सामान्यतः माइक्रोवाइटा चिकित्सा शास्त्रियों एवं वैज्ञानिक गवेषणा कर्ताओं की विषय वस्तु है लेकिन इसकी समझ सबको रखने की आवश्यकता है। इसलिए हम इसकी गहराई में तो नहीं जाएंगे लेकिन माइक्रोवाइटा सिद्धांत के मूल को समझने की कोशिश करते हैं। माइक्रोवाइटा सिद्धांत श्री प्रभात रंजन सरकार द्वारा प्रतिपादित आधुनिक वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक सिद्धांत है। जो चेतना के उत्पन्न एवं जीव के विकास के विज्ञान को समझने में मदद करता है, साथ ही मानसाध्यात्मिक यात्रा को भी समझने के लिए कारगर है।
अणुजीवत् की स्थूलतम श्रेणी साधारण सूक्ष्मदर्शी द्वारा दृश्य है। इन्हें सामान्यतः सूक्ष्मजीव कहते हैं। जो वैज्ञानिक शब्दावली में बैक्टीरिया, आर्किया, कवक, शैवाल, प्रोटोजोआ और वायरस इत्यादि नामों से जाने जाते हैं। इसका अध्ययन माइक्रोबायोलॉजी के अन्तर्गत किया जाता है। यह मित्र तथा शत्रु दोनों ही प्रकार के होते हैं। जिन्हें दर्शन की भाषा में सकारात्मक एवं नकारात्मक अणुजीवत् कहते हैं। अणुजीवत् की द्वितीय श्रेणी विशेष प्रकार सूक्ष्मदर्शी यंत्र की सहायता से देखा जा सकता अथवा अनुभव किया जा सकता है। यह मूलतः सूक्ष्मजीवों की विशेष श्रेणी है, जो अतिसूक्ष्म होने के कारण साधारण पकड़ के बार होते हैं, लेकिन यह जीव विज्ञान के सिद्धांत को प्रभावित करते हैं। अणुजीवत् की सबसे सूक्ष्मतम श्रेणी जीव विज्ञान के सिद्धांत से उपर होते हैं लेकिन उनका अस्तित्व होता है। मूलतः इस श्रेणी को ही अणुजीवत् कहा जाता है। यद्यपि यह जीव की भौतिक अवस्था के ही अंग है लेकिन यह पृथ्वी एवं जल तत्व विहिन होने के कारण दिव्यदृष्टि की आवश्यकता है। अत: सूक्ष्मदर्शी यंत्र की पकड़ के बार है। यद्यपि यह जैववैज्ञानिक तथ्यों को तो प्रभावित नहीं करते हैं लेकिन जैव मनोवैज्ञानिक को नियंत्रित करते हैं। अत: इन्हें जीव विज्ञान से पृथक नहीं माना जाता है। इस प्रकार के जीवों को दर्शन की भाषा में पराभौतिक जीव (Metaphysical organisms) कहते हैं। इनका शरीर अग्नि, वायु एवं आकाश नामक तीन तत्वों से मिलकर बना होता है। अतः जीव उत्पत्ति का विज्ञान यहाँ तक नहीं पहुंच पाता है। क्योंकि यह जल में सृष्टि तक पहुँच पाया है। अणुजीवत् सिद्धांत में यही चर्चा के विषय है।
अणुजीवत् की प्रथम दो श्रेणियों के संदर्भ में बारें में जीव विज्ञान एवं चिकित्सा विज्ञान काफी कुछ जानकारी देते हैं और भी अधिक जानने के जैव मनोविज्ञान (bio psychology) भी इसके संदर्भ काफी कुछ अनुसंधान प्रस्तुत करता है। अत: इनके संदर्भ में अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन पराभौतिक जीवों के संदर्भ में अधिक चर्चा की आवश्यकता है। अणुजीवत् की इस श्रेणी में भी मित्रवत तथा शत्रुवत दोनों ही श्रेणियाँ है। जिस हम समझने की सुविधा के लिए क्रमशः देव योनी एवं दैत्य योनी कह लेते हैं। देवयोनी मित्रवत अणुजीवत् है, जो मनुष्य की प्रगति एवं विकास में सहायक है। यह जीवत् आध्यात्मिक कर्म भजन, कीर्तन, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा इत्यादि से अधिक मात्रा में विकसित होने है। इसके विपरीत नकारात्मक अणुजीवत् अश्लील, कामुक, क्रोधात्मक, मोहग्रस्त, लोभ वृत्ति, अहंकार वृत्ति इसके अलावा धृणा, शंका, इत्यादि नकारात्मक वृत्तियों के कारण विकसित होते हैं।
अणु जीवत् मानव मन, पर्यावरण एवं नेचर को प्रभावित करते है। जब सकारात्मक अणुजीवत् की प्रचुरता होती है, तब एक शुभ अथवा सु परिवेश का निर्माण होता है। इसके विपरीत नकारात्मक अणुजीवत् की प्रचुरता कु अथवा अशुभ परिवेश का निर्माण करती है। संभवतया उदासीन अणुजीवत् भी होते होंगे। जो किसी भी प्रकार से वातावरण को प्रभावित नहीं करते हैं। लेकिन इसके संदर्भ में अबतक इतनी जानकारी नहीं है। बड़ी बात यह नहीं है कि अणुजीवत् अपनी क्या भूमिका अदा करते हैं। बड़ी बात तो यह है कि अणुजीवत् की भूमिका के बीच मनुष्य को कैसे जीना है? नकारात्मक अणुजीवत् के प्रभाव को किस प्रकार निस्तेज करना है तथा सकारात्मक अणुजीवत् की शक्ति का कैसे उपयोग करना है? यह विज्ञान ही समझना अणुजीवत् अध्याय का उद्देश्य है। आओ हम इस विषय पर आगे बढ़ते हैं।
(१) नकारात्मक अणुजीवत् को सकारात्मक ऊर्जा में बदलने में दक्ष होना : - व्यष्टिगत जीवन में नकारात्मक सोच एवं जड़त्व मुखी गति के कारण नकारात्मक अणुजीवत् ऐसे मनुष्य के मन को अपने अधीन कर लेता है। पराधीन मन इनसे लड़ने अक्षम होता है। इसलिए उसे बाह्य सहायता की आवश्यकता होती है। जब यह सहायता उचित समय तथा उचित मात्रा में मिल जाती है तब वह नकारात्मक अणुजीवत् के साम्राज्य से बाहर निकलने में समक्ष होता है, लेकिन इस लड़ाई में भी एक स्तर आने पर स्वयं को लड़ना होता है। एक नकारात्मक ऊर्जा अथवा नकारात्मक अणुजीवत् से घिरा मनुष्य अपने सामान्य सुझबुझ खो चुका है अथवा उसकी जिजीविषा लुप्त होने के कगार पर है, उस मनुष्य को पतन के इस विकराल हाथों से बचाने के लिए शुभ शक्तियों को आगे आना ही होगा। उसके आस पास के परिवेश एवं मन को सत्संग,भजन, कीर्तन, स्वाध्याय, सामूहिक साधना इत्यादि द्वारा सकारात्मक बनाने में मदद करनी ही होगी। यदि आवश्यकता पड़े तो ऐसे रोगियों के लिए विशेष चिकित्सालय की व्यवस्था करनी होगी, जहाँ नियमित धर्मचक्र कर नकारात्मक ऊर्जा में जी रहे मनुष्य को स्वस्थ करना होगा। यदि ऐसे रोगी के रोग की बढ़ी हुई अवस्था में अधिक से अधिक समय जागृति में रखा जाए अथवा तंत्र पीठ के संपर्क में रखा जाए तो अल्प ही समय में सकारात्मक परिणाम आएंगे। जब रोगी खुद से लड़ने की हालत में आ जाए तब उसे अष्टांग योग की दीक्षा देकर स्वयं को लड़ने के लिए सक्षम बनाना ही होगा। समष्टिगत जगत में नकारात्मक अणुजीवत् से मुक्ति के साधन अखंड कीर्तन, आवर्त कीर्तन, तत्वसभा, धर्मचक्र, धर्म महासम्मेलन एवं धर्म महाचक्र है।
(2) सकारात्मक अणुजीवत् का सदुपयोग करना :- सकारात्मक सोच, शुभकर्म, मानसाध्यात्मिक प्रयास एवं आध्यात्मिक अनुशीलन द्वारा व्यष्टिगत जीवन मित्र में अणुजीवत् की अधिक से अधिक सर्जन कर अपने शक्ति का सदुपयोग किया जा सकता है। इस उपयोग विश्व प्रेम, आध्यात्मिक विकास एवं आनन्दमय जीवन जीने में करना चाहिए।
अणुजीवत् पर चर्चा कर रहे हैं तो पराभौतिक जीवों के विज्ञान को समझना आवश्यक है। पराभौतिक जीवों को सजीव अथवा निर्जीव किस श्रेणी में रखा जाए, यह स्पष्ट नहीं किया जा सकता है। उनके शरीर में पृथ्वी एवं जल तत्व का अभाव होने के कारण उन्हें सामान्य जैविक क्रिया करने की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन इनमें चेतना मनुष्य की तुलना में अधिक विकसित होती है। इसलिए इन पराभौतिक जीवों का अध्ययन आवश्यक होता है। यह पराभौतिक जीव भी सकारात्मक एवं नकारात्मक अणुजीवत् होते हैं। विद्या साधक जागतिक इच्छा के अधिशेष रहने पर देह का त्याग कर देता है अथवा मृत्यु हो जाती है, तो वे धनात्मक अणुजीवत् अथवा देवयोनी वाले प्राणी कहलाते हैं। चूंकि धनात्मक अणुजीवत् होने के कारण यह मनुष्य के भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक कल्याण में सहायक होते हैं। इसके विपरीत अविद्या साधक की विनाशकारी एवं अवांछित इच्छाएँ उन्हें नकारात्मक अणुजीवत् अथवा दैत्य योनी अथवा पिशाच योनी अथवा प्रेत योनी कहा जाता है। देवयोनी एवं दैत्य/पिशाच/प्रेत योनी के संदर्भ में प्राचीन साहित्य कुछ कथा कहानियाँ मिलती है। वस्तुतः यह एक प्रकार के अणुजीवत् है, जो मनुष्य से कभी भी सक्षम नहीं है। लेकिन मनुष्य यदि मानसिक दृष्टि मजबूत नहीं है, तो यह अणुजीवत् उनके मन के उपर अपना प्रभाव स्थापित कर सकते हैं। इसलिए कहा जाता है कि कमजोर मानसिक बीमारी आधि से पीड़ित होता है। मानसाध्यात्मिक प्रगाढ़ मनुष्य इनके साथ हँसी ठिठोली का खेल खेलने में सक्षम हो सकता है। यहाँ एक बात स्पष्ट करना आवश्यक है कि धनात्मक अणुजीवत् अर्थात देवयोनी तथा ऋणात्मक अणुजीवत् अर्थात दैत्य योनी दोनों ही मनुष्य का लक्ष्य नहीं है। मनुष्य का लक्ष्य परमब्रह्म है। जो इन पराभौतिक जीवों की सीमाओ से काफी है, जहाँ तक इन पहूंच कदापि नहीं होती है। अतः यह केवल ज्ञान विज्ञान एवं जानकारी के लिए है। आध्यात्मिक यात्रा में इसमें खोने की आवश्यकता नहीं है। चलो इन अणुजीवत् के बारे विस्तार से समझते हैं।
(A) धनात्मक अणुजीवत् अर्थात देवयोनी :- इस वर्ग के पराभौतिक प्राणियों को मोटे रुप से सात अथवा आठ श्रेणियों में बांटा जा सकता है।
(१) यक्ष :- यह धन, धान्य एवं भौतिक वस्तुओं की अधिशेष इच्छा का परिणाम वाले अणुजीवत् है। यह धन, धान्य एवं भौतिक इच्छाओं को लेकर आकृष्ट साधनों के आसपास मंडराते रहते हैं। उसके मन ओर अधिक उसकी ओर ले जाते हैं।
(२) रक्ष :- युद्धेषणा, साहसिक शक्ति प्रदर्शन, शारीरिक बल प्राप्त इच्छा का परिणाम है। यह साहसिक वृत्ति, सैन्य शक्ति एवं करतब जीवी साधकों के आसपास मंडराते है तथा उनके मन को इस ओर अधिक वेग से खींचते है।
(३) किन्नर :- यह शारीरिक सौंदर्य एवं सज्ज-धज्ज के शौकीन इच्छा का परिणाम है। यह इसी प्रकार की वृत्ति प्रेरित साधकों के मन घेरे रहते हैं। इनके मन को इस ओर तीव्र वेग से खींच लेते हैं।
(४) गंधर्व : - संगीत, वाद्य तथा नृत्य इत्यादि अधिशेष इच्छा का परिणाम है। यह संगीत, वाद्य एवं नृत्य साधकों के मन को इस विद्या सिखने अधिक कारगर मदद करते हैं। इनका अधिकार क्षेत्र यहाँ तक मन रोके रखना है।
(५) विद्याधर :- यह ज्ञान, विज्ञान, शोध, अनुसंधान की अधिशेष इच्छा का परिणाम है। यह बौद्धिक साधक, दार्शनिक, वैज्ञानिक साधक के लिए साहयता करने में आनन्द की अनुभूति करते हैं।
(६) विदेहीलीन :- यह सिद्धियों की चाहत का परिणाम है। आध्यात्मिक शक्ति की चाहत रखने वाले साधकों के आसपास मंडराते है।
(७) सिद्ध :- यह सबसे उन्नत वर्ग का अणुजीवत् है। यह आध्यात्मिक साधकों के लिए मदद करते हैं। इन्हें इस प्रकार के कार्य करना अच्छा लगता है। यह आध्यात्मिक शक्तियों की प्राप्ति की अधिशेष इच्छा का परिणाम है।
(८) प्रकृतिलीन :- यह बहुत ही दुर्गम अवस्था है अथवा साधक की अधोगति है। प्रकृति उपासना, मूर्तिपूजा एवं जड़ साधना की अधिशेष इच्छा का परिणाम है। यह इस प्रकार के साधकों के आस पास रहते हैं।
(B) ऋणात्मक अणुजीवत् अर्थात दैत्य/पिशाच/प्रेत योनी :- इस के अणुजीवत् की सात श्रेणियों का ज्ञान होता है।
(१) पिशाच :- जो लोग हर चीज़ को अपने भोग की वस्तु के रूप में देखते हैं, बिना यह सोचे कि वह खाने योग्य है या नहीं, मरने के बाद उन्हें यह दर्जा मिलता है। वे एक तरह के नकारात्मक माइक्रोवाइटा होते हैं।
(२) आकाश पिशाच :- जो लोग अपनी महत्वाकांक्षा के कारण सदैव विध्वंसकारी कार्यों में लगे रहते हैं, चाहे उनकी योग्यता कितनी भी हो, तथा जो अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए कोई भी जघन्य अपराध करने से पीछे नहीं हटते, उन्हें मृत्यु के पश्चात यह पद प्राप्त होता है।
(३) ब्रह्म पिशाच :- जो बुद्धिजीवी अपनी बुद्धि का उपयोग रचनात्मक उद्देश्यों के लिए नहीं करते, बल्कि दूसरों को दबाने या दूसरों में हीन भावना पैदा करने के लिए अपनी बुद्धि का दुरुपयोग करते हैं, उन्हें मृत्यु के बाद यह दर्जा प्राप्त होता है।
(४) दुर्मुख प्रेतयोनि :- गंदे मुख वाला प्राणी। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपनी शिक्षा की कमी या किसी अन्य कारण से दूसरों को मानसिक संघर्ष देते हैं। मृत्यु के बाद वे दुर्मुख प्रेतयोनि के रूप में दूसरों को मानसिक संघर्ष देना जारी रखना चाहते हैं। ये प्रेतयोनियाँ मृत्यु के पश्चात मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेती हैं।
(५) कबंध :- बिना सिर वाला पिशाच। जो लोग अपमान, मानसिक विकृति, कुंठा या अत्यधिक मोह, क्रोध, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या आदि के प्रबल प्रभाव के कारण आत्महत्या करते हैं, उन्हें कबंधयोनि का दर्जा प्राप्त होता है।
(६) महाकपाल : - जो लोग अपने स्वार्थ को पूरा करने की कोशिश करते हुए दूसरों को नुकसान पहुँचाते हैं, जो विद्या तंत्र के नाम पर अविद्या तंत्र का अभ्यास करते हैं, और जो पापी, परपीड़क स्वभाव वाले हैं
(७) मध्य कपाल :- यह भी एक प्रकार का नकारात्मक अणुजीवत् है।