राजनीति से समाजनीति की ओर
              भारतवर्ष को आधुनिक राष्ट्र निर्माता एवं कर्णधार समाजनीति से राजनीति की ओर ले गए थे। यहाँ
भारतवर्ष अपने गौरवमय इतिहास की झलक को कोटिशः कदम पीछे छोड़ मात्र सत्ता लोलुपता की गणित में
उलझ गया। यह दृश्य, भारतवर्ष की आन, मान एवं शान को ललकार रहा है। गौरवशाली भारतवर्ष के निर्माण
के वर्तमान परिवेश उपयुक्त नहीं है। भारतवर्ष के शुभचिंतकों को इस दृश्य को बदलने के दृढ़ संकल्पित होने की
आवश्यकता है। भारतवर्ष का संचालन राजनीति की बजाए समाजनीति से हो। इस ओर पुनः बढ़ने की जरुरत
है। इस यात्रा को राजनीति से समाजनीति ओर चलना कहा जाएगा ।

             राजनीति से समाजनीति की ओर यात्रा के क्रम में हमें स्वर्णिम, सुखद एवं खुशहाल संसार मिलेगा। विश्व शांति का वास्तविक अध्याय लिखने के लिए विश्व को राजनीति से समाजनीति की ओर ले चलने में अधिक विलंब नहीं करना चाहिए। भारतवर्ष इसी नीति के बल पर विश्व गुरू की उपमा से अलंकृत किया गया था। प्राचीन भारतवर्ष की महान संस्कृति के निर्माण में समाजनीति से चलयमान भारतवर्ष की महत्ती भूमिका है। राजनीति से समाजनीति की ओर चलने के क्रम में वर्तमान व्यवस्था में निम्न आमूल चूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है।
(१) शिक्षण व्यवस्था का संचालन शिक्षाविदों के द्वारा किया जाए➡ भविष्य का समाज आज की शिक्षण
संस्थानों में निर्मित होता है। भविष्य के समाज की सुदृढ़ता एवं सुव्यवस्था शिक्षण संस्थानों के संचालन की
प्रक्रिया पर निर्भर करती है। जब तक शिक्षण संस्थान को संचालन राजनीति एवं अर्थनीति तथा इनसे प्रेरित
संस्थानों के द्वारा होगा, तब तक समाज की व्यवस्था सफल एवं सुफल नहीं हो सकती है। इसलिए एक स्पष्ट
नीति होनी चाहिए कि शिक्षा व्यवस्था का संचालन राजनीति एवं अर्थ शक्ति से मुक्त आध्यात्मिक शिक्षाविदों के द्वारा हो। यह शिक्षाविद् शिक्षार्थी को विश्व उच्च मानवीय मूल्यों के द्वारा दिखाएगें। इनके द्वारा शिक्षार्थी की सोच को नव्य मानवतावादी एवं चिन्तन सार्वभौमिकता सूत्र में परिणीत करेंगे। जिससे शिक्षार्थी भविष्य में
समग्र एवं पूर्ण मानव बनेगा। उसकी वफादारी किसी राज शक्ति के प्रति नहीं समाज के प्रति होगी एवं व्यवस्था
का संचालन समाजनीति के बल पर होने लगेगा। आज के परिदृश्य में शिक्षा व्यवस्था राजनैतिक सत्ताधारी के
हाथों की कठपुतली बनी हुई है। इस परिस्थिति जो शिक्षक का अधिकांश ध्यान समाज निर्माण की बजाए
राजनैतिक दल के हितों को साधने में अधिक रहता है। वह सर्वश्रेष्ठ के खिताब से नवाजा जाता है। शिक्षण
व्यवस्था को अर्थ शक्ति के हवाले करना भी उचित रास्ता नहीं है। आजकल शिक्षण प्रक्रिया को धन कमाने के
साधन के रुप में देखा जाना तथा शिक्षक गण वेतन एवं भत्तों के गणित उलझे रहना, निश्चित रूप से सोचनीय
विषय है। ऐसे व्यवस्था आदर्श मानव समाज का निर्माण नहीं कर सकती है। राजनीति से समाजनीति की ओर
बढ़ते कदमों को प्रथम साहरा शिक्षण संस्थानों को आध्यात्मिक नैतिकवान एवं सामाजिक शिक्षाविदों के हाथों
सौपना।

(२) अर्थनीति एवं राजनीति का पृथक्करण किया जाना ➡ राजनीति के मूल में सेवा जबकि अर्थनीति के मूल में
धनोपार्जन विद्यमान है। इसलिए दोनों के क्षेत्राधिकार अलग-अलग होते हैं। दोनों शक्तियों को एक सत्ता में
निहित रहने से सामाजिक न्याय व्यवस्था ठीक से कार्य नहीं करती है। समाज व्यवस्था के सुचारु संचालन के
लिए राजनीति एवं अर्थनीति का पृथक्करण नितांत आवश्यक है। इससे राजनीति का मूल सेवावृति पेशावृति में
रूपांतरित नहीं हो। आजकल इस व्यवस्था के अभाव में राजनीति एक पेशा बन गया था। जिसमें समीकरणों के
संतुलन के नाम एक व्यवसायिक प्रक्रिया चलती है। जो राजनेता जनता से सेवा करने का वचन देकर राजनीति
में उतरा था। वह दूषित व्यवस्था के चलते धन एठन की विद्या में निपुण हो जाता है। जिससे सार्वजनिक जीवन में अवांछित हथकंडे भ्रष्टाचार, रिश्वत एवं भाईभतीजावाद का बोलबाला शुरु हो जाता है। जिस रोकने सभी कानून उपाय निष्फल सिद्ध होते हैं। व्यक्ति कितना भी अच्छा क्यों न हो जब तक व्यवस्था को दीमक लगा हुआ है। वह आशानुकूल फल नहीं दे सकता है। आदर्श व्यवस्था के लिए राजनीति एवं अर्थनीति का पृथक्करण का सिद्धांत आवश्यक है।

(३) आर्थिक जगत में प्रजातंत्र की स्थापना करना ➡ वर्तमान युग लोकतंत्र का युग है। विश्व के अधिकांश राष्ट्रों में राजनैतिक प्रजातंत्र चल रहा है। लेकिन आर्थिक जगत में प्रजातंत्र दिखाई नहीं देता है। लोकतंत्र की परिभाषा
जनता का, जनता के द्वारा एवं जनता के लिए को सही अर्थों में प्रतिफलित करने के लिए आर्थिक प्रजातंत्र
आवश्यक है। व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में प्रजातंत्र स्थापित हो जाने मालिक एवं मजदूर के शोषण तंत्र का अंत हो
जाएगा। निर्णय लेने में मजदूर की भागीदारी उस प्रतिष्ठान के प्रति मजदूर के मन में अपनापन जगाएगा। इससे कारीगरों की कार्य कुशलता भी सुरक्षित एवं संरक्षित रहती है। यह प्रशासनिक अधिकारियों की कुशलता को लालफिताशाही की भेंट नहीं चढ़ने देता है। किसी भी समाज की सुव्यवस्था के लिए राजनैतिक जगत की अपेक्षा आर्थिक जगत प्रजातंत्र की आवश्यकता है। प्राचीन भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था एक आर्थिक प्रजातंत्र की प्रक्रिया थी। जिसे रामराज्य के नाम से अलंकृत किया गया था। आदर्श समाज के लिए आर्थिक प्रजातंत्र एक
न्यायपूर्ण व्यवस्था का नाम है।

(४} प्रगतिशील उपयोग तत्व मूलक अर्थव्यवस्था की आवश्यकता ➡ समाजनीति की राह के बढ़ रही सभ्यता
को प्रगतिशील उपयोग तत्व अर्थव्यवस्था को धारण करना होता है। जिस समाज के आर्थिक मूल्य दूषित होते
वह समाज कितना भी अच्छा होने पर भी धराशायी हो जाता है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने व्यक्ति की दशा
एवं दिशा का गलत निर्धारण कर समाज को अर्थव्यवस्था प्रदान की है। वर्तमान में प्रचलित अर्थशास्त्र कहता है
कि मनुष्य एक आर्थिक प्राणी है। यही से अर्थव्यवस्था गलत रास्ते पर बढ़ जाती है । वस्तुतः मनुष्य एक
आध्यात्मिक प्राणी हैं। अर्थ उसके जीवन का एक हिस्सा है। जो उसकी सर्वांगीण गति का सहायक पहलू है। जब
मनुष्य को एक आध्यात्मिक लक्ष्यधारी नागरिक मानकर अर्थव्यवस्था का निर्माण किया जाता है। वह
प्रगतिशील उपयोग तत्वों को अभिधारण करती है। यह अर्थ व्यवस्था राजनीति मुक्त आर्थिक प्रजातंत्र की
स्थापना करता है। जहाँ समाज का संचालन समाज नीति से होता है।

(५) समाज की प्रकृति नव्य मानवतावादी होना आवश्यक ➡ राजनीति से समाजनीति की ओर चलयमान
समाज की स्वभाव एवं प्रकृति नव्य मानवतावादी होना एक आवश्यक घटक है। इसके अभाव में व्यक्ति की
प्रगति अवरुद्ध हो जाती है तथा अर्थव्यवस्था रुग्ण हो जाती है। यह समाजनीति का नहीं राजनीति का
क्षेत्राधिकार है। समाज की व्यष्टिगत एवं समष्टिगत चिन्तन एवं सोच नव्य मानवतावाद के सांचे में होने से
समाज की व्यवस्था न्यायपूर्ण रहती है। वर्तमान में स्मृतिकारों ने समाज व्यवस्था पर बहुत अधिक चिन्तन किया है लेकिन मनुष्य की सोच निर्माण पर ध्यान केन्द्रित नहीं किया। यदि ऐसा किया जाता तो समाज व्यवस्था में त्रुटिपूर्ण होने पर भी इतनी अधिक क्षति नहीं होती।

(६) मनुष्य का जीवन लक्ष्य, आनन्द की उपलब्धि ➡ स्मृति शास्त्र का लक्ष्य मात्र समाज व्यवस्था को सुदृढ़
करना एवं समाज एवं व्यक्ति में संबंध स्थापन्न तक ही नहीं होना चाहिए। समाजनीति से चलयमान व्यवस्था
मनुष्य को जीवन लक्ष्य से परिचित करवाना है। धर्मशास्त्र में बताया गया मनुष्य के जीवन का लक्ष्य सत्य से
साक्षात्कार करना बताया गया है। आदर्श स्मृति सत्य से साक्षात्कार की अवस्था आनन्द की उपलब्धि को जीवन लक्ष्य बताता है। समाजनीति से चलयमान समाज एवं देश व्यष्टि को आनन्द की ओर ले चलना। व्यष्टिगत आनन्द में वृद्धि से समष्टि जगत प्रगतिशील एवं सर्वांगीण कल्याण एवं सुख का निर्माण होता है।


                      राजनीति से समाजनीति की ओर यात्रा की परिपूर्णता समाज व्यवस्था में जीवन के सभी पक्षों का समावेश कर एक परिपूर्ण मानव का निर्माण करना है। पूर्णत्व की उपलब्धि एक आदर्श सामाजिक अर्थनीति की विषय वस्तु भी है।

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 Writer:- Karan Singh Rajpurohit ( Anand Kiran)
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कौनसा राजनैतिक दल श्रेष्ठ है
भारतवर्ष में एक वर्ष बाद आम चुनाव होने वाले है। इसलिए आम आदमी की जिज्ञासा रहती है कि अबकी बार
मेरा  वोट किस राजनैतिक दल को देने से देश एवं समाज के लिए हितकारी सिद्ध हो सकता है।
राष्ट्रनेता संत श्री विनोबा भावे की उक्ति - "चुनावों में आत्म प्रशंसा, परनिंदा एवं मिथ्या भाषण होते हैं" को
समक्ष रखकर विषय को आगे ले चलता हूँ। चुनावी मौसम में प्रत्येक राजनैतिक दल एवं राजनेता स्वयं को
शत प्रतिशत सत्य प्रमाणित करने की कोशिश करता है तथा विरोधी को शत प्रतिशत गलत बताने का हर संभव
प्रयास करता है। इतने पर भी काम नहीं होने पर इधर-उधर की बातें कर भ्रम फैलाने से भी नहीं चूकते है।
राजनीति के इस दूषित माहौल में किसी भी एक दल को श्रेष्ठ बताना विषय के साथ न्याय नहीं हो सकता है।
महान सामाजिक व आर्थिक चिन्तक एवं युगप्रवर्तक श्री प्रभात रंजन सरकार की लोकतंत्र पर
एक राय - "लोकतंत्र एक मूर्खतंत्र है। यदि एक विद्यालय में लोकतंत्र स्थापित कर दिया जाए तो सदैव बहुमत
विद्यार्थियों का रहता है तथा इस बहुमत ने यह फैसला ले लिया कि हमारी उत्तर पुस्तिका हम ही जांच करेंगे तो
परीक्षा तंत्र ही अर्थहीन हो जाएगा।" को भी समक्ष रखकर विषय पर मंथन करते है। समाज नीति में कहा जाता कि सौ मूर्खों पर एक विद्वान भारी लेकिन राजनीति सौ मूर्खों का दामन छोड़कर एक विद्वान का हाथ नहीं थाम सकती है। इस परिस्थिति में किसी एक राजनैतिक दल को श्रेष्ठता की जय माला पहनना एक दुष्कर कार्य है। चूंकि विषय चल पड़ा है इसलिए विषय के साथ न्याय तो करना ही होगा।
राजनैतिक दलों की श्रेष्ठता का एक मानक पैमाना तय किए बिना विषय  के साथ सही न्याय नहीं कर सकते है।
हम सभी जानते हैं कि यह पैमाना तय करने का अधिकार कानून का है, लेकिन लोकतंत्र ने यह अधिकार जनता
को दे रखा है तथा  जनता राजनीति को अपने सभी अधिकार दे देती है। राजनीति जनता नचाती रहती है तथा
यही से तो समस्या ने जन्म लिया है कि कौनसा राजनैतिक दल श्रेष्ठ?
संविधान सभा को राजनेताओं के लिए एक आचरण संहिता एवं राजनैतिक दलों के लिए एक मर्यादा की लक्ष्मण
रेखा खींच लेनी चाहिए थी तो उक्त समस्या के स्थान पर प्रश्न होता कि किस उम्मीदवार को वोट दिया पाए?
जिसका उत्तर मतदाता  सहज खोज लेता। यदि यह प्रश्न आम आदमी के समक्ष होता तो इतना सोचना नहीं
पड़ता। राजनैतिक दलों की श्रेष्ठता प्रमाणित करने का अर्थ यह है कि उस दल की विचारधारा के आधार पर राष्ट्र
एवं समाज का निर्माण करना। यह कार्य तो संविधान सभा है। इसलिए  समाज को प्रथम एक गतिशील एवं
जीवित संविधान सभा देनी होगी। जो मूल्यों का निर्धारण, संरक्षण व संवृद्धन करने का कार्य करें।
यह हो जाने पर राजनैतिक विचारधारा से आम आदमी को राहत मिल जाएगी लेकिन राजनैतिक दलों की श्रेष्ठता
से पीछा नहीं छूट सकता है। समस्या को अधिक गंभीरता से लेने की आवश्यकता है।
राजनैतिक दल का रहना अर्थात एक विचारधारा का रहना है। संविधान सभा यह तय कर सकती है कि राजनैतिक
दलों को नव्य मानवतावादी दृष्टिकोण एवं प्रगतिशील अर्थव्यवस्था के सूत्रों को लेकर एक कार्य योजना निर्माण
करना एवं इसे लेकर जनता के बीच में जाना एवं जनादेश लेकर आना। जनादेश लेकर आने वाला राजनैतिक दल
यदि अपने उत्तरदायित्व का निर्धारित समय सीमा में पूर्ण नहीं करें तो  संविधान सभा को उसके भविष्य का
निर्णय करने का भी अधिकार रखना चाहिए। यदि यह हो जाता है तो राजनैतिक दल की श्रेष्ठता की समस्या का
समाधान सरल हो जाएगा। जिसका समाधान जनता के पास मिल सकता है लेकिन स्थायी समाधान के लिए
समस्या को ओर अधिक गंभीरता से लेने की आवश्यकता है।

यदि  एक राजनैतिक दल की कार्य योजना अच्छी है, लेकिन उसको क्रियान्वयन करने वाला मात्र एक ही
समयावधि को लेकर आता है तथा समाज  को तीन तेरह करके चले जाते हैं तो समस्या ओर भी गंभीर रुप धारण
कर लेती है। इसलिए राजनेताओं की आचरण संहिता को गंभीरता से लेना होगा। नैतिकवान राजनेताओं की
आवश्यकता को स्वीकार किया बिना राजनैतिक दलों की श्रेष्ठता अर्थहीन  है। नैतिकता के पीछे एक आंतरिक बल
की आवश्यकता है। इसको आत्मिक अथवा आध्यात्मिक बल कहते है। आध्यात्मिकता एवं नैतिकता एक दूसरे
की पूरक एवं सहयोगी शक्ति के रुप लेने से काम चलेगा। अर्थात राजनेता को आध्यात्मिक नैतिकवान होना ही
होगा। आध्यात्मिक नैतिकवान नेता ही समाज को श्रेष्ठता की ओर ले जा सकते हैं। राजनीति को पंथ, सम्प्रदाय
एवं मत मतान्तर से एतराज था। इसकी सजा समाज को देना उचित नहीं है। कर्तव्य , दायित्व तथा धर्म से दूरी
बनाना एक गलत दिशा थी। समय रहते इस भूल को नहीं सुधार गया तो व्यवस्था कितनी भी अच्छी क्यों न हो
वह अच्छाई को प्रदर्शित नहीं कर सकती है। श्रेष्ठ राजनैतिक व्यवस्था के लिए उन्नत एवं सर्वांगीण,  सामाजिक
सोच तथा मजबूत एवं प्रगतिशील आर्थिक सूत्र की आवश्यकता के साथ आध्यात्मिक नैतिकवान नेतृत्व की
आवश्यकता है।
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एक भक्त रोया•••
🔴👉 प्रात: स्नान करके जैसे ही अपने कक्ष में आया मोबाइल फोन की घंटी बजी, मोबाइल उठाकर देखा तो एक चिर परिचित बंधु का फोन था। यद्यपि हम दोनों आपस में कभी नहीं मिले हैं लेकिन हम दोनों के बीच एक अपनापन डोर अवश्य बंधी है। अभिवादन के  बाद एक आनन्द संगीत की एक लाइन के साथ दूसरी ओर से भक्त भभक भभक के रोने की आवाज आने लगी। मैं कुछ कहता उससे पहले वे बोल उठें में जानता हूँ कि प्रियतम कई नहीं गए हैं लेकिन उनकी भौतिक अनुपस्थित तो खलती है।  फोन में एक बाल आवाज भी सुनाई दी, नानाजी मत रोइए,, नानाजी मत रोइए।  मैं भक्ति रस के अथाह सागर के समक्ष नतमस्तक गुरु कृपा ही केवलम का उच्चारण करता रहा। उनके सामान्य होने तक मैं कुछ नहीं बोल सकता था। फोन रखने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। अब मुझे साधना करनी थी। भक्ति रस के अथाह सागर के समक्ष मेरे सभी आध्यात्मिक प्रयास बौने लग रहे थे। येनकेन प्रकारेण स्वयं को साधना के लिए तैयार किया। कुछ पल साधना, आसन एवं दैनिक कर्म के बाद कार्यशाला गया। वहाँ चलती क्लास में उनका ख्याल आया। सोच अब सामान्य हो गए होंगे। उनके नम्बर मिलाया। फोन उठाते ही बातचीत प्रारंभ हुई। जैसे ही मैंने भक्त मन में झांका तो बाहर से सामान्य लग रहे थे परन्तु अन्दर वही भावधारा बह रही थी। अब मेरे पास एक ही रास्ता था कि उनको दुनियादारी में ले जाऊँ। कुछ दुनियादारी की बातें पूछने बाद उस रहस्य को जानना चाह तो महसूस किया कि मछली को पानी दूर हटाना कितना मुश्किल होता होगा। फिर भी मछुआरा अपनी जठराग्नि से मजबूर होकर एक निर्दयी कार्य करता है। हम तो उस जगत में रहते हैं जहां मीरा को प्रियतम की मोहब्बत से हटाने के लिए विषपान करवाया गया। भक्त अपने में मस्त है लेकिन उस मस्ती कभी इंसान को ईर्ष्या क्यों हो जाती है? यह मेरे जैसे अल्प ज्ञानी की समझ से परे है।
🔴👉 शास्त्र कहता है कि भक्ति भक्तस्य जीवनम् । मैं समझता था कि भक्त अपने जीवन में भक्ति स्थान अधिक नहीं देने के लिए शास्त्र हमें शिक्षा देता है लेकिन  आज भक्त का जो साक्षात्कार हुआ। वह तो मुझे यह लिखने को मजबूत करता है कि भक्त अपनी भक्ति की ताकत पर स्वयं शास्त्र को शिक्षा दे रहा है। मैं इस दृश्य को स्मरण कर अपने पुण्य कर्म को सहराता हूँ कि मुझे उस सागर में बह रहे राही से मुलाकात हुई। मैं तो साधुता की किश्ती में बैठा  था लेकिन वे तो महामिलन लहरों में गोते लगा रहे थे। काश मेरी भी किश्ती उसी पल डुब गई होती तो मेरा जीवन धन्य हो जाता।
🔴👉 आज मुझे लिखने को एक मंच भक्ति सागर मिल गया। भक्तों की इस राह पर चलने का सौभाग्य मिल गया। लेकिन मेरा मन कहता है कि हे मूर्ख! कब तक इस काल्पनिक लेखनी के सहारे भक्ति को पकड़ने दौड़ेगा। कभी तो स्वयं भी चिर सागर में उतर। तब तुझे मालूम होगा भक्ति क्या होती है? मुझ पत्थर दिल के नसीब में यह दुर्लभ स्थिति कहा। लेखनी की काल्पनिक दुनिया में ही भक्ति रसास्वादन कर मन को बहला दूंगा।
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लेखक:- आनन्द किरण @ महामिलन की आश में
 नोट ➡ भक्त नाम आध्यात्म अनुशासन के मध्य नजर रखते हुए गुप्त रखा गया है। ताकि उनके भक्ति रस में  खलन न हो। मैं पाठकों से क्षमा चाहता हूँ।
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 क्या धरती पर स्वर्ग आ सकता है?
🔴 विश्व के सभी धर्म दर्शन, व्यक्ति के लिए एक सुन्दर एवं सुन्दरतम् परिवेश स्वर्ग की अभिकल्पना की गई है। इसकी सत्यता को परखना हमारा विषय नहीं है। हमारा विषय सभी प्रकार के सुख, समृद्धि एवं खुशहाली का जो स्वप्न धर्म दर्शन में दिखाया गया है। वह परिदृश्य धरती की कठोर माटी पर स्थापित हो सकता है अथवा नहीं। एक नकारात्मक सोच का व्यक्तित्व इस उत्तर नहीं में देकर अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाता है लेकिन मैं एक आशावादी हूँ, इसलिए सकारात्मक जगत को देखता हूँ। जिस परिदृश्य की अभिकल्पना मानव के मन में सृजित हुई है। वह कठोर से कठोरत्तम परिक्षेत्र में फलीभूत हो सकती है। मनुष्य ने अपने मेहनत के बल पर असंभव कार्य को संभव बनाकर दिखाया है। पौराणिक कथाओं में कहा गया है भागीरथ ने अपने तपस्या के बल पर गंगा को स्वर्ग से धरती पर खींच कर ले आए थे। मैंने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कथाओं की सत्यता परखना मेरा विषय नहीं है। मेरा विषय हर उस प्रयास एवं शिक्षा का उपयोग कर मनुष्य के स्वप्न के परिदृश्य साकार रूप संभव होने की संभावनाओं की खोज करना है। जब इस देश का एक भागीरथ सफल हो सकता है तो स्वर्ग धरती पर आ सकता है।
🔴👉 धरती पर स्वर्ग आना असंभव नहीं है। इसलिए स्वर्ग देखना भी हमारे लिए आवश्यक है। स्वर्ग कैसा तथा कैसा दिखता है। स्वर्ग को शास्त्रों में एक आनन्दायी परिदृश्य बताया गया है। जिसमें व्यष्टि की इच्छा मात्र से सभी कार्य संभव हो जाते हैं तथा इच्छित वस्तु प्राप्त हो जाता है। मनुष्य की चाहता भी कदाचित यही है। इस परिभाषा को सुनकर, पढ़कर एवं समझकर व्यक्ति इसके धरती पर आने की संभावना को शून्य बताएगा। स्वर्ग वस्तुतः उस अवस्था का नाम है, जिसमें मनुष्य निष्काम भाव से कार्य करते हुए समाज के सुन्दर परिदृश्य का निर्माण करें। जहाँ एक सबके लिए तथा सब एक लिए जीएँ। यह भाव सृजित करने मात्र से स्वर्ग धरती पर दिखाई देने लगेगा तथा इसकी पराकाष्ठा स्वर्गमय धरती का निर्माण है।
🔴👉 मृत्यु के बाद स्वर्ग जाने की बातों की पुष्टि तो सभी धर्म दर्शन सतकर्म के ज्ञान एवं विज्ञान के बल देते आए हैं। जीवित व्यक्ति के स्वर्ग जाने की एक कहानी त्रिशंकु बनने की कही जाती हैं। हमें सुनाया जाता था कि प्राचीन काल में व्यक्ति एवं देवगण धरती एवं स्वर्ग के बीच गमन करते थे। अर्थात जीवित अवस्था में भी स्वर्ग आना जाना असंभव नहीं है। विषय यदि व्यक्ति स्वर्ग आना एवं जाना का होता तो मैं उसे हिन्दू देवताओं मिलने की सलाह देकर अपना कर्तव्य निवहन कर लेता लेकिन बात स्वर्ग को धरती पर उतारने की हैं। अन्य शब्दों में कहा जाए तो धरती को स्वर्ग बनाने की बात है। इसलिए संभवता खोजना ओर भी अधिक जरूरी हो जाता है। यदि में राजनेता होता तो जनता के समक्ष स्वर्ग धरती पर लाने का घोषणापत्र जारी कर जनादेश मांग लेता। मैं ठहरा लेखनी का सिपाही ज्ञान विज्ञान से लड़ कर ही स्वर्ग एवं धरती को एक बना सकता हूँ।
🔴👉 स्वर्ग  एक सर्वात्मक सोच है, जहाँ एक सबके लिए तथा सब एक के लिए है। मनुष्य के चिन्तन को इसमें समाविष्ट करने पर मनुष्य का संसार स्वर्ग हो जाएगा। कदाचित लोकतंत्र की मूल भावना भी यही है तथा समाज शब्द का अर्थ भी यही है। राह बिल्कुल स्पष्ट हो गई कि मनुष्य को अपना एक समाज बनाना है । मनुष्य जिस दिन अपने लिए एक, अखंड एवं अविभाज्य मानव समाज की रचना कर देगा। वह मनुष्य के लिए धरती पर स्वर्ग लाने का कार्य सिद्ध हो जाएगा। आज मनुष्य को धरती पर स्वर्ग इसलिए नहीं दिखाई देता है कि मनुष्य का एक समाज नहीं है।
🔴👉 मानव समाज के निर्माण के लिए एक कला एवं कौशल की आवश्यकता है जो मनुष्य को आनन्द मार्ग दिखता है। आनन्द मार्ग पर चलकर मनुष्य एक, अखंड एवं अविभाज्य मानव तक पहुंचता है। सुख, दुख, आमोदप्रमोद इत्यादि इत्यादि कोई भी मार्ग मानव समाज तक नहीं ले जा सकता है।
🔴👉 इस धरा पर बहुत से प्रवर्तक आए। मनुष्य के कष्टों के निवारण के लिए स्वयं की शरण में आने का संदेश देकर चले गए। मनुष्य ने उन देवदूतों की वाणी पर अक्षत: विश्वास कर उनकी शरण भी पकड़ ली लेकिन उसे प्राप्त हुआ एक मजहब, पंथ, मत एवं रिलिजन कष्टों का क्षय नहीं हुआ। इस धरा पर प्रथम बार किसी व्यक्ति ने मानव समाज बनाने का कार्य अपने हाथ में लिया है। वह व्यक्ति है श्री प्रभात रंजन सरकार। जिन्होंने छेला अथवा अनुयायी बनाने का कारखाना नहीं खोल उन्होंने खोली एक मनुष्य बनाने की कार्यशाला जहाँ मनुष्य का निर्माण किया जाता है। एक एक मनुष्य को बनाकर एक मानव समाज का निर्माण कर दिया जाएगा। उन्होंने मनुष्य बनाने के सिद्धहस्त कारीगरों का दल तैयार किया है । जो मनुष्य का निर्माण करता है। 
🔴👉 श्री प्रभात रंजन सरकार की कुशल कारीगरी के बल एक दिन एक सुन्दर मानव समाज का निर्माण होगा। जहाँ हर पुरुष देव तथा नारी देवी होगी तथा धरती देवालय हो जाएगी। यही तो हम चाहते हैं कि धरती स्वर्ग बन जाएं। ताकि मनुष्य बंधन मुक्ति की साधना कर आनन्दमूर्ति बन जाए।
🔴 👉 धरती पर स्वर्ग अनुयायी बनने से नहीं, एक मनुष्य बनने से बनेगी। श्री प्रभात रंजन सरकार के मनुष्य निर्माणकारी मिशन का अंग बनकर मनुष्य का निर्माण करें एवं मनुष्य बने स्वर्ग स्वतः ही धरती पर उत्तर आएगा।
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लेखक:-  करण सिंह राजपुरोहित उर्फ आनंद किरण
 Contact to writer
9982322405

मनुष्य की उत्पत्ति व सदाशिव
मानव उत्पत्ति के बारे में आदिकाल से ही मानव जिज्ञासु रहा हैं। वर्तमान युग में इस सिद्धान्त पर आधारित दो प्रकार की अवधारणा विद्यमान है। प्रथम दार्शनिक दृष्टिकोण द्वितीय वैज्ञानिक दृष्टिकोण। दोनो ही मानव विकास की कहानी को लेकर गहन अनुसंधान का परिणाम बताते है।

(अ) दार्शनिक दृश्टिकोण :- दर्शन शास्त्र ने सृष्टि के विकास व मानव मन की सृष्टि पर व्यापक अध्ययन किया है। इनकी मान्यता को अलग- अलग शब्दों में स्तरानुकुल परिभाषित करने की चेष्टा की गई है। विश्व में दर्शनशास्त्र मुख्यतः दो शाखाएॅ है। प्रथम पूर्वी भारतीय दृष्टिकोण व द्वितीय पश्चिमी युनानी दृष्टिकोण।

(१) भारतीय दृष्टिकोण:- भारतीय दर्शन की शाखा विस्तृत है। इस ने ईश्वर , सृष्टि, मन, नीति आदि तत्वों पर विस्तृत प्रकाश डाला है। मानव उत्पत्ति के संदर्भ में मात्र सृष्टि दर्शन की व्यख्या पर्याप्त है। मानव उत्पति के संदर्भ में भारतीय दो शाखाए है।
      (य.) वैदिक दर्शन :- वैदिक दर्शन शास्त्री सृष्टि उत्पत्ति के प्रश्न के निदानार्थ अध्ययन प्रक्रिया में वेदों के युग में                                        शोध पत्र जारी नहीं हो पाया। कालान्तर विश्व के प्रथम दार्शनिक कपिल के सांख्य दर्षन के बाद
                           में विभिन्न दर्शनो सृष्टि की उत्पत्ति के तथ्य पर प्रकाश डाला तथा मानव ने उपनिषद् युग में                                            दर्शन की गहराई में डुबकी लगाकर ज्ञात किया यह तथ्य खोजा की चेतनपुरूश से जड प्रकृति तथा                                उसे सूक्ष्म चेतन प्राण व क्रमिक विकास के अन्तिम क्रम में मानव की उत्पत्ति हुई।
      
       (र.) जैन दर्शन :- इसके अनुसार जिन नामक चेतन प्राण से जड़ की सृष्टि हुई उसे जद्गल जीन में प्राण का विकास                                    हुआ। इसी क्रम में मानव का सृजन हुआ।

       (ल.) बौद्ध दर्शन :- इसके अनुसार शुन्य बौद्धिसत्व से जडत्व तथा जडत्व से दुःखी जीव की चरम अवस्था में मानव                                    आया।

       (व.) पौरणाइक दर्शन :- इस दर्शन में विभिन्न देवताओं को केन्द्र मानव कर उनसे देवी तथा सृष्टि के विकास में ब्रह्मा                                           ने मानव को सभी प्राणियों की रक्षार्थ बनाया।

       (श.) शाक्त दर्शन  :- यह चेतन मॉ तीन चेतन पुरूश तथा उससे तीन प्रकृति तथा उसे सृश्टि  व मानव की सृजन                                             हुआ।

(२.) पश्चिमी युनानी दर्शन :-  इस दर्शन ने सृष्टि उत्पत्ति के विज्ञान को स्पष्ट नहीं करते हुए, एक बात स्वीकारी कि तत्व से ही विश्व आया। उसमें मानव ही उस तत्व का असली पहचान कृत है। ईसाई युहदी पारसी व इस्लाम ने दर्शन की बजाया नैतिक शिक्षा पर अधिक बल देता है  पर दर्शन की झलक सर्वोच्च सत से मानव के आने की बात करता है।
इस सब में एक बात उभयनिष्ठ है कि चेतन से पदार्थ व पदार्थ से पुनः चेतन तथा इसका चरम विकास ही मानव है। यद्यपि पुरूष को सभी में अलग-अलग प्रकार से परिभाषित किया है। प्रकृति को किसी ने प्रभावशाली तो किसी ने गौण बताया है। यह दर्शन विकास का क्रमिक विकास के विभिन्न स्तर का परिणाम है।
सदाशिव के जीवन के काल के बहुत बाद दर्शन शास्त्र का जन्म हुआ। सदाशिव ने तात्कालिन मानव के मन स्थिती देखकर इन झाल से दूर रहन की सलाह दी।

(ब.) वैज्ञानिक दृश्टिकोण :- विज्ञान के अनुसार पदार्थ(जड़) से जीव का सृजन हुआ है, विज्ञान पदार्थ सृजन की चार अवस्था का क्रम ठोस, द्रव, उष्मा व गैस निर्धारित कर चुका है। पर गैस कहा से आया। इस पर शोध पत्र जारी होना है, पर इतना सैद्धान्तिक रूप से स्पष्ट है। कि निर्वात में उपस्थित ईथर कण से गैस का सर्जन हो सकता है। ईथर कण ही वास्तविक निर्वात है। निर्वात कहा आया यह शोध होने के बाद स्पष्ठ हो जाएगा कि चेतन ही जड़ अवस्था में परिवर्तति हुआ। वैज्ञानिक सिद्धान्त के अनुसार वानर प्रजाति के बाद मानव की सृष्टि हुई।
इस प्रकार मानव उत्पत्ति के देनो सिद्धान्त में एक ही बात उभयनिष्ट है कि चैतन्य ही सृष्टि का आदिकारक है चैतन्य पर दर्शन ने तो काफी कुछ शोध कर दिया है विज्ञान के जानकारी में नहीं आ पाया है। मानव के विकास के बारे में दोनो ही एकमत है कि सभी जीवों अन्तिम व उन्नत प्रजाति मानव है।
आदि चैतन्य को भी दर्शन ने शिव नाम से अभिनिहित किया है। मानव उत्पत्ति के बाद के इतिहास क्रम में धातु युग के उतर में तथा सभ्यता युग पुर्वाद्ध में एक अति विकशीत चैतन्य युक्त मानव का जन्म हुआ। इस मानव ने पृथ्वी की मानव सभ्यता के विकास में अतुलनीय योगदान दिया। सृष्टि के अन्य बुद्धि सम्पन्न मानव से उस मानव की तुलना नहीं की जा सकती थी। वह मानव इतिहास में सदाशिव के नाम से जाना गया। सदाशिव का आगमन मानव के आने के कोटी युग बाद धरती पर हुआ। सदाशिव की वेश-भूषा व कार्य पद्धति उन्हें किसी आकाशीय देवता से अलग किसी वास्तविक पुरूष के रूप में चित्रित करती है। बडे दुःख की बात है कि इस महामानव को किसी सम्प्रदाय या मजबह विशेष का देवता समझ कर इस पर निश्पक्ष शोधपत्र जारी नहीं कर पाया है। इतिहास की इस महासम्भुति के साथ इतिहासकारों का किया गया। अन्याय है।
सदाशिव के महान योगादान के प्रति श्रृद्धा अर्पित करते हुए महान इतिहासकार श्री प्रभात रंजन सरकार ने उनकी स्मृति में कई प्रभात संगीत की रचना की है। साथ नमो शिवाय शान्ताय नामक पुस्तक की रचना कर सदाशिव की देन से मानव जाति को परिचित करवाया।
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   👉 लेखक:- करण सिंह राजपुरोहित उर्फ आनंद किरण
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