"योग्य एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति जब विवश हो जाए, तो समझना चाहिए कि संकट उस देश, समाज अथवा संस्था के आसपास ही मंडरा रहा है।" यह कथन अपने आप में एक गहन सत्य को समेटे हुए है। किसी भी राष्ट्र, समाज या संस्था की उन्नति और स्थिरता उसके गुणवान, चरित्रवान और योग्य व्यक्तियों पर निर्भर करती है। जब ऐसे लोग अपनी योग्यता और क्षमता का सही उपयोग नहीं कर पाते, जब उनके विचारों और योगदान को महत्व नहीं दिया जाता, और जब उन्हें परिस्थितिजन्य दबावों के कारण अपनी राह बदलनी पड़ती है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उस व्यवस्था की नींव हिल रही है। यह स्थिति न केवल व्यक्ति के लिए निराशाजनक होती है, बल्कि यह पूरे तंत्र के लिए घातक सिद्ध होती है।
प्राचीन भारतीय दर्शन में इस बात को बड़े विस्तार से समझाया गया है। चाणक्य ने अपने नीतिशास्त्र में कहा है कि किसी भी राज्य की समृद्धि उसके सुयोग्य मंत्रियों और बुद्धिमान नागरिकों पर निर्भर करती है। यदि राजा अयोग्य है या योग्य लोगों की उपेक्षा करता है, तो राज्य का पतन निश्चित है। इसी तरह, महाभारत में भीष्म पितामह ने धर्म और न्याय के ह्रास को राज्य के पतन का कारण बताया है। योग्य व्यक्तियों का सम्मान और उनकी भागीदारी एक स्वस्थ समाज का लक्षण है।
> यत्र विद्वज्जनो यत्नाद् गुणवांसम् न शोभते।
> तत्र दोषो महान् भवति, न तस्य स्थानं शोभते।
अर्थात्, जहाँ विद्वान् और गुणवान व्यक्ति को यत्न करने पर भी सम्मान नहीं मिलता, वहाँ यह एक महान दोष होता है और वह स्थान शोभा नहीं देता। यह श्लोक सीधे तौर पर योग्य व्यक्ति की उपेक्षा के परिणामों को दर्शाता है।
इसी प्रकार, यह भी कहा गया है:
> न स सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः, वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
> नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति, न तत्सत्यं यच्छलेनाभ्युपेतम्।।
इसका तात्पर्य है कि वह सभा, सभा नहीं है जहाँ वृद्ध (अनुभवी) नहीं हैं; वे वृद्ध नहीं हैं जो धर्म की बात नहीं करते; वह धर्म नहीं है जिसमें सत्य नहीं है; और वह सत्य नहीं है जो छल से मिला हो। योग्य व्यक्तियों की विवशता का सीधा संबंध इस सत्य से है कि जब उन्हें अपनी बात कहने और धर्म (कर्तव्य) का पालन करने से रोका जाता है, तो उस समाज का नैतिक पतन शुरू हो जाता है।
जब हम आधुनिक संदर्भ में इस विषय पर विचार करते हैं, तो पाते हैं कि यह बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। एक कंपनी में, जब एक प्रतिभाशाली इंजीनियर को उसकी विशेषज्ञता के बजाय चाटुकारिता के कारण आगे बढ़ने दिया जाता, तो वह अपनी क्षमताओं को पूर्ण रूप से उपयोग नहीं कर पाता। इससे वह निराश होकर या तो कंपनी छोड़ देता है या उसकी उत्पादकता घट जाती है। इसका परिणाम कंपनी के लिए नुकसान होता है। इसी तरह, राजनीति में जब ईमानदार और योग्य नेताओं को गुंडागर्दी और भ्रष्टाचार के कारण पीछे हटना पड़ता है, तो लोकतंत्र कमजोर होता है। यह एक ऐसा दुष्चक्र है, जहाँ अयोग्य लोग सत्ता में आ जाते हैं और योग्य लोगों के लिए कोई स्थान नहीं बचता।
> योग्य पुरुष का मान जहाँ, घटत रहे दिन-रात।
> समझो उस समाज का, होने वाला घात।।
यह दोहा सीधे-सीधे चेतावनी देता है कि योग्य व्यक्तियों के सम्मान में कमी समाज के पतन का कारण बनती है।
एक और दोहा इस पर प्रकाश डालता है:
> गुनियन को गुन देख के, अज्ञानी गर हँसे।
> पतन उसका निश्चित है, काल शीघ्र ही कसे।।
अर्थात्, जब अज्ञानी लोग गुणवान व्यक्तियों का उपहास करते हैं, तो उनका पतन निश्चित है। यह एक प्राकृतिक नियम है।
योग्य व्यक्तियों की विवशता के कई कारण हो सकते हैं। इनमें पक्षपात, भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार, और योग्यता के बजाय चाटुकारिता को महत्व देना प्रमुख हैं। जब किसी संस्था में काम के बजाय चाटू लोगों की जय-जयकार होती है, तो यह योग्य लोगों के मन में कुंठा पैदा करती है। वे देखते हैं कि उनकी मेहनत और ईमानदारी का कोई मूल्य नहीं है, जबकि अयोग्य व्यक्ति केवल संबंधों के बल पर आगे बढ़ रहा है। इस स्थिति को देखकर उनका मनोबल टूट जाता है और वे या तो मुखौटा पहनकर रहना सीख लेते हैं या अपनी योग्यता को दबाकर बैठ जाते हैं।
जब एक योग्य व्यक्ति को लगता है कि उसकी दाल नहीं गल रही, तो वह हाथ-पाँव छोड़ देता है। यह स्थिति उस समय आती है जब उसकी सारी मेहनत पानी में चली जाती है। एक कहावत है, "कोयला होए न उजला, सौ मन साबुन धोए", जिसका अर्थ है कि अयोग्य व्यक्ति को चाहे कितना भी मौका दिया जाए, वह अपनी प्रकृति नहीं बदलता, जबकि योग्य व्यक्ति की अनदेखी समाज के लिए घातक होती है।
प्रसिद्ध ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था:
> "The nation that forgets its defenders will itself be forgotten."
यद्यपि यह कथन सैनिकों के संदर्भ में कहा गया था, इसका व्यापक अर्थ यह है कि जो समाज अपने योग्य और समर्पित लोगों की अनदेखी करता है, वह खुद इतिहास के पन्नों से मिट जाता है।
एक और उद्धरण है:
> "A society that does not respect its wise men, is a society that has no wisdom."
यह कथन स्पष्ट रूप से बताता है कि जिस समाज में बुद्धिमान व्यक्तियों का सम्मान नहीं होता, वह समाज स्वयं बुद्धिहीन हो जाता है। जब योग्य व्यक्ति मजबूर होते हैं, तो वे अपनी प्रतिभा को या तो छिपाने के लिए मजबूर होते हैं या ऐसी जगह चले जाते हैं जहाँ उनकी कद्र हो। इसे "ब्रेन ड्रेन" (brain drain) भी कहा जाता है, जहाँ योग्य लोग अपने देश, समाज या संस्था को छोड़कर चले जाते हैं। यह स्थिति उस देश के लिए अत्यधिक हानिकारक होती है।
निष्कर्ष में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि किसी भी समाज, देश या संस्था की सच्ची प्रगति तब तक नहीं हो सकती जब तक वह अपने योग्य और प्रतिष्ठित व्यक्तियों का सम्मान नहीं करती और उन्हें उनकी क्षमताओं के अनुसार कार्य करने का अवसर नहीं देती। जब ऐसे लोग विवशता की बेड़ियों में जकड़ जाते हैं, तो यह अंधेरे की आहट होती है। यह एक अलार्म की तरह है जो हमें यह बताता है कि यदि हमने समय रहते इन कारणों को दूर नहीं किया, तो पतन निश्चित है। इसलिए, यह हमारा सामूहिक कर्तव्य है कि हम ऐसी व्यवस्था का निर्माण करें जहाँ योग्यता की कद्र हो, जहाँ सम्मान कार्य से मिले न कि चाटुकारिता से, और जहाँ हर योग्य व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के आगे बढ़ने का मौका मिले। तभी हम एक स्वस्थ, समृद्ध और प्रगतिशील समाज का निर्माण कर सकते हैं।
यह आवश्यक है कि हम इस बात को समझें कि योग्य व्यक्ति की विवशता मात्र उसकी व्यक्तिगत समस्या नहीं, बल्कि यह पूरे समाज की नाकामी है। यह एक ऐसी बीमारी है जिसका यदि समय पर इलाज न किया जाए तो यह पूरे शरीर को खोखला कर देती है। हमें अपनी संस्थाओं और समाज में ऐसी संस्कृति को बढ़ावा देना चाहिए जहाँ गुणों की पूजा हो, न कि पदों की।
प्रस्तुति : आनन्द किरण
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