एक भक्त रोया•••
🔴👉 प्रात: स्नान करके जैसे ही अपने कक्ष में आया मोबाइल फोन की घंटी बजी, मोबाइल उठाकर देखा तो एक चिर परिचित बंधु का फोन था। यद्यपि हम दोनों आपस में कभी नहीं मिले हैं लेकिन हम दोनों के बीच एक अपनापन डोर अवश्य बंधी है। अभिवादन के  बाद एक आनन्द संगीत की एक लाइन के साथ दूसरी ओर से भक्त भभक भभक के रोने की आवाज आने लगी। मैं कुछ कहता उससे पहले वे बोल उठें में जानता हूँ कि प्रियतम कई नहीं गए हैं लेकिन उनकी भौतिक अनुपस्थित तो खलती है।  फोन में एक बाल आवाज भी सुनाई दी, नानाजी मत रोइए,, नानाजी मत रोइए।  मैं भक्ति रस के अथाह सागर के समक्ष नतमस्तक गुरु कृपा ही केवलम का उच्चारण करता रहा। उनके सामान्य होने तक मैं कुछ नहीं बोल सकता था। फोन रखने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। अब मुझे साधना करनी थी। भक्ति रस के अथाह सागर के समक्ष मेरे सभी आध्यात्मिक प्रयास बौने लग रहे थे। येनकेन प्रकारेण स्वयं को साधना के लिए तैयार किया। कुछ पल साधना, आसन एवं दैनिक कर्म के बाद कार्यशाला गया। वहाँ चलती क्लास में उनका ख्याल आया। सोच अब सामान्य हो गए होंगे। उनके नम्बर मिलाया। फोन उठाते ही बातचीत प्रारंभ हुई। जैसे ही मैंने भक्त मन में झांका तो बाहर से सामान्य लग रहे थे परन्तु अन्दर वही भावधारा बह रही थी। अब मेरे पास एक ही रास्ता था कि उनको दुनियादारी में ले जाऊँ। कुछ दुनियादारी की बातें पूछने बाद उस रहस्य को जानना चाह तो महसूस किया कि मछली को पानी दूर हटाना कितना मुश्किल होता होगा। फिर भी मछुआरा अपनी जठराग्नि से मजबूर होकर एक निर्दयी कार्य करता है। हम तो उस जगत में रहते हैं जहां मीरा को प्रियतम की मोहब्बत से हटाने के लिए विषपान करवाया गया। भक्त अपने में मस्त है लेकिन उस मस्ती कभी इंसान को ईर्ष्या क्यों हो जाती है? यह मेरे जैसे अल्प ज्ञानी की समझ से परे है।
🔴👉 शास्त्र कहता है कि भक्ति भक्तस्य जीवनम् । मैं समझता था कि भक्त अपने जीवन में भक्ति स्थान अधिक नहीं देने के लिए शास्त्र हमें शिक्षा देता है लेकिन  आज भक्त का जो साक्षात्कार हुआ। वह तो मुझे यह लिखने को मजबूत करता है कि भक्त अपनी भक्ति की ताकत पर स्वयं शास्त्र को शिक्षा दे रहा है। मैं इस दृश्य को स्मरण कर अपने पुण्य कर्म को सहराता हूँ कि मुझे उस सागर में बह रहे राही से मुलाकात हुई। मैं तो साधुता की किश्ती में बैठा  था लेकिन वे तो महामिलन लहरों में गोते लगा रहे थे। काश मेरी भी किश्ती उसी पल डुब गई होती तो मेरा जीवन धन्य हो जाता।
🔴👉 आज मुझे लिखने को एक मंच भक्ति सागर मिल गया। भक्तों की इस राह पर चलने का सौभाग्य मिल गया। लेकिन मेरा मन कहता है कि हे मूर्ख! कब तक इस काल्पनिक लेखनी के सहारे भक्ति को पकड़ने दौड़ेगा। कभी तो स्वयं भी चिर सागर में उतर। तब तुझे मालूम होगा भक्ति क्या होती है? मुझ पत्थर दिल के नसीब में यह दुर्लभ स्थिति कहा। लेखनी की काल्पनिक दुनिया में ही भक्ति रसास्वादन कर मन को बहला दूंगा।
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लेखक:- आनन्द किरण @ महामिलन की आश में
 नोट ➡ भक्त नाम आध्यात्म अनुशासन के मध्य नजर रखते हुए गुप्त रखा गया है। ताकि उनके भक्ति रस में  खलन न हो। मैं पाठकों से क्षमा चाहता हूँ।
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पहले भगवान या फिर दुकान ??
जयपुर में एक नाई की दुकान पर बाल कटवा रहा था। नाई एवं पास की कुर्सी पर दाढ़ी बना रहे एक भाई के बीच धर्म चर्चा चल रही थी। इस चर्चा का एक निष्कर्ष निकाला पहले भगवान, फिर दुकान। जब पास यह चर्चा यदि कोई लेखक सुना रहा हो तो अवश्य ही बाल की खाल निकालने के कलम से पेपर कुरसने लग जाता है। मैं भला इतना अच्छा विषय छोड़ कैसे सकता था। मेरा ध्यान विषय की  में डुबकी लगाने लगा। भगवान एवं दुकान दोनो शब्द से परिचित था। भगवान के नाम पर दुकानें चलाना आजकल के युग की एक आम परिपाटी हो गई है लेकिन यहाँ तो दुकान से पहले भगवान की महत्ता को अंगीकार किया जा रहा है। दुकान धंधा अच्छा चले इसलिए भगवान की पूजा धूप करते तो मैंने सहस्रजन को देखा है।  मेरे जीवन का यह प्रथम वाक्याय था कि एक व्यक्ति भगवान एवं दुकान पृथक मानते हुए भगवान को प्रधान एवं दुकान गौण स्थान पर रख रहा है। भगवान के लिए जगत को छोड़कर जाने वालों के सहस्र सुन रखे थे लेकिन यहां दोनों के महत्व को अंगीकार करते हुए आर्थिकता से पहले आध्यात्मिकता को स्थापित किया जाने बात थी।
         धार्मिक रूढ़िवादीता आध्यात्म एवं आर्थिकता एक दूसरे का विपरीत रास्ता बताते हैं। वस्तु जगत में न तो आध्यात्म अर्थ शक्ति से पृथक रहा है, न ही अर्थ शक्ति आध्यात्म के बिना चल पाई है। साम्यवादी एवं नास्तिकवादी विचारक आध्यात्म को अर्थ  जगत के लिए उपयुक्त नहीं बताते हैं लेकिन वे अपने आत्मिक पटल से कभी भी आध्यात्म को ओझल नहीं किया है । वस्तुतः आध्यात्म एवं अर्थ शक्ति में कुछ संबंध है। जिसे समझे बिना विषय पूर्णतया को प्राप्त नहीं हो सकता है। आर्थिकता चकाचौंध में मनुष्य आध्यात्म को भूल जाता है लेकिन घरा की वास्तविकता उसे पुनः लाती है। कई बार समय रहते मुसाफिर संभल जाता है तथा कभी-कभी संभलने से पूर्व ही वक्त निकल जाता है । अत: हम कह सकते हैं कि आध्यात्म एवं आर्थिकता एक दूसरे की पूरक शक्तियां हैं।
       अर्थ शक्ति एवं आध्यात्म दोनो को गति एक दूसरे के विपरीत होने पर भी  यह कभी भी एक दूसरे के विरोध में नहीं है। आध्यात्म अन्त: जगत में समृद्धि को लाता है जबकि अर्थ शक्ति बाह्य जगत में रिद्धि सिद्धि का अध्याय लिखती हैं। आंतरिक अशान्ति बाह्य शान्ति को खतरे में डाल देती  तथा बाह्य अशान्ति अन्त जगत को प्रभावित कर लेते हैं। किसी भी समाज अथवा देश के संतुलित एवं प्रगतिशील विकास के लिए आध्यात्म प्रधान अर्थनीति की आवश्यकता होती है।
       विकास यदि एक आयामी होता तो अवश्य ही दोनों में से किसी एक को चुनना पड़ता है। विकास समग्रता के आधार स्तंभ पर स्थापित है। भौतिक विकास के साथ मानसिक, आचार विचार एवं चिन्तन में भी विकास होता है। ठीक इसी प्रकार आत्मिक विकास के रिद्धि सिद्धि भी पीछे पड़ने लगती है।
         विश्व मंच पर प्राचीन भारतीय संस्कृति के आर्थिक मूल्य आध्यात्म प्रेरित थे। उसके बाद श्री प्रभात रंजन सरकार द्वारा आध्यात्म प्रेरित अर्थ व्यवस्था प्रदान की गई है। इस अर्थव्यवस्था का नाम प्रणेता ने प्रगतिशील उपयोगी तत्व ( प्रउत) प्रदान करते हैं ।
      प्रउत व्यवस्था नाई दुकान पर चर्चा कर रहे ज्ञानियों का सही उत्तर हो सकता है। यह न्यूनतम आवश्यकता की ग्रारण्टी देकर आर्थिकता आध्यात्म को संरक्षण प्रदान करती तो विवेकपूर्ण वितरण की पद्धति, संग्रहण की वृत्ति पर समाज की लगाम एवं संभावना व सामर्थ्य की सुसंतुलित एवं अधिकतम उपयोग आर्थिक जगत आध्यात्म की आवश्यकता को अंगीकार करती है।
          प्रउत विचारधारा की स्वीकार्यता को प्रमाणित करने के लिए दर्शन की उक्ति आत्म मोक्षार्थ जगत हितायश्च में निहित है । आत्म मोक्ष के लिए भगवान तथा जगत हित के लिए दुकान का साथ साथ होना आवश्यक है।
        वह व्यष्टि प्रथम स्थान पर भगवान को रखकर यह कहना चाहता है कि मनमनुष्य जीवन में आध्यात्मिकता की प्रधानता है। अन्य कार्य अनावश्यक नहीं है अपितु द्वितीयक स्थान पर है। एडम स्मिथ एवं कॅार्ल माक्स इत्यादि ने मनुष्य को आर्थिक प्राणी बताकर एक दिशाहीन एवं प्रकृत गतिधर्म के विरुद्ध चिन्तन दिया। भारतीय चिन्तन में एक प्रमाणित विज्ञान है। जिसमें मनुष्य को आध्यात्मिक प्राणी बताया है। मनुष्य की जीवन यात्रा सृष्टि के उषाकाल से ही पूर्णत्व की ओर रही है। उस व्यष्टियों की चर्चा सहज में मनुष्य की जीवन यात्रा को चित्रित कर रही थी।
           मनुष्य की कर्मधारा सदैव अनन्त सुख की ओर रही है। यह अनन्त सुख अथवा आनन्द पूर्णत्व में निहित है। पूर्णत्व आध्यात्मिकता की संपदा है। आर्थिक शक्ति का कितना भी विस्तार क्यों न हों पूर्ण नहीं हो सकती है।
       वह हसते हसाते ब्रह्म ज्ञान दे गया। ऋषि, मुनि व देवगण के जीवन का सारा बाल कटिंग की दुकान पर सहज एवं सरलता से मिल रहा था। उसे एक लेखक भला कैसे खोने देता है। यह ज्ञान विज्ञान आप मेरे लिए उसे ऐसे ही अविरल बहने दीजिए। जिसे आवश्यकता होगी ले लेगा । अन्यथा बहता सच्चे जिझासु के पास पहुँच जाएगा।
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श्री आनन्द किरण
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मौलिक, अप्रकाशित एवं स्वरचित