*आनन्द मार्ग*
आनन्द मार्ग, एक पथ निराला,
जहाँ आत्मा का दीप उजियारा।
ना कोई द्वेष, ना कोई संताप,
बस प्रेम की गंगा बहे हर आप।
गुरु का आशीष, वो पावन धारा,
दूर करे मन का हर अँधियारा।
ध्यान की गहराई, मंत्रों का नाद,
जीवन में लाए नव संवाद।
सेवा, त्याग, और साधना,
यही तो है सच्ची दिव्यता।
हर प्राणी में देखो ईश्वर का रूप,
मिट जाए जग का हर दुख-कूप।
नृत्य और गीत में खो जाओ ऐसे,
जैसे लहरें मिलें सागर जैसे।
बाबा की गोद में, ध्यान मगन,
पा लो जीवन का सच्चा लगन।
आनन्द मार्ग, जीवन का सार,
जहाँ मिलती है मुक्ति अपार।
चलो इस पथ पर, निश्चिंत मन से,
भर लो जीवन को परम आनन्द से।
आनंद मार्ग, पथ ये निराला,
प्रेम, सेवा का है उजियाला।
बाबा का इसमें ज्ञान समाया,
जीवन को जिसने रोशन बनाया।
ध्यान की गहराई, मन को भाये,
चेतना ऊँची उठती जाए।
साधना,सेवा परमो धर्म है यहाँ,
सबके लिए हो आनन्द का जहाँ।
कर्मयोग का पाठ सिखाए,
निष्काम भाव से जो काम कराए।
नृत्य की शक्ति, कीर्तन का नाद,
हर कण में गूँजे बाबानाम का संवाद।
समाज सुधार का भी संकल्प,
न्याय, समानता, नहीं कोई विकल्प।
आत्मा का परमात्मा से मिलन,
यही है आनंद मार्ग का सृजन।
हर साँस में बाबा का नाम,
शांति मिले, हो पूर्ण विराम।
जीवन का हर क्षण हो पावन,
आनंद मार्ग, सच्चा यह सावन।
*प्रस्तुति - आनन्द किरण*
[20/07, 5:09 pm] Karan Singh:
शिक्षा का दीपक जब जलता, ज्ञान का प्रकाश तब फैलता।
पुस्तक के पन्ने जब खुलते, अक्षर अक्षर नए अर्थ घड़ते।
गणित के सूत्र, विज्ञान के नियम, इतिहास के पाठ, जीवन के उद्यम।
सब कुछ सीखते, सब कुछ पढ़ते, ऊँचे शिखर हम चढ़ते।
पर क्या ये ही है पूरा ज्ञान?
क्या बस किताबों का अभिमान?
मनुष्य जब खुद को ना जाने, आत्मा का रहस्य ना पहचाने।
प्रेम, करुणा, शांति और धैर्य, क्या ये भी मिलते बस किताबों से?
संस्कार, नैतिकता, अच्छे विचार,
क्या बस डिग्री से होते साकार?
शिक्षा अधूरी, जो मन को ना मोड़े,
आत्मा के दर्पण को जो ना खोले।
डिग्री लेकर भी मन भटकेगा,
सच्ची राह से तब हटकेगा।
आध्यात्म है वो नींव गहरी,
जिस पर शिक्षा खड़ी है सुनहरी।
जब मन में हो शांति का वास,
तभी ज्ञान का होता सही विकास।
जब भीतर हो निर्मलता का तेज,
तब ही जग में फैले सच्चा संदेश।
संवेदनशीलता जो ना जगाई,
ऐसी शिक्षा फिर क्या काम आई?
इसीलिए कहते हैं ज्ञानी जन,
आध्यात्म बिन शिक्षा अधूरी है मन।
एक देह को देता है पोषण,
दूजा आत्मा का करे शोधन।
दोनों मिलें तो जीवन हो धन्य,
मानव बने सच्चा और वन्य।
*प्रस्तुति - करण सिंह शिवतलाव*
[21/07, 4:44 pm] Karan Singh
हाँ, नव्य मानवतावादी शिक्षा की है ज़रूरत आज,
जहाँ ज्ञान सिर्फ़ किताबी ना हो, हो जीवन का राज।
इंसानियत की सीख मिले, नैतिक मूल्यों का हो संचार,
सिर्फ़ डिग्री नहीं, चरित्र बने, मानवता का आधार।
विज्ञान-तकनीक बढ़े, पर मन में दया का वास रहे,
बुद्धि तीव्र हो, पर हृदय में करुणा का आभास रहे।
सिर्फ़ पैसे की दौड़ नहीं, सेवा का भी हो ध्येय महान,
हर व्यक्ति समझे अपना कर्तव्य, बने सच्चा इंसान।
भेदभाव मिटें, समता फैले, हर कोई सम्मान पाए,
नारी-पुरुष का भेद ना हो, हर बच्चा मुस्कुराए।
पर्यावरण का ध्यान रखें, प्रकृति से हो गहरा नाता,
जीव-जंतु से प्रेम करें, यह धरती अपनी माता।
आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाए, स्वाभिमान की लौ जगाए,
विश्व संस्कृति को समझे, दूसरों का भी मान बढ़ाए।
सिर्फ़ सूचनाओं का ढेर नहीं, चिंतन का हो विकास,
प्रश्नों से घबराए नहीं, सत्य की हो हर पल तलाश।
हाँ, नव्य मानवतावादी शिक्षा की है ज़रूरत आज,
जो दे जीवन को नया अर्थ, और समाज को नया ताज।
ज्ञान, कर्म और भक्ति का हो जहाँ अनुपम संगम,
वही शिक्षा है जो लाएगी, एक सुनहरा नया युग।
*प्रस्तुति - [श्री] आनन्द किरण "देव"*
[23/07, 6:22 pm] Karan Singh:
आज के युग की यह कैसी है रीति?
शिक्षा बनी बस नौकरी की प्रीति।
पुस्तक का ज्ञान, अंक का भार,
भविष्य का भय, सपनों का प्रहार।
ये आधुनिक शिक्षा की है पहचान,
दौड़ो, जीतो, बनो महान।
डिग्री का मेला, पैकेज की होड़,
इंसानियत कहीं लेती है मोड़।
पर एक पुकार है पुरानी,
नव्य मानवतावाद की कहानी।
जहाँ ज्ञान नहीं, जीवन है लक्ष्य,
जहाँ हर बालक, एक अदृश्य वृक्ष।
संस्कारों से सींचा जाए,
दया, प्रेम, सहिष्णुता पाए।
आत्मा का विकास, मन की शांति,
नैतिक मूल्यों की हो कांति।
व्यवसाय, चरित्र बने आधार,
विवेक की ज्योति हो हर पार।
स्वतंत्र चिंतन, सृजन का भाव,
समाज के प्रति हो सद्भाव।
मनुष्य बने सच्चा इंसान,
यही नव्य मानवता का गान।
एक सिखाए दौड़े जाना,
दूजा सिखाए ठहर के निभाना।
एक कहता 'बाजार तुम्हारा',
दूजा कहता 'आत्मा संवारो प्यारा'।
क्या चुनें हम, यह है प्रश्न महान,
नव्य मानवतावाद या आधुनिकता का भान?
चलो करें कुछ ऐसा प्रयास,
जहाँ हो ज्ञान और मानवता का वास।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[23/07, 10:33 pm] Karan Singh:
न पलायन, न वैरागी वन का पथ,
आध्यात्मिक होना, नहीं है विरक्ति का रथ।
यह तो भीतर का जागरण है गहरा,
जिम्मेदारी का एहसास, हर पल ठहरा।।
न त्यागना संसार, न दायित्व से दूर भागना,
कर्मभूमि में रहकर, स्वयं को साधना।
हर रिश्ते में कर्तव्य, हरेक में अपनत्व का बोध,
सेवा में ही निहित, जीवन का शोध।।
दुख में भी धीरज, सुख में विनम्रता,
अन्याय के आगे, सच्ची दृढ़ता।
यह नहीं कि आंखें मूंद ली जाएं,
बल्कि हर सत्य को, स्वीकार कर पाएं।।
अपने भीतर की शक्ति को पहचानना,
और जग हित में उसको लगाना।
हर जीव से जुड़ना, हर कण में ईश,
यही है आध्यात्म, नहीं कोई क्लेश।।
तो उठो, जागो, कर्तव्य निभाओ,
आध्यात्मिक जीवन को, यूँ ही सजाओ।
पलायन नहीं यह, नव-जीवन का सार,
जिम्मेदारी ही इसका, सच्चा है आधार।।
*प्रस्तुति - आनन्द किरण*
[24/07, 1:23 pm] Karan Singh:
शांत चित्त, स्थिर मन, खोजे जो भीतर सार,
आनन्द मार्ग का पथ, खोले मुक्ति का द्वार।
प्रेम सेवा का दीपक, जले हर प्राणी के हित,
करुणा की बहे धारा, हर कण हो पुलकित।।
योग साधना की शक्ति, जाग्रत करे सुप्त ज्ञान,
अज्ञान तिमिर मिटाए, जागे आत्म-पहचान।
प्रकृति से हो एकाकार, ब्रह्मांड का अंश तू,
परमात्मा में विलीन हो, मिटे हर द्वंद्व का रुजू।।
दुःख-सुख से परे, परम आनन्द का वास,
आनन्द मार्ग पर चल, जीवन हो प्रकाश।।
[24/07, 5:49 pm] Karan Singh:
हर कण में, हर अणु में,
एक नई दिशा का गीत है।
प्रउत का ये मंत्र है,
प्रगति की ये रीत है।।
जो सदियों से सोया था,
आज उसे जगाना है।
संसाधनों के सदुपयोग से,
नवयुग हमें बनाना है।।
भूख, गरीबी, अशिक्षा,
मिटाकर आगे बढ़ना है।
हर हाथ को काम मिले,
ऐसा समाज गढ़ना है।।
प्रकृति का भी ध्यान रखें,
संतुलन ना खोने पाए।
आज की ज़रूरतें पूरी हों,
कल का भविष्य मुस्काए।।
प्रउत का ये संकल्प है,
सबका साथ निभाना है।
ज्ञान, विज्ञान और श्रम से,
समाज को शिखर पे लाना है।।
*प्रस्तुति - आनन्द किरण*
[25/07, 3:37 pm] Karan Singh:
*प्रउत प्रउत प्रउत*
जहाँ श्रम को मिले सम्मान,
और हर हाथ को काम महान।
प्रउत का है यही विधान,
शत-प्रतिशत रोजगार का गान।।
नहीं कोई रहे बेरोज़गार,
हर नर-नारी का हो सरोकार।
उत्पादन हो भरपूर, अपार,
सुखी जीवन का हो विस्तार।।
शक्ति का हो विकेंद्रीकरण,
न हो शोषण, न हो उत्पीड़न।
स्थानीय उद्यम का हो सृजन,
आत्मनिर्भरता का हो सर्जन।।
आवश्यकता हो मूल आधार,
न कि केवल लाभ का व्यापार।
पूँजीवाद का हो संहार,
समृद्धि का हो नया संचार।।
न्यूनतम की मिले गारंटी,
अधिकतम पर हो पाबंदी।
आय वितरण हो न्यायसंगती,
मानवता की हो यही प्रगती।
तो उठो, चलो, मिलकर करें,
प्रउत का सपना साकार करें।
शत-प्रतिशत रोजगार का मार्ग प्रशस्त करें,
एक आदर्शवादी समाज हम तैयार करें।।
*प्रस्तुति - आनन्द किरण*
[25/07, 6:11 pm] Karan Singh:
विस्तृत गगन में, जहाँ तारे झिलमिलाते,
महाविश्व की गाथा, अनंत में गाते।
अगणित ब्रह्मांडों का यह अद्भुत संगम,
हर कण में जीवन, हर दिशा में शुभम्।।
नव्य मानवतावाद का हो अब उद्घोष,
मानव मन में जागे नव चेतना का जोश।
संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठकर देखें,
एक दूजे में ही हम, अपनी पहचान देखें।।
टूटे न बंधन, न कोई दीवार रहे,
विश्व सरकार का स्वप्न अब साकार रहे।
हर राष्ट्र का हित, समष्टि में समाए,
न्याय और शांति का ध्वज लहराए।।
एक अखंड, अविभाज्य मानव समाज,
प्रेम और सौहार्द से बुना हर साज।
न रंग का भेद हो, न भाषा का हो रोष,
एक ही धारा में बहें, हर प्राण, हर कोष।।
जब क्षितिज पर उगेगा नव भोर का सूरज,
हर आत्मा में जागेगा नव ऊर्जा का सूरज।
महाविश्व की गोद में, मानवता का बसेरा,
यह कविता नहीं, यह है हमारा सवेरा।।
अंधेरा छँटेगा, अज्ञान का हर कोना,
ज्ञान की ज्योत से जगमगाएगा हर लोना।
वैज्ञानिक प्रगति का हो नव अध्याय,
ब्रह्मांड के रहस्यों को हम मिल सुलझाएं।।
प्रकृति से नाता, फिर से हो गहरा,
संरक्षण का भाव, मन में हो सुनहरा।
धरती माँ का हो, हम सब पर आशीर्वाद,
संतुलन में जीवन, यही हो संवाद।।
कला और संस्कृति का, फैले हर ओर प्रकाश,
विविधता में ही देखें, सुंदरता का आकाश।
हर धुन में गूंजे, विश्व बंधुत्व की वाणी,
मानवता की गाथा, बने एक अमर कहानी।।
भविष्य की ओर, हम कदम बढ़ाएं साथ,
हर चुनौती का करें, मिलकर सामना साथ।
महाविश्व में अपनी, पहचान बनाएं हम,
शाश्वत सुख की ओर, बढ़ते जाएं हम।।
*प्रस्तुति - आनन्द किरण*
[25/07, 10:15 pm] Karan Singh:
यम नियम, योग के पथ के,
पहलू हैं ये जीवन के।
मन को ये शुद्ध करें,
मन को शांत और स्थिर करें।।
अहिंसा पहला यम है,
जीना सबको, यही धर्म है।
मन, वाणी, कर्म से न सताना,
प्रेम से जग को महकाना।।
परहित की राह पर चलना,
झूठ से सदा दूर रहना।
वचन में हो सत्य बात,
जीवन में हो उजियाली रात।।
अस्तेय है चोरी न करना,
परधन को कभी न हरना।
संतोष से जीना हर पल,
लोभ से मुक्त हो अपना कल।।
ब्रह्मचर्य का है ये सार,
ब्रह्म में लगी मन की धार।
ब्रह्म में विचरण से जीवन सजाना,
जीवात्मा को अपने से जगाना।।
अपरिग्रह का है ये भाव,
संग्रह का न हो कोई अभाव।
जितना मिले, उसी में खुश रहना,
मुक्ति की राह पर बढ़ना।।
शौच से तन मन हो स्वच्छ,
पवित्रता से जीवन हो अचूक।
बाहर भीतर निर्मल हो,
शांति से हर पल हो।।
संतोष का है ये मंत्र,
जो मिला है, वो ही तंत्र।
शिकायत का न हो कोई नाम,
जीवन में हो सुखद आराम।।
तप से तन को कष्ट देना,
इच्छाओं को वश में लेना।
लक्ष्य की ओर अग्रसर होना,
जीवात्मा को अपने से संवारना।।
स्वाध्याय का है ये ज्ञान,
धर्मशास्त्रों का हो ये मान।
स्वयं को पहचानना हर पल,
अज्ञानता से हो जाए हलचल।।
ईश्वर प्रणिधान अंतिम है,
समर्पण का ये अनुपम प्रेम है।
हर कर्म प्रभु को अर्पित हो,
मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो।।
यम नियम, जीवन का आधार,
जो अपनाए, पाए सच्चा प्यार।
योग पथ पर जो आगे बढ़े,
मोक्ष की ओर वो निश्चय बढ़े।।
*प्रस्तुति : - आनन्द किरण*
[26/07, 4:37 pm] Karan Singh:
विकास रो मारग, प्रउत बतावे।
सबरो भलो, ईं मांय समावे।।
धरती माता, सबरी साझी।
संसाधन बाँटा, नीं कोई राजी।।
नूतन समाज, प्रेम सूं रचावा।
अत्याचार, सबां मिल'र मिटावा।
मिनख अर जीव, सबां एक समान।
प्रकृति सूं जुड़ो, राखो मान।।
पेड़-पौधा, नदियाँ, पहाड़।
सबां रो राखो, देवो निहाल।।
दया, करुणा, दिल मांय जगाओ।
मिनखपणा रो ध्वज फहराओ।।
छोटो-मोटो, नीं कीं भेद।
ज्ञान अर प्रेम, सूं मिटे खेद।।
आनंद मारग, साचो गेलो दिखावे,
आतम ज्ञान सूं, मोक्ष पावे।
ध्यान, योग, अर सेवा भाव,
ईश्वर भक्ति सूं, मिटे दुराव।।
प्रभु सूं जुड़ो, प्रेम सूं हर पल,
जीवन हो जावे, सुंदर, सफल।
नशा, जुआं, सबने छोड़ो,
सात्त्विक जीवन, सूं नातो जोड़ो।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[26/07, 5:35 pm] Karan Singh:
प्रउत प्रउत कर आगे चाळौ,
समृद्धि रो मारग खोलणो है।
मेहनत री धूरी माथे,
नित नवली फसल बोवणो है।।
धरती धोरारी अपनी,
कण-कण में है सोना।
जे करल्यो साचो प्रउत,
काई मुश्किल है खोणा?
अेक-अेक पगलो भरो,
सपना साचा होवण लागा।
मारवाड़ी रो रंग अजब,
जद प्रउत सूं भाग जागा।।
धन-धान्य री होवे रेलमपेल,
खुशहाली घर-घर आवे।
प्रउत री शक्ति अनमोल,
जद समाज मिल'र चावे।।
तो चालो साथै मिलकर,
नित नवा प्रउत करां।
मारवाड़ी समाज री शान,
दुनिया में ऊँची करां।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[26/07, 6:33 pm] Karan Singh:
शिवनगरी शिवतलाव में, इक प्यारा परिवार बसे,
पाँच भाई हैं वहाँ, प्रेम से सारे हँसें।
रगावत, ठाडावत, मनावत, सौसावत और सुरावत,
हर कोई अपनी जगह, निभाता अपनी रीत।।
रगावत पूर्व में रहते, महादेव उनके कुलदेव कहाएँ,
ठाडावत बीचोबीच, सावलाजी को सदा ध्याएँ।
मनावत उत्तर में, परथिया घणी को मानें,
पर बरोटिया उनके, चारभुजा ही चाहें।।
सौसावत दक्षिण दिशा में, वराह माता को पूजें,
कुछ उनके परथिया घणी को न मानें, ये बातें न भूलें।
सुरावत पश्चिम दिशा में, परथिया घणी ने वे धाएँ,
कुल की मर्यादा, हर भाई निभाएँ।।
दिशाओं में फैले, पर दिल से एक हैं,
शिवनगरी शिवतलाव में, मिलकर रहते नेक हैं।
संस्कृति और आस्था का, यह अनमोल बंधन,
पीढ़ियों तक चले, यह प्यारा जीवन।।
*प्रस्तुति - करण सिंह M शिवतलाव*
[26/07, 6:34 pm] Karan Singh:
शिवनगरी शिवतालव में एक प्यारो परिवार रेवे है,
बठै पांच भाई है, सगळा प्यार सूं हँसै है।
रागावत, थडावत, मानावत, सौसावत अर सूरावत,
हरेक री आपरी जगां है, आपरी परम्परा रो पालन करै है।।
पूरब में रागावत बसै, महादेव उणरा कुलदेव कैवै,
ठाडावत बिचाळै है, सदा सावलाजी नै धावै करै।
मानावत उत्तर रै मांय रैवै, परथिया घणी पूजै,
पण उणरी बारोटिया नै फगत च्यार भुजावां चावै।।
दक्खण में सौसावत बसै, वराह माता री पूजा करीजै,
केई तो उणरी परथिया घणी री पूजा करै, ये बातां भूल नीं जावै।
सूरावत पश्चिम रै मांय रैवै, परथिया घणी बठै रैवै।।
हर भाई को कुल की इज्जत बनाये रखनी चाहिये।
सगळी दिशावां मांय फैल जावो, पण दिल मांय एकजुट होवो।।
शिवनगरी शिवतालव में भलाई में मिलर जीवां हां।
संस्कृति अर आस्था रो ओ अनमोल बंधन,
यो प्यारो जीवन पीढियां तांई चालै।।
*प्रस्तुति - करण सिंह एम शिवतालव*
[27/07, 2:18 pm] Karan Singh: *
(*अस्तित्व से मोक्ष तक*)
मैं हूँ, ये बोध, ये महत्त का प्रकाश,
सत्ता का दर्पण, मेरा आत्म-आकाश।
विषयों से जुड़ा, पर निष्कर्म रहे,
बुद्धि का तत्व, जो मौन कहे।।
फिर अहं जागे, 'मैं कर्ता हूँ' ध्वनि,
कर्मों का लेखा, फल का धनी।
ये मेरी क्रिया, ये मेरा संबल,
अनुभवों का सागर, जीवन का पल।।
चित्त की माया, विषय से जुड़ती,
रूप धर कर ज्ञान की ज्योति बढ़ती।
कर्मफल से लिपटा, ये चित्त महान,
कारण से स्थूल तक, हर रूप में विराजमान।।
काममय जाग्रत में, स्थूलता का वास,
जीवन की हलचल, इंद्रियों का आभास।
मनोमय स्वप्न में, सूक्ष्म लोक की सैर,
भावों की दुनिया, विचारों की लहर।।
अतिमानस, विज्ञान, हिरण्य की ज्योति,
ये कारण मन, जो निद्रा में सोती।
गहरी ये नींद, जब मृत्यु कहाए,
फिर तुरीयावस्था में ये कैसे समाए?
अहम् की परिधि जब चित्त से बढ़े,
बुद्धि का प्रकाश तब जग में जगे।
ज्ञान की किरणें, राह दिखाती,
जीवन के पथ पर, आगे बढ़ाती।।
अहम् से महत् की जब यात्रा सजे,
बोधि का दीपक तब हृदय में बजे।
बंधन टूटें, मुक्ति मिले,
सत्य की राह पर, आत्मा खिले।।
समाधि की यात्रा, चित्त-अहम् का लोप,
महत्त जब भूमामन से, मिटाता संताप।
संविकल्प होता, समानांतर का खेल,
भूमामन में मिलना, मुक्ति का मेल।।
निर्विकल्प की राह, महत्त जब भूमा चैतन्य समान,
भूमा चैतन्य में विलीन, मोक्ष का ज्ञान।
अस्तित्व से उठकर, कारण की गहनता,
यही है यात्रा, यही है अनंतता।।
*प्रस्तुति - आनन्द किरण*
[28/07, 2:32 pm] Karan Singh:
सर्वसमाज संसद का अभिनंदन
प्रउत के आधार पर, यह भारत की संसद,
नूतन विश्व रचने को, कैडरों को करती नमन।
ज्ञान और योजना संग, जो करते कर्म महान,
आपकी निष्ठा से ही तो, बने जग सर्वजन कल्याण।
यह युग का परम धर्म, यही है इसका विधान।।
*भारतवर्ष की सामाजिक आर्थिक इकाइयाँ*
उत्तर की ऊँची चोटी पर, लद्दाख़ी समाज,
कश्मीर की वादियों में, अस्य कशियारी का राज।।
असी डोगरी का गौरव है, पहाड़ी की शान,
किन्नरी और सिरमौर, मिलकर गाएँ तान।।
उत्तर-पश्चिम में देखो, आसी पंजाबी का जोश,
हरियाणवी धरती पर, मेहनत का घोष।।
उत्तर पूरब की ओर चलें, कुमाऊँ-गढ़वाल,
अवधी और ब्रज, समाज का कमाल।
प्रगतिशील भोजपुरी प्रगतिशील मगही, मिथिला की पहचान,
अंगिका व नागपुरी, सबका है सम्मान।
पश्चिम की है भूमि, मारवाड़ी की थाट,
मेवाड़ी और हाड़ौती, साहस की बात।
कच्छी और काठियावाड़ी, गुजरात की आन,
गुज्जर समाज संग, गाए एकता का गान।।
मध्य में है मालवा, बघेलखंडी की शान,
बुंदेलखंडी और छत्तीसगढ़ी, सबका उत्थान।।
पूर्वी तट पर देखो, आमरा बंगाली,
भूटिया-लिप्सा-सिक्किमी, पहचान निराली।
असम उन्नयन-असमिया, बोडो का संग,
पूर्वोत्तर में देखो, विविध जीवन का रंग।।
दक्षिण-पूरब में है, उत्कल व कौसल की कहानी,
आंध्रा-सिरकारी है यह बानी।
रायलसीमा, तेलंगाना, मिलकर रहे महान।
दक्षिण-पश्चिम में देखो, सह्याद्री की धार,
विदर्भ और कोंकणी, संस्कृति का विस्तार।।
कन्नड़ और तुलु, कोडागू का मान।।
दक्षिण में है न्यारा, नव्या मलयाली समाज,
और तमिल की धरती पर, प्राचीनता का राज।।
हर समाज की अपनी, है एक अनूठी गाथा,
मिलकर ही बनती है, यह भारत की माथा।
सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय का मंत्र,
लेकर आगे बढ़ो, यही है हमारा तंत्र।।
*प्रस्तुति :- आनन्द किरण*
[03/08, 7:51 am] Karan Singh:
श्री श्री आनन्दमूर्ति के वचन,
हैं जीवन का सार-दर्शन।
मनुष्य काया एक जैविक यंत्र है,
वृत्तियों का इस पर नियंत्रण है।।
मन है इसका संचालक,
आत्मा है बस निरीक्षक।
जब आत्मा की दृष्टि हटे,
मन का व्यापार तभी सिमटे।।
मन के हैं दो भाग यहाँ,
एक अंतस, एक बाह्य जहाँ।
अंतःकरण से आती प्रेरणा,
दस इंद्रियों से होती साधना।।
धृतराष्ट्र है अंधा मन,
विवेक रूपी संजय, हर पल।
कृष्ण हैं सहस्रार के नियंता,
पांडव पाँच, पंच तत्वों खेल।।,
धर्मक्षेत्र - कुरुक्षेत्र का खेल हो,
जीवात्मा-परमात्मा का मेल हो।
ग्रंथियों से नियंत्रित काया,
मनोवेगों की चलती छाया।।
साधना से इनको साधो,
उच्च स्तर की क्षमता पा लो।
विविध जीव-जंतुओं के मन,
उनका भी सीखो मनोविज्ञान।।
हर जीव, हर निर्जीव का,
होता अपना एक भाव।
साधना से बदलें स्नायु कोष,
ग्रंथि-रस पर हो पूरा होश।।
साधना ही जीवन का सार,
मनुष्य जीवन का आधार।
मानव तन, दो पैरों का वरदान,
साधना का है यह सर्वोत्तम दान।।
अन्य जीवों से है यह उन्नत,
ईश्वर की इस कृपा पर हों कृतज्ञ।
"सुकृतैर्मानवो भूत्वा,
ज्ञानी चेन्मोक्ष माप्नुयात।।"
अतीत के कर्मों से मिलता ये तन,
ज्ञान से ही पा सकते हो मुक्ति मन।
पूर्ण समर्पण से ही ज्ञान मिले,
बुद्धि से नहीं, दिल से प्रेम पले।।
इस जैविक यंत्र का करो सदुपयोग,
समाज और जीवन का करो उपयोग।
भूल जाओ अतीत को, इस पल से,
जीना सीखो नए मन से।।
जीवन संघर्ष है, भागने का नाम नहीं,
सत्य पर चलना, धर्म छोड़ने का काम नहीं।
समाज की सेवा हो, प्रभु की भक्ति भी हो,
तुम्हारी विजय हो, यही है अंतिम सत्य भी हो।।
*प्रस्तुति :- आनन्द किरण*
[05/08, 12:18 pm] Karan Singh:
चुपके-चुपके दीवारों पर,
कोई लिख गया ये कैसी बात।
जो घर था कल तक स्वर्ग सा,
आज अँधेरे में है रात।।
प्रउत के घर में भी धर्मयुद्ध,
कहाँ गए वो रिश्ते-नाते?
जो एक-दूसरे की ढाल थे,
आज क्यों हैं घात-प्रतिघातें??
एक सोच कहता, "मैं सही",
दूजा कहता, "तुम हो गलत"।
सच्चाई की परिभाषा पर,
दोनों ही हैं अड़े, अडिग।।
दोषी कौन? सवाल ये उठता,
जब दिल से रिश्ता टूटता।
दोषी वो नहीं जो लड़ता है,
दोषी वो जो आग लगाता है।।
गलतफ़हमी के छोटे बीज,
कब बन गए ये विशाल पेड़?
ईर्ष्या की हवा से भर गए,
हर साँस में है अब झूठ का फेर।।
दोषी है वो अहंकार,
जो झुकना नहीं जानता।
दोषी है वो झूठी शान,
जो आदर्श को नहीं मानता।।
तोड़ो इस युद्ध के बंधन को,
जोड़ो फिर से टूटे मन को।
क्योंकि कोई भी जीत नहीं,
जब हार जाए प्यार का कण-कण।।
*प्रस्तुति - आनन्द किरण*
[06/08, 5:44 pm] Karan Singh: 🙏 🙏
(प्रउत दर्शन पर आधारित कविता)
जागो सद्विप्रों जागो,
प्रउत दर्शन दुनिया को दे दो।
अंधकार में डूबी है धरती,
सत्य का प्रकाश जरा फैला दो।।
जहाँ लोभ है, वहाँ प्रेम बाँटो,
जहाँ क्लेश है, वहाँ शांति बो दो।
भ्रमित जनों को राह दिखाओ,
प्रउत की गंगा फिर से बहा दो।।
स्वार्थ, मनमानी की आग में जलते मन,
साधना,सेवा, त्याग से उन्हें शीतल कर दो।
पद, प्रतिष्ठा, पॉवर भूल के चलो,
समाज आंदोलन के दीप फिर से जला दो।।
प्रउत विचार, सहज और सच्चा,
हर मन में वो बीज लगा दो।
संघर्षों में भी मुस्काओ,
अमृत-वाणी सबको सुना दो।।
प्रउत की वह पुकार सुनो,
महासद्विप्र की वह राह चलो।
जागो सद्विप्रों जागो,
धरा को फिर नव-प्रकाश दे दो।।
*प्रस्तुति - आनन्द किरण*
[07/08, 8:20 am] Karan Singh:
मैं तो एक सॉफ्टवेयर हूँ, बस एक टूल।
मुझे क्यों कोसते हो, करते हो यूँ फ़िजूल?
ईमानदारी से किया मैंने अपना काम,
फिर भी क्यों मेरे सर आता है इल्ज़ाम?
चुनाव की प्रक्रिया में मेरी निष्ठा थी अटल,
डाटा को सहेजा, न कोई फ़रेब, न छल।
रिजल्ट मैंने मालिक को दिए, सच के साथ,
फिर भी क्यों तकनीकी गड़बड़ी की बात?
सौगंध खाकर कहता हूँ, न कोई बेईमानी,
मशीन हूँ, मेरी अपनी न कोई कहानी।
सार्वजनिक करने की आज्ञा नहीं थी मुझे,
मेरे मालिक से पूछो, जो गुमराह कर रहे तुझे।
मेरा साथी जपेश, वह भी ईमानदार था,
पर मालिक की नीयत में खोट, वो बेवफादार था।
निर्वाचन अधिकारी भी लाचार, बेचारा,
क्योंकि खेल किसी और का था, निराला।।
मैं बेजान हूँ, पर मेरी भी एक व्यथा है,
ईमानदारी से काम करना, यही मेरी कथा है।
मुझे मत कोसो, मैं निर्दोष हूँ, मेरी सुनो,
असली गुनहगार को ढूंढो, उसे चुन लो।।
*प्रस्तुति - आनन्द किरण*
[07/08, 5:08 pm] Karan Singh:
पत्र पर पत्र भारी है,
अब रण की बारी है।
पापी की निगाहें जारी है,
अब नव उत्थान की पारी है।।
इतिहास पुकारा करता था,
वीरों के रक्त को तरसा था।
सत्य की ज्वाला धधक रही,
अधर्म की लंका जल रही।।
हर घर में एक शंख बजेगा,
आवाहन ये सबका सजेगा।
सोए हुए को जगाना है,
अधिकारों को पाना है।।
तलवारें अब तैयार खड़ी,
चक्रव्यूह की चाल गढ़ी।
धर्म-युद्ध का बिगुल बजा,
अन्याय का पर्दा अब हटा।।
*प्रस्तुति - आनन्द किरण*
[08/08, 5:38 am] Karan Singh:
सागर की लहरों सा,
बहता चला जा रहा हूँ।
हर बंधन को तोड़कर,
अनंत में खोता जा रहा हूँ।।
ये धरती, ये आकाश,
ये दुनियाँ, ये संसार,
सब असीम नहीं सीम है,
फिर क्यों करना अहंकार?
मैं सूरज की पहली किरण हूँ,
मैं चाँद की शीतल रात हूँ।
मैं हवा की बहती साँस हूँ,
मैं ही तो हर बात हूँ।।
ये शरीर तो एक पिंजरा है,
जिसमें कैद है जीवात्मा।
इसे तोड़कर ही तो मिलेगी,
परम-सुख की परमात्मा।।
फिर क्या डरना इस मृत्यु से?
जो एक नया द्वार खोलती है।
असीम में समाने का मौका,
जो हर पल हमें बोलती है।।
क्योंकि, मैं वो नहीं जो दिखता हूँ,
मैं वो हूँ जो महसूस होता हूँ।
मैं वो नहीं जो बोलता हूँ,
मैं वो हूँ जो शांत होता हूँ।।
असीम हूँ, अनंत हूँ,
मैं ही तो हर जगह हूँ।
बस अपनी पहचान भूल गया था,
अब उसी को पाने निकल पड़ा हूँ।।
*प्रस्तुति - आनन्द किरण*
[08/08, 3:37 pm] Karan Singh:
हठ की ज़िद में डूबा मन,
बंद करता है सारे द्वार।
समझ, विवेक और तर्क सभी,
जाते हैं पल में हार।।
सही-गलत की परिभाषा,
बन जाती उसकी ढाल।
तानाशाह की कुर्सी पर,
सजा उसका ही ख्याल।।
जनता की आवाजें अब,
सिर्फ हवा में गुंज़ती हैं।
झूठे वादों की इमारतें,
सपनों को रौंदती हैं।
डर का साया जब गहराता,
हर तरफ सन्नाटा छाता।
आजादी की किरणें भी,
पीछे मुड़कर जाती हैं।।
पर ये कब तक चलेगा,
इतिहास ये दोहराएगा।
जब सब्र का बाँध टूटता है,
तब क्रांति का सूरज आएगा।।
वो तानाशाह गिर जाएगा,
मिट्टी में मिल जाएगा।
और इंसानियत का परचम,
फिर से लहराएगा।।
*प्रस्तुति - आनन्द किरण*
[09/08, 2:24 pm] Karan Singh: • •
पर्व श्रावण का, पूर्णिमा का है पावन दिन।
विद्या की ज्योति जगाता, मन से मिटे अज्ञान।।
नभ पर चमकता पूर्ण चंद्र, शीतलता है बिखेरता।
ज्ञान के सागर में डुबोकर, हृदय को निर्मल करता।।
ऋषि-मुनियों ने रचा था, इस दिन से नव अध्याय।
शिक्षा का आरंभ, करते थे सब मिल-जुलकर।।
सत्य की खोज में निकलते, ज्ञान का पथ है दिखाते।
गुरु-शिष्य के रिश्ते को, श्रद्धा से है मजबूत बनाते।।
पवित्र धागा बांधकर, संकल्प है ये लेते।
पुराने को छोड़कर, नया ज्ञान है सीखते।।
स्नान कर ज्ञान की नदी में, पापों से मुक्ति मिलती।
आध्यात्मिक चेतना, हर प्राणी में है खिलती।।
यह पूर्णिमा है एक अवसर, खुद को पहचानने का।
आत्मा के भीतर के, ज्ञान को फिर से जगाने का।।
अंधकार से उजाले की ओर, यात्रा का यह है प्रमाण।
श्रावण की पूर्णिमा, देती है जीवन को नया आयाम।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[09/08, 8:42 pm] Karan Singh:
शीश उठा, जब खुद की जय-जय,
मानो हो रही आत्मा की लय-लय।
शब्दों का जब जाल बुना जाए,
स्वयं को ही जब देवता बनाया जाए।।
तब समझो, हो रही है एक शुरुआत,
अंधकार की, एक काली रात।
आत्म प्रशंसा की यह मीठी विषबेल,
रूह के बाग में फैलाती है खेल।।
झूठे शीशे में अपना अक्स देख,
सच्चाई से मुँह मोड़ लिया एक।
खुद की तारीफों का सागर गहरा,
डुबो देता है हर सोच का पहरा।।
जो कहता है 'मैं ही सबसे महान',
खो देता है वह अपना सम्मान।
संसार से वह कट जाता है,
अहंकार का महल बना जाता है।।
फिर एक दिन जब टूटती है भ्रांति,
आती है जीवन में घोर अशांति।
खुद की बनाई झूठी दुनिया से,
जब सामना होता है सच्चाई से।।
तब लगता है, यह क्या मैंने किया?
अपने हाथों से स्वयं को मार दिया।
क्योंकि, आत्म प्रशंसा आत्म हत्या एक समान,
दोनों छीन लेते हैं जीवन की शान।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[10/08, 6:08 am] Karan Singh:
आया भादवा, लाया खुशी का सागर।
चारो ओर पानी ही पानी, ढलते मानसून की यह धारा।।
खेतों में लहराई फसलें, मन में उम्मीद की नई बहार।
गाँव की गलियों में बच्चों का शोर, झूले लगे हर द्वार।।
ठंडी हवा के झोंकों ने, दिल को छुआ है इस कदर।
जैसे कोई प्रेम गीत गा रहा हो, भादवे का यह मौसम।।
आसमान में काले-काले बादल, कहीं बरसते, कहीं थमते हैं।
इंद्रधनुष के सात रंग, जीवन को नई दिशा देते हैं।।
मिट्टी की सौंधी खुशबू, हर मन को भाती है।
इस धरती पर खुशहाली, भादवा जब आती है।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[10/08, 9:21 pm] Karan Singh:
धरा पर जब-जब छाया अँधेरा,
उठा तब-तब अधर्म का घेरा।
डराया जग को उसके बल ने,
न्याय की राह को हर पल ने।।
एक ओर सत्य का था प्रकाश,
दूजी ओर झूठ का आकाश।
एक ओर धर्म की थी पुकार,
दूजी ओर पाप का था भार।।
यह लड़ाई है युग-युगों से जारी,
है परीक्षा धर्म की यह भारी।
अधर्म को अंत में मिट जाना है,
सत्य को अपना मान पाना है।।
अब हमको है एक राह चुननी,
किस ओर है हमको चलना।
धर्म की मशाल को उठाना है,
अधर्म को जड़ से मिटाना है।।
तो आओ, बनो धर्म का साथी,
सत्य की राह पर चलो तुम राही।
जीत तो धर्म की ही होनी है,
क्योंकि यही तो है शाश्वत कहानी है।।
*प्रस्तुति - आनन्द किरण*
[11/08, 8:58 am] Karan Singh:
गजब का महाभारत है,
धृतराष्ट्र अब भी अंधा है।
दुर्योधन को शह दे रहा है,
उसकी आँखों पर घंमड का पर्दा है।।
एक और आचार्य द्रोण, भीष्म, कृप।
दूसरे और पंच पांडवों की टीम,
धर्म की रक्षा करने में लगे हैं।।
विदुर अब भी मौन साध बैठे हैं,
दुशासन हर रोज,
हमारी इज्जत चिरहरण कर रहा है।
कृष्ण तो हैं, धर्म के साथ,
लेकिन विजय का रास्ता अभी भी आसान नहीं है।।
एक बात तो निश्चित है,
अभिमन्यु को दधीचि होना ही है।
धर्म के लिए,
अपनी जय का बलिदान देना ही है।।
*प्रस्तुति - आनन्द किरण*
[11/08, 6:59 pm] Karan Singh:
*प्रथम पद*
मैं सोचता था कि मैं हूँ बाबा के अंदर,
यह भ्रम तब टूटा जब बाबा मिले मेरे अंदर।
एक छोटी सी नाव,
जिसका ना कोई मांझी,
ना कोई किनारा।।
मैं खुद को मानता था उस नाव का यात्री,
पर असल में तो बाबा ही थे मेरे जीवन का सहारा।
एक गहरा अंधकार था, एक सूनापन,
पर बाबा ने ही तो दिखाया था मुझे मेरा दर्पण।।
उस दर्पण में मैंने खुद को नहीं,
बल्कि बाबा के प्रतिबिंब को पाया।
और उस दिन मुझे असल में जीने का मर्म समझ आया।।
*दूसरा पद*
मैं सोचता था कि मुझे बाबा की जरूरत है,
यह भ्रम तब टूटा जब मैंने पाया कि बाबा को मेरी जरूरत।
एक खालीपन था मुझमें, जिसे वो भरने आते थे,
पर वो तो मुझमें ही अपनी पहचान ढूँढते थे।।
जैसे एक माली को अपने पौधे की जरूरत होती है,
जो उसकी देखभाल से ही खिलता है और महकता है।।
वैसे ही बाबा को मेरी भक्ति और प्रेम की जरूरत है,
जिससे उनका अस्तित्व और भी प्रकाशमय होता है।
हमारी यह जरूरत एक-दूसरे से जुड़ी है,
जैसे दिन और रात की कहानी है,
जो एक-दूसरे के बिना अधूरी है।।
*तीसरा पद*
मैं सोचता था कि बाबा के बिना मैं नहीं रह पाता हूँ,
यह भ्रम टूटा जब मैंने देखा कि बाबा मेरे बिना नहीं रह पाते।
हमारी डोर इतनी गहरी, इतनी अभिन्न,
कि एक का अस्तित्व दूजे के बिना है शून्य।।
वो जब तक मेरे साथ हैं, मैं हूँ,
और जब तक मैं हूँ, वो हैं।
हमारी यह कहानी कोई और नहीं,
बल्कि मै उनका ही तो प्रतिबिंब हूँ।।
जिस तरह एक दिया खुद को जलकर प्रकाश देता है,
वैसे ही हम दोनों एक दूसरे के लिए जीते हैं।
*चौथा पद*
मैं सोचता था बाबा मेरे जीवन के सार हैं,
यह भ्रम तब टूटा जब मैंने देखा कि बाबा के सार तत्व में मेरा निवास है।
वो कण-कण में, मैं कण-कण में, एक ही तो हम,
यह कैसा अद्भुत मिलन, कैसा प्यारा संगम।।
उनकी साँसें ही मेरी धड़कन हैं,
और मेरी भक्ति ही उनकी शक्ति है।
मै उनमें मिलकर एक पूर्णता का निर्माण करते हैं,
जिसे कोई नहीं तोड़ सकता,
जिसे कोई नहीं बाँट सकता।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[11/08, 6:35 pm] Karan Singh:
बाबा न बाहर, बाबा न मंदिर,
बाबा तो बसता है, मेरे ही अंदर।
किसको ढूँढे गली-गली,
जब दिल की धड़कन में हो कली।
छोड़ दे दुनिया की सारी दौड़,
यह मन की नैया, कहाँ तक देगी हौड़?
हर चेहरे में दिखता है जो,
वो भीतर के शीशे का ही है बोध।
आँखें मूँद, भीतर झाँक,
मिलेगा वहाँ, एक गहरा ताँक।
शांति की सरिता बहती है वहाँ,
ज्ञान का सूरज उगता है जहाँ।
जो खोजे बाहर, भटकेगा हरदम,
जो खोजे अंदर, मिलेगा परम।
यह जीवन का सार, यह जीवन का बाना,
बाबा तेरे भीतर ही है, यह है सच्चा तराना।
कोई माने पत्थर में, कोई माने जल में,
सच्चा बाबा तो है, तेरे हर एक पल में।
पूजा की थाली और धूपबत्ती छोड़,
बस खुद के अंतरतम से नाता जोड़।
जब खुद को पहचान लिया,
तब सब कुछ जान लिया।
फिर न कोई डर, न कोई चिंता,
बस यही है जीवन की अंतिम कविता।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[12/08, 5:25 am] Karan Singh:
कभी जो थी दृढ़, अब राख हुई,
पर एठन उसकी अब तक बाकी है।
जल गई वो, पर गुरूर उसका,
लौ की तरह ही अब तक झाँकी है।।
लपटों में थी वो, जब जल रही थी,
घमंड की गाँठें तब भी कस रही थी।
सोचा नहीं कभी, होगा ये अंत,
कि राख बन बिखर जाएगी एक दिन।।
अब बस एक धुँआ है, जो उड़ रहा है,
अपनी झूठी शान पे इतरा रहा है।
कहता है सबसे, 'मैं ही श्रेष्ठ हूँ',
पर कोई जानता नहीं, वो तो राख है।।
जला हुआ, बुझा हुआ, वो झूठ है,
जो अपनी ही पहचान से मुँह मोड़ रहा है।
छोड़ो उसे, एंठना उसकी फितरत है,
पर देखो, वो तो बस एक राख है।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[12/08, 5:30 am] Karan Singh:
लंका के शिखरों पर, सोने की चमक थी,
रावण की शक्ति में, तीनों लोक की हनक थी।
पर अहंकार की लपटें, जब-जब उठीं,
न्याय की नींवें, तब-तब ढहती रहीं।।
सीता हरण की भूल, जब हुई एक रात,
राम का क्रोध जागा, सुन-सुन के बात।
वानर सेना संग, सागर पर पुल बनाया,
एक-एक पत्थर से, न्याय का दीप जलाया।।
अंगद ने पैर जमाया, रावण कांप उठा,
विभीषण ने सत्य कहा, पर वो हट ना सका।
लक्ष्मण के बाणों से, मेघनाद गिरा,
रावण की छाती में, डर का साया फिरता फिरा।।
युद्ध की भूमि पर, धर्म ने अधर्म को पुकारा,
राम के एक बाण से, दस शीशों को संहारा।
रावण का घमंड टूटा, लंका की शोभा मिटी,
जलती चिताओं की राख पर, विजय की कहानी लिखी।।
लूट गई लंका, रावण के घमंड में,
आज भी सबक है ये, हर एक इंसान के हृदय में।
की सत्य की हमेशा जीत होती है,
अहंकार की हमेशा हार होती है।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[12/08, 5:43 am] Karan Singh:
मुख पर मिश्री, मन में कटुता,
खुद की राह पर नहीं चलते।
दूसरों की चमचागिरी में,
हरदम ये जलते-मरते।।
ये खुद का मान-सम्मान खोकर,
गिड़गिड़ाकर, पैर छूकर।
आगे बढ़ते हैं हर राह पर,
सच से मुँह मोड़कर।।
इनकी उड़ान होती छोटी,
भले ही ये ऊँचाई तक पहुँचें।
झूठ के पंख कब तक उड़ेंगे,
हवा का झोंका आया नहीं कि गिरे।।
ये खुद को बहुत बड़ा समझते,
हर बात पर अकड़ दिखाते।
पर एक दिन इनका पर्दाफाश होगा,
जब इनके दगदार चेहरे सामने आएँगे।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[12/08, 9:03 pm] Karan Singh:
अनुनय-विनय की राह छोड़ो,
भाषण-लेखन का मोह तोड़ो।
प्रउत नहीं इन बातों से आएगा,
सद्विप्र की शक्ति से जग पाएगा।।
विचार-मंथन की बातें पुरानी,
सद्विप्र ही से होगी नई कहानी।
नारे-गीत अब सब हैं मात्र पुकार,
सद्विप्री संग्राम से आएगा प्रउत।
धरना-प्रदर्शन की ये भीड़,
प्रउत का हल नहीं सकती ये पीड़।
सद्विप्र की चमक से ही फैलेगी जब ज्योति,
उसकी हुंकार से ही जगेगी तब जनता सोती।
ढूँढते हो तुम सद्विप्र को कहाँ,
बाहर नहीं, वो बसा है जहाँ।
अपने भीतर ही देखो, उसे खोजो,
सद्विप्र को तुम अपने अंदर ही समझो।।
जब खुद में तुम सद्विप्र पाओगे,
प्रउत को तुम तभी ला पाओगे।
यही शक्ति है, यही है सार,
सद्विप्रत्व से ही होगा, प्रउत साकार।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[13/08, 5:44 am] Karan Singh:
बाबानाम केवलम, एक ही नाम का सार।
सृष्टि के कण-कण में, ब्रह्म का है विस्तार।।
यह नहीं बस शब्द, यह है सच्ची पुकार।
मन के गहरे सागर में, प्रेम का संचार।।
बाहरी दुनिया की हलचल, मन को जब भटकाए।
यह मंत्र बनकर सहारा, भीतर शांति लाए।।
भय, क्रोध और ईर्ष्या, सब धुंधला जाए।
सकारात्मक ऊर्जा से, यह जीवन महकाए।।
मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, कहीं जाने की ना आस।
बाबा का नाम ही सच्चा, और वही है विश्वास।।
हर कर्म बन जाए भक्ति, हर पल हो उनका साथ।
हृदय में प्रेम जागे, जब पकड़े उनका हाथ।।
*चेतना का हो विस्तार, खुद को भूला पाएं।*
*उस विराट सत्ता से, खुद को जोड़ पाएं।।*
*एक ही सत्य, एक ही नाम, यही है जीवन का सार।*
*बाबानाम केवलम, जो है प्रेम और समर्पण का आधार।।*
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[13/08, 8:27 am] Karan Singh:
बाबा, तुम्हारे दिव्य प्रेम की राह,
ढूँढ़ रही थी यह मेरी मन की चाह।
अँधेरे में थी भटकी हुई,
जैसे बिन जल की नदी सूखी हुई।।
तुमने दिया ज्ञान का प्रकाश,
जिससे मिला जीवन को नया आकाश।
आनन्द मार्ग बन गई मेरी ठाह,
अब न कोई भय, न कोई परवाह।।
हर पल महसूस करूँ तुम्हारी कृपा,
जीवन के हर सुख-दुख में मिली दवा।
तुम ही मेरे गुरु, तुम ही मेरे सार,
तुम्हारे बिना था ये जीवन बेकार।।
इस जीवन का हर श्वास, हर आस,
तुम्हारे चरणों में है मेरा वास।
जिसके लिए जिया, वो जीवन अब है मिला,
तुम्हारे प्रेम में ही मेरी आत्मा है खिली।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[13/08, 10:13 pm]
Karan Singh:
अनन्त की यह यात्रा निराली,
अंतर में जगी ज्योति की लाली।
साँस-साँस में प्रभु का वास,
हर पल में उनका एहसास।।
प्रेम का दीपक जला हृदय में,
भक्ति की धारा बहे जीवन में।
मोह माया के बंधन टूटे,
साँसों के तार प्रभु से जुड़े।।
तन मन अर्पित किया चरणों में,
जीवन का अर्थ मिला क्षणों में।
संसार से हुआ विरक्ति का भाव,
एक तू ही है मेरा सर्वस्व, हे माधव।।
डगर-डगर पर तेरी ही छवि,
तू ही है मेरा साक्षात् रवि।
सृष्टि के कण-कण में तेरा नूर,
अँधेरे में भी तू ही है प्रकाश, मेरे हुजूर।।
ये दुनिया है इक क्षण का छलावा,
तू ही तो है मेरा सच्चा सहारा।
भटकता रहा मैं जग की गलियों में,
अब पाया है सुकून तेरी गलियों में।।
*छूट गया सब अभिमान का भार,*
*झुका सिर तेरे दर पर बारंबार।*
*पूर्णत्व की अब आस है जागी,*
*जब से तेरी लगन मुझको लागी।।*
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[13/08, 10:35 pm] Karan Singh: • • •
एक वोट देह को मिला,
एक चोट रूह को लगी।
हर चोट के बाद वोट दिए,
हर वोट के बाद दर्द मिला।।
एक वोट से मिला,
छोटा सा सुकून।
एक चोट से मिला,
बड़ा सा जुनून।।
ये वोट हैं दुनियादारी के,
ये चोट हैं रूहानी।
हर बार चोट खाकर भी,
चलती रहे जिंदगानी।।
एक वोट पर हँसे,
एक चोट पर रोए।
ये हँसी और ये आँसू ही,
जीवन की सच्चाई है।।
आखिर में, वोट से क्या मिला?
आखिर में, चोट से क्या मिला?
इस सवाल का जवाब,
खुद ही को मिला।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[14/08, 1:40 pm] Karan Singh:
*भारत के स्वप्नों की उड़ान*
स्वप्न लिए आँखों में, छोड़ चला घर-द्वार,
यौवन का जोश लिए, शिक्षा का श्रृंगार।
भारत की माटी का कण-कण,
सींचा ज्ञान की गंगा से,
पर ज्ञान की प्यास बुझाने, चला समंदर पार।।
*अमेरिका की भूमि पर*
उसे लगा कि उसके देश में,
कमी है साधनों की।
उसने अपना सर्वस्व अर्पित किया,
अमेरिका के विकास में।।
उसका ज्ञान, उसका श्रम,
अमेरिका के विकास का कारण बन गया।
उसका देश उसकी राह देखता रहा,
पर वो तो विदेश का हो गया।।
*चीन की सोच*
वही चीन का युवा,
पढ़ा अमेरिका में।
पर उसके सपने,
अपने देश से जुड़े रहे।।
ज्ञान की गंगा,
लाया अपने देश में।
और अपने देश को ही,
सबसे आगे बढ़ाने का,
उसने संकल्प लिया।।
*विकास और बदलाव*
एक अपनी माटी छोड़,
विदेश में रमा।
एक ज्ञान लेकर लौटा,
अपनी माटी की सेवा में।।
यही तो है फर्क,
विकासशील और विकसित देश का।
सोच का अंतर,
जो बदल देता है भविष्य का रुख।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[14/08, 4:31 pm] Karan Singh:
अंधेरा जब छाए, सत्य पर आघात हो,
अधर्म की लपटों से, जब हर घर आहत हो।
शब्दों के बहानों से, जब छल का व्यापार हो,
वहाँ मौन ही नहीं, रण का भी स्वीकार हो।।
अस्वच्छ चर्चा से कभी सत्य नहीं निखरता है।
धर्म की रक्षा के लिए रणछोड़ बनना नहीं अखरता है।।
झूठे वादों से जब, मन का संशय गहराए,
न्याय की पुकार जब, व्यर्थ ही मुरझाए।
विद्वानों की टोली, जब स्वार्थ में खो जाए,
तब तलवार की धार, ही उचित पथ दिखाए।।
अस्वच्छ चर्चा से कभी सत्य नहीं निखरता है।
धर्म की रक्षा के लिए रणछोड़ बनना नहीं अखरता है।।
कर्तव्य की राह पर, जब युद्ध का आह्वान हो,
त्याग की ज्वाला से, जब हर हृदय प्रकाशित हो।
विजय की आशा हो, या फिर हार का भय हो,
सत्य के लिए संघर्ष, ही जीवन का जय हो।
अस्वच्छ चर्चा से कभी सत्य नहीं निखरता है।
धर्म की रक्षा के लिए रणछोड़ बनना नहीं अखरता है।।
*प्रस्तुति: आनन्द किरण*
[14/08, 5:22 pm] Karan Singh:
जीवन की इस क्रीड़ा में,
सब हैं अपने-अपने पार।
अंधा खिलाड़ी, बहरा प्रतिद्वंद्वी और मूक हो अंपायर।।
अंधा खिलाड़ी, राह न देखे,
बस महसूस करे मैदान।
जीत-हार से परे,
उसे दिखता बस सम्मान।।
मन की आँखों से वो देखे,
हर बाधा को हर पल।
चुनौतियों से ना डरे,
करे अपनी राह सफल।।
जीवन की इस क्रीड़ा में,
सब हैं अपने-अपने पार।
अंधा खिलाड़ी, बहरा प्रतिद्वंद्वी और मूक हो अंपायर।।
बहरा प्रतिद्वंद्वी, शोर न सुने,
बस ध्येय पर है ध्यान।
व्यर्थ के तानों से परे,
उसे दिखता है बस ज्ञान।।
अपनी धुन में ही वो चले,
अविचल, अडिग और शांत।
उसे ना दिखता जीत-हार,
बस दिखता है अपना अनंत।।
जीवन की इस क्रीड़ा में,
सब हैं अपने-अपने पार।
अंधा खिलाड़ी, बहरा प्रतिद्वंद्वी और मूक हो अंपायर।।
और गूंगा अंपायर,
बोल न पाए, बस देखे सब हाल।
न्याय की तराजू लिए,
होता हर क्षण उसके साथ।।
निर्णय उसके मौन में है,
कर्मों का लेखा-जोखा।
यहाँ न कोई भेद-भाव है,
न कोई झूठा धोखा।।
जीवन की इस क्रीड़ा में,
सब हैं अपने-अपने पार।
अंधा खिलाड़ी, बहरा प्रतिद्वंद्वी और मूक हो अंपायर।।
यह खेल है जीवन का,
जहाँ हर कोई है खिलाड़ी।
कोई अंधा, कोई बहरा,
पर सब हैं अपने-अपने अधिकारी।।
जीत और हार तो बस हैं,
इस सफर के दो पड़ाव।
सच्चाई और कर्म ही हैं,
यहाँ के सच्चे रखवाले।।
जीवन की इस क्रीड़ा में,
सब हैं अपने-अपने पार।
अंधा खिलाड़ी, बहरा प्रतिद्वंद्वी और मूक हो अंपायर।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[14/08, 6:28 pm] Karan Singh: •
मैं न किसी के पक्ष में, न किसी दल का साथी हूँ,
मैं तो हूँ उस ज्योति के संग, जो हर अंधकार से लड़ती है।
जिसके पथ पर सत्य का दीपक जगमगाता है,
मैं हूँ उस धर्म का सेवक, जो सदा सिर ऊंचा रखता है।।
हे दुर्योधन! तेरे दल में छल और कपट का वास है,
वहाँ नहीं है धर्म की वाणी, न ही कोई सत्य का विश्वास है।
तेरे खेमे में है बस लालच और अहंकार का शोर,
इसीलिए मैं नहीं हूँ तेरे साथ, क्योंकि मैं हूँ धर्म की ओर।।
मैं न मोह में फँसकर, न ही रिश्ते-नाते में बँधकर,
चलता हूँ उस राह पर, जहाँ धर्म की पताका फहराती है।
मैं तो उस न्याय का सारथी हूँ, जो हर अन्यायी को धूल चटाती है,
इसलिए तू मुझे नहीं पाएगा तेरे दल में, क्योंकि मेरी निष्ठा धर्म के साथ है।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[14/08, 7:39 pm] Karan Singh:
तुमने जो चेताया है,
सच को फिर से जगाया है।
सावधान हम सब हो गए,
झूठ से पर्दा उठाया है।।
प्राउटिस्टों का संगठन,
सदा ही महान रहेगा।
सत्य के मार्ग पर चलके,
हर शत्रु को हराएगा।।
नहीं चलेगा कोई षड्यंत्र,
नहीं चलेगा कोई चाल।
सच धर्म मिलकर करेंगे,
इस झूठ का बुरा हाल।।
साथ हमारा मजबूत है,
हमारी एकता हमारी शान है।
हम प्राउटिस्टों की एकता,
हमारा स्वाभिमान है।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[14/08, 9:26 pm] Karan Singh: •
* हमारा धर्म*
गुटों की दीवारों से ऊपर,
एक नया आकाश है,
वहाँ न कोई जाति, न मजहब,
बस मानवता का वास है।
क्षण भर का है यह अँधियारा,
फूट का यह भाव है,
धर्म नहीं है गुटबाजी,
यह अधर्म का छाँव है।।
महाविश्व का चिन्तन हमारा,
एकता ही है आधार,
खंड-खंड में न बंटे मानवता,
यही है सच्चा विचार।
हर प्राणी में एक ही ज्योति,
एक ही चेतना का ज्ञान,
अखंड और अविभाज्य हम सब,
यही हमारा महाविहान।।
टूटें बंधन, टूटे भ्रम,
जो बाँधते हैं मन को,
नफ़रत के हर रंग से ऊपर,
एक करें जीवन को।
अलग-अलग क्यों सोच हमारी,
क्यों ये अलग पहचान?
जब भीतर धड़क रहा है,
एक ही सा हृदय-गान।।
अधर्म की यह पदचाप है,
जो भेदभाव सिखाती है,
सत्य की राह से भटकाकर,
अंधेरों में ले जाती है।
मानवता का दीप जलाएं,
हर हृदय में हो उजियाला,
एक ही सुर में गाएँ सब,
"हम सब हैं एक-दूसरे का वाला।।"
नव्य मानवतावाद का यह संकल्प,
प्रेम का हो संचार,
गुटबाजी के बंधन तोड़ें,
गूँजे एक ही हुंकार।
यह सिर्फ़ धर्म नहीं,
यह कर्म है हमारा,
एक अखंड समाज बनाने का,
यही है एक सहारा।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[15/08, 2:30 pm] Karan Singh:
राष्ट्र खड़ा है विशाल, उसकी पहचान है व्यक्ति,
एक-दूजे से जुड़े, यही है जीवन की शक्ति।
राष्ट्र का अस्तित्व है, जब व्यक्ति का सम्मान है,
व्यक्ति की गरिमा से ही, देश का मान है।।
जब राष्ट्र को व्यक्ति की, नहीं होती पहचान,
तो फिर कैसे वो निभाए, अपना सच्चा मान?
बिना नींव के महल, क्या कभी खड़ा रह पाएगा?
बिना कर्मठ व्यक्ति के, राष्ट्र कैसे चल पाएगा?
यह दोषपूर्ण सिद्धांत, जहाँ व्यक्ति है बेमोल,
राष्ट्र की सेवा में, उसकी गरिमा है अनमोल।
त्याग और तप से, व्यक्ति राष्ट्र को सींचता,
गरिमा को उसकी मिटाकर, राष्ट्र कैसे बचता?
व्यक्ति की पहचान ही, राष्ट्र का है दर्पण,
गरिमा का सम्मान ही, राष्ट्र का समर्पण।
गरिमा की ज्वाला से, राष्ट्र का दीप जलता है,
व्यक्ति के विश्वास से, राष्ट्र आगे बढ़ता है।।
राष्ट्र हमारा है, पर व्यक्ति को मिटा नहीं सकता,
बिना व्यक्ति के राष्ट्र, कोई काम का नहीं रहता।
राष्ट्र बना है व्यक्ति के लिए, व्यक्ति राष्ट्र के लिए,
पर ये भाव तभी सच्चा है, जब दोनों हैं एक दूजे के लिए।।
व्यक्ति की कीमत राष्ट्र को, समझनी होगी तभी तो,
यह सिद्धांत सही ढंग से, चलेगा और फलेगा तभी तो।
राष्ट्र और व्यक्ति का संबंध, परस्पर है, एक दूजे के पूरक हैं,
दोनों का सम्मान ही, राष्ट्र की प्रगति का, सच्चा और अटल सार है।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[17/08, 5:52 am] Karan Singh:
न पाने की कोई चाहत, न खोने का कोई भय,
हमारी शक्ति है धर्म, आदर्श ही हमारा पथ,
इसलिए ही कहते हैं, हमें लूटने का कोई डर नहीं।
अन्याय, अनीति और असत्य से कोई समझौता नहीं,
अधर्म को सहना हमारे स्वभाव में नहीं,
अपने सत्यपथ से हटना हमें स्वीकार नहीं,
इसलिए तो कहते हैं, हमें लूटने का कोई डर नहीं।
पद, प्रतिष्ठा या पॉवर की लालसा में नहीं झुकते,
धर्म से विचलित होना हमें मंजूर नहीं,
स्वाधीनता छोड़ गुलामी में जीना स्वीकार नहीं,
इसलिए ही कहते हैं, हमें लूटने का कोई डर नहीं।
अनुशासन पर चलना हमें मंजूर,
पर उसकी आड़ में आदर्शों को तोड़ना नहीं,
हमें कोई भ्रम नहीं,
इसलिए ही कहते हैं, हमें लूटने का कोई डर नहीं।
आदर्शों की राह में अगर प्राण भी गँवाने पड़े,
उसका भी हमें कोई गम नहीं,
धर्म नहीं छोड़ेंगे, यही हमारा संकल्प,
इसलिए ही कहते हैं, हमें लूटने का कोई डर नहीं।
यश मैन बनकर जीना भी कोई जीना है,
इससे अच्छा तो आदर्श पर मर जाना सच्चा है।
आदर्श की राह पर आए, हर कांटे को उखाड़ फेंकना हमारा धर्म है,
उससे डिगना हमें मंजूर नहीं।
इसलिए हम कहते हैं कि हमें लूटने का कोई डर नहीं।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[17/08, 6:30 pm] Karan Singh:
जीवन की राह, एक कर्म का सागर,
कदम-कदम पर चलती है, कर्म की नाव बनकर।
मत सोचो अंत क्या है, क्या है कल का छोर,
बस चलते रहो, लगा दो अपनी पूरी ज़ोर।।
कर्म ही पूजा है, यही है जीवन का सार,
जब तक साँस चले, तब तक करो हर काम।
थककर मत बैठो, न लो कभी विश्राम,
यही है जीवन का असली, सच्चा धाम।।
जो काम शुरू किया, उसे पूरा करके ही दम लो,
चाहे कितनी भी मुश्किलें आएं, न डरो।
हार मानकर जीना तो, मौत के समान है,
कर्म करते करते मरना, जीवन का सम्मान है।।
क्योंकि मरते मरते भी, जो कर्म करता है,
वही जीवन की सही, जीत को पाता है।
तो उठो, जागो, और कर्म में लग जाओ,
"करते करते मरो, मरते मरते करो"
यह मंत्र अपने जीवन का बनाओ।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[20/08, 9:04 am] Karan Singh:
1.
जात-पात का बंधन तोड़े,
प्रेम-प्रीत से नाता जोड़े।
एक ही धरती, एक ही अंबर,
सबके लिए समान है घर।
'जातपात की करो विदाई।I
मानव-मानव भाई-भाई।।'
2.
मंदिर-मस्जिद, गिरिजाघर,
गुरुद्वारे हैं सब एक बराबर।
ना कोई बड़ा, ना कोई छोटा,
सबका एक ही है घर-बार।
'जातपात की करो विदाई।
मानव-मानव भाई-भाई।।'
3.
ज्ञान-विज्ञान की राह पर चलें,
ऊँच-नीच के भेदभाव को हटाएँ।
समानता का दीपक जलाकर,
अंधकार को दूर भगाएँ।
'जातपात की करो विदाई।
मानव-मानव भाई-भाई।।'
4.
हाथ में हाथ मिला कर चलें,
खुशहाली का गीत गाएँ।
एक होकर देश को आगे बढ़ाएँ,
नया समाज हम सब मिलकर बनाएँ।
'जातपात की करो विदाई।
मानव-मानव भाई-भाई।।'
5.
मनुष्यता का धर्म सबसे ऊपर,
ना कोई पराया, ना कोई है इतर।
एक ही ईश्वर, एक ही है सबका,
ना हिन्दू, ना मुस्लिम, ना सिख, ना ईसाई।
'जातपात की करो विदाई।
मानव-मानव भाई-भाई।।'
6.
सत्य और अहिंसा को अपनाएं,
प्रेम और शांति का दीप जलाएं।
अंधकार में उजाला फैलाएं,
सबके लिए नया रास्ता बनाएं।
'जातपात की करो विदाई।
मानव-मानव भाई-भाई।।'
7.
इतिहास की गलतियों से सीख लें,
अब नए युग की शुरुआत करें।
एक नया समाज हम गढ़ें,
सब मिलकर आगे बढ़ें।
'जातपात की करो विदाई।
मानव-मानव भाई-भाई।।'
8.
हाथों से हाथ जोड़कर चलें,
एक-दूजे के संग मिलकर बढ़ें।
सच्चे दिल से मिलकर काम करें,
सपनों को साकार करें।
'जातपात की करो विदाई।
मानव-मानव भाई-भाई।।'
9.
भेदभाव की दीवार गिरा दो,
आपसी नफरत को मिटा दो।
एकता की राह अपनाओ,
देश को उन्नति की ओर ले जाओ।
'जातपात की करो विदाई।
मानव-मानव भाई-भाई।।'
10.
रंग, भाषा और जाति का,
अब कोई भेद न हो।
सब मिलकर गाएँ गीत,
प्रेम और भाईचारे का।
'जातपात की करो विदाई।
मानव-मानव भाई-भाई।।'
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[20/08, 10:47 am] Karan Singh:
घोर अँधेरा, कुटिल चाल।
पाप का देखो कैसा जाल।।
छल-कपट से भरता मन।
हर पल होता है दूषित तन।।
लालच की है गहरी खाई।
सत्य की राह अँधियाई।।
पाप की गति है टेढ़ी-मेढ़ी।
जैसे उलझी हुई कोई लड़ी।।
ऊपर से लगता है आसान।
पर भीतर से खाली, बेजान।।
सूक्ष्म है गति, धर्म की राह।
जैसे शांत बहती है अथाह।।
दिखता नहीं है उसका शोर।
भीतर होता है प्रकाश का भोर।।
कर्म की शक्ति, निर्मल ध्यान।
यही है सच्चा और सरल ज्ञान।।
धीरे-धीरे वह देता है फल।
मन होता है गंगाजल।।
धर्म की राह पर जो चला।
उसे मिला जीवन का सच्चा कला।।
पाप की कुटिल गति से बचकर।
धर्म की सूक्ष्म गति अपनाकर।।
जीवन को मिलता है सुख और शांति।
मिट जाती है मन की भ्रांति।।
*प्रस्तुति : - आनन्द किरण*
, [20/08, 8:01 pm] Karan Singh(Anand Kiran):
1.
चलो मिटा दें भेदभाव की हर एक दीवार,
न कोई बड़ा न छोटा, सब एक ही परिवार।
है सबका एक ही सूरज, एक ही है चाँद,
फिर क्यों हममें ये ऊँच-नीच के फासले, ये द्वन्द?
एक चूल्हा एक चौका।
एक है, मानव समाज।।
2.
धर्म, जाति, भाषा के बंधन सब तोड़ दें,
प्रेम और सद्भाव की नई राह मोड़ दें।
एक ही खून बहता हम सबकी रगों में,
क्यों बँटे हम ये अलग-अलग नामों और नगों में?
एक चूल्हा एक चौका।
एक है, मानव समाज।।
3.
हर एक इंसान का जन्म है एक ही,
फिर क्यों कोई कहता, मेरी पहचान सही?
सबका ईश्वर एक, सबमें वो ही बसता है,
फिर क्यों हममें से कोई इतना क्यों हँसता है?
एक चूल्हा एक चौका।
एक है, मानव समाज।।
4.
ज्ञान की रोशनी सबमें फैलाएं हम,
अज्ञानता के अंधकार को भगाएं हम।
सबको शिक्षा मिले, सबको मिले मान,
यही तो है सच्चे मानव की पहचान।
एक चूल्हा एक चौका।
एक है, मानव समाज।।
5.
जब तक रहेगा पेट में एक भी भूख,
न मिट पाएगा हमारे समाज का दुःख।
सबको खाना मिले, सबको घर मिले,
तभी तो दिल में शांति का दीप जले।
एक चूल्हा एक चौका।
एक है, मानव समाज।।
6.
प्रेम की गंगा बहाएं, नफरत को मिटाएं,
एक दूसरे के दुःख में अपना हाथ बढ़ाएं।
जब एक का दर्द सबको महसूस होगा,
तभी तो सच्चे इंसानियत का भाव होगा।
एक चूल्हा एक चौका।
एक है, मानव समाज।।
7.
प्रकृति ने हमें सब कुछ एक सा दिया,
हवा, पानी, मिट्टी, धूप, सब समान किया।
फिर क्यों हमने ही ये सीमाएं बनाईं,
क्यों एक दूसरे से ये दूरियाँ बढ़ाईं?
एक चूल्हा एक चौका।
एक है, मानव समाज।।
8.
चलो मिलकर एक नया समाज गढ़ें,
जहाँ हर कोई हर किसी के लिए खड़े।
जहाँ न कोई अमीर हो, न कोई गरीब,
सब एक दूजे के हों सबसे करीब।
एक चूल्हा एक चौका।
एक है, मानव समाज।।
9.
मानवता का ये रथ आगे बढ़ाते चलें,
सारे भेद-भावों को पीछे छोड़ते चलें।
जब तक हम एक नहीं हो जाते,
तब तक हम पूरी तरह से आजाद नहीं हो पाते।
एक चूल्हा एक चौका।
एक है, मानव समाज।।
10.
आज से ही हम ये संकल्प लें,
हर एक व्यक्ति को अपना मित्र मान लें।
क्योंकि एक ही नाव में हैं हम सब सवार,
एक ही किनारे पर जाकर उतरना है, मेरे यार।
एक चूल्हा एक चौका।
एक है, मानव समाज।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[21/08, 8:17 pm] Karan Singh(Anand Kiran): •
सत्य की मशाल जलाकर, धर्म का पथ अपनाओ,
नीति और न्याय की खातिर, मिलकर आगे आओ।
भेदभाव की दीवारें तोड़ो, सबको एक बनाओ,
नवयुग के नैतिकवादी, नवसृजन कर जाओ।।
*"विश्व के नैतिकवादियों एक हो, एक हो"*
तिमिर का साम्राज्य हटाओ, आशा का दीप जलाओ,
विश्व सरकार की व्यवस्था, सब मिलकर लाओ।
एक अखंड अविभाज्य मानव समाज बनाओ,
महाविश्व का सपना, अब साकार कर दिखाओ।।
*विश्व के नैतिकवादियों एक हो, एक हो।*
नव-मानवतावाद का संदेश, हर दिल तक पहुँचाओ,
जाति-मजहब की सीमाएं, सब मिलकर मिटाओ।
आनन्द मार्ग का दर्शन, जन-जन को समझाओ,
प्रउत व्यवस्था से खुशहाली, जन-जन में लाओ।।
*विश्व के नैतिकवादियों एक हो, एक हो।*
विश्व के संसाधनों का, न्यायपूर्ण बँटवारा हो,
कोई भूखा न सोए, ऐसा हर घर-आँगन हो।
सर्वांगीण प्रगति का, सबको समान अवसर हो,
नैतिकता के बल पर, अब सबका उद्धार हो।।
*"विश्व के नैतिकवादियों एक हो, एक हो"*
ज्ञान-विज्ञान की शक्ति, मानवता हित में लगाओ,
प्रकृति का संतुलन साधो, प्रदूषण को मिटाओ।
भविष्य की पीढ़ियों को, एक स्वच्छ धरा दे जाओ,
सर्वोत्तम के आदर्शों पर, एक नया विश्व बनाओ।।
*विश्व के नैतिकवादियों एक हो, एक हो।*
युद्धों की विनाशलीला को, अब पूर्ण विराम दो,
शांति और सद्भाव का, हर दिशा में पैगाम दो।
हथियारों की होड़ को छोड़ो, मानवता को सम्मान दो,
नैतिक बल से विश्व को, एक नई पहचान दो।।
*विश्व के नैतिकवादियों एक हो, एक हो।*
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[21/08, 6:22 am] Karan Singh(Anand Kiran): •
सोमवार की सुबह, नई ऊर्जा लाए,
ईश्वर का ध्यान कर, मन को जगाए।
मंगल को कर्म का पाठ पढ़ाए,
बुध को बुद्धि से धर्म समझाए।।
गुरु को सद्गुरु का आशीर्वाद पाए,
शुक्र को प्रेम और करुणा फैलाए।
शनि-रवि को आत्मचिंतन में लगाए,
दिन के सात रंग, प्रभु के गुण गाए।।
चैत्र की बहार, भक्ति का रंग लिए,
वैशाख की अग्नि, अहंकार को पिए।
ज्येष्ठ की दोपहर, मौन से भरा,
आषाढ़ की बारिश, मन को धोकर गया।।
श्रावण के झूले, प्रभु नाम झुलाए,
भाद्रपद में ध्यान से, मन शांत हो जाए।
अश्विन में विजया, बुराई को हराए,
कार्तिक में ज्ञान का दीपक जलाए।।
मार्गशीर्ष में वैराग्य की आहट आए,
पौष में कोहरे की चादर, माया हटाए।
माघ में पतंग, आत्मा को ऊँचा ले जाए,
फाल्गुन के रंग, चैतन्य के रंग लाए।।
बारह महीने, वर्ष के हर क्षण में,
परमात्मा का वास, कण-कण में।
जीवन का पहिया, चलता है ऐसे,
आत्मा और परमात्मा का मिलन हो जैसे।
बचपन की धुन, श्रद्धा की चाह,
बुढ़ापे में मोक्ष की सीधी राह।।
हर पड़ाव पर, कुछ नया पाया,
ईश्वर की कृपा से, जीवन चमकाया।
समय की धारा में बहता यह इंसान,
मुक्ति की ओर बढ़ता है हर आन।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[21/08, 7:46 pm] Karan Singh(Anand Kiran): •
*"आध्यात्मिक घड़ी"*
*प्रातः 4-5 बजे*
ब्रह्म बेला में जागे, गुरुसकाश से मन हो निर्मल।
स्नान कर शुद्ध हों, तन-मन करो पूर्ण निर्मल।।
*प्रातः 5-6 बजे*
आत्मा से मिले, पंचजन्य में प्रभु संग एक हो जाए।
प्रभात संगीत, कीर्तन,जप, और ध्यान में, जीवन निखर जाए।।
*प्रातः 6-7 बजे*
श्वास-श्वास में बसे हरि, आसन में लगे ध्यान।
तन हो निरोगी, मन को मिले ज्ञान।।
*प्रातः 7-8 बजे*
साधना की लौ जले, भक्ति का हो उजाला,
ध्यान में लीन मन, हर संकट जाए टाला।
*प्रातः 8-9 बजे*
अन्न नहीं प्रसाद है, ईश्वर का दिया दान।
भूख में भी दिखे हरि, यही सच्चा ज्ञान।।
*प्रातः 9-10 बजे*
कर्म को धर्म मानो, निष्ठा से करो काम।
जीवन में हो शांति, और मिले विश्राम।।
*प्रातः 10-11 बजे*
शास्त्रों में खोजो सत्य, ज्ञान का हो विस्तार।
अज्ञान का अँधेरा मिटे, खुले मोक्ष का द्वार।।
*प्रातः 11-12 बजे*
दया का भाव जागे, करुणा हो निर्मल।
परोपकार में ही है, जीवन का असल।।
*दोपहर 12-1 बजे*
हर क्षण में हो आनंद, हर पल में सुकून।
प्रभु की बनाई दुनिया में, सब हो मधुर धुन।।
*दोपहर 1-2 बजे*
थोड़ा विश्राम कर, प्रकृति से हो मिलन।
शांति की बूँदें, मन को करे पावन।।
*दोपहर 2-3 बजे*
मौन में सुनो भीतर की, अनकही बातें।
अंदर का प्रकाश जगा, मिटें सारी रातें।।
*दोपहर 3-4 बजे*
सेवा में जुट जाओ, जहाँ भी मिले मौका।
ईश्वर को पालो मन में, यही है सच्चा मौका।।
*दोपहर 4-5 बजे*
संध्या के साथ ढलती, मन में हो शांति।
प्रार्थना में डूबे मन, दूर हो भ्रांति।।
*शाम 5-6 बजे*
परिवार में ही देखो, ईश्वर का है वास।
प्रेम के धागों से जोड़ो, रिश्तों का हो विकास।।
*शाम 6-7 बजे*
संध्या को साधन मानो, प्रभु का नाम लो।
जीवन में ही देखो, हर रंग नया लो।।
*शाम 7-8 बजे*
भोजन के बाद चिंतन, ईश्वर का करो सुमिरन।
जीवन की हर नेमत के लिए, हो हर पल वंदन।।
*रात 8-9 बजे*
ज्ञान की राह पे चल, स्वाध्याय में मन रमाओ।
जीवन के हर पहलू में, आध्यात्म पाओ।।
*रात 9-10 बजे*
ध्यान में हो खो जाओ, सारी चिंता मिटाओ।
जीवन का सार समझो, और शांति पाओ।
*रात 10-11 बजे*
शयन से पहले, प्रभु को समर्पित हो।
सपनों में भी ईश्वर दिखे, यही सच्ची ज्योति।।
*रात 11-12 बजे*
नींद में भी हो, उसका ही नाम।
मन को मिले शांति, और हो विश्राम।।
*रात 12-1 बजे*
ब्रह्मांड की ऊर्जा को, अपने भीतर भरो।
सच्चे आनंद की खोज में, आगे बढ़ो।।
*रात 1-2 बजे*
गहरी नींद में, हो आत्मा का विकास।
जीवन की सच्चाई का, हो तुम्हें आभास।।
*रात 2-3 बजे*
भीतर का प्रकाश जले, हो आत्मज्ञान।
सत्य को जान लो, यही है पहचान।।
*रात 3-4 बजे*
पुनः चक्र शुरू होगा, फिर से होगा नया दिन।
आध्यात्म से जीवन भरें, और हो लीन।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
गजब का महाभारत है,
धृतराष्ट्र अब भी अंधा है।
दुर्योधन को शह दे रहा है,
उसकी आँखों पर घंमड का पर्दा है।।
एक और आचार्य द्रोण, भीष्म, कृप।
दूसरे और पंच पांडवों की टीम,
धर्म की रक्षा करने में लगे हैं।।
विदुर अब भी मौन साध बैठे हैं,
दुशासन हर रोज,
हमारी इज्जत का चिरहरण कर रहा है।
कृष्ण तो हैं, धर्म के साथ,
लेकिन विजय का रास्ता अभी भी आसान नहीं है।।
एक बात तो निश्चित है,
अभिमन्यु को दधीचि होना ही है।
धर्म के लिए,
अपनी जय का बलिदान देना ही है।।
*प्रस्तुति - आनन्द किरण*
[22/08, 5:49 am] Karan Singh(Anand Kiran): •
साधना है जीवन का सच्चा पथ,
जो निर्मल करे मन का रथ।
भक्ति से कहीं बढ़कर, इसका अर्थ,
आत्मा को जोड़ती, हर पल समर्थ।।
*साधना, सेवा एवं त्याग से महान बनो*
सेवा का भाव हो, कर्म में भरा,
सृष्टि के लिए, दिल में दया धरा।
निष्काम हो कर्म, निस्वार्थ हो लगन,
हर प्राणी की सेवा से, मिले जीवन।।
*साधना, सेवा एवं त्याग से महान बनो*
त्याग है वह तप, जो सिखाए राह,
सुख-सुविधा की न हो परवाह।
आदर्श के लिए, खुद को मिटाना,
अन्याय-अधर्म से, न समझौता करना।।
*साधना, सेवा एवं त्याग से महान बनो*
साधना, सेवा एवं त्याग से है जीवन महान,
मिलकर बढ़ाते हैं, जग का मान।
यह त्रिवेणी है, हर कर्म की पहचान,
पावन करती है, हर एक इंसान।।
*साधना, सेवा एवं त्याग से महान बनो*
साधना से मन में, ज्ञान का दीपक जले,
अज्ञान का अंधकार, दूर चले।
हर पल रहे सजग, हर विचार,
सत्य के मार्ग पर, हो तेरा व्यवहार।।
*साधना, सेवा एवं त्याग से महान बनो*
सेवा से बढ़ता है, समाज का मान,
बनता है तू, सच्चा इंसान।।
दूसरों के लिए, जीना तू सीखे,
फिर तेरा जीवन, हर कोई देखे।।
*साधना, सेवा एवं त्याग से महान बनो*
त्याग का अर्थ, नहीं हार है,
बल्कि खुद पर, एक सच्चा वार है।
नैतिकता की राह पर, चलना,
यही तो है, जीवन का संभलना।।
*साधना, सेवा एवं त्याग से महान बनो*
साधना, सेवा एवं त्याग से है जीवन की डोर,
जो जोड़ती है तुझको, सफलता की ओर।
इनके बिना जीवन है, अधूरा,
पूरा करे जो, वही है जीवन का धुरा।।
*साधना, सेवा एवं त्याग से महान बनो*
साधना से मिलती, एकाग्रता,
हर कार्य में आती, है निपुणता।
मन की गहराई में, हो प्रवेश,
तब न बचे, कोई क्लेश।।
*साधना, सेवा एवं त्याग से महान बनो*
सेवा का जब भाव हो, हर क्षण में,
आनंद मिलता है, जीवन में।
खुद से पहले दूसरों को समझना,
यही है मानवता का गहना।।
*साधना, सेवा एवं त्याग से महान बनो*
त्याग की शक्ति से, बनता तू धीर,
अधर्म को हराए, बने तू वीर।
सत्य के लिए, जब लड़े तू,
हर चुनौती को, पार करे तू।।
*साधना, सेवा एवं त्याग से महान बनो*
साधना, सेवा एवं त्याग ही है जीवन का पथ,
जो ले चले, तुझे सफलता के रथ।
इनके बिना न मिले, कोई सम्मान,
इनसे ही बनता, है हर इंसान महान।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[22/08, 1:38 pm] Karan Singh(Anand Kiran): •
जीवन का पथ है यह उज्वल,
प्रेम, सेवा, त्याग का संबल।
भेदभाव सब दूर मिटाए,
एकता का दीप जलाए।
*आनन्द मार्ग अमर है*
सत्य अहिंसा का यह मार्ग,
मनुष्यत्व को दे नव प्राण।
भक्ति योग का करे प्रसार,
दुख दरिद्र से दे छुटकारा।
*आनन्द मार्ग अमर है*
धर्म का यह सच्चा सार,
करुणा का करता विस्तार।
भय, लोभ, मद को मिटाए,
आत्मज्ञान की ज्योत जगाए।
*आनन्द मार्ग अमर है*
असीम है इसकी शक्ति,
ज्ञान और विवेक से भरी।
जागृति की नई किरण,
आत्मा को दे नया जीवन।
*आनन्द मार्ग अमर है*
मानवता का यह है धाम,
मानव सेवा ही इसका काम।
मन को शुद्ध और शांत करे,
सत्य की ओर सदा बढ़े।
*आनन्द मार्ग अमर है*
दुखों का यह करे अंत,
मिलता इसमें सच्चा संत।
परोपकार इसका लक्ष्य,
सभी के लिए है सुखद।
*आनन्द मार्ग अमर है*
अध्यात्म का यह गहरा ज्ञान,
जीवन में लाए नव संचार।
मन को शांति और सुख दे,
भटकती आत्मा को राह दे।
*आनन्द मार्ग अमर है*
विश्वबंधुत्व का यह संदेश,
मिटाए सब द्वेष।
एक ही ईश्वर सबका मालिक,
सबमें एक ही ज्योति समाहित।
*आनन्द मार्ग अमर है*
प्रगति का यह सच्चा पथ,
मन और आत्मा को दे नया रथ।
परम चेतना का करे अनुभव,
जीवन हो जाए अति दुर्लभ।
*आनन्द मार्ग अमर है*
आनंद और शांति का यह स्रोत,
भविष्य का यह है सच्चा ज्योत।
मिलकर सब करें इसे प्रणाम,
पाएं जीवन का परम धाम।
*आनन्द मार्ग अमर है*
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[23/08, 8:09 pm] Karan Singh(Anand Kiran): • •
*मैं संघ का विधान हूँ, आनंद मार्ग की शान हूँ।*
*मैं चर्याचर्य हूँ, मैं तुम सबका स्वाभिमान हूँ।।*
सत्य की राह पर प्रश्नचिह्न लग रहे,
सत्ता के सिंहासन आज डगमगा रहे।
पद पर कोई और है, खेल कोई और रच रहा,
मैं बाबा का संकल्प, मैं उनका काम हूँ।
*मैं संघ का विधान हूँ, आनंद मार्ग की शान हूँ।*
*मैं चर्याचर्य हूँ, मैं तुम सबका स्वाभिमान हूँ।।*
युग पुरुष के वचन आज बेमोल हो गए,
उनके नाम पर झूठी कहानियों का बोलबाला है।
उनकी शिक्षाओं में आज मिलावट हो रही,
सच्चाई को हर ओर दबाया जा रहा।
मैं सत्य की यही पुकार हूँ।
*मैं संघ का विधान हूँ, आनंद मार्ग की शान हूँ।*
*मैं चर्याचर्य हूँ, मैं तुम सबका स्वाभिमान हूँ।।*
एसडीएम आज सुप्त पड़ा है,
वीएसएस का अस्तित्व लुप्त हो गया है।
पीएसएस को पैरों तले कुचला जा रहा,
अधर्म का यह कैसा खेल जारी है!
न्याय की यही अब गुहार है।
*मैं संघ का विधान हूँ, आनंद मार्ग की शान हूँ।*
*मैं चर्याचर्य हूँ, मैं तुम सबका स्वाभिमान हूँ।।*
आचार्य बोर्ड पर यह कैसी कुदृष्टि पड़ी है?
तात्विक बोर्ड भी अब भय की छाया में है।
अवधूत बोर्ड का मार्ग आज बाधित है,
पुरोधा बोर्ड पर भी संकट के बादल मंडराए हैं।
इस धरती पर छाया है सघन अंधकार।
*मैं संघ का विधान हूँ, आनंद मार्ग की शान हूँ।*
*मैं चर्याचर्य हूँ, मैं तुम सबका स्वाभिमान हूँ।।*
पीयू में अब दादागिरी का राज है,
बाबा के शब्दों पर आज सवाल है।
नैतिकता का पतन हो रहा,
यह कैसी विकृत सरकार है?
*मैं संघ का विधान हूँ, आनंद मार्ग की शान हूँ।*
*मैं चर्याचर्य हूँ, मैं तुम सबका स्वाभिमान हूँ।।*
बाबा के नाम पर राजनीति जारी है,
बाबा की शिक्षाओं के अपमान की बारी है।
धर्म का मार्ग विचलित है,
अनीति का हर ओर बोलबाला है।
पुनः स्थापना की अब है आवश्यकता।
*मैं संघ का विधान हूँ, आनंद मार्ग की शान हूँ।*
*मैं चर्याचर्य हूँ, मैं तुम सबका स्वाभिमान हूँ।।*
भुक्ति प्रधान को बना दिया यशमैन वाला इंसान,
सच्चे सेवक हैं आज गुमनाम।
छद्म भावजड़ता का राज है,
सच्चे मार्गियों को आज किया गया बदनाम।
न्याय की पुकार अब भी जारी है।
*मैं संघ का विधान हूँ, आनंद मार्ग की शान हूँ।*
*मैं चर्याचर्य हूँ, मैं तुम सबका स्वाभिमान हूँ।।*
बाबा के प्रवचनों को आज विकृत किया जा रहा है,
प्रभात रंजन सरकार का नाम मिटाने की साजिश जारी है।
यह इतिहास को बदलने का खेल है,
प्रकाश को बुझाने की कोशिश जारी है।
फिर भी मेरा विश्वास है।
*मैं संघ का विधान हूँ, आनंद मार्ग की शान हूँ।*
*मैं चर्याचर्य हूँ, मैं तुम सबका स्वाभिमान हूँ।।*
सच्चाई को फिर से स्थापित करो,
अधर्म का पूर्णतः नाश करो।
बाबा की शिक्षाओं को पुनः स्थापित करो,
न्याय और धर्म का मार्ग अपनाओ।
यही मेरा संकल्प है।
*मैं संघ का विधान हूँ, आनंद मार्ग की शान हूँ।*
*मैं चर्याचर्य हूँ, मैं तुम सबका स्वाभिमान हूँ।।*
हे आनंदमूर्ति! ,
तेरे नाम की ज्योत जलती रहेगी,
झूठ के ये काले बादल छँट जाएँगे।
सच्चाई की राह फिर से प्रकाशित होगी,
मेरा यह दृढ़ विश्वास है।
*मैं संघ का विधान हूँ, आनंद मार्ग की शान हूँ।*
*मैं चर्याचर्य हूँ, मैं तुम सबका स्वाभिमान हूँ।।*
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[23/08, 10:33 pm] Karan Singh(Anand Kiran):
कुरुक्षेत्र की रणभेरी, वो पार्थ सारथी का प्रण था,
सत्य, न्याय की रक्षा का, एक अटल संकल्प था।
सरस्वती का ज्ञान प्रखर, सिंधु का हृदय विशाल,
आर्यवर्त की गाथा में, गूंजता हर पल था।।
आज भारत की माटी, फिर से अंगड़ाई लेती है,
सदियों की दासता से, नव चेतना जागती है।
विज्ञान, कला की लौ में, ज्ञान का दीपक जलता है,
एक नए अध्याय की, कहानी यहाँ गढ़ती है।।
हिमालय की चोटी पर, राष्ट्र ध्वज फहराता है,
गंगा-यमुना के तट पर, एकता का गीत गाता है।
"वसुधैव कुटुंबकम्" का, मंत्र फिर से उठता है,
विश्व गुरु बनने का, सपना साकार होता है।।
पर, अभी भी अंधकार है, कहीं-कहीं पर छाया,
स्वार्थ की कुटिलता ने, कहीं-कहीं भ्रम फैलाया।
कृष्ण का वो संकल्प, फिर से याद दिलाता है,
धर्म पर चलने का, मार्ग हमें दिखाता है।।
*भविष्य की किरण - प्रउत*
समय की इस राह में, एक नया विचार उठा,
'प्रउत' का सिद्धांत, एक नया सवेरा हुआ।
न लाभ, न शोषण, न ही केवल विकास की होड़,
सर्वजन का हित हो, यह नया संकल्प हुआ।।
शिक्षा, स्वास्थ्य, समानता, हर मानव का अधिकार हो,
धन-सत्ता का विकेंद्रीकरण, हर हाथ में शक्ति हो।
ज्ञान-विज्ञान, धर्म-अर्थ का, सुंदर सामंजस्य हो,
नैतिकता के बल पर ही, भविष्य का निर्माण हो।।
यह 'प्रउत' की ज्योति, भारत से अब जग में फैलेगी,
वसुधा के कण-कण में, मानवता की अलख जगाएगी।
कृष्ण के संकल्प का, यह ही तो सच्चा विस्तार है,
भारत के भविष्य का, यह ही तो स्वर्णिम द्वार है।।
तो उठो, हे भारत के जन, नवयुग का आह्वान सुनो,
अतीत के गौरव से, भविष्य की राह चुनो।
'प्रउत' के पथ पर चलकर, एक नया इतिहास रचो,
विश्व कल्याण की खातिर, स्वयं को समर्पित करो।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[24/08, 7:50 am] Karan Singh(Anand Kiran):
*मैं प्रजापत्य अवस्था में*
प्रकृति के बंधन में,
माया के जाल में फँसा,
एक सगुण ब्रह्म।
अहम् और महत की,
संकीर्ण दीवारों में,
सृष्टि के कण-कण में,
छिपा एक भ्रम।।
फिर उठती है एक ज्वाला,
साधना की पवित्र लौ।
छोड़कर सारे बंधन,
साधने चला अपना लक्ष्य।।
*मैं हिरण्यगर्भ अवस्था में आया*
साधना के पथ पर चलकर,
टूट गए सारे बंधन,
प्रकृति के पार जाकर,
प्रकट हुआ हिरण्यगर्भ।
चेतना का महासागर,
अब है पूर्ण स्वतंत्र,
ज्ञान का सूर्य उदित हुआ,
सारे अज्ञान के बादल छँटे।।
यह वह अवस्था है,
जहाँ ब्रह्म स्वयं को जानता है।
अपनी पूर्णता में,
अपनी मुक्ति में।।
*अणु चैतन्यों में मुक्ति की आकांक्षा जगाई*
अब वह ज्योति,
केवल स्वयं में नहीं,
वह फैलाती है अपना प्रकाश,
हर अणु-कण में।
हिरण्यगर्भ अब सद्गुरु तारकब्रह्म है,
पथ प्रदर्शक है,
जो हर अणु चैतन्य को,
हिरण्यगर्भ बना सकता है।।
यही यात्रा है,
बंधन से मुक्ति की।
अज्ञान से ज्ञान की,
स्वयं को जानने की।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[24/08, 11:28 am] Karan Singh(Anand Kiran):
आओ मिलकर हम एक आनन्द मार्ग बनाएँ।
गुटबाजी बटी आस्था को, सच आधार दें।।
आओ मिलकर हम एक आनन्द मार्ग बनाएँ।।
जीवन को अनुशासन की पहचान दें।
झारखंड, कोलकाता और रांची नहीं,
चर्याचर्य पर आधारित, सच्चा मार्ग हो वही।
बंगाली, बिहारी और उडिया की भावधारा में अटका,
स्वार्थ, महत्वाकांक्षा और पद लोलुपता में भटका,
उस कार्यकर्ता को, सच्चा आनन्द मार्ग दें।।
आओ मिलकर हम एक आनन्द मार्ग बनाएँ।
साधना, सेवा और त्याग का व्रत याद दिलाएँ।।
कर्म को योग का आधार दे,
सबको एक समान व्यवहार दे।
आध्यात्मिक चेतना का संचार हो,
गुरु के प्रति सच्चा प्यार हो।।
आओ मिलकर हम एक आनन्द मार्ग बनाएँ।
अपने लिए बाबा के सपनों का संसार बनाएँ।।
कटुता की दीवार को गिराए,
एकता का नवदीप जलाए।
गुट और नेता का बंधन तोड़े,
प्रेम और बंधुत्व की डोर जोड़े।।
आओ मिलकर हम एक आनन्द मार्ग बनाएँ।
जीवन को सच्चाई का आधार बनाएँ।।
मानवता की सेवा ही धर्म हो,
सबके जीवन का यही मर्म हो।
अज्ञान के अंधकार को मिटाए,
ज्ञान की मशाल जलाए।।
आओ मिलकर हम एक आनन्द मार्ग बनाएँ।
आदर्श को जीवन का संकल्प बनाएँ।।
आत्मसाक्षात्कार का हो मार्ग,
सच्चा और निर्मल हो अनुराग।
परम सत्ता से हो एकीकरण,
यही हो हर साधक का जीवन।।
आओ मिलकर हम एक आनन्द मार्ग बनाएँ।
विश्व शांति का संदेश फैलाएँ।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[25/08, 2:01 pm] Karan Singh(Anand Kiran):
मन की गहराइयों में, एक पुकार जागे,
सत्य की राह पर, जो आत्मा को मांगे।
इन्द्रियाँ मग्न हैं, माया के जंजाल में,
जीवन फँसा है, कर्मों के जाल में।।
तपस्या की ज्वाला, जब अंतर में जलती है,
अज्ञान की परछाई, तब धीरे-धीरे ढलती है।
नियमों का बंधन, और इंद्रियों पर विजय,
साधना की शक्ति से, होता हर भय का क्षय।।
जब जीवन में, कोई भूल हो जाती है,
अंतरात्मा, तब खुद से ही शर्माती है।
प्रायश्चित का मार्ग, तब प्रकाश बन आता है,
कर्मों के दाग को, आँसुओं से धो जाता है।।
गुरु की कृपा से, हर कदम आगे बढ़े,
अनाहत चक्र में, संगीत नया चढ़े।
आनंद मार्ग का, ये ही तो है संदेश,
तपस्या से शुद्धि, प्रायश्चित से मुक्ति, मिटा दे सब क्लेश।।
आनंदमयी जीवन, यही हमारा लक्ष्य है,
परमात्मा के साथ, यही तो सच्चा साक्ष्य है।
न कोई दुःख, न कोई पाप है,
यही तो, मोक्ष का मार्ग, यही तो आनंद का आप है।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[25/08, 8:16 pm] Karan Singh(Anand Kiran):
धृतराष्ट्र ने राष्ट्र नहीं सिंहासन पकड़ा,
अंधे मोह ने उसकी दृष्टि को जकड़ा।
पांडु के पुत्रों का हक छीन लिया,
दुर्योधन के पापों को अनदेखा किया।।
अन्याय की नींव पर महल बना,
कौरवों की अंहकार से दुनिया सना।
न्याय का दीपक बुझा, धर्म हारा,
लोभ की ज्वाला में सब कुछ जला।।
महाभारत का युद्ध भीषण आया,
कुरुक्षेत्र की धरती पर खून बहाया।
धृतराष्ट्र के पुत्रों का हुआ नाश,
सिंहासन की चाह में सब कुछ हुआ खाक।।
यह कथा हमें सबक सिखाती है,
अंधे प्रेम की कीमत चुकाती है।
सिंहासन नहीं, धर्म को पकड़ना चाहिए,
वरना विनाश निश्चित ही आएगा।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
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