प्रउत की श्रमिक नीति


श्रमिकों के कल्याण (सर्वांगीण विकास व प्रगति) की व्यवस्था मात्र प्रउत में निहित है। 'दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ' का श्लोगन लेकर आने वाली कॉल मार्क्स की साम्यवादी विचारधारा सर्वहारा मजदूर वर्ग का हित नहीं कर पाई,  लेनिन एवं स्टालिन की नीतियां सोवियत संघ को कंगाल होने से नहीं बचा पाई, माओ की नीतियां चीन के गरीबों के आंसू नहीं पोछ पाये। पूंजीवाद कभी भी किसी भी परिस्थिति में श्रमिकों का हितेषी एवं उद्धारक नहीं हो सकता है। एकात्म मानववाद का परिचय भी भारतवर्ष से हुआ, वह भी अन्त्योदय करने की बजाए, पूंजीपतियों की शरण में अपने को सुरक्षित महसूस करने लगा है। इस विषम परिस्थिति में प्रउत ही एक मात्र व्यवस्था है जो श्रमिकों के साथ न्याय करती है। प्रउत व्यवस्था में नौकर शब्द का उन्मूलन कर दिया गया है। विश्व में कोई किसी का नौकर नहीं है। सब एक दूसरे के सहभागी है। कोई अपनी मानसिक शक्ति का निवेश करता है, तो कोई शारीरिक शक्ति तथा कोई अर्थ शक्ति का निवेश करता है। सभी शक्तियों को सम करने के चक्कर में साम्यवाद मुह के बल पर गिर गया तथा पूंजीवाद शारीरिक व मानसिक शक्ति का मोल, वेतन एवं मजदूरी में आंक कर समाज का उद्धार नहीं कर पाया। प्रउत वैचित्र्य को प्राकृत धर्म मानकर उसके सभी शक्तियों के सुसंतुलित उपयोग एवं उससे निर्मित उत्पाद के विवेकपूर्ण वितरण की व्यवस्था देकर श्रमिक के कल्याणकारी व्यवस्था होने के दावा पत्र पर हस्ताक्षर किए है। 

प्रउत की श्रमिक नीति के कुछ बिन्दु

1. दुनिया में कोई किसी का नौकर नहीं है, इसलिए कोई किसी का मालिक एवं अन्नदाता भी नहीं है। 

2. किसी कार्य में मदद करने वाला अथवा हाथ बटाने वाला प्रथम पक्षकार सहायक अथवा सहयोगी है, अत: उसके साथ परिवार के सदस्य की भाँति व्यवहार करना प्रथम पक्षकार का प्रथम कर्तव्य है। 

3. चूंकि श्रमिक मालिक का सहायक एवं सहयोगी है तथा फर्म में उसकी श्रम शक्ति का निवेश हो रहा है, अत: वह अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को पूर्ण कर सके, यह जिम्मेदारी फर्म को सुनिश्चित करनी होगी अर्थात न्यूनतम क्रय शक्ति युग की आवश्यकता के अनुरूप होनी चाहिए। 

4. फर्म मालिक को अपने लाभांश का अकेले उपभोग करने का नैतिक अधिकार नहीं बनता है, उन्हें अपने लाभांश का एक हिस्सा फर्म के सदस्यों में गुण के अनुपात में बाटना होगा। 

5. बेरोजगारी राष्ट्र के शर्म का विषय है, कार्य के घंटे कम कर अधिक से रोजगार का सर्जन करना राष्ट्र की व्यवस्था का प्रथम धर्म होना चाहिए। अतिरिक्त समय का अतिरिक्त प्रलोभन देकर श्रमिक से अधिक काम लेने से श्रमिक के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा यह व्यवस्था अच्छे श्रम का सर्जन नहीं कर सकती है। 

6. फर्म मालिक कानून को ठेंगा दिखाकर श्रम- शक्ति के शोषण का प्रयास करती है, वह राजद्रोह तुल्य है, इस प्रकार रोगियों की उपयुक्त चिकित्सा के साथ इसमें सहयोग करने वाले बुद्धिजीवियों की मनोचिकित्सा प्रयोजनीय है। 

7. एक श्रमिक यदि भूख से मरता है तो यह संपूर्ण समाज के लिए कलंक है, समाज के लोगों को ऐसी व्यवस्था का सर्जन करना होगा कि ऐसी स्थिति न बने।


दिहाड़ी मजदूरों के प्रति प्रउत का दृष्टिकोण

 किसी नुक्कड़ पर श्रम शक्ति की निलामी करने को विवश श्रमिक का प्रथम पक्षकार एक नहीं होता है, उसके प्रति भी समाज की जिम्मेदारी बनती है, प्रउत यह समझ भी समाज के समक्ष रखता है। समाज की जिम्मेदारी है कि उसका कोई भी नागरिक -अन्न, वस्त्र, आवास, शिक्षा एवं चिकित्सा के अभाव में जीवन नहीं जिए, यदि ऐसी परिस्थिति दिखाई देती है तो प्रउत की मूल नीति पर कुठाराघात है, अत: प्रउत दिहाड़ी मजदूरों के प्रति भी संवेदनशील है। 

वर्तमान में ऐसा देखा जा रहा है कि अकुशल श्रमिक जीवनपर्यंत अकुशल ही रह जाते हैं। लेकिन प्रउत व्यवस्था में अकुशल श्रमिकों को उचित प्रशिक्षण देकर उन्हें कुशल श्रमिक के रूप में परिणत करने की व्यवस्था होगी। कोई भी यह नहीं कहेगा कि मेरा जीवन बेकार चला गया या मैं परिस्थितियों के चाप में अपने जीवन को समुन्नत नहीं कर सका
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श्री आनन्द किरण@ श्रमिक नीति

सहयोग - श्री कृपा शंकर पाण्डेय
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