विष्णु में विश्व इतिहास ➡ 04

   विश्व इतिहास का तृतीय अध्याय🔵
     👑 वराह युग- तृतीय संभूति

           उभयचर जीवों के बाद जीवों की एक ऐसी प्रजाति आई। स्थायी रुप से पृथ्वी पर वास करने लगी। यह युग अंडज से जरायुज वर्गीय जीवों के इतिहास का  है। इस युग में जीवों की विभिन्न श्रेणियों के साथ पादपों की विशालता दिखाई देने लगी। पृथ्वी के स्थायी निवासी कच्छप, सरीसृप, नभचर, कुकुर, गाय, लोमड़, हिरण्य,  बिल्ली एवं वानर प्रजाति के  जीवों का प्रतिनिधित्व वराह ने किया। यह जगली एवं पालतू दोनों ही रुप में पाया है। शाकाहार एवं मांसाहार दोनों के गुण विद्यमान हैं। यह विशालकाय एवं लधुकाय दोनों में योजक बन सकता है। थलचर, उभयचर एवं जलचर तीनों में सामंजस्य स्थापित कर सकता है। नभचर भी इसे अपने प्रतिनिधि प्रदान कर सकते है। क्योंकि उनके लिए सफाई का कार्य सम्पादित करने के लिए तत्पर रहता है।

         वराह संभूति की कथा में कहा गया है कि हिरण्याक्ष नामक दैत्य ने पृथ्वी को जल की गहराइयों छिपा दिया था। श्री हरि विष्णु ने वराह रुप धरकर पृथ्वी को पुनः उसके निर्धारित कक्ष में स्थापित किया। मैंने पूर्व ही लिखा है कि कथाओं की वास्तविकता एवं अवास्तविकता रेखांकित करना मेरा विषय नहीं है। हिरण्य अर्थात स्वर्ण एवं आभूषण इत्यादि बहुमूल्य रत्नों के जल से थल पर प्रकट होने की बात को रेखांकित करने के प्रतीकात्मक स्वरूप में भूमि को खोदने वाले के प्रतिबिंब के रुप में सुअर को चित्रित किया होगा। यह युग स्तनधारी जीवों का युग है। 

वराह युग का ऐतिहासिक मूल्यांकन   विश्व के इतिहास का तृतीय अध्याय एवं चतुर्थ पन्ना लिखा जा रहा है। इतिहास के परिप्रेक्ष्य में परीक्षा देकर इसे आगे बढ़ना होगा। जैविक युग इतिहास लिखा जा रहा ऐतिहासिक मूल्यांकन इतिहासकारों के हास्य का विषय हो सकता है लेकिन शोधकर्ताओं के एक दिशा निर्देश लाइन खिंचना भी लेखन का उद्देश्य होता है। वराह युग इतिहास की प्रत्येक कसौटी पर कसना इसके साथ न्याय है। इससे पूर्व कूर्म, मत्स्य एवं पाक ऐतिहासिक युग ने भी कठिन परीक्षा दी है।

(१) राजनैतिक जीवन   वराह युग में जीवों की विभिन्न प्रजातियों एवं जैविक परिवार की स्पष्ट रेखा दिखायी देती है। इसके साथ कहीं न कहीं जैव जगत का एक सामान्य अनुशासन भी है। जीव अपनी-अपनी सुरक्षा एवं भोजन संग्रहण के लिए झुंड में रहता था। संघात्मक शासन का प्रथम स्वरुप यहाँ दिखाई देता है। यह पशु अपने में से चतुर्थ एवं धूर्त शक्तिशाली का नेतृत्व स्वीकार करते थे तथा अपनी प्रजाति के निर्बल एवं अकेले पर हमला अथवा अन्य आपदा आने पर सामूहिक सहयोग का परिचय देते हैं। संधात्मक भावना है। नभ, जगल, गिरी कंधरा, बिल, वृक्ष, दलदली एवं मैदान धरती पर मानो प्रकृति के दिए राज्य है।

(२) सामाजिक जीवन इस युग के जीवों में ममत्व का भाव अंकुरित हुआ था। जो सामाजिकता की रेखा खींचने के लिए पर्याप्त आधार रेखा है। चूंकि यह स्तनधारी जानवरों का युग था। जहाँ शिशु से लगाव होना मातृ सत्तात्मक समाज के चित्रण का एक सुंदर उदाहरण है। 

(३) धार्मिक जीवन जैव धर्म के अंग  अहार, भय, निंद्रा तथा मैथुनीय यहाँ दिखाई देते है। निर्बल एवं असहाय के प्रति सहानुभूति की वृत्ति ने मदद करने के धार्मिक मूल्यों को परिभाषित करने का अवसर दिया है। जो इस युग के धार्मिक जीवन के मजबूत रेखा है।

(४) आर्थिक जीवन - स्वयं एवं संतान के लिए आहार जुटाना के भाव का अंकुरण आर्थिकता के जीवन रेखा है। युथबद्ध जीवों में मिलकर भोजन की तलाश के लिए जाने की वृत्ति सहकारिता के सूत्र का रेखांकित करने का अच्छा उदाहरण बन सकता है।

(५) मनोरंजनात्मक दशा इस युग में मनोरंजन की प्रचुरता मिली है। विभिन्न जीवों का सजातीय मित्रों के साथ क्रीड़ा करना तथा एक मांग के लिए लड़ना मनोरंजन का स्वरुप है। दो नर पशुओं को लड़ाकर आनन्द लेने वाले इस काल की मनोरंजनात्मक दुनिया से कैसे इनकार कर सकते है। पहाड़ों पर चढ़ाई, मिट्टी एवं जल में खेलना भी इस युग के जीवों के मनोरंजन था।

(६) विश्व को देन   इस युग ने मनुष्य को शिक्षा के लिए पंचतंत्र जैसे शिक्षा मूलक कहानियाँ लिखने के लिए स्वयं का मंच दिया है। विश्व को 'संगठन में शक्ति है' सूत्र प्रदान करने की शिक्षा इस युग के जीवों की जीवन शैली ने दी है।

         यह सामाजिक अर्थनीति सिद्धांत की विप्र युग की अवस्था है। शरीर प्रधान जीव भी कुछ चातुर्य का उपयोग करने लगे थे। बल के स्थान पर युक्ति की जीत के सूत्र के बल पर यह जीव रक्षा करते थे, जो विप्र युग कहने के पर्याप्त आधार है । सतयुग अब अधिक प्रौढ़ हुआ था।

-----------------------------------
लेखक - श्री आनन्द किरण
--------------------------------

अंकल मुझे मुसलमान नहीं बनना....
        
रोता बिलखता मेरा 12 वर्षीय भतीज कृष्ण मेरे पास आकर कहने लगा कि मेरे कानों का छेदन करवाओं
अन्यथा में अगले जन्म में मुसलमान बन जाऊँगा। मैनें कृष्ण को ढढास बंधवाते कहा कि इस कपोल कल्पित
बातों पर तु विश्वास मत कर । उसका रोना फिर से जारी रहा एवं रोते-रोते मुझसे कहा कि भगवान करें आपने
कहा वह बात शत प्रतिशत सत्य हो, पर यदि मैं मुसलमान बन गया तो बहुत बड़ा पाप हो जाएगा। मेरे ज्ञान को
चुनौती देने वाला प्रश्न एक नौनिहाल के मुख सुन कर में सज्जनों की भाषा में कहा बेटे मुसलमान बनने में क्या
हर्ज है। मुसलमान ही सही कम से कम इंसान तो बन जाएंगे । इस पर कृष्ण ने तापाक जबाव दिया - नहीं नहीं
और नहीं। मैं कुछ भी बन सकता हूं लेकिन मुसलमान नहीं। मैने बाल मन की पीड़ा जानने का प्रयास किया। 
मैनें कहा कि मुसलमान बनने में क्या बुराई है ? उसने तुरन्त जबाब दिया कि बुराई तो कुछ नहीं लेकिन एक
मुसलमान लाख प्रयास करे तो भी भगवान (अल्लाह) नहीं बन सकता है। एक सच्चा भागवत अपनी कर्म साधना के    बल पर परम तत्व को प्राप्त कर सकता है।
        
        मैने कहा नहीं, नहीं ऐसा कुछ भी नहीं सत्य सर्वत्र व्याप्त है। तुम कुरान ए शरीफ़ एवं मोहम्मद साहब के संदेश को पढ़ चिन्ता मग्न मत हो, सूफी परंपरा में आध्यात्म की गहराइयों का स्मरण है। सूफ़ी अल्लाह तक पहुंच की सच्ची राह है। अंकल में इतनी बड़ी बातें तो नहीं जानता पर आज तक एक भी सूफी इस्लाम अल्लाह के रूप में गण्य हुआ हो बताओ । मेरे पास बाल मन को उदाहरण देने के लिए कोई पात्र नहीं था फिर अचानक मेरा ध्यान साई बाबा की ओर गया मैनें कृष्ण से कहा कि देखो साई बाबा इस्लाम में होते हुए भी भगवान बने। कृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा साई को ईश्वर हम भागवत धर्मियों बनाया है,  यदि वे इस्लाम का दामन ही थामें बैठे होते तो किसी ख्वाजा की तरह दरगाह में दफ़न होकर कयामत की रात की इंतजार करते होते। अपने पुरुषार्थ की बली देने को विवश होना पड़ता। भागवत धर्म ही तो पुरुषार्थ के बल पर परम तत्व तक पहुंचने की बात करता है। कृष्ण की ज्ञान भरी बातों ने मुझे कीकर्तव्यविमुढ स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया। मैंने कृष्ण को ईसा मसीह के कृपावाद, बुद्ध के शून्यवाद, महावीर की जिन धारणा, सनातन के मिथ्यावाद एवं अन्यन की अपूर्णता में उलझाना उचित नहीं समझा। मैनें कृष्ण से वेदों की प्रकृति पूजा पर प्रश्न नहीं किया क्योंकि रहस्यवाद की इस प्रथम खोज में उपस्थित ब्रह्म विज्ञान से ही तो हमें उपनिषदों का दर्शन ज्ञान प्राप्त हुआ है। इसे चरम सत्य मानने की बजाय आध्यात्मिक खोज का क्रमिक विकास मानना ही सत्य के साथ किया गया न्याय है। मैनें कृष्ण को हिन्दूओं के अवतारवाद की ओर ले जाकर प्रश्न किया कि पूर्णत्व तो जन्म लेता, पुरुषार्थ योग तो गीता के उपदेश के ध्वज तलें दब गया है। कृष्ण मेरे प्रश्न का सिधा उत्तर देने की बजाय मेरे से प्रश्न किया कि ब्रह्मा को सृजन का कार्य दिया है, विष्णु को पालन तो महेश को संहार की शक्ति प्रदान है लेकिन हिन्दू अवतारों में राक्षसों के संहारक के रुप में विष्णु को दिखाया गया है महेश को तो राक्षसों के आराध्य के रूप में दिखाया है, जो इनको मन चाह वरदान दे देते हैं । अंकल अवतारवाद तो यही पर घुटने टेक लेता है। मैनें कृष्ण की आँखों में गीता में पूर्णत्व के आगमन की घोषणा को वैष्णव एवं शैव के भेद से ऊपर विशुद्ध भागवत दर्शन को देखा जो पुरुषार्थ को दफ़न किये बिना पूर्णत्व के साक्षात्कार को स्वीकार करता है। विष्णु का कोई भी अवतार पूर्ण नहीं है क्योंकि विष्णु में ब्रह्मा एवं महेश की शक्ति नहीं समा सकती है। विष्णु में दोनो समेलित करने का प्रयास करे विष्णु अस्तित्वहीन हो जाएगा। हिन्दूओं का देवतावाद भी पूर्णत्व को छु ही नहीं सकता है। पूर्णत्व एवं पुरुषार्थ की इस जंग में धर्म की ग्लानि, अधर्म का उत्थान, साधुओं का परित्राण एवं दुष्टों का विनाश के प्रश्नों पर कृष्ण को घेरना बाल मन के साथ कपटता खेलना है। पूर्णत्व पुरुषार्थ से प्राप्त किया जाता है, तो पूर्णत्व का महासम्भुति काल पुरुषार्थ की शिक्षा देने वाला गुरु युग हैं। कृष्ण के प्रश्न भागवत धर्म जो मानव धर्म है को समझने पर बल देता है। भागवत धर्म पंथवाद एवं मतवाद से ऊपर विशुद्ध मानव धर्म है। यही साधना मार्ग आनन्द मार्ग हैं।
------------------------------------------------------------------------------------------------------------

लेखक -- श्री आनन्द किरण (करण सिंह) शिवतलाव

December 20, 2015 at 12:59pm ·

मुख में राम बगल में छुरी..
                     मुख में राम बगल में छुरी...। यह उक्ति सुनते ही मन में एक कपटाचारी व्यक्ति की छवि उभर कर सामने आती है। मैं उक्ति के संदर्भ में समाज से प्रश्न करना चाहूंगा कि सनातन परम्परा में वर्णित देवी - देवता सत्य व धर्म के अवतार माने जाते है फिर उन सबके बगल में हथियार क्यों है ? क्या यह मिथ्याचारी है ?  इन प्रश्नों के उत्तर देना, क्या उक्ति कहने वालों के लिए आवश्यक नहीं है ?

                         सत्य तो यह है कि हम लकीर के फकीर है, जो हमने कभी उक्ति के मूल भाव को समझने कि आवश्यकता ही नहीं समझी। साधारण जन तो यह कह कर मुक्ति पा लेगा कि हमें ज्ञान ही नहीं है, पर समाज के अग्रदूत साहित्यकार, पत्रकार, नेतृत्ववृंद, व बुद्धिजीवियों के बचने का कोई उपाय नहीं है। कल जब इस पर नूतन शोध हो जाएगा, तब वे हमारी अक्ल पर ठहाके लगाएंगे। मैं भावी पीढी को कदापि अवसर नहीं देना चाहता कि हम निपट मूढ़ है। पूर्ण नहीं तो कम से कम कुछ अंश तो भावी पीढ़ी के शोधार्थ रखे। यदि उक्ति कहने वालों से आदर्श चरित्रों से साक्षात्कार हो गया, तो उनके प्रश्नों क्या उत्तर देंगे। हमने उनके सत कर्मों फल कपट के रूप चित्रित करके दिया। अत: इस उक्ति पर शोध करना अतिआवश्यक है।


मुख शब्द का अर्थ ➡ मुख शब्द के शब्दार्थ एवं भावार्थ पर विचार करे। प्रथम मुख शब्द का अर्थ मुंह :- जीभ दांत की पंक्ति युक्त शरीर का अंग। द्वितीय मुख माने हुआ मुख्य :- सभी में से खास या प्रमुख। तृतीय मुख यानी प्रथम :- मुख पृष्ठ, मुखिया या प्रथम नागरिक। इन तीनों का गूढार्थ एक ही है। जिसका प्रथम लक्ष्य या मुख्य उद्देश्य अथवा मध्य बिन्दु यानी प्रमुख कार्य हैं। उक्ति में कहा गया है कि मुख में राम यानी जिसके जीवन का मूल उद्देश्य या लक्ष्य राम हो। जिसकी वाणी में राम विराजमान हो। राम जैसा आदर्श को जिन्होंने अंगीकार कर लिया हो।

राम शब्द का निर्माण ➡ अब राम शब्द के निर्माण के विज्ञान को समझना हो। इसका निर्माण एक नकारात्मक
शब्दावली से है। साहित्य में कहा गया है कि एक जड़ बुद्धि युक्त मानव देहधारी जीव को कुछ व्यष्टि सत् पथ पर लाने की चेष्टा कर रहे थे, उस समय उनके सभी यंत्र मंत्र व तंत्र निष्फल सिद्ध हो जाने पर नाम रूपी साधन का उपयोग किया गया। पर यह उपयोग भी उसके लिए कारगर नहीं हुआ, तब उसके दैनिक जीवन का खास तुका मरा को नाम रूप में उपयोग किया गया। उसकी निष्ठा की बुनियाद पर यह मंत्र बन गया। जब वह व्यक्ति
साधना में बैठा तब मरा मरा उच्चारण कर रहा था लेकिन जब वह योग निन्द्रा से उठा तो राम राम उच्चारण
करते हुए अपने को पाया। वही कालान्तर में मंत्र बन गया। जो लाखों व्यष्टियों के त्राण का माध्यम बना। मरा
माने मृत्यु। उसका विलोम राम माने हुआ जीवन, नूतन चेतना।

                उक्ति कहती है कि मुख में राम अर्थात जिसके जीवन का मुख्य उद्देश्य राम हो यानी समाज व प्राणी
जगत का जीवन हो तथा उसके सभी व्यवस्था उपलब्ध कराने के लिए कृत संकल्प हो। जो सर्व जन हितार्थ सर्व
जन सुखार्थ का आदर्श ग्रहण किये हो। उसके बगल में छुरी होनी चाहिए। छुरी का माने हुआ रक्षार्थ उपयोग की
गई शक्ति :- छ = छत्रक, रक्षक । उरी = औजार या हथियार छत्रपाल मानी रक्षार्थ नियुक्ति सैनिक। रक्षार्थ ही
नव दुल्हा को शस्त्र दिया जाता है। तलवार पर मायान उसकी नियंत्रक शक्ति के लिए ही डाली जाती है। शस्त्र
जब रक्षार्थ उठाये जाते है तब कल्याणकारी होते है। धर्म रक्षार्थ, समाज रक्षार्थ, नारी रक्षार्थ व गौ रक्षार्थ शस्त्र
उठाने वाले समाज नायक हुए है। इसलिए गुरू गोविन्द सिंह ने सिखों को कटार दी थी। नारी को उग्र सुरक्षा की
जरूरत होती है अतः त्रिशूल दिया जाता है। जिसकी तीनों शूलें भूत, वर्तमान व भविष्य की सुरक्षा करता है। जो
आकाश पाताल व धरती में सुरक्षा का उपाय खोज निकालता है।

बगल शब्द का भावार्थ ➡ बगल माने हुआ पास में, एक ओर, दोनों ओर, मुख्य नहीं गौण रूपेण व प्राथमिक
नहीं द्वितीयक। अगल - बगल माने दोनों ओर। मुख में राम बगल में छुरी अर्थात जिसका मुख्य उद्देश्य राम राज्य हो तथा पास में शक्ति हो। वही समाज में कुछ नूतन कर गुजरता है। इतिहास गवाह कि यदि किसी का आदर्श महान लेकिन उनके पास शक्ति नहीं है तो धरती की कठोर माटी पर कोई आदर्श फलीभूत नहीं होता है। समाज उसे हर्ष परिहास में उडा देगा। धरती का सत्य है कि कई विद्वान अपनी भावना को अपने ही आंचल में छिपाये इस धरती से विदा हो गये। कई आदर्श शक्ति के अभाव में धरती पर महान कार्य किये बिना ही काल के गोद में समा गये है। धरती पर कुछ अच्छा कर गुजरना है तो जीवन का मूल लक्ष्य रामराज्य यानी सर्वजन हितार्थ सर्वजन सुखार्थ आदर्श जो नव्य मानवतावाद की आधार की शीला पर स्थापित विश्व बन्धुत्व कायम कर सकने वाला आदर्श प्रगतिशील उपयोगी तत्व हो। तथा पास में समग्र शक्ति का संचय करे ताकि वह समाज का का चक्रनाभी सदविप्र बन सकता है। आनन्द मार्ग के संस्थापक श्री श्री आनन्द मूर्ति जी ने प्रउत का महान आदर्श दिया तथा सदविप्र की वर्दी में ही छुरी का समावेश करते हुए शक्ति संचय का आदेश दिया है ताकि एक मानव समाज बनाने की उनकी योजना पूर्ण हो सके।

मुख में राम, बगल में छुरी।
यही है, समाज की धुरी ।।
--ः-- श्री आनन्द किरण

यह सूत्र कहता है कि समाज उसी के इर्द गिर्द घूमता है जिसके मुख में राम सा आदर्श हो। राम जिसके मन
में भरत के लिए जितना स्नेह है उतना ही रावण के लिए भी है। वह भरत को स्नेहशील भेट चरण पादूका दे
सकते है, तो दुष्ट रावण के लिए भी अंगद को शान्ति दूत बनाकर भेज सकते है। राम वह चरित्र जिसके दिल में
पिता महाराजा के दु:ख एवं वचन की कीमत है उतनी ही है, जितनी साधारण धोबिन के दु:ख की। वह पिता
महाराजा के लिए जन्मभूमि अयोध्या का परित्याग कर सकता है तो धोबिन के खातिर प्राण प्रिया सीता का भी
परित्याग कर लेता है। राम राज्य अर्थात सभी के लिए कल्याणकारी व्यवस्था सर्वजन हितार्थ एवं सर्वजन
सुखार्थ प्रगतिशील उपयोगी तत्व जिसका मुख्य उद्देश्य हो एवं पास में शक्ति हो शक्ति का अर्थ अस्त्र शस्त्र की
होड नहीं शक्ति का अर्थ छुरी से है अर्थात व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जिसका उपयोग किया जाता है।
लोकतंत्र में जनमत सबसे बड़ी शक्ति है। जिसके पास में जनमत की शक्ति जिसके पास है एवं मूल उद्देश्य या
लक्ष्य राम राज्य का आदर्श हो। राम राज्य अर्थात सर्वजन हितार्थ एवं सर्वजन सुखार्थ व्यवस्था प्रउत हो। वही
इस समाज की धुरी है। समाज में यही व्यक्ति कुछ कर गुजर सकते हैं। इसलिए समाज में यदि सत व्यवस्था देना चाहते हो तो मुख में राम एवं बगल में छुरी रखनी होगी।
photo take from google.

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
               
लेखक -- श्री आनन्द किरण (करण सिंह) शिवतलाव
    GMAIL







राजस्थान सरकार का पंचायती राज संस्थान चुनाव से शैक्षणिक योग्यता हटाना प्रश्नों के घेरे में .........
➡➡ इन दिनों राजस्थान के राजनैतिक मंच पर कुछ मौसम में बदलाव आया तो पुरानी सरकार के निर्णय
सवालीय निशान रहे। राजनीति का यह समर निश्चित रूप से एक द्वेषमय परिवेश का दृश्य बनाता है। राजीव
गांधी सेवा केन्द्र का नाम अटल सेवा केन्द्र के रुप रखना राजनैतिक मलिनता का ही निर्णय रहा होगा। राजनीति के पैतरेबाजी एक सुदृढ़ राष्ट्र निर्माण की राह में कंटक है। लेकिन सवाल यहाँ शैक्षणिक योग्यता को समाप्त करने से जुड़ा हुआ तो अवश्य ही सवालिया निशान पर रहता है?
➡➡ जैसा की हम जानते कि पिछली सरकार ने सरकारी योजनाओं के सफल संचालन एवं प्रशासनिक
पारदर्शिता को काबिल करने के पंचायत राज प्रत्याशी को शैक्षणिक योग्यता से तौला था। मापन का यह तराजू
अच्छा अवश्य दिखाई देता है लेकिन सदैव अच्छा फल देने वाला हो यह आवश्यक नहीं है। इसके बावजूद भी
अयोग्यता पदासीन हुई थी। पंचायत राज के जन प्रतिनिधियों की कार्यशैली संचालन एवं निर्माण में उनके पति,
पिता, ससूर, देवर,जेष्ठ, भाई तथा संबंधियों की भूमिका में कमी नहीं आई है। साधारण एवं निम्न वर्ग के अल्प
योग्य को रबर ब्रांड बनाने वाले दबंगों में भी कोई अंतर नहीं आया है। यह सब होने के बावजूद भी भी यह
कदम सुधार की दिशा में सकारात्मक पहल थी। इस फैसले के साथ में ही मैंने एक प्रश्न किया था कि सांसद एवं
विधायकों से अधिक स्थानीय प्रतिनिधियों का ही पढ़ा लिखा होने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई?
➡➡ निर्णयों की प्रासंगिकता उनकी उपादेयता से अधिक नीतियों के स्वच्छ परिवेश से है। यदि पिछली
सरकार ने एक प्रस्ताव पारित कर विधायकों के शैक्षणिक, संतान एवं स्वच्छता से संदर्भित अनुबंध लांधने
मांगकर सुदृढ़ राजस्थान के उक्त कदम उठाया होता तो अवश्य ही अकाट्य कदम होता। लेकिन ऐसा नहीं करना तात्कालिन सरकार की नियत एवं नियति दोनों पर शंक पैदा करती है। सब कुछ होने के बावजूद शैक्षणिक योग्यता को हटाने के निर्णय को सही नहीं ठहराया जा सकता है। यह सरकार का खिचियानी बिल्ली खंभा नोच वाली कहावत को सत्य सिद्ध करने के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

➡➡  वर्तमान सरकार को शैक्षणिक योग्यता हटाने की बजाए एक प्रस्ताव पारित कर भारत सरकार से यह
शर्त विधायक एवं सांसदों के लिए भी लागू करवाने की मांग करनी चाहिए। इससे गेंद भारत सरकार के पाले
रहती एवं राजस्थान सरकार की प्रगतिशील सोच लौहा पुरा विश्व मानता। भारत सरकार को यह कार्य करने के
संविधान में संशोधन करने के अलावा कोई रास्ता दिखाई नहीं देता। इससे नेताओं की डिग्री की प्रमाणित पर
सदैव कानून की तलवार लटकी रहती। यह सब लिखकर में राजस्थान सरकार की हिमायत नहीं कर रहा हूँ।
न ही शैक्षणिक योग्यता के समावेश करने से आहत हूँ। मैं चाहता हूँ एक देश में सभी जन प्रतिनिधियों के समान
न्यूनतम मापदंड सहित पद के भार के अनुसार उच्च योग्यता के मापदंड होने चाहिए। जितना बड़ा पद उसके
लिए उतनी बड़ी योग्यता का मापदंड हो।

➡➡भारतीय संविधान में ऐसी व्यवस्था हो कि छोटे पदों के लिए योग्यता का जो मापक रखा जाए ।
वह उच्च पदों के लिए स्वतः ही लागू हो जाए। लागू करना जितना सरल हो हटना उतना सरल नहीं हो। अन्तिम
शब्द मेरे यही है कि राजस्थान सरकार को शिक्षा संबंधी शर्त नहीं हटानी चाहिए थी।


________________________________________________________________________

Writer :- करण सिंह शिवतलाव

suggest your idea to writer


एक भक्त रोया•••
🔴👉 प्रात: स्नान करके जैसे ही अपने कक्ष में आया मोबाइल फोन की घंटी बजी, मोबाइल उठाकर देखा तो एक चिर परिचित बंधु का फोन था। यद्यपि हम दोनों आपस में कभी नहीं मिले हैं लेकिन हम दोनों के बीच एक अपनापन डोर अवश्य बंधी है। अभिवादन के  बाद एक आनन्द संगीत की एक लाइन के साथ दूसरी ओर से भक्त भभक भभक के रोने की आवाज आने लगी। मैं कुछ कहता उससे पहले वे बोल उठें में जानता हूँ कि प्रियतम कई नहीं गए हैं लेकिन उनकी भौतिक अनुपस्थित तो खलती है।  फोन में एक बाल आवाज भी सुनाई दी, नानाजी मत रोइए,, नानाजी मत रोइए।  मैं भक्ति रस के अथाह सागर के समक्ष नतमस्तक गुरु कृपा ही केवलम का उच्चारण करता रहा। उनके सामान्य होने तक मैं कुछ नहीं बोल सकता था। फोन रखने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। अब मुझे साधना करनी थी। भक्ति रस के अथाह सागर के समक्ष मेरे सभी आध्यात्मिक प्रयास बौने लग रहे थे। येनकेन प्रकारेण स्वयं को साधना के लिए तैयार किया। कुछ पल साधना, आसन एवं दैनिक कर्म के बाद कार्यशाला गया। वहाँ चलती क्लास में उनका ख्याल आया। सोच अब सामान्य हो गए होंगे। उनके नम्बर मिलाया। फोन उठाते ही बातचीत प्रारंभ हुई। जैसे ही मैंने भक्त मन में झांका तो बाहर से सामान्य लग रहे थे परन्तु अन्दर वही भावधारा बह रही थी। अब मेरे पास एक ही रास्ता था कि उनको दुनियादारी में ले जाऊँ। कुछ दुनियादारी की बातें पूछने बाद उस रहस्य को जानना चाह तो महसूस किया कि मछली को पानी दूर हटाना कितना मुश्किल होता होगा। फिर भी मछुआरा अपनी जठराग्नि से मजबूर होकर एक निर्दयी कार्य करता है। हम तो उस जगत में रहते हैं जहां मीरा को प्रियतम की मोहब्बत से हटाने के लिए विषपान करवाया गया। भक्त अपने में मस्त है लेकिन उस मस्ती कभी इंसान को ईर्ष्या क्यों हो जाती है? यह मेरे जैसे अल्प ज्ञानी की समझ से परे है।
🔴👉 शास्त्र कहता है कि भक्ति भक्तस्य जीवनम् । मैं समझता था कि भक्त अपने जीवन में भक्ति स्थान अधिक नहीं देने के लिए शास्त्र हमें शिक्षा देता है लेकिन  आज भक्त का जो साक्षात्कार हुआ। वह तो मुझे यह लिखने को मजबूत करता है कि भक्त अपनी भक्ति की ताकत पर स्वयं शास्त्र को शिक्षा दे रहा है। मैं इस दृश्य को स्मरण कर अपने पुण्य कर्म को सहराता हूँ कि मुझे उस सागर में बह रहे राही से मुलाकात हुई। मैं तो साधुता की किश्ती में बैठा  था लेकिन वे तो महामिलन लहरों में गोते लगा रहे थे। काश मेरी भी किश्ती उसी पल डुब गई होती तो मेरा जीवन धन्य हो जाता।
🔴👉 आज मुझे लिखने को एक मंच भक्ति सागर मिल गया। भक्तों की इस राह पर चलने का सौभाग्य मिल गया। लेकिन मेरा मन कहता है कि हे मूर्ख! कब तक इस काल्पनिक लेखनी के सहारे भक्ति को पकड़ने दौड़ेगा। कभी तो स्वयं भी चिर सागर में उतर। तब तुझे मालूम होगा भक्ति क्या होती है? मुझ पत्थर दिल के नसीब में यह दुर्लभ स्थिति कहा। लेखनी की काल्पनिक दुनिया में ही भक्ति रसास्वादन कर मन को बहला दूंगा।
~~~~~~~~~~~~~
लेखक:- आनन्द किरण @ महामिलन की आश में
 नोट ➡ भक्त नाम आध्यात्म अनुशासन के मध्य नजर रखते हुए गुप्त रखा गया है। ताकि उनके भक्ति रस में  खलन न हो। मैं पाठकों से क्षमा चाहता हूँ।
Contact to writer on Email
 क्या धरती पर स्वर्ग आ सकता है?
🔴 विश्व के सभी धर्म दर्शन, व्यक्ति के लिए एक सुन्दर एवं सुन्दरतम् परिवेश स्वर्ग की अभिकल्पना की गई है। इसकी सत्यता को परखना हमारा विषय नहीं है। हमारा विषय सभी प्रकार के सुख, समृद्धि एवं खुशहाली का जो स्वप्न धर्म दर्शन में दिखाया गया है। वह परिदृश्य धरती की कठोर माटी पर स्थापित हो सकता है अथवा नहीं। एक नकारात्मक सोच का व्यक्तित्व इस उत्तर नहीं में देकर अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाता है लेकिन मैं एक आशावादी हूँ, इसलिए सकारात्मक जगत को देखता हूँ। जिस परिदृश्य की अभिकल्पना मानव के मन में सृजित हुई है। वह कठोर से कठोरत्तम परिक्षेत्र में फलीभूत हो सकती है। मनुष्य ने अपने मेहनत के बल पर असंभव कार्य को संभव बनाकर दिखाया है। पौराणिक कथाओं में कहा गया है भागीरथ ने अपने तपस्या के बल पर गंगा को स्वर्ग से धरती पर खींच कर ले आए थे। मैंने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कथाओं की सत्यता परखना मेरा विषय नहीं है। मेरा विषय हर उस प्रयास एवं शिक्षा का उपयोग कर मनुष्य के स्वप्न के परिदृश्य साकार रूप संभव होने की संभावनाओं की खोज करना है। जब इस देश का एक भागीरथ सफल हो सकता है तो स्वर्ग धरती पर आ सकता है।
🔴👉 धरती पर स्वर्ग आना असंभव नहीं है। इसलिए स्वर्ग देखना भी हमारे लिए आवश्यक है। स्वर्ग कैसा तथा कैसा दिखता है। स्वर्ग को शास्त्रों में एक आनन्दायी परिदृश्य बताया गया है। जिसमें व्यष्टि की इच्छा मात्र से सभी कार्य संभव हो जाते हैं तथा इच्छित वस्तु प्राप्त हो जाता है। मनुष्य की चाहता भी कदाचित यही है। इस परिभाषा को सुनकर, पढ़कर एवं समझकर व्यक्ति इसके धरती पर आने की संभावना को शून्य बताएगा। स्वर्ग वस्तुतः उस अवस्था का नाम है, जिसमें मनुष्य निष्काम भाव से कार्य करते हुए समाज के सुन्दर परिदृश्य का निर्माण करें। जहाँ एक सबके लिए तथा सब एक लिए जीएँ। यह भाव सृजित करने मात्र से स्वर्ग धरती पर दिखाई देने लगेगा तथा इसकी पराकाष्ठा स्वर्गमय धरती का निर्माण है।
🔴👉 मृत्यु के बाद स्वर्ग जाने की बातों की पुष्टि तो सभी धर्म दर्शन सतकर्म के ज्ञान एवं विज्ञान के बल देते आए हैं। जीवित व्यक्ति के स्वर्ग जाने की एक कहानी त्रिशंकु बनने की कही जाती हैं। हमें सुनाया जाता था कि प्राचीन काल में व्यक्ति एवं देवगण धरती एवं स्वर्ग के बीच गमन करते थे। अर्थात जीवित अवस्था में भी स्वर्ग आना जाना असंभव नहीं है। विषय यदि व्यक्ति स्वर्ग आना एवं जाना का होता तो मैं उसे हिन्दू देवताओं मिलने की सलाह देकर अपना कर्तव्य निवहन कर लेता लेकिन बात स्वर्ग को धरती पर उतारने की हैं। अन्य शब्दों में कहा जाए तो धरती को स्वर्ग बनाने की बात है। इसलिए संभवता खोजना ओर भी अधिक जरूरी हो जाता है। यदि में राजनेता होता तो जनता के समक्ष स्वर्ग धरती पर लाने का घोषणापत्र जारी कर जनादेश मांग लेता। मैं ठहरा लेखनी का सिपाही ज्ञान विज्ञान से लड़ कर ही स्वर्ग एवं धरती को एक बना सकता हूँ।
🔴👉 स्वर्ग  एक सर्वात्मक सोच है, जहाँ एक सबके लिए तथा सब एक के लिए है। मनुष्य के चिन्तन को इसमें समाविष्ट करने पर मनुष्य का संसार स्वर्ग हो जाएगा। कदाचित लोकतंत्र की मूल भावना भी यही है तथा समाज शब्द का अर्थ भी यही है। राह बिल्कुल स्पष्ट हो गई कि मनुष्य को अपना एक समाज बनाना है । मनुष्य जिस दिन अपने लिए एक, अखंड एवं अविभाज्य मानव समाज की रचना कर देगा। वह मनुष्य के लिए धरती पर स्वर्ग लाने का कार्य सिद्ध हो जाएगा। आज मनुष्य को धरती पर स्वर्ग इसलिए नहीं दिखाई देता है कि मनुष्य का एक समाज नहीं है।
🔴👉 मानव समाज के निर्माण के लिए एक कला एवं कौशल की आवश्यकता है जो मनुष्य को आनन्द मार्ग दिखता है। आनन्द मार्ग पर चलकर मनुष्य एक, अखंड एवं अविभाज्य मानव तक पहुंचता है। सुख, दुख, आमोदप्रमोद इत्यादि इत्यादि कोई भी मार्ग मानव समाज तक नहीं ले जा सकता है।
🔴👉 इस धरा पर बहुत से प्रवर्तक आए। मनुष्य के कष्टों के निवारण के लिए स्वयं की शरण में आने का संदेश देकर चले गए। मनुष्य ने उन देवदूतों की वाणी पर अक्षत: विश्वास कर उनकी शरण भी पकड़ ली लेकिन उसे प्राप्त हुआ एक मजहब, पंथ, मत एवं रिलिजन कष्टों का क्षय नहीं हुआ। इस धरा पर प्रथम बार किसी व्यक्ति ने मानव समाज बनाने का कार्य अपने हाथ में लिया है। वह व्यक्ति है श्री प्रभात रंजन सरकार। जिन्होंने छेला अथवा अनुयायी बनाने का कारखाना नहीं खोल उन्होंने खोली एक मनुष्य बनाने की कार्यशाला जहाँ मनुष्य का निर्माण किया जाता है। एक एक मनुष्य को बनाकर एक मानव समाज का निर्माण कर दिया जाएगा। उन्होंने मनुष्य बनाने के सिद्धहस्त कारीगरों का दल तैयार किया है । जो मनुष्य का निर्माण करता है। 
🔴👉 श्री प्रभात रंजन सरकार की कुशल कारीगरी के बल एक दिन एक सुन्दर मानव समाज का निर्माण होगा। जहाँ हर पुरुष देव तथा नारी देवी होगी तथा धरती देवालय हो जाएगी। यही तो हम चाहते हैं कि धरती स्वर्ग बन जाएं। ताकि मनुष्य बंधन मुक्ति की साधना कर आनन्दमूर्ति बन जाए।
🔴 👉 धरती पर स्वर्ग अनुयायी बनने से नहीं, एक मनुष्य बनने से बनेगी। श्री प्रभात रंजन सरकार के मनुष्य निर्माणकारी मिशन का अंग बनकर मनुष्य का निर्माण करें एवं मनुष्य बने स्वर्ग स्वतः ही धरती पर उत्तर आएगा।
______________________________
लेखक:-  करण सिंह राजपुरोहित उर्फ आनंद किरण
 Contact to writer
9982322405