले राष्ट्रीय राजनैतिक दलों
की कार्य पद्धति से करता हूँ। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को देश की आजादी के बाद 60 वर्ष तक देखा गया लेकिन वे
स्वर्णिम भारत का निर्माण नहीं कर सके। भारत जनता पार्टी का भी लगभग दस वर्ष का कार्यकाल देखा गया है लेकिन इनकी नीतियां एवं सिद्धांत भी भारतवर्ष का स्वर्णिम अध्याय लिखने में अक्षम हैं।
कुछ राजनैतिक विचारधारा बरसाती पानी के बुलबुल की भाँति है, जिसका जीवन काल छंद पल का है तथा अन्यन बोझ है, जिसे भारतवर्ष ढोहता आ रहा है। इसलिए भारत के स्वर्णिम अध्याय को कई ओर खोजना होगा।अनुसंधान की यात्रा के क्रम में तथाकथित सांस्कृतिक मूल्यों के जागरण करने वाली संस्थाओं की शल्यचिकित्सा
करते हैं। साम्प्रदायिक एवं मजहबीय व्यक्ति का निर्माण कर यह संस्थाएं भारतवर्ष के स्वर्णिम स्वरूप को निखारने में अक्षम हैं। एक विकलांग विचारधारा भारत के साथ न्याय नहीं कर सकती है। इसलिए तथाकथित इन संस्थाओं से आशा लगाना मूर्खता अथवा नादानी है।

यह सत्य है कि स्वर्णिम भारत का निर्माण किसी अलौकिक चमत्कार अथवा मायावी शक्ति के बल पर नहीं हो
सकता है। इसलिए विशेष साधना की आवश्यकता है। यह भी सत्य है कि स्वर्णिम भारत का निर्माण किसी
कारखाने अथवा कार्यशाला में नहीं होने वाला है। भारत का उज्ज्वल भविष्य धरती की कठोर माटी पर उरेखित
करना है। इसलिए यह संदेह हो सकता है कि उपर्युक्त आलोच्य अध्याय लिखा जाएगा अथवा नहीं? जिस अध्याय को स्वयं परम पुरुष का आशीर्वाद है, वह कदापि असंभव नहीं हो सकता है।

आखिर कौन करेगा स्वर्णिम भारतवर्ष का निर्माण? यह प्रश्न स्वभाविक है। भारतवर्ष की प्राचीन संस्कृति का निर्माण जादुई छड़ी से नहीं हुई थी। उसका निर्माण आध्यात्मिक नैतिकता के बल पर हुआ था। अत: समस्या एकदम सुस्पष्ट हो जाती है कि स्वर्णिम भारत के निर्माण की योजना आध्यात्मिक नैतिकता के बल पर संभव है।
इसको मध्य नज़र रखते हुए भारतवर्ष की आध्यात्मिक संस्थाओं की पाठशाला में प्रवेश करकर देखते हैं, कई यहाँ तो स्वर्णिम भारत का निर्माण  तो नहीं हो रहा है। तथाकथित बलात्कार के आरोपी
एवं दोषी संत समुदाय को देखकर साधारण से साधारण जन भी कह सकता है कि स्वर्णिम भारतवर्ष का निर्माण यह तथाकथित धर्म के ठेकेदार नहीं कर सकते हैं। ओशो की नैतिकता विहिन आध्यात्म से आश लगाना ,
बिन बादल के बारीश की आश लगाने जैसा है। स्वर्णिम भारत की तस्वीर वही दिखा सकता है, जिसमें आध्यात्मिक नैतिकता तथा समाज के प्रति उत्तरदायित्व बोध कराने वाले सामाजिक आर्थिक सिद्धांत होगे तथा उसका दृष्टिकोण सामाजिक होगा। वहीं स्वर्णिम भारत निर्माण कर सकता है। हम वहाँ पहुँच गए हैं, जहाँ से  स्वर्णिम भारतवर्ष का ध्वज स्पष्ट दिखाई दे रही है। आध्यात्मिक, नैतिकता, कर्मशीलता एवं सामाजिक दृष्टिकोण के बल पर ही स्वर्णिम भारतवर्ष का निर्माण होगा,  
जब तक आध्यात्मिकता की पाठशाला में जगत का मिथ्या रुप पढ़ाया जाता है तब तक आध्यात्मिकता पलायनवाद का नाम बन जाता है। इससे व्यष्टि का सामाजिक दृष्टिकोण नकारात्मकता से पौषित होता है। जिससे कर्मशीलता निष्कर्मणीयता में परिवर्तित होने लगती है। उसका परिणाम यह निकलता है कि व्यष्टि का भाव जगत एवं वस्तु जगत के बीच सामंजस्य नहीं रहता है तथा पल-पल झूठ का आलंबन करता है।
नैतिक मूल्य यहाँ शर्मसार हो जाते है तथा आध्यात्मिक समाज पर बोझ बन जाती है। यह चिन्तन  स्वर्णिम भारतवर्ष को ध्वस्त कर देते हैं। इसलिए यहाँ यह उक्ति लिखना अधिक उचित है कि

हमें तो लूटा अपनों ने, गैरों में क्या दम था।
मेरी भी किश्ती वहाँ डुबी, जहाँ पानी कम था।।
    हम भारतवर्ष की दुर्दशा के लिए कभी अंग्रेजों को  तो कभी तुर्क-अफगानों को जिम्मेदार ठहराते है। कभी भी हमने स्वयं अपने गेरेबान में नहीं झांका। हमारा स्वयं का चिन्तन ही दोषपूर्ण रहा जिसकी बदौलत हम पराधीनता के अभिशाप को वरण किया। प्राचीन भारतवर्ष का  धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष के पुरुषार्थों की सिद्धि का चिन्तन जगत के मिथ्या सिद्धांत को अंगीकार करने से सफल नहीं हो सकता है। यही चिन्तन हमारी अधोगति का जिम्मेदार है।

श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने ब्रह्म सत्य एवं जगत के आपेक्षिक सत्य के सूत्र का प्रतिपादन कर एक क्रांतिकारी
युग का शंखनाद किया है। उन्होंने भविष्य की सभ्यता के लिए छ: सूत्री फार्मूला प्रदान किया है।
आध्यात्मिक दर्शन, सामाजिक आर्थिक सिद्धांत, सामाजिक दृष्टिकोण, सुव्यवस्थित साधना पद्धति,
त्रिशास्त्र एवं पथ प्रदर्शक। यह सूत्र भविष्य के स्वर्णिम भारतवर्ष की ओर ले चलते हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित आनन्द मार्ग दर्शन एक वैज्ञानिक आध्यात्मिक दर्शन है। प्रगतिशील उपयोग तत्व एक व्यवहारिक सामाजिक आर्थिक सिद्धांत है। नव्य मानवतावाद एक समग्र सामाजिक दृष्टिकोण है। आनन्द सूत्रम, नमो शिवाय शांताय, नमामी कृष्णम् सुन्दरम्, सुभाषित संग्रह, आनन्द वचनानामृतम, कणिका में आनन्द मार्ग दर्शन, कणिका में प्रउत, शब्द चयनिका, मानव समाज इत्यादि इत्यादि एक विस्तृत त्रिशास्त्र है तथा  श्री श्री आनन्दमूर्ति जी के रुप में विश्व को पथ प्रदर्शक मिलना सभ्यता का सौभाग्य है।
        स्वर्णिम भारतवर्ष स्थापित करने हेतु श्री प्रभात रंजन सरकार द्वारा विश्लेषित सदविप्र समाज
एवं राज व्यवस्था  को जानना, समझना एवं आत्मसात करना आवश्यक है।
स्वर्णिम भारतवर्ष का ध्वजारोहण करने में अब अधिक प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं है।हे मनुष्य कमर कस ले प्राउटिष्ट यूनिवर्सल के संग सुखद, सुन्दर एवं प्रगतिशील विश्व का निर्माण करे।
साथ  भारतवर्ष में एक नये स्वर्णिम युग का ध्वजारोहण करे।
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 लेखक श्री आनन्द किरण
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(यह लेख मौलिक, अप्रकाशित एवं स्वलिखित हैं)
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एक भक्त रोया•••
🔴👉 प्रात: स्नान करके जैसे ही अपने कक्ष में आया मोबाइल फोन की घंटी बजी, मोबाइल उठाकर देखा तो एक चिर परिचित बंधु का फोन था। यद्यपि हम दोनों आपस में कभी नहीं मिले हैं लेकिन हम दोनों के बीच एक अपनापन डोर अवश्य बंधी है। अभिवादन के  बाद एक आनन्द संगीत की एक लाइन के साथ दूसरी ओर से भक्त भभक भभक के रोने की आवाज आने लगी। मैं कुछ कहता उससे पहले वे बोल उठें में जानता हूँ कि प्रियतम कई नहीं गए हैं लेकिन उनकी भौतिक अनुपस्थित तो खलती है।  फोन में एक बाल आवाज भी सुनाई दी, नानाजी मत रोइए,, नानाजी मत रोइए।  मैं भक्ति रस के अथाह सागर के समक्ष नतमस्तक गुरु कृपा ही केवलम का उच्चारण करता रहा। उनके सामान्य होने तक मैं कुछ नहीं बोल सकता था। फोन रखने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। अब मुझे साधना करनी थी। भक्ति रस के अथाह सागर के समक्ष मेरे सभी आध्यात्मिक प्रयास बौने लग रहे थे। येनकेन प्रकारेण स्वयं को साधना के लिए तैयार किया। कुछ पल साधना, आसन एवं दैनिक कर्म के बाद कार्यशाला गया। वहाँ चलती क्लास में उनका ख्याल आया। सोच अब सामान्य हो गए होंगे। उनके नम्बर मिलाया। फोन उठाते ही बातचीत प्रारंभ हुई। जैसे ही मैंने भक्त मन में झांका तो बाहर से सामान्य लग रहे थे परन्तु अन्दर वही भावधारा बह रही थी। अब मेरे पास एक ही रास्ता था कि उनको दुनियादारी में ले जाऊँ। कुछ दुनियादारी की बातें पूछने बाद उस रहस्य को जानना चाह तो महसूस किया कि मछली को पानी दूर हटाना कितना मुश्किल होता होगा। फिर भी मछुआरा अपनी जठराग्नि से मजबूर होकर एक निर्दयी कार्य करता है। हम तो उस जगत में रहते हैं जहां मीरा को प्रियतम की मोहब्बत से हटाने के लिए विषपान करवाया गया। भक्त अपने में मस्त है लेकिन उस मस्ती कभी इंसान को ईर्ष्या क्यों हो जाती है? यह मेरे जैसे अल्प ज्ञानी की समझ से परे है।
🔴👉 शास्त्र कहता है कि भक्ति भक्तस्य जीवनम् । मैं समझता था कि भक्त अपने जीवन में भक्ति स्थान अधिक नहीं देने के लिए शास्त्र हमें शिक्षा देता है लेकिन  आज भक्त का जो साक्षात्कार हुआ। वह तो मुझे यह लिखने को मजबूत करता है कि भक्त अपनी भक्ति की ताकत पर स्वयं शास्त्र को शिक्षा दे रहा है। मैं इस दृश्य को स्मरण कर अपने पुण्य कर्म को सहराता हूँ कि मुझे उस सागर में बह रहे राही से मुलाकात हुई। मैं तो साधुता की किश्ती में बैठा  था लेकिन वे तो महामिलन लहरों में गोते लगा रहे थे। काश मेरी भी किश्ती उसी पल डुब गई होती तो मेरा जीवन धन्य हो जाता।
🔴👉 आज मुझे लिखने को एक मंच भक्ति सागर मिल गया। भक्तों की इस राह पर चलने का सौभाग्य मिल गया। लेकिन मेरा मन कहता है कि हे मूर्ख! कब तक इस काल्पनिक लेखनी के सहारे भक्ति को पकड़ने दौड़ेगा। कभी तो स्वयं भी चिर सागर में उतर। तब तुझे मालूम होगा भक्ति क्या होती है? मुझ पत्थर दिल के नसीब में यह दुर्लभ स्थिति कहा। लेखनी की काल्पनिक दुनिया में ही भक्ति रसास्वादन कर मन को बहला दूंगा।
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लेखक:- आनन्द किरण @ महामिलन की आश में
 नोट ➡ भक्त नाम आध्यात्म अनुशासन के मध्य नजर रखते हुए गुप्त रखा गया है। ताकि उनके भक्ति रस में  खलन न हो। मैं पाठकों से क्षमा चाहता हूँ।
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मनुष्य की उत्पत्ति व सदाशिव
मानव उत्पत्ति के बारे में आदिकाल से ही मानव जिज्ञासु रहा हैं। वर्तमान युग में इस सिद्धान्त पर आधारित दो प्रकार की अवधारणा विद्यमान है। प्रथम दार्शनिक दृष्टिकोण द्वितीय वैज्ञानिक दृष्टिकोण। दोनो ही मानव विकास की कहानी को लेकर गहन अनुसंधान का परिणाम बताते है।

(अ) दार्शनिक दृश्टिकोण :- दर्शन शास्त्र ने सृष्टि के विकास व मानव मन की सृष्टि पर व्यापक अध्ययन किया है। इनकी मान्यता को अलग- अलग शब्दों में स्तरानुकुल परिभाषित करने की चेष्टा की गई है। विश्व में दर्शनशास्त्र मुख्यतः दो शाखाएॅ है। प्रथम पूर्वी भारतीय दृष्टिकोण व द्वितीय पश्चिमी युनानी दृष्टिकोण।

(१) भारतीय दृष्टिकोण:- भारतीय दर्शन की शाखा विस्तृत है। इस ने ईश्वर , सृष्टि, मन, नीति आदि तत्वों पर विस्तृत प्रकाश डाला है। मानव उत्पत्ति के संदर्भ में मात्र सृष्टि दर्शन की व्यख्या पर्याप्त है। मानव उत्पति के संदर्भ में भारतीय दो शाखाए है।
      (य.) वैदिक दर्शन :- वैदिक दर्शन शास्त्री सृष्टि उत्पत्ति के प्रश्न के निदानार्थ अध्ययन प्रक्रिया में वेदों के युग में                                        शोध पत्र जारी नहीं हो पाया। कालान्तर विश्व के प्रथम दार्शनिक कपिल के सांख्य दर्षन के बाद
                           में विभिन्न दर्शनो सृष्टि की उत्पत्ति के तथ्य पर प्रकाश डाला तथा मानव ने उपनिषद् युग में                                            दर्शन की गहराई में डुबकी लगाकर ज्ञात किया यह तथ्य खोजा की चेतनपुरूश से जड प्रकृति तथा                                उसे सूक्ष्म चेतन प्राण व क्रमिक विकास के अन्तिम क्रम में मानव की उत्पत्ति हुई।
      
       (र.) जैन दर्शन :- इसके अनुसार जिन नामक चेतन प्राण से जड़ की सृष्टि हुई उसे जद्गल जीन में प्राण का विकास                                    हुआ। इसी क्रम में मानव का सृजन हुआ।

       (ल.) बौद्ध दर्शन :- इसके अनुसार शुन्य बौद्धिसत्व से जडत्व तथा जडत्व से दुःखी जीव की चरम अवस्था में मानव                                    आया।

       (व.) पौरणाइक दर्शन :- इस दर्शन में विभिन्न देवताओं को केन्द्र मानव कर उनसे देवी तथा सृष्टि के विकास में ब्रह्मा                                           ने मानव को सभी प्राणियों की रक्षार्थ बनाया।

       (श.) शाक्त दर्शन  :- यह चेतन मॉ तीन चेतन पुरूश तथा उससे तीन प्रकृति तथा उसे सृश्टि  व मानव की सृजन                                             हुआ।

(२.) पश्चिमी युनानी दर्शन :-  इस दर्शन ने सृष्टि उत्पत्ति के विज्ञान को स्पष्ट नहीं करते हुए, एक बात स्वीकारी कि तत्व से ही विश्व आया। उसमें मानव ही उस तत्व का असली पहचान कृत है। ईसाई युहदी पारसी व इस्लाम ने दर्शन की बजाया नैतिक शिक्षा पर अधिक बल देता है  पर दर्शन की झलक सर्वोच्च सत से मानव के आने की बात करता है।
इस सब में एक बात उभयनिष्ठ है कि चेतन से पदार्थ व पदार्थ से पुनः चेतन तथा इसका चरम विकास ही मानव है। यद्यपि पुरूष को सभी में अलग-अलग प्रकार से परिभाषित किया है। प्रकृति को किसी ने प्रभावशाली तो किसी ने गौण बताया है। यह दर्शन विकास का क्रमिक विकास के विभिन्न स्तर का परिणाम है।
सदाशिव के जीवन के काल के बहुत बाद दर्शन शास्त्र का जन्म हुआ। सदाशिव ने तात्कालिन मानव के मन स्थिती देखकर इन झाल से दूर रहन की सलाह दी।

(ब.) वैज्ञानिक दृश्टिकोण :- विज्ञान के अनुसार पदार्थ(जड़) से जीव का सृजन हुआ है, विज्ञान पदार्थ सृजन की चार अवस्था का क्रम ठोस, द्रव, उष्मा व गैस निर्धारित कर चुका है। पर गैस कहा से आया। इस पर शोध पत्र जारी होना है, पर इतना सैद्धान्तिक रूप से स्पष्ट है। कि निर्वात में उपस्थित ईथर कण से गैस का सर्जन हो सकता है। ईथर कण ही वास्तविक निर्वात है। निर्वात कहा आया यह शोध होने के बाद स्पष्ठ हो जाएगा कि चेतन ही जड़ अवस्था में परिवर्तति हुआ। वैज्ञानिक सिद्धान्त के अनुसार वानर प्रजाति के बाद मानव की सृष्टि हुई।
इस प्रकार मानव उत्पत्ति के देनो सिद्धान्त में एक ही बात उभयनिष्ट है कि चैतन्य ही सृष्टि का आदिकारक है चैतन्य पर दर्शन ने तो काफी कुछ शोध कर दिया है विज्ञान के जानकारी में नहीं आ पाया है। मानव के विकास के बारे में दोनो ही एकमत है कि सभी जीवों अन्तिम व उन्नत प्रजाति मानव है।
आदि चैतन्य को भी दर्शन ने शिव नाम से अभिनिहित किया है। मानव उत्पत्ति के बाद के इतिहास क्रम में धातु युग के उतर में तथा सभ्यता युग पुर्वाद्ध में एक अति विकशीत चैतन्य युक्त मानव का जन्म हुआ। इस मानव ने पृथ्वी की मानव सभ्यता के विकास में अतुलनीय योगदान दिया। सृष्टि के अन्य बुद्धि सम्पन्न मानव से उस मानव की तुलना नहीं की जा सकती थी। वह मानव इतिहास में सदाशिव के नाम से जाना गया। सदाशिव का आगमन मानव के आने के कोटी युग बाद धरती पर हुआ। सदाशिव की वेश-भूषा व कार्य पद्धति उन्हें किसी आकाशीय देवता से अलग किसी वास्तविक पुरूष के रूप में चित्रित करती है। बडे दुःख की बात है कि इस महामानव को किसी सम्प्रदाय या मजबह विशेष का देवता समझ कर इस पर निश्पक्ष शोधपत्र जारी नहीं कर पाया है। इतिहास की इस महासम्भुति के साथ इतिहासकारों का किया गया। अन्याय है।
सदाशिव के महान योगादान के प्रति श्रृद्धा अर्पित करते हुए महान इतिहासकार श्री प्रभात रंजन सरकार ने उनकी स्मृति में कई प्रभात संगीत की रचना की है। साथ नमो शिवाय शान्ताय नामक पुस्तक की रचना कर सदाशिव की देन से मानव जाति को परिचित करवाया।
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   👉 लेखक:- करण सिंह राजपुरोहित उर्फ आनंद किरण
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पहले भगवान या फिर दुकान ??
जयपुर में एक नाई की दुकान पर बाल कटवा रहा था। नाई एवं पास की कुर्सी पर दाढ़ी बना रहे एक भाई के बीच धर्म चर्चा चल रही थी। इस चर्चा का एक निष्कर्ष निकाला पहले भगवान, फिर दुकान। जब पास यह चर्चा यदि कोई लेखक सुना रहा हो तो अवश्य ही बाल की खाल निकालने के कलम से पेपर कुरसने लग जाता है। मैं भला इतना अच्छा विषय छोड़ कैसे सकता था। मेरा ध्यान विषय की  में डुबकी लगाने लगा। भगवान एवं दुकान दोनो शब्द से परिचित था। भगवान के नाम पर दुकानें चलाना आजकल के युग की एक आम परिपाटी हो गई है लेकिन यहाँ तो दुकान से पहले भगवान की महत्ता को अंगीकार किया जा रहा है। दुकान धंधा अच्छा चले इसलिए भगवान की पूजा धूप करते तो मैंने सहस्रजन को देखा है।  मेरे जीवन का यह प्रथम वाक्याय था कि एक व्यक्ति भगवान एवं दुकान पृथक मानते हुए भगवान को प्रधान एवं दुकान गौण स्थान पर रख रहा है। भगवान के लिए जगत को छोड़कर जाने वालों के सहस्र सुन रखे थे लेकिन यहां दोनों के महत्व को अंगीकार करते हुए आर्थिकता से पहले आध्यात्मिकता को स्थापित किया जाने बात थी।
         धार्मिक रूढ़िवादीता आध्यात्म एवं आर्थिकता एक दूसरे का विपरीत रास्ता बताते हैं। वस्तु जगत में न तो आध्यात्म अर्थ शक्ति से पृथक रहा है, न ही अर्थ शक्ति आध्यात्म के बिना चल पाई है। साम्यवादी एवं नास्तिकवादी विचारक आध्यात्म को अर्थ  जगत के लिए उपयुक्त नहीं बताते हैं लेकिन वे अपने आत्मिक पटल से कभी भी आध्यात्म को ओझल नहीं किया है । वस्तुतः आध्यात्म एवं अर्थ शक्ति में कुछ संबंध है। जिसे समझे बिना विषय पूर्णतया को प्राप्त नहीं हो सकता है। आर्थिकता चकाचौंध में मनुष्य आध्यात्म को भूल जाता है लेकिन घरा की वास्तविकता उसे पुनः लाती है। कई बार समय रहते मुसाफिर संभल जाता है तथा कभी-कभी संभलने से पूर्व ही वक्त निकल जाता है । अत: हम कह सकते हैं कि आध्यात्म एवं आर्थिकता एक दूसरे की पूरक शक्तियां हैं।
       अर्थ शक्ति एवं आध्यात्म दोनो को गति एक दूसरे के विपरीत होने पर भी  यह कभी भी एक दूसरे के विरोध में नहीं है। आध्यात्म अन्त: जगत में समृद्धि को लाता है जबकि अर्थ शक्ति बाह्य जगत में रिद्धि सिद्धि का अध्याय लिखती हैं। आंतरिक अशान्ति बाह्य शान्ति को खतरे में डाल देती  तथा बाह्य अशान्ति अन्त जगत को प्रभावित कर लेते हैं। किसी भी समाज अथवा देश के संतुलित एवं प्रगतिशील विकास के लिए आध्यात्म प्रधान अर्थनीति की आवश्यकता होती है।
       विकास यदि एक आयामी होता तो अवश्य ही दोनों में से किसी एक को चुनना पड़ता है। विकास समग्रता के आधार स्तंभ पर स्थापित है। भौतिक विकास के साथ मानसिक, आचार विचार एवं चिन्तन में भी विकास होता है। ठीक इसी प्रकार आत्मिक विकास के रिद्धि सिद्धि भी पीछे पड़ने लगती है।
         विश्व मंच पर प्राचीन भारतीय संस्कृति के आर्थिक मूल्य आध्यात्म प्रेरित थे। उसके बाद श्री प्रभात रंजन सरकार द्वारा आध्यात्म प्रेरित अर्थ व्यवस्था प्रदान की गई है। इस अर्थव्यवस्था का नाम प्रणेता ने प्रगतिशील उपयोगी तत्व ( प्रउत) प्रदान करते हैं ।
      प्रउत व्यवस्था नाई दुकान पर चर्चा कर रहे ज्ञानियों का सही उत्तर हो सकता है। यह न्यूनतम आवश्यकता की ग्रारण्टी देकर आर्थिकता आध्यात्म को संरक्षण प्रदान करती तो विवेकपूर्ण वितरण की पद्धति, संग्रहण की वृत्ति पर समाज की लगाम एवं संभावना व सामर्थ्य की सुसंतुलित एवं अधिकतम उपयोग आर्थिक जगत आध्यात्म की आवश्यकता को अंगीकार करती है।
          प्रउत विचारधारा की स्वीकार्यता को प्रमाणित करने के लिए दर्शन की उक्ति आत्म मोक्षार्थ जगत हितायश्च में निहित है । आत्म मोक्ष के लिए भगवान तथा जगत हित के लिए दुकान का साथ साथ होना आवश्यक है।
        वह व्यष्टि प्रथम स्थान पर भगवान को रखकर यह कहना चाहता है कि मनमनुष्य जीवन में आध्यात्मिकता की प्रधानता है। अन्य कार्य अनावश्यक नहीं है अपितु द्वितीयक स्थान पर है। एडम स्मिथ एवं कॅार्ल माक्स इत्यादि ने मनुष्य को आर्थिक प्राणी बताकर एक दिशाहीन एवं प्रकृत गतिधर्म के विरुद्ध चिन्तन दिया। भारतीय चिन्तन में एक प्रमाणित विज्ञान है। जिसमें मनुष्य को आध्यात्मिक प्राणी बताया है। मनुष्य की जीवन यात्रा सृष्टि के उषाकाल से ही पूर्णत्व की ओर रही है। उस व्यष्टियों की चर्चा सहज में मनुष्य की जीवन यात्रा को चित्रित कर रही थी।
           मनुष्य की कर्मधारा सदैव अनन्त सुख की ओर रही है। यह अनन्त सुख अथवा आनन्द पूर्णत्व में निहित है। पूर्णत्व आध्यात्मिकता की संपदा है। आर्थिक शक्ति का कितना भी विस्तार क्यों न हों पूर्ण नहीं हो सकती है।
       वह हसते हसाते ब्रह्म ज्ञान दे गया। ऋषि, मुनि व देवगण के जीवन का सारा बाल कटिंग की दुकान पर सहज एवं सरलता से मिल रहा था। उसे एक लेखक भला कैसे खोने देता है। यह ज्ञान विज्ञान आप मेरे लिए उसे ऐसे ही अविरल बहने दीजिए। जिसे आवश्यकता होगी ले लेगा । अन्यथा बहता सच्चे जिझासु के पास पहुँच जाएगा।
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श्री आनन्द किरण
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मौलिक, अप्रकाशित एवं स्वरचित