लोकतंत्र वर्तमान युग की शासन व्यवस्था ही नहीं एक परिपाटी है। इस युग में निर्णय की प्रक्रिया को लोकतांत्रिक बनाया गया है, अतः लोकतंत्र को गहराई से समझना आवश्यक है। लोकतंत्र के मूल में जनमत है। जनमत का सही निर्माण ही लोकतंत्र के उद्देश्य को चरितार्थ करता है। इसलिए आज हम लोकतंत्र की दोनों विधा; 'राजनैतिक लोकतंत्र एवं आर्थिक लोकतंत्र' को समझने की कोशिश करेंगे।
(1) राजनैतिक लोकतंत्र व्यक्ति के विचारों की स्थापना करता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र व्यक्ति के बुनियादी मूल्यों की स्थापना करता है- राजनैतिक लोकतंत्र का मूल व्यक्ति के विचारों की दुनिया बनाने के लिए स्वतंत्र छोड़ देना है। जिससे व्यक्ति अपना संसार स्वयं बना सकें। यह संसार सुन्दर होगा अथवा नहीं, यही राजनैतिक लोकतंत्र की विषय वस्तु नहीं है। इसलिए आज संसार में अच्छा -बुरा जो भी दृश्य दिख रहा है, यह राजनैतिक लोकतंत्र की देन है। जबकि आर्थिक लोकतंत्र व्यक्ति के उन बुनियादी मूल्यों की स्थापना करता है जिससे वह मनुष्य कहला सके तथा उसके बुनियाद पर अपना एक मानव समाज बना सके। इसमें व्यक्ति के स्वतंत्र विचारों पर अवश्य ही लगाम लगती है लेकिन विचारों की स्वतंत्रता की हत्या नहीं होती है। आर्थिक लोकतंत्र व्यक्ति के उन विचारों की रक्षा करता है जो व्यष्टि एवं समष्टि कल्याण के सूचक हो तथा उन विचारों को रोकता है, जो व्यष्टि एवं समष्टि कल्याण पर आघात करते हैं अथवा करने की संभावना है।
(2) राजनैतिक लोकतंत्र में व्यक्ति मूल्यवान है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में समाज मूल्यवान है- राजनैतिक लोकतंत्र के सभी तानेबाने व्यक्ति को लेकर है जबकि आर्थिक लोकतंत्र समाज को लेकर अपनी योजना प्रस्तुत करता है। राजनैतिक लोकतंत्र में व्यक्ति की सर्वोच्चता को स्थापित करने की यात्रा में समाज की सुन्दर व्यवस्था तारतार हो जाए तो भी राजनैतिक लोकतंत्र नहीं रुकता है। जबकि आर्थिक लोकतंत्र व्यक्ति को वह ऐसा कुछ भी करने नहीं देता है जिससे समाज की आदर्श व्यवस्था पर आघात हो। अतः आर्थिक लोकतंत्र में व्यक्ति की स्वतंत्रता वहाँ जाकर रुक जाती है, जहाँ समाज के हितों को क्षति होती है। आज हमार समाज जैसा भी है, यह राजनैतिक लोकतंत्र की देन है जबकि आर्थिक लोकतंत्र उस समाज की संरचना करता है, जिसकी व्यक्ति को आवश्यकता है।
(3) राजनैतिक लोकतंत्र में अर्थतंत्र स्वच्छंद होता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में अर्थतंत्र स्वतंत्र होता है- समाज का मुख्य संगठन अर्थतंत्र है। राजनैतिक लोकतंत्र में यह स्वच्छंद रहता है। इसका जैसा भी संगठन बनता है उसे मुक्त बाजार व्यवस्था कहकर उसके हाल पर छोड़ दिया जाता है। अर्थतंत्र का ताना बाना अस्तव्यस्त हो जाता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र अर्थतंत्र को व्यक्ति की महत्वाकांक्षा से दूर स्वतंत्र रखा जाता है जहाँ आर्थिक घटक मिलकर अपनी नीतियाँ बनाता है। सरल शब्दों में राजनैतिक लोकतंत्र में आर्थिक घटक एक दूसरे से पृथक-पृथक ढपली बजाते हैं जबकि आर्थिक लोकतंत्र में आर्थिक लोकतंत्र के प्रत्येक घटक एक दूसरे से जुड़े होते हैं। जिसमें कृषि व खनिज को उद्योग एवं व्यापार की चिंता होती है तो उद्योग एवं व्यापार को कृषि की भी चिंता होती है। अतः हम कह सकते हैं कि आर्थिक लोकतंत्र एक पारस्परिक तंत्र का निर्माण करता है।
(4) राजनैतिक लोकतंत्र समूल व्यवस्था का राजनीतिकरण करता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र समाजीकरण करता है- राजनैतिक एवं आर्थिक लोकतंत्र में मोटा अन्तर राजनीतिकरण एवं समाजीकरण का है। राजनैतिक लोकतंत्र में समूल व्यवस्था को राजनीति अपने हितों के अनुसार चलाती है। उनकी दृष्टि में हर व्यवस्था में राजनैतिक फायदा ढूंढ़ा जाता है। यहाँ तक शिक्षा एवं चिकित्सा को भी नहीं छोड़ा है। जबकि आर्थिक लोकतंत्र समूल व्यवस्था को समाज से जोड़कर रखता है तथा उसमें सामाजिक गुणों का समावेश करता है। शिक्षा एवं चिकित्सा का संचालन स्वतंत्र शिक्षाविदों व चिकित्साविदों के हाथ रहता है लेकिन वे भी असामाजिक बनकर काम नहीं कर सकते हैं।
(5) राजनैतिक लोकतंत्र राज्य के लिए नागरिकों का संगठन करता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र नागरिक के लिए राज्य का संगठन करता है- राजनैतिक लोकतंत्र में एक राज्य की पहले आवश्यकता होती है तथा उसके अनुसार नागरिको का संगठन बनाने की कोशिश की जाती है, जिसमें कभी कभी तो नागरिक राज्य के समक्ष तुच्छ हो जाता है। जबकि आर्थिक लोकतंत्र में नागरिक गुरुत्व बिन्दु होता है। नागरिक के लिए राज्य की आवश्यकता है क्योंकि नागरिक अकेला अपने अधिकारों की रक्षा एवं कर्तव्य का पालन नहीं कर सकता है। अतः नागरिक अथवा जन कल्याण राज्य की धुरी होती है। राजनैतिक लोकतंत्र दिखाने को लोककल्याणकारी शब्द का प्रयोग करता है जबकि उसके मूल में राज्य के स्वरूप के हित की साधना होती है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में राज्य नागरिक हितार्थ राज्य अथवा समाज की मजबूती बनाया जाता है।
(6) राजनैतिक लोकतंत्र में न्याय के लिए व्यक्ति को लड़ना पड़ता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में न्याय की गारंटी होती है- राजनैतिक लोकतंत्र में न्याय के लिए व्यक्ति को एक कानून एवं व्यवसायिक लडाई लड़नी पड़ती है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में न्याय व्यक्ति को समाज की ओर से गारंटी के रूप में मिलता है। इससे व्यक्ति को न्याय की तलाश में घूमना नहीं होता है बल्कि समाज की नजर में मात्र लाना होता है। तत्पश्चात न्याय स्वत: ही व्यक्ति तक पहुँचता है।
(7) राजनैतिक लोकतंत्र में व्यक्ति रोजगार की तलाश में फिरता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र रोजगार व्यक्ति को खोजता है- राजनैतिक लोकतंत्र में रोजगार व्यक्ति की निजी समस्या बनकर रहती है। इसलिए व्यक्ति को रोजगार की खुद ही तलाश करनी होती है। इसके लिए लोगों को दर-दर की ठोकरें भी खानी पड़ती है। जबकि आर्थिक लोकतंत्र में रोजगार देना समाज की जिम्मेदारी है इसलिए व्यक्ति को रोजगार के लिए घूमना नहीं पड़ता है। आर्थिक लोकतंत्र व्यक्ति को ढूंढकर रोजगार व्यवस्था डें समाहित कर लेता है। सरल शब्दों में कहा जाय तो आर्थिक लोकतंत्र में बेरोजगारी की समस्या नहीं रहती है।
(8) राजनैतिक लोकतंत्र में व्यक्ति मंहगाई की मार सहता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में महंगाई का उन्मूलन होता है- एक उक्ति है कि महंगाई गरीब के लिए डायन है और अमीर के लिए मंहगाई कोई समस्या नहीं है। राजनैतिक लोकतंत्र में व्यक्ति की प्रतिव्यक्ति आय दोषपूर्ण पैमाने से मापा जाता है, इसलिए सुरसा के मुंह की तरह फैलती गरीबी की समस्या का समाधान नहीं होता है। जहाँ गरीब रहेंगे वहाँ मंहगाई की मार सहनी पड़ेगी जबकि आर्थिक लोकतंत्र में क्रयशक्ति मूल अधिकार के रूप में मिलती है। इसलिए मंहगाई कितनी प्रबल बनकर क्यों न आये व्यक्ति को हिला नहीं सकती है। सामान्य शब्दों में कहा जा सकता है कि आर्थिक लोकतंत्र में मंहगाई शब्द का उन्मूलन हो जाता है।
(9) राजनैतिक लोकतंत्र में गुणी व्यवसायी बनता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में गुणी समाज सेवक बनता है- राजनैतिक लोकतंत्र में गुणी जन के आदर की कोई व्यवस्था नहीं होती है इसलिए गुणी अपने विशेष गुणों का उपयोग एक व्यवसायी बनकर अपनी सेवाओं का व्यापार करके करता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में गुणी के सामाजिक एवं आर्थिक सम्मान की पर्याप्त व्यवस्था है इसलिए उसे व्यवसायी नहीं बनना पड़ता है। वह इस सुन्दर व्यवस्था को देखकर स्वत: ही अधिक से अधिक समाज सेवा करने लग जाता है। अतः हम कह सकते हैं कि आर्थिक लोकतंत्र गुणी व्यक्ति को समाज सेवक बनाने की सुन्दर कला है। सरल शब्दों में आर्थिक लोकतंत्र में चिकित्सा एवं शिक्षा जैसी बुनियादी सेवाएं कभी भी पेशा बनकर या शोषण का जरिया नहीं रहता है।
(10) राजनैतिक लोकतंत्र में कालाबाजारी पनपती है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में इसका उन्मूलन होता है- राजनैतिक लोकतंत्र में व्यक्ति के धन संचयन की प्रवृत्ति पर समाज की कोई लगाम नहीं होती है इसलिए व्यक्ति दुनिया से छिपाकर कालाधन बनाता रहता है। जहाँ काला धन बनता रहेगा वहाँ कालाबाजारी भी बढ़ती रहेगी। जबकि आर्थिक लोकतंत्र समाज के आदेश के बिना धन संचय अकर्तव्य मानता है। इसलिए यहाँ न काला धन रहता है तथा न ही कालाबाजारी रहती है। इस व्यवस्था में कोई आयकर होता ही नहीं है इसलिए आर्थिक लोकतंत्र में काला शब्द ही नहीं रहता है।
(11) राजनैतिक लोकतंत्र में समाज का मानक स्तर बेलगाम रहता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में समाज का मानक स्तर युग के अनुसार होता है- -- उत्तरोत्तर सामाजिक प्रगति समाज के जीवित रहने का प्रमाण है। इसलिए मानक स्तर उस युग के अनुसार होना चाहिए। राजनैतिक लोकतंत्र में इससे समाज का कोई संबंध नहीं होने के कारण व्यक्ति की इच्छा के अनुसार उठता बैठता है। कहीं यह युग बहुत आगे बढ़ जाता है तो कहीं यह युग से बहुत पीछे छूट जाता है। लेकिन आर्थिक लोकतंत्र में ऐसा नहीं होता है। समाज का न्यूनतम एवं अधिकतम मानक पैमाना युग के अनुसार ही रहता है।
(12) राजनैतिक लोकतंत्र में उपयोग तत्व रुग्ण होता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में उपयोग तत्व प्रगतिशील होता है- आर्थिक लोकतंत्र में विवेकपूर्ण वितरण, चरमोत्कर्ष, चरमोपयोग, उपयोग में सुसंतुलन व परिवर्तन जैसे गुणों का समावेश होता है जबकि राजनैतिक लोकतंत्र में यह पाठ्यक्रम के बाहर के प्रश्न हैं। इसलिए राजनैतिक लोकतंत्र में सदैव उपयोग तत्व रुग्ण ही रहता है, कोई न कोई दोष सदैव रहता ही है। जबकि आर्थिक लोकतंत्र में उपयोग तत्व प्रगतिशील होता है। विवेकपूर्ण वितरण एवं देश, काल एवं पात्र के अनुसार उपयोगिता में परिवर्तनशीलता उपयोग तत्व को न केवल अस्वस्थ नहीं होने देते अपितु सदैव प्रगतिशील रखती है।
(13) राजनैतिक लोकतंत्र में समाज की गति प्रकृति धर्म के अनुकूल प्रतिकूल होती रहती है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में समाज की गति सदैव प्रकृति के धर्म के अनुकूल ही रहती है- इस सृष्टि में प्रकृति का एक धर्म वैचित्र्यम् है। जिसके कारण यह सुन्दर दुनिया अस्तित्व में है। राजनैतिक लोकतंत्र में यह अनियंत्रित रहने के कारण कभी अनुकूल तो कभी प्रतिकूल चलती रहती है। जबकि आर्थिक लोकतंत्र में व्यक्ति गरिमा सदैव सुरक्षित रहती है इसलिए प्रकृति के धर्म के अनुसार ही सामाजिक आर्थिक प्रतिमान रहते हैं। राजनैतिक लोकतंत्र इसको समझ ही नहीं पाता है क्योंकि वह मात्र व्यक्ति की राजनैतिक गरिमा बचाने का वचन ही देता है। व्यक्ति की सामाजिक एवं आर्थिक गरिमा से उसका कोई लेना देना ही नहीं है।
(14) राजनैतिक लोकतंत्र समाज चक्र नहीं समझ पाता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र समाज चक्र पर मजबूत समझ रखता है- राजनैतिक लोकतंत्र में समाज चक्र तथा चक्र की गतिधारा के प्रति कोई सुव्यवस्थित समझ नहीं होती है। वह इसे दार्शनिकों की सोच बताकर उदासीन रहता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र समाज चक्र एवं उसकी गतिधारा को समझकर सदैव किसी भी स्थिति के लिए तैयार रहता है। अतः आर्थिक लोकतंत्र में क्रांतियाँ, विप्लव, विक्रांति तथा प्रति विप्लव अव्यवस्था नहीं ला सकते हैं जबकि राजनैतिक लोकतंत्र इन सबसे अधिक प्रभावित होता है तथा इन सबसे वह सदैव भयाक्रांत रहता है। आर्थिक लोकतंत्र इससे नहीं डरता है।
(15) राजनैतिक लोकतंत्र में मनुष्य का आध्यात्मिक मूल्य नहीं समझा जाता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र इसको समझना ही होता है- राजनैतिक लोकतंत्र कानून की दृष्टि से सोचता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र समाज की दृष्टि से सोचता है इसलिए व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों से परिचित रहता है। राजनैतिक लोकतंत्र व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक शक्ति समझ सकता है जबकि आध्यात्मिक शक्ति की भूमिका तय करने में चूक जाता है।
(16) राजनैतिक लोकतंत्र में नागरिक की लक्ष्य विहीन गति है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में मनुष्य आनन्द मार्ग पर चलता है- राजनैतिक लोकतंत्र में व्यक्ति को सम्पूर्ण स्वच्छंदता दी गयी है। इसलिए इसकी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं अन्य गतिधारा से कोई संबंध नहीं है। मात्र सामाजिक अनुशासन बनाये रखने का कार्य किया जाता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में मनुष्य के सभी क्षेत्रों की गतिधारा पर नजर रखी जाती है तथा उसका जीवन आनन्द से भर जाए इसकी कोशिश की जाती। अतः कह सकते हैं कि आर्थिक लोकतंत्र मनुष्य को आनन्द मार्ग पर ले चलता है।
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[श्री] आनन्द किरण "देव"
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