भारतवर्ष को आधुनिक राष्ट्र निर्माता एवं कर्णधार समाजनीति से राजनीति की ओर ले गए थे। यहाँ
भारतवर्ष अपने गौरवमय इतिहास की झलक को कोटिशः कदम पीछे छोड़ मात्र सत्ता लोलुपता की गणित में
उलझ गया। यह दृश्य, भारतवर्ष की आन, मान एवं शान को ललकार रहा है। गौरवशाली भारतवर्ष के निर्माण
के वर्तमान परिवेश उपयुक्त नहीं है। भारतवर्ष के शुभचिंतकों को इस दृश्य को बदलने के दृढ़ संकल्पित होने की
आवश्यकता है। भारतवर्ष का संचालन राजनीति की बजाए समाजनीति से हो। इस ओर पुनः बढ़ने की जरुरत
है। इस यात्रा को राजनीति से समाजनीति ओर चलना कहा जाएगा ।
राजनीति से समाजनीति की ओर यात्रा के क्रम में हमें स्वर्णिम, सुखद एवं खुशहाल संसार मिलेगा। विश्व शांति का वास्तविक अध्याय लिखने के लिए विश्व को राजनीति से समाजनीति की ओर ले चलने में अधिक विलंब नहीं करना चाहिए। भारतवर्ष इसी नीति के बल पर विश्व गुरू की उपमा से अलंकृत किया गया था। प्राचीन भारतवर्ष की महान संस्कृति के निर्माण में समाजनीति से चलयमान भारतवर्ष की महत्ती भूमिका है। राजनीति से समाजनीति की ओर चलने के क्रम में वर्तमान व्यवस्था में निम्न आमूल चूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है।
(१) शिक्षण व्यवस्था का संचालन शिक्षाविदों के द्वारा किया जाए➡ भविष्य का समाज आज की शिक्षण
संस्थानों में निर्मित होता है। भविष्य के समाज की सुदृढ़ता एवं सुव्यवस्था शिक्षण संस्थानों के संचालन की
प्रक्रिया पर निर्भर करती है। जब तक शिक्षण संस्थान को संचालन राजनीति एवं अर्थनीति तथा इनसे प्रेरित
संस्थानों के द्वारा होगा, तब तक समाज की व्यवस्था सफल एवं सुफल नहीं हो सकती है। इसलिए एक स्पष्ट
नीति होनी चाहिए कि शिक्षा व्यवस्था का संचालन राजनीति एवं अर्थ शक्ति से मुक्त आध्यात्मिक शिक्षाविदों के द्वारा हो। यह शिक्षाविद् शिक्षार्थी को विश्व उच्च मानवीय मूल्यों के द्वारा दिखाएगें। इनके द्वारा शिक्षार्थी की सोच को नव्य मानवतावादी एवं चिन्तन सार्वभौमिकता सूत्र में परिणीत करेंगे। जिससे शिक्षार्थी भविष्य में
समग्र एवं पूर्ण मानव बनेगा। उसकी वफादारी किसी राज शक्ति के प्रति नहीं समाज के प्रति होगी एवं व्यवस्था
का संचालन समाजनीति के बल पर होने लगेगा। आज के परिदृश्य में शिक्षा व्यवस्था राजनैतिक सत्ताधारी के
हाथों की कठपुतली बनी हुई है। इस परिस्थिति जो शिक्षक का अधिकांश ध्यान समाज निर्माण की बजाए
राजनैतिक दल के हितों को साधने में अधिक रहता है। वह सर्वश्रेष्ठ के खिताब से नवाजा जाता है। शिक्षण
व्यवस्था को अर्थ शक्ति के हवाले करना भी उचित रास्ता नहीं है। आजकल शिक्षण प्रक्रिया को धन कमाने के
साधन के रुप में देखा जाना तथा शिक्षक गण वेतन एवं भत्तों के गणित उलझे रहना, निश्चित रूप से सोचनीय
विषय है। ऐसे व्यवस्था आदर्श मानव समाज का निर्माण नहीं कर सकती है। राजनीति से समाजनीति की ओर
बढ़ते कदमों को प्रथम साहरा शिक्षण संस्थानों को आध्यात्मिक नैतिकवान एवं सामाजिक शिक्षाविदों के हाथों
सौपना।
(२) अर्थनीति एवं राजनीति का पृथक्करण किया जाना ➡ राजनीति के मूल में सेवा जबकि अर्थनीति के मूल में
धनोपार्जन विद्यमान है। इसलिए दोनों के क्षेत्राधिकार अलग-अलग होते हैं। दोनों शक्तियों को एक सत्ता में
निहित रहने से सामाजिक न्याय व्यवस्था ठीक से कार्य नहीं करती है। समाज व्यवस्था के सुचारु संचालन के
लिए राजनीति एवं अर्थनीति का पृथक्करण नितांत आवश्यक है। इससे राजनीति का मूल सेवावृति पेशावृति में
रूपांतरित नहीं हो। आजकल इस व्यवस्था के अभाव में राजनीति एक पेशा बन गया था। जिसमें समीकरणों के
संतुलन के नाम एक व्यवसायिक प्रक्रिया चलती है। जो राजनेता जनता से सेवा करने का वचन देकर राजनीति
में उतरा था। वह दूषित व्यवस्था के चलते धन एठन की विद्या में निपुण हो जाता है। जिससे सार्वजनिक जीवन में अवांछित हथकंडे भ्रष्टाचार, रिश्वत एवं भाईभतीजावाद का बोलबाला शुरु हो जाता है। जिस रोकने सभी कानून उपाय निष्फल सिद्ध होते हैं। व्यक्ति कितना भी अच्छा क्यों न हो जब तक व्यवस्था को दीमक लगा हुआ है। वह आशानुकूल फल नहीं दे सकता है। आदर्श व्यवस्था के लिए राजनीति एवं अर्थनीति का पृथक्करण का सिद्धांत आवश्यक है।
(३) आर्थिक जगत में प्रजातंत्र की स्थापना करना ➡ वर्तमान युग लोकतंत्र का युग है। विश्व के अधिकांश राष्ट्रों में राजनैतिक प्रजातंत्र चल रहा है। लेकिन आर्थिक जगत में प्रजातंत्र दिखाई नहीं देता है। लोकतंत्र की परिभाषा
जनता का, जनता के द्वारा एवं जनता के लिए को सही अर्थों में प्रतिफलित करने के लिए आर्थिक प्रजातंत्र
आवश्यक है। व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में प्रजातंत्र स्थापित हो जाने मालिक एवं मजदूर के शोषण तंत्र का अंत हो
जाएगा। निर्णय लेने में मजदूर की भागीदारी उस प्रतिष्ठान के प्रति मजदूर के मन में अपनापन जगाएगा। इससे कारीगरों की कार्य कुशलता भी सुरक्षित एवं संरक्षित रहती है। यह प्रशासनिक अधिकारियों की कुशलता को लालफिताशाही की भेंट नहीं चढ़ने देता है। किसी भी समाज की सुव्यवस्था के लिए राजनैतिक जगत की अपेक्षा आर्थिक जगत प्रजातंत्र की आवश्यकता है। प्राचीन भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था एक आर्थिक प्रजातंत्र की प्रक्रिया थी। जिसे रामराज्य के नाम से अलंकृत किया गया था। आदर्श समाज के लिए आर्थिक प्रजातंत्र एक
न्यायपूर्ण व्यवस्था का नाम है।
(४} प्रगतिशील उपयोग तत्व मूलक अर्थव्यवस्था की आवश्यकता ➡ समाजनीति की राह के बढ़ रही सभ्यता
को प्रगतिशील उपयोग तत्व अर्थव्यवस्था को धारण करना होता है। जिस समाज के आर्थिक मूल्य दूषित होते
वह समाज कितना भी अच्छा होने पर भी धराशायी हो जाता है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने व्यक्ति की दशा
एवं दिशा का गलत निर्धारण कर समाज को अर्थव्यवस्था प्रदान की है। वर्तमान में प्रचलित अर्थशास्त्र कहता है
कि मनुष्य एक आर्थिक प्राणी है। यही से अर्थव्यवस्था गलत रास्ते पर बढ़ जाती है । वस्तुतः मनुष्य एक
आध्यात्मिक प्राणी हैं। अर्थ उसके जीवन का एक हिस्सा है। जो उसकी सर्वांगीण गति का सहायक पहलू है। जब
मनुष्य को एक आध्यात्मिक लक्ष्यधारी नागरिक मानकर अर्थव्यवस्था का निर्माण किया जाता है। वह
प्रगतिशील उपयोग तत्वों को अभिधारण करती है। यह अर्थ व्यवस्था राजनीति मुक्त आर्थिक प्रजातंत्र की
स्थापना करता है। जहाँ समाज का संचालन समाज नीति से होता है।
(५) समाज की प्रकृति नव्य मानवतावादी होना आवश्यक ➡ राजनीति से समाजनीति की ओर चलयमान
समाज की स्वभाव एवं प्रकृति नव्य मानवतावादी होना एक आवश्यक घटक है। इसके अभाव में व्यक्ति की
प्रगति अवरुद्ध हो जाती है तथा अर्थव्यवस्था रुग्ण हो जाती है। यह समाजनीति का नहीं राजनीति का
क्षेत्राधिकार है। समाज की व्यष्टिगत एवं समष्टिगत चिन्तन एवं सोच नव्य मानवतावाद के सांचे में होने से
समाज की व्यवस्था न्यायपूर्ण रहती है। वर्तमान में स्मृतिकारों ने समाज व्यवस्था पर बहुत अधिक चिन्तन किया है लेकिन मनुष्य की सोच निर्माण पर ध्यान केन्द्रित नहीं किया। यदि ऐसा किया जाता तो समाज व्यवस्था में त्रुटिपूर्ण होने पर भी इतनी अधिक क्षति नहीं होती।
(६) मनुष्य का जीवन लक्ष्य, आनन्द की उपलब्धि ➡ स्मृति शास्त्र का लक्ष्य मात्र समाज व्यवस्था को सुदृढ़
करना एवं समाज एवं व्यक्ति में संबंध स्थापन्न तक ही नहीं होना चाहिए। समाजनीति से चलयमान व्यवस्था
मनुष्य को जीवन लक्ष्य से परिचित करवाना है। धर्मशास्त्र में बताया गया मनुष्य के जीवन का लक्ष्य सत्य से
साक्षात्कार करना बताया गया है। आदर्श स्मृति सत्य से साक्षात्कार की अवस्था आनन्द की उपलब्धि को जीवन लक्ष्य बताता है। समाजनीति से चलयमान समाज एवं देश व्यष्टि को आनन्द की ओर ले चलना। व्यष्टिगत आनन्द में वृद्धि से समष्टि जगत प्रगतिशील एवं सर्वांगीण कल्याण एवं सुख का निर्माण होता है।
राजनीति से समाजनीति की ओर यात्रा की परिपूर्णता समाज व्यवस्था में जीवन के सभी पक्षों का समावेश कर एक परिपूर्ण मानव का निर्माण करना है। पूर्णत्व की उपलब्धि एक आदर्श सामाजिक अर्थनीति की विषय वस्तु भी है।
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Writer:- Karan Singh Rajpurohit ( Anand Kiran)
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भारतवर्ष अपने गौरवमय इतिहास की झलक को कोटिशः कदम पीछे छोड़ मात्र सत्ता लोलुपता की गणित में
उलझ गया। यह दृश्य, भारतवर्ष की आन, मान एवं शान को ललकार रहा है। गौरवशाली भारतवर्ष के निर्माण
के वर्तमान परिवेश उपयुक्त नहीं है। भारतवर्ष के शुभचिंतकों को इस दृश्य को बदलने के दृढ़ संकल्पित होने की
आवश्यकता है। भारतवर्ष का संचालन राजनीति की बजाए समाजनीति से हो। इस ओर पुनः बढ़ने की जरुरत
है। इस यात्रा को राजनीति से समाजनीति ओर चलना कहा जाएगा ।
राजनीति से समाजनीति की ओर यात्रा के क्रम में हमें स्वर्णिम, सुखद एवं खुशहाल संसार मिलेगा। विश्व शांति का वास्तविक अध्याय लिखने के लिए विश्व को राजनीति से समाजनीति की ओर ले चलने में अधिक विलंब नहीं करना चाहिए। भारतवर्ष इसी नीति के बल पर विश्व गुरू की उपमा से अलंकृत किया गया था। प्राचीन भारतवर्ष की महान संस्कृति के निर्माण में समाजनीति से चलयमान भारतवर्ष की महत्ती भूमिका है। राजनीति से समाजनीति की ओर चलने के क्रम में वर्तमान व्यवस्था में निम्न आमूल चूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है।
(१) शिक्षण व्यवस्था का संचालन शिक्षाविदों के द्वारा किया जाए➡ भविष्य का समाज आज की शिक्षण
संस्थानों में निर्मित होता है। भविष्य के समाज की सुदृढ़ता एवं सुव्यवस्था शिक्षण संस्थानों के संचालन की
प्रक्रिया पर निर्भर करती है। जब तक शिक्षण संस्थान को संचालन राजनीति एवं अर्थनीति तथा इनसे प्रेरित
संस्थानों के द्वारा होगा, तब तक समाज की व्यवस्था सफल एवं सुफल नहीं हो सकती है। इसलिए एक स्पष्ट
नीति होनी चाहिए कि शिक्षा व्यवस्था का संचालन राजनीति एवं अर्थ शक्ति से मुक्त आध्यात्मिक शिक्षाविदों के द्वारा हो। यह शिक्षाविद् शिक्षार्थी को विश्व उच्च मानवीय मूल्यों के द्वारा दिखाएगें। इनके द्वारा शिक्षार्थी की सोच को नव्य मानवतावादी एवं चिन्तन सार्वभौमिकता सूत्र में परिणीत करेंगे। जिससे शिक्षार्थी भविष्य में
समग्र एवं पूर्ण मानव बनेगा। उसकी वफादारी किसी राज शक्ति के प्रति नहीं समाज के प्रति होगी एवं व्यवस्था
का संचालन समाजनीति के बल पर होने लगेगा। आज के परिदृश्य में शिक्षा व्यवस्था राजनैतिक सत्ताधारी के
हाथों की कठपुतली बनी हुई है। इस परिस्थिति जो शिक्षक का अधिकांश ध्यान समाज निर्माण की बजाए
राजनैतिक दल के हितों को साधने में अधिक रहता है। वह सर्वश्रेष्ठ के खिताब से नवाजा जाता है। शिक्षण
व्यवस्था को अर्थ शक्ति के हवाले करना भी उचित रास्ता नहीं है। आजकल शिक्षण प्रक्रिया को धन कमाने के
साधन के रुप में देखा जाना तथा शिक्षक गण वेतन एवं भत्तों के गणित उलझे रहना, निश्चित रूप से सोचनीय
विषय है। ऐसे व्यवस्था आदर्श मानव समाज का निर्माण नहीं कर सकती है। राजनीति से समाजनीति की ओर
बढ़ते कदमों को प्रथम साहरा शिक्षण संस्थानों को आध्यात्मिक नैतिकवान एवं सामाजिक शिक्षाविदों के हाथों
सौपना।
(२) अर्थनीति एवं राजनीति का पृथक्करण किया जाना ➡ राजनीति के मूल में सेवा जबकि अर्थनीति के मूल में
धनोपार्जन विद्यमान है। इसलिए दोनों के क्षेत्राधिकार अलग-अलग होते हैं। दोनों शक्तियों को एक सत्ता में
निहित रहने से सामाजिक न्याय व्यवस्था ठीक से कार्य नहीं करती है। समाज व्यवस्था के सुचारु संचालन के
लिए राजनीति एवं अर्थनीति का पृथक्करण नितांत आवश्यक है। इससे राजनीति का मूल सेवावृति पेशावृति में
रूपांतरित नहीं हो। आजकल इस व्यवस्था के अभाव में राजनीति एक पेशा बन गया था। जिसमें समीकरणों के
संतुलन के नाम एक व्यवसायिक प्रक्रिया चलती है। जो राजनेता जनता से सेवा करने का वचन देकर राजनीति
में उतरा था। वह दूषित व्यवस्था के चलते धन एठन की विद्या में निपुण हो जाता है। जिससे सार्वजनिक जीवन में अवांछित हथकंडे भ्रष्टाचार, रिश्वत एवं भाईभतीजावाद का बोलबाला शुरु हो जाता है। जिस रोकने सभी कानून उपाय निष्फल सिद्ध होते हैं। व्यक्ति कितना भी अच्छा क्यों न हो जब तक व्यवस्था को दीमक लगा हुआ है। वह आशानुकूल फल नहीं दे सकता है। आदर्श व्यवस्था के लिए राजनीति एवं अर्थनीति का पृथक्करण का सिद्धांत आवश्यक है।
(३) आर्थिक जगत में प्रजातंत्र की स्थापना करना ➡ वर्तमान युग लोकतंत्र का युग है। विश्व के अधिकांश राष्ट्रों में राजनैतिक प्रजातंत्र चल रहा है। लेकिन आर्थिक जगत में प्रजातंत्र दिखाई नहीं देता है। लोकतंत्र की परिभाषा
जनता का, जनता के द्वारा एवं जनता के लिए को सही अर्थों में प्रतिफलित करने के लिए आर्थिक प्रजातंत्र
आवश्यक है। व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में प्रजातंत्र स्थापित हो जाने मालिक एवं मजदूर के शोषण तंत्र का अंत हो
जाएगा। निर्णय लेने में मजदूर की भागीदारी उस प्रतिष्ठान के प्रति मजदूर के मन में अपनापन जगाएगा। इससे कारीगरों की कार्य कुशलता भी सुरक्षित एवं संरक्षित रहती है। यह प्रशासनिक अधिकारियों की कुशलता को लालफिताशाही की भेंट नहीं चढ़ने देता है। किसी भी समाज की सुव्यवस्था के लिए राजनैतिक जगत की अपेक्षा आर्थिक जगत प्रजातंत्र की आवश्यकता है। प्राचीन भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था एक आर्थिक प्रजातंत्र की प्रक्रिया थी। जिसे रामराज्य के नाम से अलंकृत किया गया था। आदर्श समाज के लिए आर्थिक प्रजातंत्र एक
न्यायपूर्ण व्यवस्था का नाम है।
(४} प्रगतिशील उपयोग तत्व मूलक अर्थव्यवस्था की आवश्यकता ➡ समाजनीति की राह के बढ़ रही सभ्यता
को प्रगतिशील उपयोग तत्व अर्थव्यवस्था को धारण करना होता है। जिस समाज के आर्थिक मूल्य दूषित होते
वह समाज कितना भी अच्छा होने पर भी धराशायी हो जाता है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने व्यक्ति की दशा
एवं दिशा का गलत निर्धारण कर समाज को अर्थव्यवस्था प्रदान की है। वर्तमान में प्रचलित अर्थशास्त्र कहता है
कि मनुष्य एक आर्थिक प्राणी है। यही से अर्थव्यवस्था गलत रास्ते पर बढ़ जाती है । वस्तुतः मनुष्य एक
आध्यात्मिक प्राणी हैं। अर्थ उसके जीवन का एक हिस्सा है। जो उसकी सर्वांगीण गति का सहायक पहलू है। जब
मनुष्य को एक आध्यात्मिक लक्ष्यधारी नागरिक मानकर अर्थव्यवस्था का निर्माण किया जाता है। वह
प्रगतिशील उपयोग तत्वों को अभिधारण करती है। यह अर्थ व्यवस्था राजनीति मुक्त आर्थिक प्रजातंत्र की
स्थापना करता है। जहाँ समाज का संचालन समाज नीति से होता है।
(५) समाज की प्रकृति नव्य मानवतावादी होना आवश्यक ➡ राजनीति से समाजनीति की ओर चलयमान
समाज की स्वभाव एवं प्रकृति नव्य मानवतावादी होना एक आवश्यक घटक है। इसके अभाव में व्यक्ति की
प्रगति अवरुद्ध हो जाती है तथा अर्थव्यवस्था रुग्ण हो जाती है। यह समाजनीति का नहीं राजनीति का
क्षेत्राधिकार है। समाज की व्यष्टिगत एवं समष्टिगत चिन्तन एवं सोच नव्य मानवतावाद के सांचे में होने से
समाज की व्यवस्था न्यायपूर्ण रहती है। वर्तमान में स्मृतिकारों ने समाज व्यवस्था पर बहुत अधिक चिन्तन किया है लेकिन मनुष्य की सोच निर्माण पर ध्यान केन्द्रित नहीं किया। यदि ऐसा किया जाता तो समाज व्यवस्था में त्रुटिपूर्ण होने पर भी इतनी अधिक क्षति नहीं होती।
(६) मनुष्य का जीवन लक्ष्य, आनन्द की उपलब्धि ➡ स्मृति शास्त्र का लक्ष्य मात्र समाज व्यवस्था को सुदृढ़
करना एवं समाज एवं व्यक्ति में संबंध स्थापन्न तक ही नहीं होना चाहिए। समाजनीति से चलयमान व्यवस्था
मनुष्य को जीवन लक्ष्य से परिचित करवाना है। धर्मशास्त्र में बताया गया मनुष्य के जीवन का लक्ष्य सत्य से
साक्षात्कार करना बताया गया है। आदर्श स्मृति सत्य से साक्षात्कार की अवस्था आनन्द की उपलब्धि को जीवन लक्ष्य बताता है। समाजनीति से चलयमान समाज एवं देश व्यष्टि को आनन्द की ओर ले चलना। व्यष्टिगत आनन्द में वृद्धि से समष्टि जगत प्रगतिशील एवं सर्वांगीण कल्याण एवं सुख का निर्माण होता है।
राजनीति से समाजनीति की ओर यात्रा की परिपूर्णता समाज व्यवस्था में जीवन के सभी पक्षों का समावेश कर एक परिपूर्ण मानव का निर्माण करना है। पूर्णत्व की उपलब्धि एक आदर्श सामाजिक अर्थनीति की विषय वस्तु भी है।
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Writer:- Karan Singh Rajpurohit ( Anand Kiran)
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