बाबा का मिशन और संगठन : एक गहन विश्लेषण (Baba's Mission and Organization : An In-depth Analysis)



जीवन और दर्शन के हर मोड़ पर हमें यह समझने की आवश्यकता होती है कि हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं और हमारा अंतिम लक्ष्य क्या है। यह प्रश्न व्यक्तिगत जीवन से लेकर सामाजिक और आध्यात्मिक आंदोलनों तक हर जगह महत्वपूर्ण है। जब हम परम पूज्य गुरुदेव श्री श्री आनंदमूर्ति जी, जिन्हें हम प्रेम से बाबा कहते हैं, के मिशन की बात करते हैं, तो यह प्रश्न और भी गहन हो जाता है। उनके द्वारा स्थापित 'आनंद मार्ग' केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक व्यापक और चिरस्थायी मिशन है। यह लेख इसी सूक्ष्म अंतर को स्पष्ट करने का प्रयास करेगा कि बाबा का मिशन क्या है और उनके द्वारा निर्मित संगठन या संस्थाएँ किस तरह से उस मिशन का एक हिस्सा मात्र हैं।


बाबा का मिशन एक अमूर्त अवधारणा है, जो समय और स्थान की सीमाओं से परे है। जैसा कि कहा गया है, "बाबा का मिशन - अमूर्त है, मूर्त तो युग की धारा का परिणाम है।" यह समझना अत्यंत आवश्यक है। मूर्त वस्तुएँ, जैसे कि संगठन, संस्थाएँ, या कोई विशेष कार्यप्रणाली, समय के साथ बदलती रहती हैं। वे युग की ज़रूरतों के अनुसार नया रूप लेती हैं, परिपक्व होती हैं, और कभी-कभी समाप्त भी हो जाती हैं। लेकिन मिशन, जो एक विचार, एक उद्देश्य, एक आदर्श है, वह अविनाशी होता है।

बाबा का मिशन नव्य मानवतावाद की स्थापना है, जिसमें मानवता के साथ-साथ इस ब्रह्मांड के हर जीव के प्रति प्रेम और सम्मान की भावना समाहित है। यह एक ऐसा समाज बनाने का लक्ष्य है जहाँ कोई भी प्राणी दुखी न हो और सब सुखी हों। इसके साथ ही, उनका मिशन प्रउत (Progressive Utilization Theory) की स्थापना करना है। यह सिर्फ एक आर्थिक या सामाजिक सिद्धांत नहीं, बल्कि एक समग्र जीवन-दर्शन है। यह मानता है कि इस संसार के सभी संसाधन सबके लिए हैं, और उनका उपयोग इस तरह से होना चाहिए कि किसी का शोषण न हो और सभी का विकास हो सके। ये दोनों ही मिशन मूर्त नहीं हैं; ये विचार और आदर्श हैं, जिन्हें हम अपने जीवन में उतारने का प्रयास करते हैं।


संगठन, चाहे वह आनंद मार्ग प्रचारक संघ हो, अन्य संबंधित संस्थान हों, या प्रउत, सेवा, धर्म, सुरक्षा के लिए बने संस्थान हों, वे सभी बाबा के मिशन को साकार करने के लिए बनाए गए साधन मात्र हैं। वे एक माध्यम हैं जिसके ज़रिए बाबा का विचार लोगों तक पहुँचाया जाता है, और उनके आदर्शों को व्यवहार में लाया जाता है। जैसा कि कहा गया है, "प्रचारक संघ तो उसके लिए एक निमित्त है," "संगठन तो उसका एक निमित्त है," और "संस्थान तो उसके निमित्त है।"

यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि ये संगठन लचीले होते हैं। वे युग की ज़रूरतों के अनुसार बदल सकते हैं। यदि कोई संगठन अपने मूल उद्देश्य से भटक जाए, तो वह अपनी प्रासंगिकता खो देता है। संगठन को अपने मूल मिशन के प्रति हमेशा समर्पित रहना चाहिए। यदि वह स्वयं को मिशन से बड़ा समझने लगे, तो यह एक बड़ी भूल होगी।

बाबा ने स्वयं कहा था, "मैंने अपने आप को अपने मिशन में मिला दिया है, संगठन में मिलाने की बात नहीं कही थी।" यह कथन इस बात को स्पष्ट करता है कि बाबा के लिए संगठन से कहीं अधिक महत्वपूर्ण उनका मिशन था। उन्होंने अपने जीवन को उस अमूर्त आदर्श को समर्पित किया, न कि किसी मूर्त संस्था को।


यह एक दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है कि कई बार लोग संगठन को ही मिशन मान बैठते हैं। जब ऐसा होता है, तो संघर्ष शुरू हो जाता है। व्यक्ति संगठन की सीमाओं में सिमटकर रह जाता है और बाबा के व्यापक दर्शन को भूल जाता है। जो लोग संगठन के नियमों और रीति-रिवाजों को बाबा के मिशन से बड़ा मानने लगते हैं, वे अपनी सोच को संकुचित कर लेते हैं। यह बहुत स्पष्ट रूप से कहा गया है, "जो बाबा के मिशन को अपनी अल्प सोच में नोचने लगे हुए हैं, वह नाली के कीड़े बनने की यात्रा पर हैं।" यह एक कठोर सत्य है। यदि हम बाबा के मिशन को अपनी छोटी-छोटी स्वार्थों या संगठनात्मक सीमाओं में कैद करने का प्रयास करते हैं, तो हम उस महान उद्देश्य से भटक जाते हैं। यह केवल आध्यात्मिक पतन की ओर ले जाता है।
एक और महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि "जिनको लगता है कि बाबा के मिशन से संगठन बड़ा है, वह नादान है।" यह बात सिर्फ आनंद मार्ग के संदर्भ में ही नहीं, बल्कि हर बड़े आंदोलन के संदर्भ में सच है। संगठन साधन है, साध्य नहीं। यदि साधन को ही साध्य मान लिया जाए, तो पूरी यात्रा निरर्थक हो जाती है।


बाबा का मिशन सिर्फ सामाजिक या आर्थिक बदलाव तक ही सीमित नहीं, बल्कि यह एक गहरी आध्यात्मिक क्रांति भी है। "बाबा का मिशन - भक्ति की धारा बहाना है, गोष्ठी उसके निमित्त है।" यह भक्ति की धारा हर व्यक्ति के भीतर बहती है। इसका संबंध किसी बाहरी दिखावे या नियम से नहीं, बल्कि यह व्यक्ति के हृदय की गहराई से जुड़ा है। गोष्ठियाँ और अन्य आध्यात्मिक सभाएँ सिर्फ इस भक्ति को पोषण देने का माध्यम हैं।

इसलिए, जो लोग बाबा के चिंतन को व्यक्तिगत साधना के रूप में अपनाते हैं और अपने जीवन में इसे प्रतिफलित करते हैं, वे भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कि संगठनात्मक कार्यों में लगे लोग। कहा गया है, "अतः जो संस्था के किसी भी स्वरूप के साथ बाबा के चिंतन को प्रतिफलित करने लगे हैं अथवा व्यक्तिगत बाबा के लिए काम कर रहे हैं, समान आदरणीय हैं।" यह समानता का सिद्धांत बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह हमें यह सिखाता है कि हम किसी भी रूप में बाबा के मिशन से जुड़ सकते हैं, और हमारा योगदान उतना ही मूल्यवान है।


जीवन में कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ आ सकती हैं जब हमें मिशन और संगठन के बीच में से एक को चुनना पड़े। यह एक कठिन परीक्षा हो सकती है। लेकिन बाबा के दर्शन के अनुसार, "संगठन एवं मिशन में से एक चुनने की बारी आए तो हर बार मिशन को चुनना ही धर्म है।" यह धर्म सिर्फ एक कर्तव्य नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक समझ है। जब हम मिशन को चुनते हैं, तो हम बाबा के व्यापक, अमूर्त और शाश्वत आदर्शों को चुनते हैं। हम एक ऐसी यात्रा को चुनते हैं जो हमें व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर मुक्ति और विकास की ओर ले जाती है।

इस प्रकार, हमें हमेशा इस बात को याद रखना चाहिए कि संगठन एक साधन है, और मिशन हमारा अंतिम लक्ष्य। हमें संगठन के नियमों का पालन करना चाहिए, लेकिन सिर्फ इसलिए क्योंकि वे मिशन को आगे बढ़ाते हैं। हमें संगठन से प्रेम करना चाहिए, लेकिन मिशन को कभी नहीं भूलना चाहिए। बाबा का मिशन एक ऐसी प्रकाश की किरण है, जो हमें अंधकार से मुक्ति की ओर ले जाती है, और हमें उस अमूर्त सत्य से जोड़ती है जो चिरस्थायी है। हमारा कर्तव्य है कि हम इस प्रकाश को अपने जीवन में जलाएँ और इसे दूसरों तक फैलाएँ, बिना किसी संकुचित विचार या संगठनात्मक सीमाओं में उलझे। यही बाबा के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी और यही हमारे अस्तित्व का परम लक्ष्य है।


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1 टिप्पणी:

  1. मेरी सोच/विचार से आपके द्वारा प्रस्तुत यह आलेख प्रायोगिक सार्थकता के साथ परम-लक्ष्यीय प्रेरक भी है।हार्दिक शुभकामनाओं के साथ साधुवाद।बी.के ठाकुर,भोपाल।

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