शारदोत्वस पर विशेष

आनन्द मार्ग चर्याचर्य हमारे समाज को आठ सामाजिक उत्सवों प्रदान करता है तथा उनके अनुष्ठान की विधि भी समझाइ गई है। उसमें एक शारदोत्वस भी है। हमारे सामाजिक उत्सवों में यही एक मात्र उत्सव है जो पांच दिन तक चलता है। इन दिनों भारतवर्ष में नवरात्रि नामक उत्सव भी चलता है। शारदोत्वस एवं नवरात्रि एक नहीं है। इसे समझने के लिए चर्याचर्य के निर्देश की ओर चलते हैं - "अनुष्ठान के भीतर आनन्द भोग करने वाले प्रकारांतर से अपने शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक उन्नति-विधान का सुयोग प्राप्त करें।" अर्थात जिस उत्सव में शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति का सुयोग मिलता है वही आनन्दानुष्ठान है। 

शारदोत्वस आश्विन शुक्ला षष्ठी से लेकर दशमी पर्यन्त चलने वाला एक उत्सवों का समूह है। इनका ऐतिहासिक महत्व यद्यपि चित्रित नहीं किया गया है लेकिन इन्हें सामाजिक उत्सव के रूप में स्वीकृति मिली है। आज हम उन्हें समझने जा रहे हैं। 

(१) शिशु दिवस -  अश्विन शुक्ला षष्ठी को शिशुओं को समर्पित की गई है। इसे शिशु दिवस के रूप में मानाने का निर्देश प्राप्त है। आनन्दानुष्ठान के साथ शिशु स्वास्थ्य प्रदर्शनी, शिशु-क्रीड़ा प्रदर्शनी की व्यवस्था करने का विधान है। 

(i) शिशु स्वास्थ्य प्रदर्शनी - यह शिशु के स्वास्थ्य पर समाज का ध्यान आकृष्ट करता है। स्वस्थ शिशु समाज की धरोहर है। इसलिए समाज को शिशु स्वास्थ्य की ओर विशेष ध्यान देने का निर्देशन पत्र है। इस दिन हमें शिशु स्वास्थ्य प्रदर्शनी का आयोजन करना होता है। जिसमें स्वस्थ शिशु के लक्षण एवं विशेषताएं प्रदर्शित होती हो। 

(ii) शिशु-क्रीड़ा प्रदर्शनी - शिशु स्वास्थ्य के बाद द्वितीय अंग में शिशु-क्रीड़ा प्रदर्शनी को मिला है। शिशु की क्रीड़ा सभी के आनन्ददायनी होती है। इसलिए इसका आयोजन भी आवश्यक है। यहाँ एक बात याद रखनी आवश्यक है - यह प्रदर्शनी है प्रतियोगिता नहीं। इसका अर्थ है कि स्वास्थ्य एवं क्रीड़ा का एक मानदंड है उसमें सभी शिशुओं खरा उतरना होता है। जो इसमें खरे उतरते है वे सभी विजेता है। जबकि प्रतियोगिता में प्रथम आने की होड़ में मानक पैमाना गौण हो जाता है। अन्य महत्वपूर्ण हो जाते हैं। जिन्हें चिकित्सा विज्ञान की भाषा में साइड इफेक्ट्स कहते हैं। 

(२) साधारण दिवस - अश्विन शुक्ला सप्तमी को शिशु के अतिरिक्त सभी को समर्पित किया गया है। इसमें आनन्दानुष्ठान के साथ  युवक-स्वास्थ्य प्रदर्शनी तथा क्रीड़ा एवं शक्ति प्रदर्शन के आयोजन की व्यवस्था करने का विधान है। 

(i) युवक-स्वास्थ्य प्रदर्शनी - जिस प्रकार स्वस्थ शिशु समाज की धरोहर है उसी प्रकार स्वस्थ युवक समाज की पहचान है। युवक/ युवतियों को स्वास्थ्य के प्रति सचेत करने के लिए इस प्रकार प्रादर्श की आवश्यकता है। आज इस प्रकार के प्रदर्शन के अभाव में युवक/युवतियाँ लहरों की थप्पड़ों में अपनी मझधार को ले चलता है। 

(ii) युवक क्रीड़ा एवं शक्ति प्रदर्शन - क्रीड़ा युवक में उत्साह तथा शक्ति प्रदर्शन जोश व आत्म विश्वास का विकास करता है। इसलिए युवक युवतियों के लिए अलग अलग इस प्रकार के प्रदर्शन आयोजित किया जाना होता है। 

(३) ललित कला दिवस - अश्विन शुक्ला अष्टमी ललित कलाओं को समर्पित की गई है। इसमें आनन्दानुष्ठान के साहित्य-सभा, कविता-पाठ, चित्रांकन, नृत्य तथा अन्यान्य ललित कला के प्रदर्शन कर ललित कला की विधाओं को सम्मान दिया जा सकता है। 

(i) साहित्य-सभा - ललित कलाओं में प्रथम स्थान पर साहित्य-सभा रखकर कला को भूत, वतर्मान एवं भविष्य के साथ संयोजन किया गया है। साहित्य-सभा में साहित्यकार की साहित्य साधना को सामाजिक सम्मान दिया जाता है। इस अवसर पर एकांत में अपने मनीषा से निर्मित अमूल्य खजाना समाज को प्रदान करता है तथा समाज उसके लाभ के प्रति अपना कृतघ्न अर्पित करता है। 

(ii) कविता-पाठ - काव्य ललित कला की अनुपम विधा है। यह मन को रस एवं भावों से भर देता है। कवि की काव्य साधना का भी सम्मान समाज कर सके इसलिए इस प्रकार के आयोजन आवश्यक है। 

(iii) चित्रांकन - चित्र मन के भावों को तल पर प्रदर्शन करता है इसलिए चित्रकला की भी प्रदर्शनी चित्रकार को सम्मान देती है। 

(iv) नृत्य - ललित कला के सम्मान में चतुर्थ अंग के रूप में नृत्य को सुना गया है। यद्यपि अधिकांश नृत्य संगीतमय होते हैं लेकिन नृत्य विधा मनुष्य के भाव को निशब्द प्रकट करने की विधा है। 

(v) अन्यान्य कला - इसमें उपरोक्त कला के अतिरिक्त सभी ललित कलाएँ आती है जिसका सम्मान दिया जाता है। 

(४) संगीत दिवस - अश्विन शुक्ला नवमी को संगीत को समर्पित किया गया है। इसमें आनन्दानुष्ठान के साथ कंठ एवं वाद्य संगीत और संगीत-नृत्य की प्रतियोगिता रखने की अनुमति मिलती है। यद्यपि संगीत कला भी एक प्रकार की ललित कला है लेकिन इनके विशिष्टता ने अपने लिए एक अलग स्थान बनाया है। 

(i) कंठ एवं वाद्य संगीत - इसमें संगीत की दो शाखा कंठ संगीत एवं वाद्य संगीत को लिया गया है। कंठ द्वारा उत्पन्न संगीत जिसमें स्वर, लय एवं पद्य का संयोग होता है। इसमें पद्य अथवा काव्य का मुख्य स्थान है। बिना वाद्य यंत्र के गायन को इसमें स्थान दिया गया है। वाद्य संगीत, संगीत की दूसरी विधा है जिसमें वादन के साथ संगीत होता है। तत, सुषिर, अवनद्ध तथा घन वाद्य सहित सभी वादन का उपयोग कर गायन किया जाता है। 

(ii) संगीत-नृत्य - इसमें नृत्य सहित संगीत आता है। आजकल संगीत कार्यक्रम की महफ़िलें इससे ही सजती है। संगीत जब कलाकार के हाथ, पाँव एवं शरीर के अन्य अंगों में स्पंदन पैदा कर दे तब संगीत-नृत्य कला का प्रदर्शन होता है। 

संगीत को प्रतियोगिता की अनुमति प्रदान है। यह प्रर्दशन से आगे बढ़कर कलाकार को निखारता है।

(५) विजयोत्सव - अश्विन शुक्ला दशमी को विजय का उत्सव माना के लिए चयनित किया गया है। चतुर्थ दिवसीय कार्यक्रम के प्रतिभागी इस दिन अपने विजय का उत्सव मनाते है। आनन्दानुष्ठान के साथ शोभा इस पर्व के आकर्षण का केंद्र है।

(i)  शोभा यात्रा - इसमें रंगीन वस्त्र पहनकर  बाजे गाजे के साथ शोभायात्रा निकाली जाती है। यह आसुरी शक्ति पर शुभ शक्ति की विजय को रेखांकित करती है। 

आनन्दानुष्ठान - मिलित ईश्वर प्रणिधान, वर्णार्घ्यदान, सहभोज, मिलित स्नान एवं अन्य आनन्दानुष्ठान आते हैं। जिससे उत्सव आध्यात्मिक बन जाता है। 
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       श्री आनन्द किरण "देव"
आनन्द मार्ग अमर है

श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने मानव के लिए आनन्द मार्ग दिया है। उन्होंने मानव को आश्वासन दिया है कि आनन्द मार्ग अमर है। चूंकि आनन्दमूर्ति परमसत्ता है इसलिए उक्त वाक्य आप्त वाक्य है। शास्त्र में कहा गया है कि आप्त वाक्य शास्वत सत्य होते है। आज हम शास्वत सत्य आप्त वाक्य 'आनन्द मार्ग अमर है' पर चर्चा करते हैं। 

मनुष्य का दर्शन आनन्द मार्ग

सृष्टि के उषाकाल से ही मनुष्य को एक दर्शन की खोज थी। वह जानना चाहता था कि -
१. परमतत्व(विभु सत्ता) क्या है? 
२. सृष्टि तत्व क्या है? 
३. मैं कौन हूँ? 
४. धर्म क्या है? 
५. मेरा लक्ष्य क्या है अथवा मेरी गति क्या है? 
६. लक्ष्य तक पहुँचने का पथ व साधन क्या है?  
७. मनुष्य साधना से भयभीत क्यों होता है? 
८. समाज क्या है? 
९. समाज दर्शन क्या है? 
१०. मेरा का चिन्तन कैसा होना चाहिए? 
११. मनुष्य के विचार का निर्माण कैसे होता है? 
- ऐसे प्रश्न को उत्तर की खोज करने के प्रयास में मनुष्य के दर्शन का निर्माण होता है। अतीत में बहुत सारे विद्वानों ने उक्त प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास किया था। सदाशिव के युग में दर्शन से अधिक वस्तु जगत में काम करने की आवश्यकता थी इसलिए सदाशिव ने मनुष्य को दर्शन से दूर रखा। कृष्ण के युग में स्वयं तथा जगत के विषय जानने का जिज्ञासु हो गया था। इसलिए कृष्ण ने गीता का उपदेश दिया। आज के युग के मनुष्य की जिज्ञासा में नवीनता आई है। वह पहले से अधिक तार्किक बन गया है इसलिए आजके मनुष्य का दर्शन एवं क्रिया वैज्ञानिक होना आवश्यक है। उस अधिग्रहण, प्रमेय एवं निर्मेय के रूप में प्रमाणित कर सिद्धांत का रुप देना पड़ता है। इसलिए तार्किक, यथार्थ एवं युक्ति कसौटी पर खरा उतरने वाले दर्शन की आवश्यकता है। आनन्द मार्ग वैसा ही दर्शन है। जहाँ भाव जड़ता नहीं तार्किक मानसिकता के आधार पर दर्शन का निर्माण हुआ है। आनन्द मार्ग मनुष्य का अपना स्वयं का दर्शन है। जहाँ मनुष्य स्वयं को जानता है, अपने भगवान को जानता है तथा जगत एवं समाज को भी जानता है तथा इनसे आनन्द प्राप्त करता है। 

आनन्द मार्ग एक जीवन शैली

मनुष्य को जीने के लिए एक जीवन शैली की आवश्यकता है। जो मनुष्य के व्यवहार एवं कर्म का निर्धारण करती है। विश्व इतिहास में ऐसी कई जीवन शैलियों का निर्माण हुआ है तथा होता जा रहा है। आनन्द मार्ग मनुष्य की ऐसी जीवन शैली है। जिस पर चलकर मनुष्य जीवन को सार्थक करता है तथा अपने जीवन को आनन्द से लबालब भर देता है। 

आनन्द मार्ग मनुष्य का आदर्श है

मनुष्य दर्शन, जीवन शैली के साथ एक आदर्श की खोज भी कर रहा है। आदर्श का अर्थ है ऐसे नैव्यष्टिक तत्व जिनको धारण करना चाहता है। जो मनुष्य के अपने सिद्धांत बन जाते हैं‌। आनन्द मार्ग मनुष्य के लिए आदर्श भी है। जिसके प्रति पूर्ण विश्वास व्यक्त करता है।

आनन्द मार्ग मनुष्य का जीवन पथ है

आनन्द मार्ग मनुष्य मात्र जीवन शैली ही नहीं जीवन लक्ष्य तक चलने का पथ भी है। मनुष्य की का पथ है। वस्तुतः मनुष्य अनन्त काल से अपनी प्रगति के सामान्य पथ की तालाश में उसे मत एवं पंथ तो मिले लेकिन सुपथ नहीं मिला था। आनन्द मार्ग मनुष्य के लिए सुपथ बनकर आया है। 

हमने आनन्द मार्ग कुछ विधाओं के देखा है। अब विषय पर आते है आनन्द मार्ग अमर है - आनन्द मार्ग मनुष्य के दर्शन, जीवन शैली, आदर्श एवं सुपथ के रूप में अजर अमर है। आनन्द मार्ग का आगमन आनन्दमूर्ति से है तथा आनन्द मार्ग निर्गमन आनन्दमूर्ति में है। मनुष्य का आना जाना सबकुछ आनन्द मार्ग ही है। अतः आनन्द मार्ग अमर है।

आनन्द मार्ग प्रचारक संघ एवं आनन्द मार्ग अमर है

हमने आप्त वाक्य को शास्वत सत्य स्वरूप के दर्शन किये है। इसलिए हम थोड़ा आगे बढ़ते हैं। आनन्द मार्ग प्रचारक संघ जिसका निर्माण श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने आनन्द मार्ग को धरातल पर उतारने के लिए किया था। 1955 से 1990 तक श्री श्री आनन्दमूर्ति जी आनन्द मार्ग को पूर्ण रूप से धरातल स्थापित कर 21 अक्टूबर 1990 से पुनः आनन्द लोक में वास कर रहे हैं। यद्यपि यह धरातल भी उनके आनन्द लोक का ही अंग है तथापि भौतिक रूप से आनन्द मार्ग प्रचारक संघ की जिम्मेदारी पुरोधाओं पर आ गई। 1990 से अब तक यात्रा में यह पुरोधा आनन्द मार्ग को संभालने में चूक करते देखे जा रहे हैं। इनकी यह चूक आनन्द मार्ग प्रचारक संघ को गुटबाजी का अड्डा बना दिया है। सभी अपने अपने गुट को सच्चा, अच्छा एवं पक्का आनन्द मार्ग कह रहे हैं। इस विषम परिस्थिति में सवाल उठता है कि क्या आनन्द मार्ग प्रचारक संघ अमर है? इसकी उत्तर की खोज में सर्वप्रथम हम 1953-54 में जाते है। आचार्य नगीना जी का वृतांत बताता है कि बाबा किसी प्रकार के संगठन की संरचना के पक्ष में नहीं थे। बताते है कि उनके तात्कालिक शिष्यों की मांग पर विशेषकर आचार्य नगीना जी जिद की जीत पर हमें आनन्द मार्ग प्रचारक संघ मिला। यदि परमपुरुष के लीला लोक की ओर दृष्टिपात करें तो आचार्य नगीना एवं श्री श्री आनन्दमूर्ति जी का तात्कालिक शिष्यदल उस लीला के पात्र मात्र थे। 1953-54 का यह अध्ययन पत्र बताता है कि श्री श्री आनन्दमूर्ति जी संगठन बनाने के पक्ष में क्यों नहीं थे? उन्होंने तात्कालिक शिष्यदल के समक्ष स्वयं को हराकर आनन्द मार्ग प्रचारक संघ क्यों दिया? आचार्य नगीना जी वृतांत को साक्षी मानकर देखा जाए तो आनन्द मार्ग प्रचारक संघ श्री श्री आनन्दमूर्ति जी की अपने ही शिष्यदल के समक्ष हार का परिणाम है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी का आगमन आनन्द मार्ग को धरातल पर लाने के लिए ही हुआ था। आनन्द मार्ग को धरातल पर स्थापित करने में आनन्द मार्ग प्रचारक संघ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी संगठन बनाने के पक्ष में नहीं थे तथा संगठन के माध्यम से इस पृथ्वी लोक को आनन्द मार्ग प्रदान कर दिया। दोनों ही विरोधाभास उक्तियों के बीच प्रश्न और भी अधिक महत्वपूर्ण हो गया है कि क्या आनन्द मार्ग प्रचारक संघ भी अमर है? इस प्रश्न की दूसरी पड़ताल में आनन्द मार्ग प्रचारक संघ के इतिहास की ओर जाते हैं। आनन्द मार्ग प्रचारक संघ के इतिहास को दो चरण में रखकर अध्ययन करते हैं - प्रथम चरण 1955 से 1990 तथा द्वितीय चरण 1990 से अब तक। आनन्द मार्ग प्रचारक संघ के इतिहास के प्रथम चरण में आनन्द मार्ग का निर्माण हुआ है। इस काल में आनन्द दर्शन, आनन्द मार्ग जीवन शैली, आनन्द मार्ग आदर्श एवं आनन्द मार्ग पथ का निर्माण हुआ। 1990 में अंतिम प्रभात संगीत गुरुकुल आता है। इसलिए 1955 को ही आनन्द मार्ग जन्म नहीं कह सकते हैं। उस दिन आनन्द मार्ग के बीज का रोपण किया था जो अंकुरित होकर 1990 को बाहर आया। इसलिए प्रथम पृष्ठ को भूतल के अंदर का इतिहास कह सकते हैं। प्रउत, नव्य मानवतावाद, कीर्तन, आनन्द सूत्रम, प्रभात संगीत, कौषिकी, तांडव इत्यादि आनन्द मार्ग की धरोहर है। यह इस यात्रा में आए हैं। यह काल मनुष्य सोच से नहीं परमपुरुष की सोच में समाया मनुष्य के तन तो मात्र उनका साथ दे रहे थे। अक्टूबर 1990 में आनन्द मार्ग मनुष्यों के हाथ में आया है। इसलिए द्वितीय काल की पड़ताल उत्तर की खोज में मदद देगी। सुना है कि श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने अपने भौतिक जीवन के अंतिम काल में मार्गियों आनन्द मार्ग के आदर्श पर चलने की शपथ दिलाई थी। यह शपथ भी उनके एक संदेह की ओर ईशारा करती है कि वे जानते थे कि कुछ अप्रिय होने वाला है। उसमें आनन्द मार्ग को सुरक्षित रखने में वह शपथ मददगार साबित हो। अब द्वितीय चरण की पड़ताल की ओर चलते हैं। 1990 से अबतक आनन्द मार्ग प्रचारक संघ तीन तेरह होता ही चल रहा है इसके बीच एक आश है कि आनन्द मार्ग प्रचारक संघ एक होगा। आनन्द मार्ग प्रचारक संघ का दृश्य एवं आश के बीच यदि संतुलन रेखा खिंचे तो एक ही उत्तर आएगा कि आप्त वाक्य इस पर लागू नहीं होने पर भी आनन्द मार्ग प्रचारक संघ चिरंजीवी है। यह रुग्ण हो सकता है लेकिन नष्ट नहीं होगा। मुझे एक ही बात समझ में आती है कि आनन्द मार्ग प्रचारक संघ चिरंजीवी अवश्य है। वह एक दिन अपने मूल स्वभाव में आएगा तथा आनन्द मार्ग के आदर्श को इस धरा पर स्थापित करेगा। 
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      श्री आनन्द किरण "देव"

आध्यात्मिक नैतिकता


नैतिकता या नैतिक दर्शन, दर्शनशास्त्र की एक शाखा है जिसमें सही और गलत व्यवहार की अवधारणाओं का निर्माण करना, पालन करना एवं संरक्षण देना है। नैतिकता का क्षेत्राधिकार मानवीय के वे सभी क्रियाकलाप है, जिससे मानव समाज प्रभावित होता है। अतः नैतिकता का निर्धारण करना सभी विषय एवं विभाग में अनिवार्य है। नैतिकता के दो स्वरूप है। प्रथम सहज नैतिकता एवं द्वितीय आध्यात्मिक नैतिकता। सहज नैतिकता में मानव के समक्ष कोई लक्ष्य अथवा आदर्श नहीं होता है। समाज के जिम्मेदार एवं प्रतिष्ठित नागरिक होने के नाते नैतिकता का पालन करना होता है। जहाँ तक यह मनुष्य के मन यह भाव रहता नैतिकता उसके आचरण में दिखती है। लेकिन जैसे ही यह भाव हट जाता है नैतिकता भी ओझल हो जाती है। आध्यात्मिक नैतिकता के समक्ष परमपुरुष लक्ष्य एवं आदर्श होते हैं। उनके खातिर एवं समाज के जिम्मेदार एवं प्रतिष्ठित नागरिक होने के नाते नैतिकता का पालन करना होता है। आध्यात्मिक नैतिकता में परमपुरुष लक्ष्य होने कारण नैतिकवान फिसल नहीं सकता है। यह कैमरा उनके हर क्रियाकलाप का रिकार्ड रखता है। अतः शास्त्र सहज नैतिकता से आध्यात्मिक नैतिकता को श्रेष्ठ मानता है। 

आध्यात्मिक नैतिकता दर्शनशास्त्र की वह शाखा है, जिसपर चलन मनुष्य वृहद बनता है। शास्त्र कहता है कि वृहद को पाना ही धर्म है। अतः हम कह सकते हैं कि आध्यात्मिक नैतिकता ही धर्म है। नैतिकता विहिन आध्यात्मिकता मनुष्य को ब्रह्म कोटि तक ले तो जा सकती है लेकिन ब्रह्म का सम्मान नहीं दिला सकती है। अतः केवल आध्यात्मिकता ही धर्म नहीं तथा केवल नैतिकता ही धर्म नहीं है। धर्म बनने के लिए आध्यात्मिकता व नैतिकता को मिलकर रहना होता है। दोनों को एकाकार होकर चलना भी कह सकते हैं। शास्त्र कहता है कि धर्म विहीन मनुष्य पशु समान है। अतः वैधानिक भाषा में हम कह सकते हैं कि आध्यात्मिक नैतिकता विहिन मनुष्य भी पशु समान है। 

अध्यात्म मनुष्य को पूर्णत्व प्रदान करता है तथा नैतिकता मनुष्य को महानत्व अथवा परमत्व। परमत्व एवं पूर्णत्व वस्तुतः एक ही है। इसलिए नैतिकता को आध्यात्मिकता से पृथक करके देखना अथवा आध्यात्मिकता को नैतिकता से पृथक करके देखना एक नादानी है। ऐसा दर्शन देने वाले जानबूझकर समाज एवं मनुष्य को अधर्म के पथ पर ले जाते हैं। शास्त्र अधर्म को मनुष्य का पथ नहीं बताते हैं। अतः किसी को भी इस पथ समर्थन एवं स्वीकृति नहीं देनी चाहिए। नैतिकता विहिन आध्यात्मिकता साधुवेष में शैतान का सर्जन करते हैं। यह लोग संत समाज को बदनाम करते हैं। आध्यात्मिकता विहिन नैतिकता मनुष्य को प्रगति के पथ से वंचित करती है। ऐसे लोग समाज की क्षति तो नहीं करते हैं लेकिन खुद पांव कुल्हाड़ी जरूर मारते हैं। कितना भी आध्यात्मिक पुरुष हो लेकिन नैतिकता नहीं है तो त्याग देना चाहिए। इसी प्रकार नैतिकता के उच्च पैमाने पर बैठे उस पुरुष का भी संग न करें जिसके पास आध्यात्मिकता नहीं है। यह व्यक्ति स्वयं का एवं तुम्हारा कल्याण नहीं कर सकता है।
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श्री आनन्द किरण "देव"
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     दिव्य आशीर्वचन
मन के जो भागवत आदर्श, उसे भूमा भाव तक पहुंचाने की प्रेरणा देता है उसे नीतिवाद कहते हैं। नीतिवाद का प्रत्येक अंग मनुष्य को क्षुद्रत्व के भीतर से भी असीम का गान सुनाता चलता है। सरल भाषा में कहा जा सकता है कि जो सदवृतियां बृहत भाव में प्रतिष्ठित होने में सहायक हैं वही सदनीति व नीति है। बृहद भाव में प्रतिष्ठित होना ही अध्यात्म है और इस अध्यात्म का आधार नीति है और इस नीति पर जो नैतिकता आधारित है वही नैतिकता बृहद भाव में प्रतिष्ठित कर सकती है क्योंकि उसके अंदर  क्षुद्रत्व के भीतर से भी असीम की गान सुनाने की क्षमता है। 
अत: सदवृतियों के जागरण में सहायक नैतिकता को जो भूमा भाव में प्रतिष्ठित करने की क्षमता रखती है, को‌ आध्यात्मिक नैतिकता कहते हैं। चुंकि सदवृतियों का जागरण यम-नियम के पालन से ही होता है क्योंकि यम नियम के पालन से मन के सभी कोष मजबूत होते हैं और कोष के मजबूत होने से हार्मोनल सेक्रेशन बैलेंसड  होता है। अत: मूल दृष्टि से यम नियम का पालन ही आध्यात्मिक नैतिकता है। जो लोग यम नियम का पालन नहीं करते हैं उन्हें नैतिक नहीं कहा जा सकता है और ऐसे  लोगों के द्वारा समाज का नियंत्रित होना धीरे-धीरे अंधेरे में पूरे समाज को समाविष्ट करना है।
समाज का आध्यात्मिक नैतिकवान होना क्यों जरुरी है?
हमारा समाज आंदोलन योजना के प्रथम चरण में आध्यात्मिक नैतिकवान समाज का निर्माण करने की योजना देता है। इसलिए आज प्रश्न लिया गया है कि समाज का आध्यात्मिक नैतिकवान होना क्यों आवश्यक है? 

बिना नैतिकता के कितनी भी सुन्दर व्यवस्था ऐसे ही धराशायी हो जाएगी जैसे बिना नींव का मकान होता है। इसलिए प्रउत समष्टि व्यवस्था के लिए व्यष्टि में आध्यात्मिक नैतिकता के बीज का रोपण करता है। समस्त योजना एवं क्रियाकलाप आध्यात्मिक नैतिकता की आधारशिला पर खड़ा रखा गया है।

समाज शब्द सभी को साथ लेकर चलने के लिए बना है। अत: समाज के कुछ मान निर्धारित किये जाते हैं। यह मान समाज की व्यवस्था को बनाए रखते हैं। इन मान को निर्धारित करने वाले के पास उच्च आदर्श नहीं रहने पर स्वार्थ में डुब सकता है। समाज में इन आदर्श के निर्माण के लिए आचरण संहिता का निर्माण किया जाता है। यह आचरण संहिता आध्यात्मिक नैतिकता के बिना टिक नहीं सकती है। इसलिए समाज को आध्यात्मिक नैतिकता की आवश्यकता है। 

जब तक मनुष्य आध्यात्मिक नहीं होता है तब उसकी नैतिकता का कोई मूल्य नहीं होता है। जिसका मूल्य नहीं है उसका भरोसा भी नहीं है। अतः नैतिकता के आगे आध्यात्मिक विशेषण आवश्यक है। जहाँ आध्यात्मिक के पास नैतिकता नहीं है। उसकी गति गलत दिशा ले सकती है। इसलिए आध्यात्मिकता को नैतिकता के आभूषण पहनना आवश्यक है। अतः समाज में जिस नैतिकता की आवश्यकता है वह आध्यात्मिक नैतिकता है। उदाहरण के तहत भीष्म पितामह के पास सहज नैतिकता थी जबकि पांडवों के पास आध्यात्मिक नैतिकता
थी। पांडव पास हुए जबकि भीष्म ठग लिए गए। अतः नैतिकवान का आध्यात्मिक तथा आध्यात्मिक व्यक्ति का नैतिकवान होना जरूरी है। इसलिए आज के युग में साधकों यम नियम की शिक्षा दी जाती है। 

समाज में नीति, मूल्यों एवं कार्ययोजना के निर्धारण, संचालक एवं पालन करने वालों को यम नियम मानकर चलना होता। यम नियम साधक का आध्यात्मिक होना आवश्यक है। अतः समाज को हर हाल में आध्यात्मिक नैतिकवान होना आवश्यक है। 

आध्यात्मिकता मनुष्य को पूर्णत्व प्रदान करती है तथा नैतिकता मनुष्य को मनुष्यत्व प्रदान करती है। मनुष्यत्व एवं पूर्णत्व ही मनुष्य की पहचान है। अतः मनुष्य को मनुष्य की पहचान देने के लिए आध्यात्मिक नैतिकवान होना आवश्यक है। 

आध्यात्मिक नैतिकता के बिना समाज का निर्माण नहीं हो सकता है। इसलिए भी समाज को आध्यात्मिक नैतिकवान होना आवश्यक है। संघ, संस्था एवं संगठन के लिए भी नैतिकता की आवश्यकता है। आध्यात्मिकता के बिना येनकेन प्रकारेण इन जिन्दा रखा जा सकता है लेकिन समाज एक ऐसा संस्थान, संघ अथवा संगठन है कि उसे आध्यात्मिक नैतिकता के जिन्दा नहीं रखा जा सकता है। यदि बलांत ऐसा किया जाता है, समाज के स्थान पर सम्प्रदाय अथवा जाति का निर्माण हो जाता है। समाज समाज ही रहे इसलिए भी समाज को आध्यात्मिक नैतिकवान होना आवश्यक है। 

समाज समाज की पहचान देने के लिए, मनुष्य को मनुष्य की पहचान देने के लिए, समाज के संचालन के लिए, समाज शब्द के निर्माण के लिए समाज का आध्यात्मिक नैतिकवान होना आवश्यक है। 
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श्री आनन्द किरण "देव"
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मेघालय में समाज आंदोलन
*मेघालय राजनैतिक इकाई एवं समाज आंदोलन*
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*1. सामान्य परिचय* - मेघालय पूर्वोत्तर भारत का एक राज्य है जिसका शाब्दिक अर्थ है *बादलों का घर* । इसका विस्तार 220 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में है, जिसका लम्बाई से चौड़ाई अनुपात लगभग 3:1 का है। राज्य की राजधानी *शिलांग* है। भारत में ब्रिटिश राज के समय तत्कालीन ब्रिटिश शाही अधिकारियों द्वारा इसे *"पूर्व का स्काटलैण्ड"* संज्ञा दी गयी थी। 

*2. मुख्य विशेषता* - भारत के अन्य राज्यों से अलग यहाँ मातृवंशीय प्रणाली चलती है, जिसमें वंशावली माँ (महिला) के नाम से चलती है और सबसे छोटी बेटी अपने माता पिता की देखभाल करती है तथा उसे ही उनकी सारी संपत्ति मिलती है।

*3. भाषा* - यहाँ की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है। इसके अलावा अन्य मुख्यतः बोली जाने वाली भाषाओं में खासी, गारो, प्नार, बियाट, हजोंग एवं बांग्ला आती हैं।

*4. ऐतिहासिक तथ्य* - 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश राज के अधीन आने से पूर्व गारो, खासी एवं जयंतिया जनजातियों के अपने राज्य हुआ करते थे। ब्रिटिश ने 1935 में तत्कालीन मेघालय को असम के अधीन कर दिया था। 1947 में स्वतंत्रता के समय, वर्तमान मेघालय में असम के दो जिले थे और यह क्षेत्र असम राज्य के अधीन होते हुए भी सीमित स्वायत्त क्षेत्र था। मेघालय पहले असम राज्य का ही भाग था, 21 जनवरी 1972 को असम के खासी, गारो एवं जैन्तिया पर्वतीय जिलों को काटकर नया राज्य मेघालय अस्तित्व में लाया गया। इसे पूर्ण राज्य का दर्जा देने से पूर्व 1970 में अर्ध-स्वायत्त दर्जा दिया गया था। 

*5. राज्य के सामान्य भूगोल से* -
१. यह राज्य भारत का आर्द्रतम क्षेत्र है। 
२. जहाँ वार्षिक औसत वर्षा 12,000 मि॰मी॰ (470 इंच) दर्ज हुई है।
३. राज्य का 70% से अधिक क्षेत्र वनाच्छादित है। 
४. राज्य में मेघालय उपोष्णकटिबंधीय वन पर्यावरण क्षेत्रों का विस्तार है, यहाँ के पर्वतीय वन उत्तर से दक्षिण के अन्य निचले क्षेत्रों के उष्णकटिबन्धीय वनों से पृथक हैं। ये वन स्तनधारी पशुओ, पक्षियों तथा वृक्षों की जैवविविधता के मामलों में विशेष उल्लेखनीय हैं।
५. मेघालय में मुख्य रूप से कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था(अग्रेरियन) है जिसमें वाणिज्यिक वन उद्योग का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है।

*6. राज्य का नामकरण* - मेघालय शब्द की व्युत्पत्ति कलकत्ता विश्वविद्यालय में भूगोल विभाग के प्राध्यापक एमेरिटस डॉ॰एस पी॰चटर्जी द्वारा की गई थी मेघालय शब्द का शब्दिक अर्थ है - मेघों का आलय या घर। यह संस्कृत मूल से निकला है। 

*7. राजनीति के गर्भ से* - मेघालय विधान सभा में वर्तमान में 60 सदस्य होते हैं। मेघालय राज्य के दो प्रतिनिधि लोक सभा हेतु निर्वाचित होते हैं, प्रत्येक एक शिलांग और एक तुरा निर्वाचन क्षेत्र से। यहां का एक प्रतिनिधि राज्य सभा में भी जाता है। मेघालय राजनीति में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस व ऑल पार्टी हिल लीडर्स कॉन्फ्रेंस में 1990 तक अदला बदली का दौर चला। इसके बाद एच पी यु, फिर 1998 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सरकार रही। 1998 से 2018 तक कांग्रेस साथ अदला बदली के खेल में यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी (मेघालय) ने दू्सरे ध्रुव की भूमिका अदा की। वर्तमान में नेशनल पीपल्स पार्टी की सरकार है। 

*8. मेघालय में समाज आंदोलन* - आमरा बंगाली समाज इकाई का अंग है। 
मेघालय के जिले 
1. पूर्व जयन्तिया हिल्स जिला
2. पश्चिम जयन्तिया हिल्स जिला
3. री भोई जिला 
4. पूर्वी खासी हिल्स जिला
5. पश्चिम खासी हिल्स जिला
6. दक्षिणी खासी हिल्स जिला
7. उत्तरी गारो हिल्स जिला
8. पूर्वी गारो हिल्स जिला
9. दक्षिण गारो हिल्स जिला
10.पश्चिम गारो हिल्स जिला
11. दक्षिण पश्चिम गारो हिल्स जिला
क्या PSS का एक राजनैतिक दल है?    (समाज आंदोलन के परिपेक्ष्य)
 
भारतीय राजनैतिक पटल पर प्रउत दर्शन को सार्वभौमिक सत्य सिद्ध करने के लिए प्राउटिस्ट ब्लॉक इंडिया, विभिन्न प्रगतिशील समाज संगठन एवं प्राउटिस्ट सर्व समाज नामक राजनैतिक दल क्रियाशील है, इनमें से प्राउटिस्ट ब्लॉक इंडिया सहित कतिपय समाज दल प्रउत प्रणेता भौतिक जीवन काल में क्रियाशील थे, जबकि प्राउटिस्ट सर्व समाज सहित कुछ समाज के राजनैतिक दल बाद में अस्तित्व में आए। इसलिए आज की चर्चा का विषय प्राउटिस्ट सर्व समाज समिति का राजनैतिक दल के रुप रहना समाज आंदोलन के दृष्टिकोण से सही है अथवा पुनः विचार की आवश्यकता है। 

प्राउटिस्ट सर्व समाज समिति के नाम से दल का पंजीकरण प्रउत प्रणेता के भौतिक शरीर छोड़ने के बाद आदरणीय जयप्रकाश भैया जी अथक प्रयास से हुआ, इस दल का प्रधान कार्यालय एटा उत्तर प्रदेश में है, इसे बिना मान्यता प्राप्त पंजीकृत राजनैतिक दल के रुप में भारतीय चुनाव आयोग द्वारा स्वीकृति मिली थी, आज जिसका नाम प्राउटिस्ट सर्व समाज है, इसमें समिति शब्द विलोपित  है। इस प्रकार कुछ समाज भी राजनैतिक दल के रुप में मान्यता प्राप्त है तथा कुछ समाज में यह प्रक्रिया चल रही है। भारतीय राजनैतिक दल सदस्यता कानून के अनुसार एक दल के सदस्य रहते हुए, अन्य दल का सदस्य नहीं बन सकता है, अर्थात एक दल की सदस्यता त्यागनी पड़ती है अथवा स्वत: ही खत्म हो जाती है। इसका अर्थ आमरा बंगाली दल का सदस्य, प्राउटिस्ट सर्व समाज का कानूनन सदस्य नहीं हो सकता है। 

प्रउत प्रणेता ने आदरणीय श्री शशिरंजन के माध्यम से प्राउटिस्ट ब्लॉक अॉफ इंडिया, जिसका नामकरण स्वयं प्रउत प्रणेता ने तकनीक खुबि की वजह से प्राउटिस्ट ब्लॉक, इंडिया करवाया था को प्रउत का भारतीय राजनीति को अपना परिचय देने के लिए भेजा था। कहते है प्रउत के राजनीति से परिचय करवाने के क्रम में किसी विशेष कमी की वजह दोस्त से ज्यादा दुश्मन उबरकर आ गए। तत्पश्चात प्रउत प्रणेता ने प्रउत का विश्व समाज से परिचय करवाने की जिम्मेदारी समाज आंदोलन को दी, उसकी सहायता एवं सहयोग करने के लिए पांच फैडरेशन की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है। प्राउटिस्ट सर्व समाज अथवा प्राउटिस्ट सर्व समाज समिति को इन समाजों के संयोजन का उत्तरदायित्व देकर एक मंच के रुप में अस्तित्व में लाया गया है। समाज आंदोलन के राजनैतिक स्वरूप का अध्ययन करते समय पाया कि एक समाज इकाई को संपूर्ण रुपेण राजनैतिक भूमिका में रखना, उसके संपूर्ण उद्देश्य के साथ न्याय नहीं तथा राजनीति पूर्णतया पृथक रखना भी उनके उद्देश्यों से दूर रखना है। 

अब कुछ प्रश्न सामने रखकर में पाठकों से पुछना चाहूँगा कि क्या पीएसएस राजनैतिक दल की राजनैतिक दल के रुप में पहचान देना आवश्यक है? 
1. जब समाज इकाई राजनैतिक दल के रुप में पंजीकृत है अथवा करवाना जरुरी है, तो पीएसएस की राजनैतिक पहचान की आवश्यकता क्या है? 
2. बाबा ने अपने भौतिक जीवन काल में पीएसएस को राजनैतिक दल के रुप पहचान देने की आवश्यकता क्यों नहीं समझी? 
3. भारतीय राजनैतिक कानून के दायरे में रह कर पीएसएस जो एक राजनैतिक दल है, वह अन्य दल (मान्यता प्राप्त समाज, जो राजनैतिक दल के रुप में पंजीकृत है) का नेतृत्व कैसे कर सकता है? 
4. राजनैतिक दलों को मोर्चे वाला सूत्र यदि लगाया जाए तो पीएसएस भी अन्य समाज दलों की भांति मोर्चा का सदस्य हुआ अध्यक्षीय अथवा जनक मंच अथवा संयोजन मंच की भूमिका में कैसे रह सकता है? 
5. पीएसएस एक भारतीय राजनैतिक दल है, फिर पीएसएस ग्लोबल प्रतिनिधित्व कैसे कर सकता है? 
6. प्रउत का लक्ष्य दल विहीन आर्थिक लोकतंत्र है, तो फिर दलों के दलदल में प्रउत का ध्वज क्या कर रहा है? 
7. राजनैतिक दल के रुप में चिन्हित होने पर सरकारी कर्मचारी एवं अराजनीतिक प्रिय लोग अपना परिचय समाज इकाई के सदस्य के रुप में परिचय कैसे दे पाएंगे? 

अंत में यक्ष प्रश्न की ओर
*PBI को समाज आंदोलन से कोई मतलब नहीं है, PSS समाज आंदोलन करने की इच्छुक नहीं है और प्रउत कार्यकर्ता भी अपना Comfort छोड़कर सड़क पर उतरने को राजी नहीं हैं, तो समाज आंदोलन होगा कैसे?'*

समाज आंदोलन के परिपेक्ष्य में पीएसएस का राजनैतिक दल के रुप में अस्तित्व साधारण समझ से परे है लेकिन विशेषज्ञ अपनी गहन एवं विशेष समझ से इसे समझा सकते है तो हम नतमस्तक है। 

फिर वही यक्ष प्रश्न
आपसे *PBI को समाज आंदोलन से कोई मतलब नहीं है, PSS समाज आंदोलन करने की इच्छुक नहीं है और प्रउत कार्यकर्ता भी अपना Comfort छोड़कर सड़क पर उतरने को राजी नहीं हैं, तो समाज आंदोलन कैसे होगा.................?'*
आनन्दमार्ग दर्शन सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ दर्शन है।
दर्शन मनुष्य का स्वयं, परमतत्व, सृष्टि एवं धर्म से परिचय करवाता है तथा कर्म पथ चयन की निर्देशना प्रस्तुत करता है। विश्व में अनके दर्शनों का प्रादुर्भाव हुआ है, उन सभी दर्शनों ने मनुष्य को उपरोक्त बिन्दुओं से रूबरू कराने का प्रयास किया है। उनके आधार पर बने कर्म पथ की निर्देशना ने मानव समाज में अनेक मत, पंथ, सम्प्रदाय व संस्थाओं को जन्म दिया है। इन संगठनों ने अपनी-अपनी जीवन शैली का निर्माण किया है। विज्ञान एवं आधुनिक युग की मांग ने मनुष्य की एक सामान्य अथवा उभयनिष्ठ जीवन शैली प्रदान की है, यह जीवन शैली अपनी अपूर्णता के कारण सर्वमान्यता के मानदंड को प्राप्त नहीं कर पाई है। यद्यपि मनुष्य एक मननशील प्राणी है तथापि मनुष्य को जीवन शरीर, मन एवं आत्म से मिलकर बना है, जिसमें आत्मा की प्रधानता है, इसलिए एक ऐसी जीवन शैली की आवश्यकता है, जो मनुष्य सर्वांगीण विकास के प्रतिमानों को स्थापित कर सकें। चूंकि जीवन शैली का निर्माण मनुष्य जीवन एवं समाज दर्शन से होता है, इसलिए दर्शन की सर्वश्रेष्ठता ही जीवन शैली को सबसे उपयुक्त एवं सटीक बता सकती है। 

वर्तमान संसार में व्याप्त सभी दर्शन अपने सर्वश्रेष्ठता का दावा कर रहे है। उनके इस दावें को जनमत का समर्थन एवं अपने प्रचारक की कार्यप्रणाली का आधार बनाया जाता है। जनमत की भावना एवं प्रचारकों जीवनवृत्त बनाए जाने वाले तथ्य है, बुद्धि चातुर्य व्यक्ति जनमन में जल्दी समा जाता है जबकि सरल व्यक्ति जनमत को सहज ही प्रभावित नहीं कर सकता है। अतः सप्रमाण कहाँ जा सकता है कि सर्वश्रेष्ठता का पैमाना व्यापक है। इस मापक में सर्वव्यापकता, सर्वांगीणता, कल्याणकारीता व प्रकृति के धर्म की अनुकूलता का समावेश होना आवश्यक है। 

आनन्दमार्ग दर्शन की सर्वश्रेष्ठता
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आनन्दमार्ग दर्शन सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ दर्शन है, यह मात्र दावा नहीं यथार्थ है।

1. आनन्दमार्ग दर्शन प्रकृत दर्शन है - आनन्दमार्ग दर्शन एक अकृत्रिम दर्शन अर्थात प्राकृत दर्शन है। इस दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह किसी व्यक्ति अथवा व्यक्तित्व द्वारा बनाया नहीं गया है। यह स्व: निर्मित है, जिसे महापुरुषों द्वारा देखा गया है तथा उन्होंने इसे अपने जीवन दर्शन के द्वारा इसे विश्व को दिखाने चेष्टा की है, इसलिए शास्त्र में यह दर्शन यत्र तत्र अल्प अथवा अधिक परिणाम में उरेखित हुआ दिखाई देता है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने दर्शन को संपूर्ण रूप में उदभाषित किया है। इसलिए दर्शन की विशेषता है कि यह आदि में अंत में रहेगा तथा मध्य में भी है। 

2. आनन्दमार्ग दर्शन एक जीवित दर्शन है - चूंकि आनन्दमार्ग दर्शन एक प्राकृत दर्शन है, अतः आनन्दमार्ग दर्शन के संदर्भ में कहा गया है कि आनन्दमार्ग अमर है। अतः सप्रमाण कहाँ जा सकता है कि आनन्दमार्ग दर्शन एक जीवित दर्शन है। आनन्दमार्ग दर्शन के जीवित दर्शन होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह आदि अनादि दर्शन है। 

3. आनन्दमार्ग दर्शन सार्वभौमिक दर्शन है - आनन्दमार्ग दर्शन किसी जाति, सम्प्रदाय, देश, खंड, व्यक्ति, गोष्ठी तथा काल विशेष के लिए नहीं संपूर्ण सृष्टि के जीव अजीव सबके लिए है। देश काल पात्र की सीमा रहते हुए भी इन सीमा में बंध नहीं है। इसलिए संपूर्ण सृष्टि का अणु परमाणु सहित सभी चराचर जगत यह दावा कर सकता है अथवा यह दावा करने का उनका विशेषाधिकार अथवा निजी एवं सार्वजनिक अधिकार है कि आनन्दमार्ग दर्शन उनका अपना दर्शन है। 

4. आनन्दमार्ग दर्शन एक वैज्ञानिक दर्शन है - आनन्दमार्ग दर्शन किसी रूढ़ मान्यता में आबद्ध नहीं है, यह पूर्णतया वैज्ञानिक दर्शन है जिसकी पुष्टि सप्रमाण व प्रायोगिक परिक्षण द्वारा की जा सकती है। 

5. आनन्दमार्ग दर्शन मनुष्य का जीवन दर्शन है - मनुष्य का जीवन आनन्दोपलब्धि के लिए है, उसकी भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक अभिलाषा एवं चेष्टाएँ आनन्द की उपलब्ध के लिए है। चूंकि आनन्दमार्ग दर्शन मनुष्य का आनन्द प्राप्ति की ओर ले चलता है इसलिए सप्रमाण सिद्ध होता है कि आनन्दमार्ग दर्शन मनुष्य अपना जीवन दर्शन है। दर्शन की अन्य शब्दावली में मनुष्य को पल पल पर किन्तु परन्तु, कदाचित यदाचित, यदि माना कि इत्यादि का सहारा लेने को विवश करती है जबकि आनन्दमार्ग दर्शन में ऐसा कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है, उसे पूर्ण विश्वास के साथ कहने की आवश्यकता है कि मैं आनन्द मार्गी हूँ। 

6. आनन्दमार्ग दर्शन मानव समाज का दर्शन है - एक अखंड अविभाज्य मानव समाज का दर्शन आनन्दमार्ग दर्शन है। इस दर्शन में अखिल विश्व का चिंतन निहित है इसलिए संपूर्ण मानव समाज का एक मात्र दर्शन आनन्दमार्ग दर्शन है। यहाँ न जाति का अभिमान है न ही देश का अहंकार। यहाँ मात्र सर्व भवंतु सुखिनःहै, विश्व बंधुत्व है। 

7. आनन्दमार्ग दर्शन नव्य मानवतादी सोच से संयुक्त दर्शन है - आनन्दमार्ग दर्शन में भेद जनित करने वाली किसी भी दीवार का स्थान नहीं है। यह चराचर जगत के कल्याण, हित एवं सुख को लेकर चलने वाला नव्य मानवतादी दर्शन है। नव्य मानवतादी दर्शन न केवल मनुष्य का चिंतन करता अपितु यह संपूर्ण जीवन अजीव एवं संपूर्ण सृष्टि का चिंतन है। पेड़ पौधे, जीव जन्तु, पर्यावरण सहित के अस्ति भाति एवं आनन्द का चिंतन है। यह अणुजीवत( माइक्रोवाइटा) के हित का चिंतन देता है। 

8. आनन्दमार्ग दर्शन एक सामाजिक दर्शन है - आनन्दमार्ग दर्शन एक सामाजिक अवधारणा को स्वीकार करता है इसलिए यह दर्शन समाज से पृथक नहीं रह सकता है। अत: प्रमाणित होता है कि आनन्दमार्ग दर्शन एक सामाजिक दर्शन है। 

9. आनन्दमार्ग दर्शन संपूर्ण दर्शन है - आनन्दमार्ग दर्शन में भौतिक आधिभौतिक, दैविक आधिदैविक एवं आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों को लेकर चलता है तथा सभी क्षेत्रों पर अपना दृष्टिकोण रखता है, यह मनुष्य, जीव जगत एवं मानव मानव समाज के किसी भी पक्ष नहीं छोड़ा है इसलिए इस दर्शन को संपूर्ण दर्शन कहा जाता है। 

10. आनन्दमार्ग दर्शन में आर्थिक चिंतन का भी स्थान है -मनुष्य जीवन की सभी क्रियाकलापों भी आर्थिक क्रियाकलाप भी एक आवश्यक एवं महत्वपूर्ण क्रियाकलाप है, अत: आनन्द मार्ग दर्शन प्रगतिशील उपयोग तत्व के नाम से आर्थिक चिंतन प्रदान करता है। जो आर्थिक जगत व्यष्टि एवं समष्टि समस्या का संकल्प पेश करता है। 

11. आनन्दमार्ग दर्शन एक आनन्द दर्शन है - मनुष्य स्वभाव से आनन्द मार्गी है, आनन्द प्राप्ति उसका लक्ष्य है इसलिए मनुष्य सदैव आनन्द मार्ग पर चलता है, उसके सभी क्रियाकलाप आनन्द मार्ग के लिए समर्पित है। 

12. आनन्दमार्ग दर्शन हम सबका दर्शन - आनन्दमार्ग दर्शन आपका, मेरा, उनका, इनका, सबका दर्शन है। विश्व के सभी दर्शन, सिद्धांत, तथ्य एवं विचारधारा अंततोगत्वा आनन्द दर्शन में आकर विलीन हो जाती है, इसलिए आनन्द मार्ग दर्शन को हम सबका दर्शन कहा गया है। यह तथ्य आनन्दमार्ग को सर्वश्रेष्ठ दर्शन कहने के लिए पर्याप्त है। 

उपसंहार में आनन्दमार्ग दर्शन का कोई विकल्प नहीं है, अतः इस संकल्प पत्र पर सबके हस्ताक्षर करना एक मौलिक अधिकार एवं नैतिक कर्तव्य है। 
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श्री आनन्द किरण देव 
प्रउत की श्रमिक नीति

श्रमिकों के कल्याण (सर्वांगीण विकास व प्रगति) की व्यवस्था मात्र प्रउत में निहित है। 'दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ' का श्लोगन लेकर आने वाली कॉल मार्क्स की साम्यवादी विचारधारा सर्वहारा मजदूर वर्ग का हित नहीं कर पाई,  लेनिन एवं स्टालिन की नीतियां सोवियत संघ को कंगाल होने से नहीं बचा पाई, माओ की नीतियां चीन के गरीबों के आंसू नहीं पोछ पाये। पूंजीवाद कभी भी किसी भी परिस्थिति में श्रमिकों का हितेषी एवं उद्धारक नहीं हो सकता है। एकात्म मानववाद का परिचय भी भारतवर्ष से हुआ, वह भी अन्त्योदय करने की बजाए, पूंजीपतियों की शरण में अपने को सुरक्षित महसूस करने लगा है। इस विषम परिस्थिति में प्रउत ही एक मात्र व्यवस्था है जो श्रमिकों के साथ न्याय करती है। प्रउत व्यवस्था में नौकर शब्द का उन्मूलन कर दिया गया है। विश्व में कोई किसी का नौकर नहीं है। सब एक दूसरे के सहभागी है। कोई अपनी मानसिक शक्ति का निवेश करता है, तो कोई शारीरिक शक्ति तथा कोई अर्थ शक्ति का निवेश करता है। सभी शक्तियों को सम करने के चक्कर में साम्यवाद मुह के बल पर गिर गया तथा पूंजीवाद शारीरिक व मानसिक शक्ति का मोल, वेतन एवं मजदूरी में आंक कर समाज का उद्धार नहीं कर पाया। प्रउत वैचित्र्य को प्राकृत धर्म मानकर उसके सभी शक्तियों के सुसंतुलित उपयोग एवं उससे निर्मित उत्पाद के विवेकपूर्ण वितरण की व्यवस्था देकर श्रमिक के कल्याणकारी व्यवस्था होने के दावा पत्र पर हस्ताक्षर किए है। 

प्रउत की श्रमिक नीति के कुछ बिन्दु

1. दुनिया में कोई किसी का नौकर नहीं है, इसलिए कोई किसी का मालिक एवं अन्नदाता भी नहीं है। 

2. किसी कार्य में मदद करने वाला अथवा हाथ बटाने वाला प्रथम पक्षकार सहायक अथवा सहयोगी है, अत: उसके साथ परिवार के सदस्य की भाँति व्यवहार करना प्रथम पक्षकार का प्रथम कर्तव्य है। 

3. चूंकि श्रमिक मालिक का सहायक एवं सहयोगी है तथा फर्म में उसकी श्रम शक्ति का निवेश हो रहा है, अत: वह अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को पूर्ण कर सके, यह जिम्मेदारी फर्म को सुनिश्चित करनी होगी अर्थात न्यूनतम क्रय शक्ति युग की आवश्यकता के अनुरूप होनी चाहिए। 

4. फर्म मालिक को अपने लाभांश का अकेले उपभोग करने का नैतिक अधिकार नहीं बनता है, उन्हें अपने लाभांश का एक हिस्सा फर्म के सदस्यों में गुण के अनुपात में बाटना होगा। 

5. बेरोजगारी राष्ट्र के शर्म का विषय है, कार्य के घंटे कम कर अधिक से रोजगार का सर्जन करना राष्ट्र की व्यवस्था का प्रथम धर्म होना चाहिए। अतिरिक्त समय का अतिरिक्त प्रलोभन देकर श्रमिक से अधिक काम लेने से श्रमिक के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा यह व्यवस्था अच्छे श्रम का सर्जन नहीं कर सकती है। 

6. फर्म मालिक कानून को ठेंगा दिखाकर श्रम- शक्ति के शोषण का प्रयास करती है, वह राजद्रोह तुल्य है, इस प्रकार रोगियों की उपयुक्त चिकित्सा के साथ इसमें सहयोग करने वाले बुद्धिजीवियों की मनोचिकित्सा प्रयोजनीय है। 

7. एक श्रमिक यदि भूख से मरता है तो यह संपूर्ण समाज के लिए कलंक है, समाज के लोगों को ऐसी व्यवस्था का सर्जन करना होगा कि ऐसी स्थिति न बने।


दिहाड़ी मजदूरों के प्रति प्रउत का दृष्टिकोण

 किसी नुक्कड़ पर श्रम शक्ति की निलामी करने को विवश श्रमिक का प्रथम पक्षकार एक नहीं होता है, उसके प्रति भी समाज की जिम्मेदारी बनती है, प्रउत यह समझ भी समाज के समक्ष रखता है। समाज की जिम्मेदारी है कि उसका कोई भी नागरिक -अन्न, वस्त्र, आवास, शिक्षा एवं चिकित्सा के अभाव में जीवन नहीं जिए, यदि ऐसी परिस्थिति दिखाई देती है तो प्रउत की मूल नीति पर कुठाराघात है, अत: प्रउत दिहाड़ी मजदूरों के प्रति भी संवेदनशील है। 

वर्तमान में ऐसा देखा जा रहा है कि अकुशल श्रमिक जीवनपर्यंत अकुशल ही रह जाते हैं। लेकिन प्रउत व्यवस्था में अकुशल श्रमिकों को उचित प्रशिक्षण देकर उन्हें कुशल श्रमिक के रूप में परिणत करने की व्यवस्था होगी। कोई भी यह नहीं कहेगा कि मेरा जीवन बेकार चला गया या मैं परिस्थितियों के चाप में अपने जीवन को समुन्नत नहीं कर सका
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श्री आनन्द किरण@ श्रमिक नीति

सहयोग - श्री कृपा शंकर पाण्डेय
पुरोधा प्रमुख
                पुरोधा प्रमुख
             आनन्द मार्ग प्रचारक संघ के सर्वोच्च पदाधिकारी एवं आनन्द मार्ग समाज के मुखिया को पुरोधा प्रमुख नाम से जाना जाता है। आनन्द मार्ग में मार्ग गुरुदेव एवं चर्याचर्य के बाद पुरोधा प्रमुख का मत सबसे अधिक मूल्यवान है। 

पुरोधा प्रमुख का चयन – पुरोधा के वोटों से पुरोधा प्रमुख का चुनाव होगा तथा पुरोधा प्रमुख का चुनाव पुरोधाओं में से होगा। 

पुरोधा  – जिन सभी आचार्यों के कम से कम 500 शिक्षा भाई हैं और इन आचार्य में से जो दुरुह विशेष योग में अभिज्ञ है, केवल वही पुरोधा की शिक्षा पावेंगे।

पुरोधा की शिक्षा - पुरोधा का शिक्षार्थी प्रथम उपयुक्त योग्यता संपन्न व्यक्ति विशेष के पास शिक्षा लेगा। 

पुरोधा की परीक्षा -  इसके बाद अन्य पांच पुरोधा के पास परीक्षा देगा। 

पुरोधा पद पर चयन - उसी परीक्षा के फलाफल के आधार पर केंद्रीय  पुरोधा पर्षद तत्सम्पर्कीय  व्यक्ति को अभिज्ञान पत्र देंगे। अभिज्ञान पत्र में रजिस्टर्ड नंबर के साथ परीक्षकों का हस्ताक्षर रहेगा।

पुरोधा प्रमाण-पत्र का रद्दीकरण -  पुरोधा शब्द योग्यता और कर्मतत्परता का प्रतीक है वार्द्धक्य और पंगुता को छोड़कर अन्य किसी कारण से यदि कोई पुरोधा यथायथभाव से अपने अपने कर्तव्य संपादन में अक्षम हों वहाँ उनके अभिज्ञान-पत्र रद्द करने का अधिकार   केंद्रीय पुरोधा पर्षद को होगा है और  वहाँ शेषोक्त पर्षद की राय की अंतिम रूप से मान्य होगी।

पुरोधा शब्द का व्यवहार - पुरोधा प्रभृति शब्द व्यक्तिगत योग्यता के प्रतीक के हिसाब से व्यवहृत होगा। 

पुरोधा एवं आनन्द मार्ग - मार्ग के दायित्वपूर्ण पदों के लिए जहां तक संभव हो पुरोधाओं को ही निर्वाचित या मनोनीत करना होगा। मार्गीय आदर्श के  सार्वभौम प्रचार का लक्ष्य रखते हुए केंद्रीय समिति की सम्मति से और पुरोधाप्रमुख की स्वीकृति के अनुसार इस नियम में सामयिक शिथिलता हो सकती है।

 आनन्द मार्ग की केंद्रीय संस्था, पुरोधा एवं पुरोधा प्रमुख– पुरोधा के वोटों से केंद्रीय संस्था का निर्वाचन होगा। पुरोधा प्रमुख प्रेसिडेंट (पुरोधा प्रमुख  चाहें तो किसी ओर को केन्द्रीय संस्था के प्रेसीडेन्ट का मनोनयन कर सकते तथा उसका कार्यकाल भी वे ही निर्धारित करेंगे।) होंगे एवं प्रेसिडेंट अपनी इच्छानुसार केंद्रीय कार्य समिति गठन करेंगे। वे अपनी इच्छा से केंद्रीय संस्था के सदस्यों के अलावे अन्य दूसरे अधिक से अधिक वैसे तीन व्यक्तियों को बाहर कार्यकारणी के कार्यकारिणी समिति में ले सकेंगे।  केंद्रीय संस्था की सर्वोच्च सदस्य संख्या 60 होगी तथा निम्नतम 15 होगी। केंद्रीय कार्यकारिणी-समिति के सदस्यों की संख्या प्रेसिडेंट की इच्छा अनुसार निर्धारित होगी। केंद्रीय संस्था के 80% सदस्यों की इच्छा से केंद्रीय संस्था की संख्या 60 से अधिक की जा सकती है। 

पुरोधा पर्षद की भूमिकाआनंद मार्ग की किसी विशेष जटिल समस्या दिखाई पड़ने पर या किसी गुरुत्व विसंगति के दिखाई पड़ने पर केंद्रीय पुरोधा पर्षद का सिद्धांत(निर्णय) अंतिम माना जाएगा। पुरोधा पर्षद के सदस्यों में यदि एक मत से जो सिद्धांत(निर्णय) होगा समाज मानेगा। पर्षद  के सदस्यों में यदि एकमत नहीं हो तब संख्याधिक्य  का मत पर्षद  का मत मान्य होगा। मतामत के व्यापार में दोनों दलों के बराबर होने पर सचिव का एक-एक मत ही पर्षद  का मत के रूप में गन्य होगा। प्रत्येक आनंद मार्ग को बिना तर्क के पुरोधा पर्षद के सिद्धांत (निर्णय) को मानना ही होगापुरोधा पर्षद के सचिव(चैयरमेन) "पुरोधा प्रमुख" के नाम से अभिहित होंगे।  पुरोधा प्रमुख का सिद्धांत(निर्णय) अभ्रांत और अंतिम रूप से गन्य होगा।  पुरोधा प्रमुख सिद्धांत दूसरा कोई परिवर्तित नहीं करेगा। तब वे स्वेच्छा से उसका परिवर्तन कर सकते हैं। पुरोधा प्रमुख आजीवन पद पर अधिष्ठित रहेंगे। तब अधिक अस्वस्था आदि कारण  वे पद त्याग कर सकते हैं। पुरोधाओं के वोट से पुरोधा प्रमुख निर्वाचित होंगे। पुरोधापर्षद के चार सदस्यों के बाकी तीन व्यक्तियों को पुरोधा ही निर्वाचित करेंगे। उनका कार्यकाल 5 वर्षों के लिए होगा। पांच वर्षों के पूर्ण होने से पहले किसी की मृत्यु या कोई अस्वस्थता के कारण पद त्याग करें तो उनके स्थान पर पुनः निर्वाचन  होगा। पुरोधा पर्षद के किसी सदस्य के कार्यकलाप में निर्वाचनकारी  पुरोधा के अधिकांश व्यक्ति यदि असंतोष प्रकट करें तो पुरोधा प्रमुख की सम्मति  के आधार पर उनके स्थान पर पुणनिर्वाचन हो सकता है। 

 पुरोधा पर्षद विशेष भूमिका -  तात्विक पर्षद व आचार्य पर्षद के निर्णय की पुनः विवेचना का अधिकार पुरोधा पर्षद के पास है। 

पुरोधा प्रमुख का आनन्द मार्ग में स्थान एवं अधिकार – पुरोधा प्रमुख आनन्द मार्ग के सर्वोच्च पदाधिकारी है। वे पुरोधा पर्षद के सचिव एवं केन्द्रीय संस्था के प्रेसिडेंट है।  तात्विक पर्षद, आचार्य पर्षद एवं अवधूत पर्षद के निर्णय अंतिम अनुमोदन के लिए पुरोधा प्रमुख के पास जाता है ।  (पुरोधा प्रमुख  चाहें तो किसी ओर को केन्द्रीय संस्था के प्रेसीडेन्ट का मनोनयन कर सकते तथा उसका कार्यकाल भी वे ही निर्धारित करेंगे।) 

 अवधूत एवं पुरोधा प्रमुख -  अवधूत पुरोधा प्रमुख को मानकर  चलेंगे और उनकी अनुमोदन के बिना अवधूत बोर्ड का कोई सिद्धांत बलपूर्वक स्थापित नहीं करेगा।

भुक्ति प्रधान एवं पुरोधा प्रमुख - जब कभी चाहे पुरोधा प्रमुख भक्ति प्रमुख के कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व को केंद्रीय पुरोधा पर्षद की सलाह या बिना सलाह के घटा बढ़ा सकते हैं। 

राज्य समिति या देश समिति प्रभृति -  यदि कई जिला समिति के ऊपर और केंद्रीय समिति के नीचे अर्थात प्रदेश राज्य या विशेष देश के लिए कोई कमेटी कायम करने की आवश्यकता हो तो उस क्षेत्र में उस कमेटी का चेयरमैन केंद्रीय संस्था के प्रेसिडेंट द्वारा मनोनीत किया जाएगा अपनी इच्छा अनुसार व्यक्तियों को लेकर कार्यकारिणी समिति बना लेंगे बना लेंगे ।

पुरोधा प्रमुख का पदच्युत प्रक्रिया – एक बार पुरोधा प्रमुख के निर्वाचन के बाद पुरोधा प्रमुख आजीवन पद पर अधिष्ठित रहेंगे। तब अधिक अस्वस्था आदि कारण  वे पद त्याग कर सकते हैं। 

विशेष – आचार्य को अभिनय की स्वीकृति देने का विशेषाधिकार है तथा विशेष योग व सहज, विशेष व जन्त प्राणायाम सिखाने का विशेष अधिकार  पुरोधा के पास है। 

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स्रोत - आनन्द मार्ग चर्याचर्य
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आलेख समर्पित -  आचार्य श्रद्धानंद अवधूत जी ( प्रथम तथा वैधानिक रुप से द्वितीय पुरोधा) को
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संकलनकर्ता - श्री आनन्द किरण


एक प्राउटिस्ट का व्यक्तित्व कैसा होना चाहिए?
 एक प्राउटिस्ट का व्यक्तित्व कैसा होना चाहिए? 
( इस विषय को एक प्राउटिस्ट के गुण समझते हुए स्वयं को इस तराजू में तौलना है कि मैं स्वयं को प्राउटिस्ट कह सकता हूँ अथवा नहीं।) 

         मेरा मानना है कि इस विषय को भलीभाँति समझे बिना हम प्रउत पर कार्य नहीं कर सकते हैं। मैं उक्त विषय को थोड़ा समझने की कोशिश करता हूँ। मेरी कोशिश कदापि किसी को समझाने की नहीं है। 
      
            प्रउत प्रणेता ने प्रउत को सदविप्र के हाथ में दिया है तथा सदविप्र के निर्माण की व्यवहारिक कार्य पद्धति षोडश विधि प्रदान की है। अत: एक प्राउटिस्ट का व्यक्तित्व प्रासंगिक विषय है। हमारे गुरुदेव ने हमें व्यवहारिक बनने का आदेश दिया है तथा यह भी बताया है कि तुम्हारे व्यवहार से लोग मुझे जानेंगे। यह सभी एक प्राउटिस्ट के व्यक्तित्व परिचय करने की मांग कर रही है। हम दुनिया को समझाने को निकले है यदि हम स्वयं को नहीं समझे तो हमारी मेहनत व्यर्थ ही जाएगी। 

         एक महान व्यक्ति का व्यक्तित्व स्पष्ट, सभ्य साफ सुथरा, पारदर्शी, साहसी, विवेकशील, सुलझा हुआ, तपोमूर्ति सदृश्य तथा त्याग का पर्याय होना चाहिए। एक प्राउटिस्ट विश्व को आनन्दमय बनाने के लिए प्रउत लेकर आया है। अत: उसका व्यक्तित्व एक महान व्यक्ति से कम नहीं हो सकता है। जहाँ तक मेरी समझ है वहाँ तक एक प्राउटिस्ट का व्यक्तित्व एक महान व्यक्ति से कुछ बढकर ही होना चाहिए। भविष्य में शायद  सदविप्र धरती का देवता कहलाएगा अथवा दैव्य गुणों से संपन्न होगा। एक प्राउटिस्ट सदविप्र बनने की यात्रा कर रहा है। इसलिए उससे कुछ विलक्षण गुणों को धारण करके चलना चाहिए। प्राउटिस्ट के व्यक्तित्व को समझते समय एक बात हमें अवश्य ही रेखांकित करनी होगी कि सभी प्राउटिस्ट सदविप्र नहीं है जबकि सभी सदविप्र प्राउटिस्ट है। इससे एक संकेत मिलता है कि प्राउटिस्टों में से सदविप्र का निर्माण होता है। अतः एक प्राउटिस्ट का व्यक्तित्व अवश्य ही आदरणीय, सम्मानीय एवं सबके लिए आदर्श होना चाहिए। 

          आनन्द मार्ग के आदर्श में कहा गया है कि एक सदविप्र का निर्माण षोडश विधि से होता है। अतः हमें सदविप्र अथवा प्राउटिस्ट के व्यक्तित्व को षोडश विधि में देखना चाहिए। षोडश विधि के अवलोकन से एक सदविप्र अथवा प्राउटिस्ट के व्यक्तित्व में निम्न गुण दिखाई देते हैं। 
(१.) शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ एवं सुदृढ़। 
(२.) मानसिक दृष्टि से मज़बूत एवं दृढ़ संकल्पित। 
(३.) आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर एवं साधना में नियमित। 
(४.) यम नियम में पक्का एवं भूमा भाव का साधक। 
(६.) व्यवहारिक एवं अपने व्यवहार से दूसरों प्रभावित करने वाला। 
(७.) सर्वजन के हित एवं सुख का ख्याल रखने वाला तथा निजी सुख सुविधा से स्वयं को उपर रखने वाला। 
(८.) सबको साथ लेकर चलने वाला तथा एक आदर्शमय जीवन जीने वाला। 
(१०.) परम पुरुष में दृढ़ विश्वास रखने वाला एवं पांडित्य अहंकार से स्वयं पृथक रखने वाला। 
(११.) कर्मनिष्ठ एवं स्वयं को आदर्श के साथ एकिकरण करने वाला। 
(१२.) साधना, सेवा एवं त्याग का जीवन जीने वाला। 
(१३.) पंचदस शील को मानकर चलने वाला तथा मिशन के लिए जीने एवं मरने वाला। 
(१६.) प्रउत के सिद्धांत, प्रउत की शिक्षा, प्रउत की नीति एवं आनन्द मार्ग के आदर्श पर चलने वाला(सिद्धांत में नहीं व्यवहार में) 
(१७.) नव्य मानवतावादी चिन्तन में प्रतिष्ठित। 
(१८.)  सकारात्मक अणुजीवत् को सृजन करने वाला व नकारात्मक अणुजीवत् को निस्तेज  करने की क्षमता रखने वाला हो। 
(१९.) आध्यात्मिक नैतिकवान व्यक्तित्व। 
(२०.) वह आनन्द का मार्गी  हो। 
(२१.) प्रउत विचारधारा के आधार पर जीने वाला। 
(२२.) प्रउत प्रणेता के महात्म्य स्वीकार करने वाला।
(२३.) प्रउत आंदोलन के अनुशासन को मानने वाला। 
(२४.) प्रउत दर्शन का ज्ञान रखने वाला। 
(२५.) प्रउत को स्थापित करने के लिए दृढ़ संकल्पित। 
(२६.) विश्व बंधुत्व में विश्वास रखने वाला। 
(२७.) षोडश विधि को कठोरता से मानकर चलने वाला। 

          एक प्राउटिस्ट के व्यक्तित्व एवं गुणों का अवलोकन करने के बाद अंतिम स्थित रह जाती है कि क्या मैं एक प्राउटिस्ट हूँ अथवा मैं अपने आप को प्राउटिस्ट कह सकता हूँ? इसका उत्तर प्रउत को अपने आदर्श के रुप में स्वीकार एवं अंगीकार करने वाले व्यष्टि तथा समष्टि के पास है। प्रत्येक को इस परिपेक्ष्य में रखकर सोचना चाहिए। 

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श्री आनन्द किरण@ प्रउत मेरा जीवन मिशन है
 प्रउत की रोजगार नीति
           प्रउत की रोजगार नीति
✍ प्रउत अर्थव्यवस्था शत प्रतिशत रोजगार की नीति पर कार्य करने का वचन देती है। इसलिए एक प्राउटिस्ट के समक्ष एक प्रश्न रहता है कि प्रउत की रोजगार नीति क्या है? इस प्रश्न के पूरक प्रश्न भी रहते है कि शत प्रतिशत रोजगार क्यों तथा कैसे? 

✍ आज प्रउत अपने रोजगार नीति को क्यों, कब एवं कैसे के मंच पर रखता है। प्रउत की रोजगार नीति की रीढ़ शत प्रतिशत रोजगार है। यहाँ एक प्रश्न रहता है कि क्या प्रउत सभी को सरकारी नौकरी देंगा? इस प्रश्न का प्रउत एक ही उत्तर देता है कि नहीं तथा कदापि नहीं। प्रउत की रोजगार नीति एक संतुलित अर्थव्यवस्था है। 30 से 40 प्रतिशत नागरिक प्रत्यक्ष रूप से कृषि को अपना रोजगार अपनाएगा। 15 से 20 प्रतिशत नागरिक कृषि सहायक उद्योगों में लगाएं जाएंगे। 15 से 20 प्रतिशत नागरिक कृषि आधारित उद्योग में काम करेंगे। 15 से 20 प्रतिशत लोग अन्य उद्योग में सेवारत रहेंगे। 5 से 10 प्रतिशत नागरिक व्यापार तथा 5 से 10 प्रतिशत लोग प्रशानिक कार्य संपादित करेंगे। यह प्रउत की शत प्रतिशत रोजगार नीति है। 

प्रउत शत प्रतिशत रोजगार क्यों देना चाहता है
(1) अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा सभी की न्यूनतम एवं प्राथमिक आवश्यकता है। इसकी आपूर्ति के लिए व्यष्टि एवं समष्टि के पास क्षमता के विकास के लिए शत प्रतिशत रोजगार नीति की नितांत आवश्यकता है। 
(2) शत प्रतिशत रोजगार नीति के अभाव में असमाजिक, अवैधानिक तथा अपराधी प्रवृत्तियों प्रचलन देखा गया है। इससे निजात के लिए भी समाज को शत प्रतिशत रोजगार नीति का अनुसरण करना चाहिए। 
(3) न्यायपूर्ण वितरण प्रउत अर्थव्यवस्था की एक प्रक्रिया है। इसमें प्रतिष्ठित होने के लिए भी शत प्रतिशत रोजगार नीति अपना आवश्यक है। 

शत प्रतिशत रोजगार नीति कैसे संभव है? 
(1) यदि सभी सरकारी सेवा में जाना चाहते है तो शत प्रतिशत रोजगार नीति एवं संतुलित अर्थव्यवस्था कैसे संभव है? ➡ प्रउत अर्थव्यवस्था व्यष्टि की इच्छा पर रोजगार देने के सिद्धांत पर कार्य नहीं करता है अपितु व्यष्टि की क्षमता के उपयोग पर कार्य करता है। उसकी उस क्षमता उपयुक्त जगह पर स्थापित कर प्रउत कार्य करेंगा। 
(2) शिशु, बालक, बुजुर्ग, अपाहिज एवं रोगी के रहते शत प्रतिशत रोजगार नीति कैसे संभव है? ➡ प्रउत में कोई सेवानिवृत्त नहीं रहता है तथा कोई अवहेलित नहीं रहता है। उसकी क्षमता के अनुसार कार्य करने की नीति का अनुसरण करते है। इसलिए शत प्रतिशत रोजगार नीति उनकी क्षमता के न्यून, अति न्यून, अति एवं बहुत अति न्यून उपयोग लेने की नीति पर कार्य करेंगे। अत: शत प्रतिशत रोजगार नीति पर कोई प्रश्न नहीं रहता है। 
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विश्लेषक ➡ श्री आनन्द किरण