आनन्द मार्ग चर्याचर्य हमारे समाज को आठ सामाजिक उत्सवों प्रदान करता है तथा उनके अनुष्ठान की विधि भी समझाइ गई है। उसमें एक शारदोत्वस भी है। हमारे सामाजिक उत्सवों में यही एक मात्र उत्सव है जो पांच दिन तक चलता है। इन दिनों भारतवर्ष में नवरात्रि नामक उत्सव भी चलता है। शारदोत्वस एवं नवरात्रि एक नहीं है। इसे समझने के लिए चर्याचर्य के निर्देश की ओर चलते हैं - "अनुष्ठान के भीतर आनन्द भोग करने वाले प्रकारांतर से अपने शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक उन्नति-विधान का सुयोग प्राप्त करें।" अर्थात जिस उत्सव में शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति का सुयोग मिलता है वही आनन्दानुष्ठान है।
शारदोत्वस आश्विन शुक्ला षष्ठी से लेकर दशमी पर्यन्त चलने वाला एक उत्सवों का समूह है। इनका ऐतिहासिक महत्व यद्यपि चित्रित नहीं किया गया है लेकिन इन्हें सामाजिक उत्सव के रूप में स्वीकृति मिली है। आज हम उन्हें समझने जा रहे हैं।
(१) शिशु दिवस - अश्विन शुक्ला षष्ठी को शिशुओं को समर्पित की गई है। इसे शिशु दिवस के रूप में मानाने का निर्देश प्राप्त है। आनन्दानुष्ठान के साथ शिशु स्वास्थ्य प्रदर्शनी, शिशु-क्रीड़ा प्रदर्शनी की व्यवस्था करने का विधान है।
(i) शिशु स्वास्थ्य प्रदर्शनी - यह शिशु के स्वास्थ्य पर समाज का ध्यान आकृष्ट करता है। स्वस्थ शिशु समाज की धरोहर है। इसलिए समाज को शिशु स्वास्थ्य की ओर विशेष ध्यान देने का निर्देशन पत्र है। इस दिन हमें शिशु स्वास्थ्य प्रदर्शनी का आयोजन करना होता है। जिसमें स्वस्थ शिशु के लक्षण एवं विशेषताएं प्रदर्शित होती हो।
(ii) शिशु-क्रीड़ा प्रदर्शनी - शिशु स्वास्थ्य के बाद द्वितीय अंग में शिशु-क्रीड़ा प्रदर्शनी को मिला है। शिशु की क्रीड़ा सभी के आनन्ददायनी होती है। इसलिए इसका आयोजन भी आवश्यक है। यहाँ एक बात याद रखनी आवश्यक है - यह प्रदर्शनी है प्रतियोगिता नहीं। इसका अर्थ है कि स्वास्थ्य एवं क्रीड़ा का एक मानदंड है उसमें सभी शिशुओं खरा उतरना होता है। जो इसमें खरे उतरते है वे सभी विजेता है। जबकि प्रतियोगिता में प्रथम आने की होड़ में मानक पैमाना गौण हो जाता है। अन्य महत्वपूर्ण हो जाते हैं। जिन्हें चिकित्सा विज्ञान की भाषा में साइड इफेक्ट्स कहते हैं।
(२) साधारण दिवस - अश्विन शुक्ला सप्तमी को शिशु के अतिरिक्त सभी को समर्पित किया गया है। इसमें आनन्दानुष्ठान के साथ युवक-स्वास्थ्य प्रदर्शनी तथा क्रीड़ा एवं शक्ति प्रदर्शन के आयोजन की व्यवस्था करने का विधान है।
(i) युवक-स्वास्थ्य प्रदर्शनी - जिस प्रकार स्वस्थ शिशु समाज की धरोहर है उसी प्रकार स्वस्थ युवक समाज की पहचान है। युवक/ युवतियों को स्वास्थ्य के प्रति सचेत करने के लिए इस प्रकार प्रादर्श की आवश्यकता है। आज इस प्रकार के प्रदर्शन के अभाव में युवक/युवतियाँ लहरों की थप्पड़ों में अपनी मझधार को ले चलता है।
(ii) युवक क्रीड़ा एवं शक्ति प्रदर्शन - क्रीड़ा युवक में उत्साह तथा शक्ति प्रदर्शन जोश व आत्म विश्वास का विकास करता है। इसलिए युवक युवतियों के लिए अलग अलग इस प्रकार के प्रदर्शन आयोजित किया जाना होता है।
(३) ललित कला दिवस - अश्विन शुक्ला अष्टमी ललित कलाओं को समर्पित की गई है। इसमें आनन्दानुष्ठान के साहित्य-सभा, कविता-पाठ, चित्रांकन, नृत्य तथा अन्यान्य ललित कला के प्रदर्शन कर ललित कला की विधाओं को सम्मान दिया जा सकता है।
(i) साहित्य-सभा - ललित कलाओं में प्रथम स्थान पर साहित्य-सभा रखकर कला को भूत, वतर्मान एवं भविष्य के साथ संयोजन किया गया है। साहित्य-सभा में साहित्यकार की साहित्य साधना को सामाजिक सम्मान दिया जाता है। इस अवसर पर एकांत में अपने मनीषा से निर्मित अमूल्य खजाना समाज को प्रदान करता है तथा समाज उसके लाभ के प्रति अपना कृतघ्न अर्पित करता है।
(ii) कविता-पाठ - काव्य ललित कला की अनुपम विधा है। यह मन को रस एवं भावों से भर देता है। कवि की काव्य साधना का भी सम्मान समाज कर सके इसलिए इस प्रकार के आयोजन आवश्यक है।
(iii) चित्रांकन - चित्र मन के भावों को तल पर प्रदर्शन करता है इसलिए चित्रकला की भी प्रदर्शनी चित्रकार को सम्मान देती है।
(iv) नृत्य - ललित कला के सम्मान में चतुर्थ अंग के रूप में नृत्य को सुना गया है। यद्यपि अधिकांश नृत्य संगीतमय होते हैं लेकिन नृत्य विधा मनुष्य के भाव को निशब्द प्रकट करने की विधा है।
(v) अन्यान्य कला - इसमें उपरोक्त कला के अतिरिक्त सभी ललित कलाएँ आती है जिसका सम्मान दिया जाता है।
(४) संगीत दिवस - अश्विन शुक्ला नवमी को संगीत को समर्पित किया गया है। इसमें आनन्दानुष्ठान के साथ कंठ एवं वाद्य संगीत और संगीत-नृत्य की प्रतियोगिता रखने की अनुमति मिलती है। यद्यपि संगीत कला भी एक प्रकार की ललित कला है लेकिन इनके विशिष्टता ने अपने लिए एक अलग स्थान बनाया है।
(i) कंठ एवं वाद्य संगीत - इसमें संगीत की दो शाखा कंठ संगीत एवं वाद्य संगीत को लिया गया है। कंठ द्वारा उत्पन्न संगीत जिसमें स्वर, लय एवं पद्य का संयोग होता है। इसमें पद्य अथवा काव्य का मुख्य स्थान है। बिना वाद्य यंत्र के गायन को इसमें स्थान दिया गया है। वाद्य संगीत, संगीत की दूसरी विधा है जिसमें वादन के साथ संगीत होता है। तत, सुषिर, अवनद्ध तथा घन वाद्य सहित सभी वादन का उपयोग कर गायन किया जाता है।
(ii) संगीत-नृत्य - इसमें नृत्य सहित संगीत आता है। आजकल संगीत कार्यक्रम की महफ़िलें इससे ही सजती है। संगीत जब कलाकार के हाथ, पाँव एवं शरीर के अन्य अंगों में स्पंदन पैदा कर दे तब संगीत-नृत्य कला का प्रदर्शन होता है।
संगीत को प्रतियोगिता की अनुमति प्रदान है। यह प्रर्दशन से आगे बढ़कर कलाकार को निखारता है।
(५) विजयोत्सव - अश्विन शुक्ला दशमी को विजय का उत्सव माना के लिए चयनित किया गया है। चतुर्थ दिवसीय कार्यक्रम के प्रतिभागी इस दिन अपने विजय का उत्सव मनाते है। आनन्दानुष्ठान के साथ शोभा इस पर्व के आकर्षण का केंद्र है।
(i) शोभा यात्रा - इसमें रंगीन वस्त्र पहनकर बाजे गाजे के साथ शोभायात्रा निकाली जाती है। यह आसुरी शक्ति पर शुभ शक्ति की विजय को रेखांकित करती है।
आनन्दानुष्ठान - मिलित ईश्वर प्रणिधान, वर्णार्घ्यदान, सहभोज, मिलित स्नान एवं अन्य आनन्दानुष्ठान आते हैं। जिससे उत्सव आध्यात्मिक बन जाता है।
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श्री आनन्द किरण "देव"