तिथि एवं तिथिकरण (Date and Dating)

आज विषय मिला है, तिथि एवं तिथिकरण। जिसका आध्यात्म से कोई मतलब नहीं लेकिन यह ज्योतिष शास्त्र का विषय है। मुझे ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान नहीं है। लेकिन चेष्टा करता हूँ कि इस विषय पर कुछ तो लिखूँ, क्योंकि मैं किसी की आशा को तोड़ नहीं सकता हूँ। मैं कोशिश करूँगा की इस विषय चमत्कार एवं रहस्य लोक में नहीं ले जाऊँ, फिर भी यह विषय उस ओर मुड़ जाता है तो एक संयोग मात्र है। तो चलो बिना किसी विलंब के विषय की ओर मुड़ जाते हैं। 


वस्तुतः दोनों अलग है लेकिन शाब्दिक दृष्टि से दोनों दिन के लिए प्रकट होती है। तिथि शब्द का प्रयोग भारतीय पंचाग के दिवस के लिए होता है जबकि दिनांक का प्रयोग अंग्रेजी पंचाग के होता है। भारतीय पंचाग चन्द्रमा की गति विज्ञान पर चलता है जबकि अंग्रेजी पंचाग सूर्य की गति पर। अतः दोनों को साथ लेकर तिथि एवं दिनांक को तो समझा जा सकता है लेकिन तिथिकरण को समझना क्लिष्ट है। अतः हम अंग्रेजी पंचाग पर चर्चा किये बिना ही विषय को आगे लेकर चलेंगे। 


अब हम मूल विषय पर आ गए हैं। भारतीय पंचाग में तिथि का निर्धारण का मूलाधार चन्द्रकला है। यह कलाएँ घटती बढ़ती रहती है। अतः तिथि का समय एकसा नहीं रहता है। इसलिए तिथिकरण की आवश्यकता होती है। कौनसे दिन को कौनसी तिथि रहेगी इसी को तिथिकरण नाम दिया गया है। तिथिकरण का शाब्दिक अर्थ तिथि का निर्धारण है। इतिहास में किसी घटना अथवा तथ्य का समय निर्धारण तिथिकरण कहलाता है। यहाँ इतिहास हमारा विषय नहीं होने के कारण तिथिकरण का ऐतिहासिक अर्थ नहीं लेंगे। 


भारतवर्ष तिथिकरण का एक सिद्धांत लिया गया था कि जिस तिथि में सूर्य उदय होगा, वह दिन उस तिथि के नाम से जाना जाएगा। इसलिए कोई तिथि टूट जाती है तथा कोई तिथि दो हो जाती है। लेकिन वस्तुतः कोई तिथि न तो टूटती है तथा न ही दो होती है। वास्तव में तिथि काल के गर्भ में चलती है। इसको साधारण भाषा में घड़ी में तिथि कहते हैं। किसी तिथि का समय चौबीस घंटे से कम होने पर संयोगवश उस तिथि में कोई सूर्य उदय नहीं होने के कारण तिथि गणना में इसको लुप्त मान लिया जाता है। ठीक इसीप्रकार किसी तिथि का समय चौबीस घंटे से अधिक होने पर एक ही तिथि में कभी कभी दो सूर्य उदय हो जाते हैं। इसलिए उस दोनों दिनों का नामकरण उसी तिथि के आधार पर कर दिया जाता है। यह तो तिथिकरण का सिद्धांत समझा। लेकिन यहाँ तिथिकरण विज्ञान समझना भी आवश्यक है। 


आधुनिक युग के महान ज्योतिष ज्ञाता एवं महान आध्यात्मिक पुरुष श्री प्रभात रंजन सरकार ने तिथिकरण के इस सिद्धांत को त्रुटि पूर्ण बताया तथा तिथिकरण का एक विज्ञान ढूंढ लिया। आओ इस सरलतम विज्ञान को समझते हैं - श्री सरकार ने बताया कि एक दिन अर्थात एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय के मध्य जिस दिन में तिथि के कुल समय का अधिकांश समयांश रहता है। उस दिन वह तिथि को मानना चाहिए‌। जैसे एक तीन 26 घंटे की है तो 13.0^1 से अधिक जो भी समय अवधि जिस दिन है। वह उस दिन उस तिथि के नाम से जाना जाएगा। ठीक उसी प्रकार 19 घंटे की तिथि में 9.50^1 से अधिक का समय जिस दिन में वह उस तिथि में माना जाएगा। श्री प्रभात रंजन सरकार ने तिथि में सूर्य उदय के सिद्धांत के स्थान पर अधिकतम समय का विज्ञान दिया है। जो एकदम व्यवहारिक है। सूर्य उदय के सिद्धांत में सबसे बड़ा दोष सूर्य उदय के एक सैकंड बाद भी यदि तिथि बदल जाती है तो उस दिन परवर्ती तिथि का प्रभाव होने पर भी पूर्ववर्ती तिथि का भार लेकर चलना होता है। श्री सरकार का सुझाव लेने पर तिथिकरण का विज्ञान यथार्थ बन जाता है। 

तिथि का निर्धारण - ज्योतिष शास्त्र में तिथि की गणना करने का सूत्र = {(चंद्र देशांतर - सौर देशांतर)+360} / 12 
उदाहरण यदि चन्द्र देशांतर 287.858 है तथा सौर देशांतर 333.364 है तो तिथि निर्धारण
{(287.858 -333.364) +360}/12
 = {- 45.779 + 360} / 12
= 314.221÷12
 = 26.185
चूंकि 15 से बड़ा अंक है। अतः कृष्ण पक्ष है। 
तिथि = 26.185 - 15 
= 11.185
पूर्णांक 11 है अर्थात कृष्ण पक्ष की एकादशी लगभग 19 घंटे की होगी। 

तिथि का प्रभाव - चन्द्र एवं सौर की दशा से तिथि का सीधा संबंध है। अतः इसका प्रभाव पृथ्वी पर पड़ना निश्चित है। यह प्रभाव किसी क्षण किसी स्थान विशेष पर विशेष दिखाई देने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। आरंभिक ज्योतिष शास्त्र इसकी गणना कर पृथ्वी, शरीर एवं समाज को चलाने के लिए बनाया गया था। कालांतर में ज्योतिष शास्त्र ने उन्नति की तथा नक्षत्र तथा राशि के प्रभाव को भी विश्लेषित कर दिया। जिससे ज्योतिष शास्त्र और अधिक जटिल बन गया। हम तिथि एवं समय प्रभाव को देखकर खाद्य, आदत एवं व्यवहार में सुधार कर तिथि का प्रभाव जीया जा सकता है। उदाहरणार्थ एकादशी, पूर्णिमा एवं अमावस्या को उपवास रखकर भौतिक कर्म न्यूनतम तथा आध्यात्मिक कर्म अधिकतम कर इसके प्रभाव को सफलतम जीया जा सकता है। 

तिथि एवं सकारात्मक ऊर्जा - आध्यात्मिक जगत का यात्री नकारात्मक ऊर्जा को भी सकारात्मक ऊर्जा में बदलने की कला में दक्ष होता है तथा सकारात्मक ऊर्जा का सदुपयोग भक्त से अधिक कोई नहीं कर सकता है। अतः तिथि के सकारात्मक एवं नकारात्मक परिणाम भक्त को सदैव सकारात्मक ऊर्जा का भंडार ही दे सकता है। आध्यात्मिक यात्री के लिए एक समय तो कोई भी भौतिक व मानसिक प्रभाव विचलित नहीं कर सकता है। अतः भक्त बनना अथवा भक्ति मार्ग पर चलना सबसे सफलतम जीवन का एक लक्षण हैं। सदैव प्रफुल्लित रहना ईश्वर की सर्वोत्तम भक्ति बताई गई है। यही मनुष्य का आनन्द मार्ग है। आनन्द मार्ग मनुष्य शारीरिक, (पर्यावरण संचेतना,सामाजिक व आर्थिक), मानसिक (सांस्कृतिक, मनोरंजनात्मक व बौद्धिक) एवं आध्यात्मिक जीवन को व्यवहारिक एवं प्रगतिशील बनाकर आनन्दमय जीवन शैली सिखाता है तथा आनन्द की प्राप्ति करता है।  

आओ आनन्द मार्ग के आदर्श को जीवन का अंग बनाते तथा सभी प्रकार चिन्ताओं से मुक्त होकर जीवन लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। 
ॐ मधु ॐ मधु ॐ मधु
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