शारदोत्वस पर विशेष

आनन्द मार्ग चर्याचर्य हमारे समाज को आठ सामाजिक उत्सवों प्रदान करता है तथा उनके अनुष्ठान की विधि भी समझाइ गई है। उसमें एक शारदोत्वस भी है। हमारे सामाजिक उत्सवों में यही एक मात्र उत्सव है जो पांच दिन तक चलता है। इन दिनों भारतवर्ष में नवरात्रि नामक उत्सव भी चलता है। शारदोत्वस एवं नवरात्रि एक नहीं है। इसे समझने के लिए चर्याचर्य के निर्देश की ओर चलते हैं - "अनुष्ठान के भीतर आनन्द भोग करने वाले प्रकारांतर से अपने शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक उन्नति-विधान का सुयोग प्राप्त करें।" अर्थात जिस उत्सव में शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति का सुयोग मिलता है वही आनन्दानुष्ठान है। 

शारदोत्वस आश्विन शुक्ला षष्ठी से लेकर दशमी पर्यन्त चलने वाला एक उत्सवों का समूह है। इनका ऐतिहासिक महत्व यद्यपि चित्रित नहीं किया गया है लेकिन इन्हें सामाजिक उत्सव के रूप में स्वीकृति मिली है। आज हम उन्हें समझने जा रहे हैं। 

(१) शिशु दिवस -  अश्विन शुक्ला षष्ठी को शिशुओं को समर्पित की गई है। इसे शिशु दिवस के रूप में मानाने का निर्देश प्राप्त है। आनन्दानुष्ठान के साथ शिशु स्वास्थ्य प्रदर्शनी, शिशु-क्रीड़ा प्रदर्शनी की व्यवस्था करने का विधान है। 

(i) शिशु स्वास्थ्य प्रदर्शनी - यह शिशु के स्वास्थ्य पर समाज का ध्यान आकृष्ट करता है। स्वस्थ शिशु समाज की धरोहर है। इसलिए समाज को शिशु स्वास्थ्य की ओर विशेष ध्यान देने का निर्देशन पत्र है। इस दिन हमें शिशु स्वास्थ्य प्रदर्शनी का आयोजन करना होता है। जिसमें स्वस्थ शिशु के लक्षण एवं विशेषताएं प्रदर्शित होती हो। 

(ii) शिशु-क्रीड़ा प्रदर्शनी - शिशु स्वास्थ्य के बाद द्वितीय अंग में शिशु-क्रीड़ा प्रदर्शनी को मिला है। शिशु की क्रीड़ा सभी के आनन्ददायनी होती है। इसलिए इसका आयोजन भी आवश्यक है। यहाँ एक बात याद रखनी आवश्यक है - यह प्रदर्शनी है प्रतियोगिता नहीं। इसका अर्थ है कि स्वास्थ्य एवं क्रीड़ा का एक मानदंड है उसमें सभी शिशुओं खरा उतरना होता है। जो इसमें खरे उतरते है वे सभी विजेता है। जबकि प्रतियोगिता में प्रथम आने की होड़ में मानक पैमाना गौण हो जाता है। अन्य महत्वपूर्ण हो जाते हैं। जिन्हें चिकित्सा विज्ञान की भाषा में साइड इफेक्ट्स कहते हैं। 

(२) साधारण दिवस - अश्विन शुक्ला सप्तमी को शिशु के अतिरिक्त सभी को समर्पित किया गया है। इसमें आनन्दानुष्ठान के साथ  युवक-स्वास्थ्य प्रदर्शनी तथा क्रीड़ा एवं शक्ति प्रदर्शन के आयोजन की व्यवस्था करने का विधान है। 

(i) युवक-स्वास्थ्य प्रदर्शनी - जिस प्रकार स्वस्थ शिशु समाज की धरोहर है उसी प्रकार स्वस्थ युवक समाज की पहचान है। युवक/ युवतियों को स्वास्थ्य के प्रति सचेत करने के लिए इस प्रकार प्रादर्श की आवश्यकता है। आज इस प्रकार के प्रदर्शन के अभाव में युवक/युवतियाँ लहरों की थप्पड़ों में अपनी मझधार को ले चलता है। 

(ii) युवक क्रीड़ा एवं शक्ति प्रदर्शन - क्रीड़ा युवक में उत्साह तथा शक्ति प्रदर्शन जोश व आत्म विश्वास का विकास करता है। इसलिए युवक युवतियों के लिए अलग अलग इस प्रकार के प्रदर्शन आयोजित किया जाना होता है। 

(३) ललित कला दिवस - अश्विन शुक्ला अष्टमी ललित कलाओं को समर्पित की गई है। इसमें आनन्दानुष्ठान के साहित्य-सभा, कविता-पाठ, चित्रांकन, नृत्य तथा अन्यान्य ललित कला के प्रदर्शन कर ललित कला की विधाओं को सम्मान दिया जा सकता है। 

(i) साहित्य-सभा - ललित कलाओं में प्रथम स्थान पर साहित्य-सभा रखकर कला को भूत, वतर्मान एवं भविष्य के साथ संयोजन किया गया है। साहित्य-सभा में साहित्यकार की साहित्य साधना को सामाजिक सम्मान दिया जाता है। इस अवसर पर एकांत में अपने मनीषा से निर्मित अमूल्य खजाना समाज को प्रदान करता है तथा समाज उसके लाभ के प्रति अपना कृतघ्न अर्पित करता है। 

(ii) कविता-पाठ - काव्य ललित कला की अनुपम विधा है। यह मन को रस एवं भावों से भर देता है। कवि की काव्य साधना का भी सम्मान समाज कर सके इसलिए इस प्रकार के आयोजन आवश्यक है। 

(iii) चित्रांकन - चित्र मन के भावों को तल पर प्रदर्शन करता है इसलिए चित्रकला की भी प्रदर्शनी चित्रकार को सम्मान देती है। 

(iv) नृत्य - ललित कला के सम्मान में चतुर्थ अंग के रूप में नृत्य को सुना गया है। यद्यपि अधिकांश नृत्य संगीतमय होते हैं लेकिन नृत्य विधा मनुष्य के भाव को निशब्द प्रकट करने की विधा है। 

(v) अन्यान्य कला - इसमें उपरोक्त कला के अतिरिक्त सभी ललित कलाएँ आती है जिसका सम्मान दिया जाता है। 

(४) संगीत दिवस - अश्विन शुक्ला नवमी को संगीत को समर्पित किया गया है। इसमें आनन्दानुष्ठान के साथ कंठ एवं वाद्य संगीत और संगीत-नृत्य की प्रतियोगिता रखने की अनुमति मिलती है। यद्यपि संगीत कला भी एक प्रकार की ललित कला है लेकिन इनके विशिष्टता ने अपने लिए एक अलग स्थान बनाया है। 

(i) कंठ एवं वाद्य संगीत - इसमें संगीत की दो शाखा कंठ संगीत एवं वाद्य संगीत को लिया गया है। कंठ द्वारा उत्पन्न संगीत जिसमें स्वर, लय एवं पद्य का संयोग होता है। इसमें पद्य अथवा काव्य का मुख्य स्थान है। बिना वाद्य यंत्र के गायन को इसमें स्थान दिया गया है। वाद्य संगीत, संगीत की दूसरी विधा है जिसमें वादन के साथ संगीत होता है। तत, सुषिर, अवनद्ध तथा घन वाद्य सहित सभी वादन का उपयोग कर गायन किया जाता है। 

(ii) संगीत-नृत्य - इसमें नृत्य सहित संगीत आता है। आजकल संगीत कार्यक्रम की महफ़िलें इससे ही सजती है। संगीत जब कलाकार के हाथ, पाँव एवं शरीर के अन्य अंगों में स्पंदन पैदा कर दे तब संगीत-नृत्य कला का प्रदर्शन होता है। 

संगीत को प्रतियोगिता की अनुमति प्रदान है। यह प्रर्दशन से आगे बढ़कर कलाकार को निखारता है।

(५) विजयोत्सव - अश्विन शुक्ला दशमी को विजय का उत्सव माना के लिए चयनित किया गया है। चतुर्थ दिवसीय कार्यक्रम के प्रतिभागी इस दिन अपने विजय का उत्सव मनाते है। आनन्दानुष्ठान के साथ शोभा इस पर्व के आकर्षण का केंद्र है।

(i)  शोभा यात्रा - इसमें रंगीन वस्त्र पहनकर  बाजे गाजे के साथ शोभायात्रा निकाली जाती है। यह आसुरी शक्ति पर शुभ शक्ति की विजय को रेखांकित करती है। 

आनन्दानुष्ठान - मिलित ईश्वर प्रणिधान, वर्णार्घ्यदान, सहभोज, मिलित स्नान एवं अन्य आनन्दानुष्ठान आते हैं। जिससे उत्सव आध्यात्मिक बन जाता है। 
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       श्री आनन्द किरण "देव"
आनन्द मार्ग अमर है

श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने मानव के लिए आनन्द मार्ग दिया है। उन्होंने मानव को आश्वासन दिया है कि आनन्द मार्ग अमर है। चूंकि आनन्दमूर्ति परमसत्ता है इसलिए उक्त वाक्य आप्त वाक्य है। शास्त्र में कहा गया है कि आप्त वाक्य शास्वत सत्य होते है। आज हम शास्वत सत्य आप्त वाक्य 'आनन्द मार्ग अमर है' पर चर्चा करते हैं। 

मनुष्य का दर्शन आनन्द मार्ग

सृष्टि के उषाकाल से ही मनुष्य को एक दर्शन की खोज थी। वह जानना चाहता था कि -
१. परमतत्व(विभु सत्ता) क्या है? 
२. सृष्टि तत्व क्या है? 
३. मैं कौन हूँ? 
४. धर्म क्या है? 
५. मेरा लक्ष्य क्या है अथवा मेरी गति क्या है? 
६. लक्ष्य तक पहुँचने का पथ व साधन क्या है?  
७. मनुष्य साधना से भयभीत क्यों होता है? 
८. समाज क्या है? 
९. समाज दर्शन क्या है? 
१०. मेरा का चिन्तन कैसा होना चाहिए? 
११. मनुष्य के विचार का निर्माण कैसे होता है? 
- ऐसे प्रश्न को उत्तर की खोज करने के प्रयास में मनुष्य के दर्शन का निर्माण होता है। अतीत में बहुत सारे विद्वानों ने उक्त प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास किया था। सदाशिव के युग में दर्शन से अधिक वस्तु जगत में काम करने की आवश्यकता थी इसलिए सदाशिव ने मनुष्य को दर्शन से दूर रखा। कृष्ण के युग में स्वयं तथा जगत के विषय जानने का जिज्ञासु हो गया था। इसलिए कृष्ण ने गीता का उपदेश दिया। आज के युग के मनुष्य की जिज्ञासा में नवीनता आई है। वह पहले से अधिक तार्किक बन गया है इसलिए आजके मनुष्य का दर्शन एवं क्रिया वैज्ञानिक होना आवश्यक है। उस अधिग्रहण, प्रमेय एवं निर्मेय के रूप में प्रमाणित कर सिद्धांत का रुप देना पड़ता है। इसलिए तार्किक, यथार्थ एवं युक्ति कसौटी पर खरा उतरने वाले दर्शन की आवश्यकता है। आनन्द मार्ग वैसा ही दर्शन है। जहाँ भाव जड़ता नहीं तार्किक मानसिकता के आधार पर दर्शन का निर्माण हुआ है। आनन्द मार्ग मनुष्य का अपना स्वयं का दर्शन है। जहाँ मनुष्य स्वयं को जानता है, अपने भगवान को जानता है तथा जगत एवं समाज को भी जानता है तथा इनसे आनन्द प्राप्त करता है। 

आनन्द मार्ग एक जीवन शैली

मनुष्य को जीने के लिए एक जीवन शैली की आवश्यकता है। जो मनुष्य के व्यवहार एवं कर्म का निर्धारण करती है। विश्व इतिहास में ऐसी कई जीवन शैलियों का निर्माण हुआ है तथा होता जा रहा है। आनन्द मार्ग मनुष्य की ऐसी जीवन शैली है। जिस पर चलकर मनुष्य जीवन को सार्थक करता है तथा अपने जीवन को आनन्द से लबालब भर देता है। 

आनन्द मार्ग मनुष्य का आदर्श है

मनुष्य दर्शन, जीवन शैली के साथ एक आदर्श की खोज भी कर रहा है। आदर्श का अर्थ है ऐसे नैव्यष्टिक तत्व जिनको धारण करना चाहता है। जो मनुष्य के अपने सिद्धांत बन जाते हैं‌। आनन्द मार्ग मनुष्य के लिए आदर्श भी है। जिसके प्रति पूर्ण विश्वास व्यक्त करता है।

आनन्द मार्ग मनुष्य का जीवन पथ है

आनन्द मार्ग मनुष्य मात्र जीवन शैली ही नहीं जीवन लक्ष्य तक चलने का पथ भी है। मनुष्य की का पथ है। वस्तुतः मनुष्य अनन्त काल से अपनी प्रगति के सामान्य पथ की तालाश में उसे मत एवं पंथ तो मिले लेकिन सुपथ नहीं मिला था। आनन्द मार्ग मनुष्य के लिए सुपथ बनकर आया है। 

हमने आनन्द मार्ग कुछ विधाओं के देखा है। अब विषय पर आते है आनन्द मार्ग अमर है - आनन्द मार्ग मनुष्य के दर्शन, जीवन शैली, आदर्श एवं सुपथ के रूप में अजर अमर है। आनन्द मार्ग का आगमन आनन्दमूर्ति से है तथा आनन्द मार्ग निर्गमन आनन्दमूर्ति में है। मनुष्य का आना जाना सबकुछ आनन्द मार्ग ही है। अतः आनन्द मार्ग अमर है।

आनन्द मार्ग प्रचारक संघ एवं आनन्द मार्ग अमर है

हमने आप्त वाक्य को शास्वत सत्य स्वरूप के दर्शन किये है। इसलिए हम थोड़ा आगे बढ़ते हैं। आनन्द मार्ग प्रचारक संघ जिसका निर्माण श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने आनन्द मार्ग को धरातल पर उतारने के लिए किया था। 1955 से 1990 तक श्री श्री आनन्दमूर्ति जी आनन्द मार्ग को पूर्ण रूप से धरातल स्थापित कर 21 अक्टूबर 1990 से पुनः आनन्द लोक में वास कर रहे हैं। यद्यपि यह धरातल भी उनके आनन्द लोक का ही अंग है तथापि भौतिक रूप से आनन्द मार्ग प्रचारक संघ की जिम्मेदारी पुरोधाओं पर आ गई। 1990 से अब तक यात्रा में यह पुरोधा आनन्द मार्ग को संभालने में चूक करते देखे जा रहे हैं। इनकी यह चूक आनन्द मार्ग प्रचारक संघ को गुटबाजी का अड्डा बना दिया है। सभी अपने अपने गुट को सच्चा, अच्छा एवं पक्का आनन्द मार्ग कह रहे हैं। इस विषम परिस्थिति में सवाल उठता है कि क्या आनन्द मार्ग प्रचारक संघ अमर है? इसकी उत्तर की खोज में सर्वप्रथम हम 1953-54 में जाते है। आचार्य नगीना जी का वृतांत बताता है कि बाबा किसी प्रकार के संगठन की संरचना के पक्ष में नहीं थे। बताते है कि उनके तात्कालिक शिष्यों की मांग पर विशेषकर आचार्य नगीना जी जिद की जीत पर हमें आनन्द मार्ग प्रचारक संघ मिला। यदि परमपुरुष के लीला लोक की ओर दृष्टिपात करें तो आचार्य नगीना एवं श्री श्री आनन्दमूर्ति जी का तात्कालिक शिष्यदल उस लीला के पात्र मात्र थे। 1953-54 का यह अध्ययन पत्र बताता है कि श्री श्री आनन्दमूर्ति जी संगठन बनाने के पक्ष में क्यों नहीं थे? उन्होंने तात्कालिक शिष्यदल के समक्ष स्वयं को हराकर आनन्द मार्ग प्रचारक संघ क्यों दिया? आचार्य नगीना जी वृतांत को साक्षी मानकर देखा जाए तो आनन्द मार्ग प्रचारक संघ श्री श्री आनन्दमूर्ति जी की अपने ही शिष्यदल के समक्ष हार का परिणाम है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी का आगमन आनन्द मार्ग को धरातल पर लाने के लिए ही हुआ था। आनन्द मार्ग को धरातल पर स्थापित करने में आनन्द मार्ग प्रचारक संघ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी संगठन बनाने के पक्ष में नहीं थे तथा संगठन के माध्यम से इस पृथ्वी लोक को आनन्द मार्ग प्रदान कर दिया। दोनों ही विरोधाभास उक्तियों के बीच प्रश्न और भी अधिक महत्वपूर्ण हो गया है कि क्या आनन्द मार्ग प्रचारक संघ भी अमर है? इस प्रश्न की दूसरी पड़ताल में आनन्द मार्ग प्रचारक संघ के इतिहास की ओर जाते हैं। आनन्द मार्ग प्रचारक संघ के इतिहास को दो चरण में रखकर अध्ययन करते हैं - प्रथम चरण 1955 से 1990 तथा द्वितीय चरण 1990 से अब तक। आनन्द मार्ग प्रचारक संघ के इतिहास के प्रथम चरण में आनन्द मार्ग का निर्माण हुआ है। इस काल में आनन्द दर्शन, आनन्द मार्ग जीवन शैली, आनन्द मार्ग आदर्श एवं आनन्द मार्ग पथ का निर्माण हुआ। 1990 में अंतिम प्रभात संगीत गुरुकुल आता है। इसलिए 1955 को ही आनन्द मार्ग जन्म नहीं कह सकते हैं। उस दिन आनन्द मार्ग के बीज का रोपण किया था जो अंकुरित होकर 1990 को बाहर आया। इसलिए प्रथम पृष्ठ को भूतल के अंदर का इतिहास कह सकते हैं। प्रउत, नव्य मानवतावाद, कीर्तन, आनन्द सूत्रम, प्रभात संगीत, कौषिकी, तांडव इत्यादि आनन्द मार्ग की धरोहर है। यह इस यात्रा में आए हैं। यह काल मनुष्य सोच से नहीं परमपुरुष की सोच में समाया मनुष्य के तन तो मात्र उनका साथ दे रहे थे। अक्टूबर 1990 में आनन्द मार्ग मनुष्यों के हाथ में आया है। इसलिए द्वितीय काल की पड़ताल उत्तर की खोज में मदद देगी। सुना है कि श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने अपने भौतिक जीवन के अंतिम काल में मार्गियों आनन्द मार्ग के आदर्श पर चलने की शपथ दिलाई थी। यह शपथ भी उनके एक संदेह की ओर ईशारा करती है कि वे जानते थे कि कुछ अप्रिय होने वाला है। उसमें आनन्द मार्ग को सुरक्षित रखने में वह शपथ मददगार साबित हो। अब द्वितीय चरण की पड़ताल की ओर चलते हैं। 1990 से अबतक आनन्द मार्ग प्रचारक संघ तीन तेरह होता ही चल रहा है इसके बीच एक आश है कि आनन्द मार्ग प्रचारक संघ एक होगा। आनन्द मार्ग प्रचारक संघ का दृश्य एवं आश के बीच यदि संतुलन रेखा खिंचे तो एक ही उत्तर आएगा कि आप्त वाक्य इस पर लागू नहीं होने पर भी आनन्द मार्ग प्रचारक संघ चिरंजीवी है। यह रुग्ण हो सकता है लेकिन नष्ट नहीं होगा। मुझे एक ही बात समझ में आती है कि आनन्द मार्ग प्रचारक संघ चिरंजीवी अवश्य है। वह एक दिन अपने मूल स्वभाव में आएगा तथा आनन्द मार्ग के आदर्श को इस धरा पर स्थापित करेगा। 
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      श्री आनन्द किरण "देव"

आध्यात्मिक नैतिकता


नैतिकता या नैतिक दर्शन, दर्शनशास्त्र की एक शाखा है जिसमें सही और गलत व्यवहार की अवधारणाओं का निर्माण करना, पालन करना एवं संरक्षण देना है। नैतिकता का क्षेत्राधिकार मानवीय के वे सभी क्रियाकलाप है, जिससे मानव समाज प्रभावित होता है। अतः नैतिकता का निर्धारण करना सभी विषय एवं विभाग में अनिवार्य है। नैतिकता के दो स्वरूप है। प्रथम सहज नैतिकता एवं द्वितीय आध्यात्मिक नैतिकता। सहज नैतिकता में मानव के समक्ष कोई लक्ष्य अथवा आदर्श नहीं होता है। समाज के जिम्मेदार एवं प्रतिष्ठित नागरिक होने के नाते नैतिकता का पालन करना होता है। जहाँ तक यह मनुष्य के मन यह भाव रहता नैतिकता उसके आचरण में दिखती है। लेकिन जैसे ही यह भाव हट जाता है नैतिकता भी ओझल हो जाती है। आध्यात्मिक नैतिकता के समक्ष परमपुरुष लक्ष्य एवं आदर्श होते हैं। उनके खातिर एवं समाज के जिम्मेदार एवं प्रतिष्ठित नागरिक होने के नाते नैतिकता का पालन करना होता है। आध्यात्मिक नैतिकता में परमपुरुष लक्ष्य होने कारण नैतिकवान फिसल नहीं सकता है। यह कैमरा उनके हर क्रियाकलाप का रिकार्ड रखता है। अतः शास्त्र सहज नैतिकता से आध्यात्मिक नैतिकता को श्रेष्ठ मानता है। 

आध्यात्मिक नैतिकता दर्शनशास्त्र की वह शाखा है, जिसपर चलन मनुष्य वृहद बनता है। शास्त्र कहता है कि वृहद को पाना ही धर्म है। अतः हम कह सकते हैं कि आध्यात्मिक नैतिकता ही धर्म है। नैतिकता विहिन आध्यात्मिकता मनुष्य को ब्रह्म कोटि तक ले तो जा सकती है लेकिन ब्रह्म का सम्मान नहीं दिला सकती है। अतः केवल आध्यात्मिकता ही धर्म नहीं तथा केवल नैतिकता ही धर्म नहीं है। धर्म बनने के लिए आध्यात्मिकता व नैतिकता को मिलकर रहना होता है। दोनों को एकाकार होकर चलना भी कह सकते हैं। शास्त्र कहता है कि धर्म विहीन मनुष्य पशु समान है। अतः वैधानिक भाषा में हम कह सकते हैं कि आध्यात्मिक नैतिकता विहिन मनुष्य भी पशु समान है। 

अध्यात्म मनुष्य को पूर्णत्व प्रदान करता है तथा नैतिकता मनुष्य को महानत्व अथवा परमत्व। परमत्व एवं पूर्णत्व वस्तुतः एक ही है। इसलिए नैतिकता को आध्यात्मिकता से पृथक करके देखना अथवा आध्यात्मिकता को नैतिकता से पृथक करके देखना एक नादानी है। ऐसा दर्शन देने वाले जानबूझकर समाज एवं मनुष्य को अधर्म के पथ पर ले जाते हैं। शास्त्र अधर्म को मनुष्य का पथ नहीं बताते हैं। अतः किसी को भी इस पथ समर्थन एवं स्वीकृति नहीं देनी चाहिए। नैतिकता विहिन आध्यात्मिकता साधुवेष में शैतान का सर्जन करते हैं। यह लोग संत समाज को बदनाम करते हैं। आध्यात्मिकता विहिन नैतिकता मनुष्य को प्रगति के पथ से वंचित करती है। ऐसे लोग समाज की क्षति तो नहीं करते हैं लेकिन खुद पांव कुल्हाड़ी जरूर मारते हैं। कितना भी आध्यात्मिक पुरुष हो लेकिन नैतिकता नहीं है तो त्याग देना चाहिए। इसी प्रकार नैतिकता के उच्च पैमाने पर बैठे उस पुरुष का भी संग न करें जिसके पास आध्यात्मिकता नहीं है। यह व्यक्ति स्वयं का एवं तुम्हारा कल्याण नहीं कर सकता है।
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श्री आनन्द किरण "देव"
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     दिव्य आशीर्वचन
मन के जो भागवत आदर्श, उसे भूमा भाव तक पहुंचाने की प्रेरणा देता है उसे नीतिवाद कहते हैं। नीतिवाद का प्रत्येक अंग मनुष्य को क्षुद्रत्व के भीतर से भी असीम का गान सुनाता चलता है। सरल भाषा में कहा जा सकता है कि जो सदवृतियां बृहत भाव में प्रतिष्ठित होने में सहायक हैं वही सदनीति व नीति है। बृहद भाव में प्रतिष्ठित होना ही अध्यात्म है और इस अध्यात्म का आधार नीति है और इस नीति पर जो नैतिकता आधारित है वही नैतिकता बृहद भाव में प्रतिष्ठित कर सकती है क्योंकि उसके अंदर  क्षुद्रत्व के भीतर से भी असीम की गान सुनाने की क्षमता है। 
अत: सदवृतियों के जागरण में सहायक नैतिकता को जो भूमा भाव में प्रतिष्ठित करने की क्षमता रखती है, को‌ आध्यात्मिक नैतिकता कहते हैं। चुंकि सदवृतियों का जागरण यम-नियम के पालन से ही होता है क्योंकि यम नियम के पालन से मन के सभी कोष मजबूत होते हैं और कोष के मजबूत होने से हार्मोनल सेक्रेशन बैलेंसड  होता है। अत: मूल दृष्टि से यम नियम का पालन ही आध्यात्मिक नैतिकता है। जो लोग यम नियम का पालन नहीं करते हैं उन्हें नैतिक नहीं कहा जा सकता है और ऐसे  लोगों के द्वारा समाज का नियंत्रित होना धीरे-धीरे अंधेरे में पूरे समाज को समाविष्ट करना है।
समाज का आध्यात्मिक नैतिकवान होना क्यों जरुरी है?
हमारा समाज आंदोलन योजना के प्रथम चरण में आध्यात्मिक नैतिकवान समाज का निर्माण करने की योजना देता है। इसलिए आज प्रश्न लिया गया है कि समाज का आध्यात्मिक नैतिकवान होना क्यों आवश्यक है? 

बिना नैतिकता के कितनी भी सुन्दर व्यवस्था ऐसे ही धराशायी हो जाएगी जैसे बिना नींव का मकान होता है। इसलिए प्रउत समष्टि व्यवस्था के लिए व्यष्टि में आध्यात्मिक नैतिकता के बीज का रोपण करता है। समस्त योजना एवं क्रियाकलाप आध्यात्मिक नैतिकता की आधारशिला पर खड़ा रखा गया है।

समाज शब्द सभी को साथ लेकर चलने के लिए बना है। अत: समाज के कुछ मान निर्धारित किये जाते हैं। यह मान समाज की व्यवस्था को बनाए रखते हैं। इन मान को निर्धारित करने वाले के पास उच्च आदर्श नहीं रहने पर स्वार्थ में डुब सकता है। समाज में इन आदर्श के निर्माण के लिए आचरण संहिता का निर्माण किया जाता है। यह आचरण संहिता आध्यात्मिक नैतिकता के बिना टिक नहीं सकती है। इसलिए समाज को आध्यात्मिक नैतिकता की आवश्यकता है। 

जब तक मनुष्य आध्यात्मिक नहीं होता है तब उसकी नैतिकता का कोई मूल्य नहीं होता है। जिसका मूल्य नहीं है उसका भरोसा भी नहीं है। अतः नैतिकता के आगे आध्यात्मिक विशेषण आवश्यक है। जहाँ आध्यात्मिक के पास नैतिकता नहीं है। उसकी गति गलत दिशा ले सकती है। इसलिए आध्यात्मिकता को नैतिकता के आभूषण पहनना आवश्यक है। अतः समाज में जिस नैतिकता की आवश्यकता है वह आध्यात्मिक नैतिकता है। उदाहरण के तहत भीष्म पितामह के पास सहज नैतिकता थी जबकि पांडवों के पास आध्यात्मिक नैतिकता
थी। पांडव पास हुए जबकि भीष्म ठग लिए गए। अतः नैतिकवान का आध्यात्मिक तथा आध्यात्मिक व्यक्ति का नैतिकवान होना जरूरी है। इसलिए आज के युग में साधकों यम नियम की शिक्षा दी जाती है। 

समाज में नीति, मूल्यों एवं कार्ययोजना के निर्धारण, संचालक एवं पालन करने वालों को यम नियम मानकर चलना होता। यम नियम साधक का आध्यात्मिक होना आवश्यक है। अतः समाज को हर हाल में आध्यात्मिक नैतिकवान होना आवश्यक है। 

आध्यात्मिकता मनुष्य को पूर्णत्व प्रदान करती है तथा नैतिकता मनुष्य को मनुष्यत्व प्रदान करती है। मनुष्यत्व एवं पूर्णत्व ही मनुष्य की पहचान है। अतः मनुष्य को मनुष्य की पहचान देने के लिए आध्यात्मिक नैतिकवान होना आवश्यक है। 

आध्यात्मिक नैतिकता के बिना समाज का निर्माण नहीं हो सकता है। इसलिए भी समाज को आध्यात्मिक नैतिकवान होना आवश्यक है। संघ, संस्था एवं संगठन के लिए भी नैतिकता की आवश्यकता है। आध्यात्मिकता के बिना येनकेन प्रकारेण इन जिन्दा रखा जा सकता है लेकिन समाज एक ऐसा संस्थान, संघ अथवा संगठन है कि उसे आध्यात्मिक नैतिकता के जिन्दा नहीं रखा जा सकता है। यदि बलांत ऐसा किया जाता है, समाज के स्थान पर सम्प्रदाय अथवा जाति का निर्माण हो जाता है। समाज समाज ही रहे इसलिए भी समाज को आध्यात्मिक नैतिकवान होना आवश्यक है। 

समाज समाज की पहचान देने के लिए, मनुष्य को मनुष्य की पहचान देने के लिए, समाज के संचालन के लिए, समाज शब्द के निर्माण के लिए समाज का आध्यात्मिक नैतिकवान होना आवश्यक है। 
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श्री आनन्द किरण "देव"
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मेघालय में समाज आंदोलन
*मेघालय राजनैतिक इकाई एवं समाज आंदोलन*
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*1. सामान्य परिचय* - मेघालय पूर्वोत्तर भारत का एक राज्य है जिसका शाब्दिक अर्थ है *बादलों का घर* । इसका विस्तार 220 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में है, जिसका लम्बाई से चौड़ाई अनुपात लगभग 3:1 का है। राज्य की राजधानी *शिलांग* है। भारत में ब्रिटिश राज के समय तत्कालीन ब्रिटिश शाही अधिकारियों द्वारा इसे *"पूर्व का स्काटलैण्ड"* संज्ञा दी गयी थी। 

*2. मुख्य विशेषता* - भारत के अन्य राज्यों से अलग यहाँ मातृवंशीय प्रणाली चलती है, जिसमें वंशावली माँ (महिला) के नाम से चलती है और सबसे छोटी बेटी अपने माता पिता की देखभाल करती है तथा उसे ही उनकी सारी संपत्ति मिलती है।

*3. भाषा* - यहाँ की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है। इसके अलावा अन्य मुख्यतः बोली जाने वाली भाषाओं में खासी, गारो, प्नार, बियाट, हजोंग एवं बांग्ला आती हैं।

*4. ऐतिहासिक तथ्य* - 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश राज के अधीन आने से पूर्व गारो, खासी एवं जयंतिया जनजातियों के अपने राज्य हुआ करते थे। ब्रिटिश ने 1935 में तत्कालीन मेघालय को असम के अधीन कर दिया था। 1947 में स्वतंत्रता के समय, वर्तमान मेघालय में असम के दो जिले थे और यह क्षेत्र असम राज्य के अधीन होते हुए भी सीमित स्वायत्त क्षेत्र था। मेघालय पहले असम राज्य का ही भाग था, 21 जनवरी 1972 को असम के खासी, गारो एवं जैन्तिया पर्वतीय जिलों को काटकर नया राज्य मेघालय अस्तित्व में लाया गया। इसे पूर्ण राज्य का दर्जा देने से पूर्व 1970 में अर्ध-स्वायत्त दर्जा दिया गया था। 

*5. राज्य के सामान्य भूगोल से* -
१. यह राज्य भारत का आर्द्रतम क्षेत्र है। 
२. जहाँ वार्षिक औसत वर्षा 12,000 मि॰मी॰ (470 इंच) दर्ज हुई है।
३. राज्य का 70% से अधिक क्षेत्र वनाच्छादित है। 
४. राज्य में मेघालय उपोष्णकटिबंधीय वन पर्यावरण क्षेत्रों का विस्तार है, यहाँ के पर्वतीय वन उत्तर से दक्षिण के अन्य निचले क्षेत्रों के उष्णकटिबन्धीय वनों से पृथक हैं। ये वन स्तनधारी पशुओ, पक्षियों तथा वृक्षों की जैवविविधता के मामलों में विशेष उल्लेखनीय हैं।
५. मेघालय में मुख्य रूप से कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था(अग्रेरियन) है जिसमें वाणिज्यिक वन उद्योग का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है।

*6. राज्य का नामकरण* - मेघालय शब्द की व्युत्पत्ति कलकत्ता विश्वविद्यालय में भूगोल विभाग के प्राध्यापक एमेरिटस डॉ॰एस पी॰चटर्जी द्वारा की गई थी मेघालय शब्द का शब्दिक अर्थ है - मेघों का आलय या घर। यह संस्कृत मूल से निकला है। 

*7. राजनीति के गर्भ से* - मेघालय विधान सभा में वर्तमान में 60 सदस्य होते हैं। मेघालय राज्य के दो प्रतिनिधि लोक सभा हेतु निर्वाचित होते हैं, प्रत्येक एक शिलांग और एक तुरा निर्वाचन क्षेत्र से। यहां का एक प्रतिनिधि राज्य सभा में भी जाता है। मेघालय राजनीति में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस व ऑल पार्टी हिल लीडर्स कॉन्फ्रेंस में 1990 तक अदला बदली का दौर चला। इसके बाद एच पी यु, फिर 1998 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सरकार रही। 1998 से 2018 तक कांग्रेस साथ अदला बदली के खेल में यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी (मेघालय) ने दू्सरे ध्रुव की भूमिका अदा की। वर्तमान में नेशनल पीपल्स पार्टी की सरकार है। 

*8. मेघालय में समाज आंदोलन* - आमरा बंगाली समाज इकाई का अंग है। 
मेघालय के जिले 
1. पूर्व जयन्तिया हिल्स जिला
2. पश्चिम जयन्तिया हिल्स जिला
3. री भोई जिला 
4. पूर्वी खासी हिल्स जिला
5. पश्चिम खासी हिल्स जिला
6. दक्षिणी खासी हिल्स जिला
7. उत्तरी गारो हिल्स जिला
8. पूर्वी गारो हिल्स जिला
9. दक्षिण गारो हिल्स जिला
10.पश्चिम गारो हिल्स जिला
11. दक्षिण पश्चिम गारो हिल्स जिला
क्या PSS का एक राजनैतिक दल है?    (समाज आंदोलन के परिपेक्ष्य)
 
भारतीय राजनैतिक पटल पर प्रउत दर्शन को सार्वभौमिक सत्य सिद्ध करने के लिए प्राउटिस्ट ब्लॉक इंडिया, विभिन्न प्रगतिशील समाज संगठन एवं प्राउटिस्ट सर्व समाज नामक राजनैतिक दल क्रियाशील है, इनमें से प्राउटिस्ट ब्लॉक इंडिया सहित कतिपय समाज दल प्रउत प्रणेता भौतिक जीवन काल में क्रियाशील थे, जबकि प्राउटिस्ट सर्व समाज सहित कुछ समाज के राजनैतिक दल बाद में अस्तित्व में आए। इसलिए आज की चर्चा का विषय प्राउटिस्ट सर्व समाज समिति का राजनैतिक दल के रुप रहना समाज आंदोलन के दृष्टिकोण से सही है अथवा पुनः विचार की आवश्यकता है। 

प्राउटिस्ट सर्व समाज समिति के नाम से दल का पंजीकरण प्रउत प्रणेता के भौतिक शरीर छोड़ने के बाद आदरणीय जयप्रकाश भैया जी अथक प्रयास से हुआ, इस दल का प्रधान कार्यालय एटा उत्तर प्रदेश में है, इसे बिना मान्यता प्राप्त पंजीकृत राजनैतिक दल के रुप में भारतीय चुनाव आयोग द्वारा स्वीकृति मिली थी, आज जिसका नाम प्राउटिस्ट सर्व समाज है, इसमें समिति शब्द विलोपित  है। इस प्रकार कुछ समाज भी राजनैतिक दल के रुप में मान्यता प्राप्त है तथा कुछ समाज में यह प्रक्रिया चल रही है। भारतीय राजनैतिक दल सदस्यता कानून के अनुसार एक दल के सदस्य रहते हुए, अन्य दल का सदस्य नहीं बन सकता है, अर्थात एक दल की सदस्यता त्यागनी पड़ती है अथवा स्वत: ही खत्म हो जाती है। इसका अर्थ आमरा बंगाली दल का सदस्य, प्राउटिस्ट सर्व समाज का कानूनन सदस्य नहीं हो सकता है। 

प्रउत प्रणेता ने आदरणीय श्री शशिरंजन के माध्यम से प्राउटिस्ट ब्लॉक अॉफ इंडिया, जिसका नामकरण स्वयं प्रउत प्रणेता ने तकनीक खुबि की वजह से प्राउटिस्ट ब्लॉक, इंडिया करवाया था को प्रउत का भारतीय राजनीति को अपना परिचय देने के लिए भेजा था। कहते है प्रउत के राजनीति से परिचय करवाने के क्रम में किसी विशेष कमी की वजह दोस्त से ज्यादा दुश्मन उबरकर आ गए। तत्पश्चात प्रउत प्रणेता ने प्रउत का विश्व समाज से परिचय करवाने की जिम्मेदारी समाज आंदोलन को दी, उसकी सहायता एवं सहयोग करने के लिए पांच फैडरेशन की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है। प्राउटिस्ट सर्व समाज अथवा प्राउटिस्ट सर्व समाज समिति को इन समाजों के संयोजन का उत्तरदायित्व देकर एक मंच के रुप में अस्तित्व में लाया गया है। समाज आंदोलन के राजनैतिक स्वरूप का अध्ययन करते समय पाया कि एक समाज इकाई को संपूर्ण रुपेण राजनैतिक भूमिका में रखना, उसके संपूर्ण उद्देश्य के साथ न्याय नहीं तथा राजनीति पूर्णतया पृथक रखना भी उनके उद्देश्यों से दूर रखना है। 

अब कुछ प्रश्न सामने रखकर में पाठकों से पुछना चाहूँगा कि क्या पीएसएस राजनैतिक दल की राजनैतिक दल के रुप में पहचान देना आवश्यक है? 
1. जब समाज इकाई राजनैतिक दल के रुप में पंजीकृत है अथवा करवाना जरुरी है, तो पीएसएस की राजनैतिक पहचान की आवश्यकता क्या है? 
2. बाबा ने अपने भौतिक जीवन काल में पीएसएस को राजनैतिक दल के रुप पहचान देने की आवश्यकता क्यों नहीं समझी? 
3. भारतीय राजनैतिक कानून के दायरे में रह कर पीएसएस जो एक राजनैतिक दल है, वह अन्य दल (मान्यता प्राप्त समाज, जो राजनैतिक दल के रुप में पंजीकृत है) का नेतृत्व कैसे कर सकता है? 
4. राजनैतिक दलों को मोर्चे वाला सूत्र यदि लगाया जाए तो पीएसएस भी अन्य समाज दलों की भांति मोर्चा का सदस्य हुआ अध्यक्षीय अथवा जनक मंच अथवा संयोजन मंच की भूमिका में कैसे रह सकता है? 
5. पीएसएस एक भारतीय राजनैतिक दल है, फिर पीएसएस ग्लोबल प्रतिनिधित्व कैसे कर सकता है? 
6. प्रउत का लक्ष्य दल विहीन आर्थिक लोकतंत्र है, तो फिर दलों के दलदल में प्रउत का ध्वज क्या कर रहा है? 
7. राजनैतिक दल के रुप में चिन्हित होने पर सरकारी कर्मचारी एवं अराजनीतिक प्रिय लोग अपना परिचय समाज इकाई के सदस्य के रुप में परिचय कैसे दे पाएंगे? 

अंत में यक्ष प्रश्न की ओर
*PBI को समाज आंदोलन से कोई मतलब नहीं है, PSS समाज आंदोलन करने की इच्छुक नहीं है और प्रउत कार्यकर्ता भी अपना Comfort छोड़कर सड़क पर उतरने को राजी नहीं हैं, तो समाज आंदोलन होगा कैसे?'*

समाज आंदोलन के परिपेक्ष्य में पीएसएस का राजनैतिक दल के रुप में अस्तित्व साधारण समझ से परे है लेकिन विशेषज्ञ अपनी गहन एवं विशेष समझ से इसे समझा सकते है तो हम नतमस्तक है। 

फिर वही यक्ष प्रश्न
आपसे *PBI को समाज आंदोलन से कोई मतलब नहीं है, PSS समाज आंदोलन करने की इच्छुक नहीं है और प्रउत कार्यकर्ता भी अपना Comfort छोड़कर सड़क पर उतरने को राजी नहीं हैं, तो समाज आंदोलन कैसे होगा.................?'*