*ऋग्वेद: ज्ञान की यात्रा*
पात्र:
* *आनन्द* : ऋग्वेद के गहन ज्ञाता, शांत और धैर्यवान।
* *किरण* : जिज्ञासु युवा, वेदों को जानने को उत्सुक।
*दृश्य* : एक अध्ययन कक्ष, जहाँ पुरानी पांडुलिपियाँ, पुस्तकें और कुछ पारंपरिक भारतीय कलाकृतियाँ रखी हैं। कमरे के बीच में एक छोटी मेज और दो कुर्सियाँ हैं।
(अभिनय की शुरुआत होती है। आनन्द एक प्राचीन पांडुलिपि पढ़ रहे हैं। किरण उत्सुकता से कमरे में प्रवेश करता है।)
*किरण* : नमस्ते, दादाजी! क्या मैं अंदर आ सकता हूँ?
*आनन्द* : (पांडुलिपि से नज़रें हटाते हुए, मुस्कुराकर) आओ, किरण, आओ! मुझे पता था तुम आओगे। तुम्हारी उत्सुकता तुम्हें खींच ही लाती है।
*किरण* : जी, बिल्कुल! आपने कल ऋग्वेद के बारे में थोड़ी बात की थी और तब से मेरा मन और जानने के लिए बेचैन है। क्या आप मुझे उसके बारे में बता सकते हैं?
*आनन्द* : (अपनी कुर्सी की ओर इशारा करते हुए) बैठो, किरण। ऋग्वेद... यह केवल एक पुस्तक नहीं, बल्कि एक युग का दर्पण है, ज्ञान का अनंत सागर है। 10 मंडल, 1028 सूक्त और लगभग 10,600 ऋचाएँ। यह मानव सभ्यता के सबसे प्राचीन लिखित ग्रंथों में से एक है।
*किरण* : 10 मंडल? क्या आप उनके बारे में एक-एक करके बता सकते हैं?
*आनन्द* : अवश्य! तो चलो, हम ऋग्वेद के मंडलों की इस यात्रा पर निकलते हैं।
*प्रथम मंडल: आह्वान और प्रार्थना*
*आनन्द* : हमारा पहला पड़ाव है प्रथम मंडल। यह मंडल विभिन्न देवताओं जैसे अग्नि, इंद्र, मित्र, वरुण और अश्विनीकुमारों को समर्पित है। इसमें मुख्य रूप से आह्वान और प्रार्थनाएँ हैं। यह मंडल ऋषियों के प्रारंभिक स्तोत्रों को दर्शाता है, जहाँ वे देवताओं से सुख, समृद्धि और सुरक्षा की कामना करते हैं। इसमें विभिन्न ऋषियों, जैसे मधुच्छन्दा, मेधातिथि, दीर्घतमा आदि के भजन शामिल हैं।
*किरण* : तो यह देवताओं से परिचय करवाता है?
*आनन्द* : बिल्कुल! यह ऋग्वैदिक देवताओं की शक्ति और महत्व को स्थापित करता है।
*द्वितीय मंडल: गृहत्समद का मंडल*
*आनन्द* : अब हम आते हैं द्वितीय मंडल पर, जो मुख्य रूप से ऋषि गृहत्समद और उनके परिवार को समर्पित है। इस मंडल में इंद्र और अग्नि के कई महत्वपूर्ण स्तोत्र हैं। इसमें यज्ञों और अनुष्ठानों की महत्ता पर भी प्रकाश डाला गया है।
*किरण* : एक ही ऋषि को समर्पित?
*आनन्द* : हाँ, ऋग्वेद के कुछ मंडल विशेष ऋषि परिवारों को समर्पित हैं, जो उनके द्वारा रचे गए भजनों का संग्रह हैं।
*तृतीय मंडल: विश्वामित्र और गायत्री छंद*
*आनन्द* : तृतीय मंडल अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें प्रसिद्ध गायत्री छंद शामिल है, जिसे ऋषि विश्वामित्र द्वारा रचा गया माना जाता है। यह मंडल मुख्य रूप से अग्नि और इंद्र को समर्पित है, लेकिन इसका मुख्य आकर्षण सूर्यदेव सविता को समर्पित गायत्री छंद है। यह शक्ति, ज्ञान और प्रकाश का प्रतीक है।
*किरण* : गायत्री छंद! यह तो मुझे पता है। यह मंडल इतना खास है!
*आनन्द* : यह हमें आत्मज्ञान और ब्रह्म के करीब ले जाता है।
*चतुर्थ मंडल: वामदेव का मंडल*
*आनन्द* : आगे बढ़ते हैं चतुर्थ मंडल की ओर। यह मंडल मुख्य रूप से ऋषि वामदेव और उनके परिवार को समर्पित है। इसमें भी इंद्र और अग्नि के कई स्तोत्र हैं, जो उनकी वीरता और शक्ति का वर्णन करते हैं। कृषि, वर्षा और समृद्धि की प्रार्थनाएँ भी इसमें पाई जाती हैं।
*किरण* : लगता है इंद्र और अग्नि सबसे महत्वपूर्ण देवता थे।
*आनन्द* : उस काल में, हाँ, वे प्रकृति की महान शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते थे और जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थे।
*पंचम मंडल: अत्रि का मंडल*
*आनन्द* : हमारा अगला पड़ाव है पंचम मंडल, जो ऋषि अत्रि और उनके परिवार को समर्पित है। इस मंडल में इंद्र, अग्नि, मरुत, मित्र, वरुण और अश्विनीकुमारों के स्तोत्र हैं। यह मंडल जीवन के विभिन्न पहलुओं, जैसे युद्ध में विजय, रोगमुक्ति और संतान प्राप्ति के लिए प्रार्थनाओं को दर्शाता है।
*किरण* : तो ये मंडल अलग-अलग ऋषियों के योगदान को दर्शाते हैं।
*आनन्द* : सही पहचाना। ये हमें विभिन्न ऋषि परिवारों की धार्मिक और दार्शनिक समझ का परिचय देते हैं।
*षष्ठ मंडल: भारद्वाज का मंडल*
*आनन्द* : अब हम आते हैं षष्ठ मंडल पर, जो ऋषि भारद्वाज और उनके परिवार से संबंधित है। यह मंडल भी मुख्य रूप से इंद्र और अग्नि को समर्पित है। इसमें यज्ञ अनुष्ठानों, युद्धों में सहायता और शत्रुओं पर विजय के लिए प्रार्थनाएँ मिलती हैं।
*किरण* : तो पहले छह मंडल मुख्य रूप से इंद्र और अग्नि पर केंद्रित हैं?
*आनन्द* : हाँ, इन मंडलों को "पारिवारिक मंडल" भी कहा जाता है क्योंकि वे विशेष ऋषि परिवारों के भजन संग्रह हैं।
*सप्तम मंडल: वशिष्ठ का मंडल*
*आनन्द* : अब बात करते हैं सप्तम मंडल की, जो ऋषि वशिष्ठ और उनके परिवार को समर्पित है। यह मंडल इंद्र, अग्नि, वरुण, मित्र और मरुतों के स्तोत्रों से भरा है। इसमें वरुण देव को समर्पित कई महत्वपूर्ण भजन हैं, जो नैतिक व्यवस्था (ऋत) और सत्य के संरक्षक के रूप में उनकी भूमिका को दर्शाते हैं।
*किरण* : वरुण देव! उनके बारे में ज्यादा नहीं सुना।
आनन्द: वरुण नैतिकता, न्याय और ब्रह्मांडीय व्यवस्था के देवता हैं। उनका महत्व इस मंडल में विशेष रूप से उभरता है।
*अष्टम मंडल: कण्व और अंगिरस का मंडल*
*आनन्द* : हमारा आठवाँ पड़ाव है अष्टम मंडल। यह मंडल मुख्य रूप से ऋषि कण्व और अंगिरस के वंशजों के भजनों का संग्रह है। इसमें इंद्र, अग्नि और अश्विनीकुमारों के स्तोत्र शामिल हैं। इसमें कुछ अद्वितीय प्रार्थनाएँ और संवाद भी हैं, जो इसे अन्य मंडलों से अलग बनाते हैं।
*किरण* : संवाद भी? यह तो और दिलचस्प हो गया।
*आनन्द* : हाँ, ऋग्वेद में कुछ सूक्त संवाद शैली में भी हैं, जो ऋषि और देवताओं के बीच बातचीत को दर्शाते हैं।
*नवम मंडल: सोम मंडल*
*आनन्द* : अब हम आते हैं नवम मंडल पर, जिसे सोम मंडल के नाम से भी जाना जाता है। यह मंडल पूरी तरह से सोम देवता और सोम रस की तैयारी और उसके प्रभाव को समर्पित है। सोम एक पवित्र पेय था जिसका उपयोग यज्ञों में किया जाता था और इसे देवताओं को अर्पित किया जाता था।
*किरण* : पूरा मंडल एक ही देवता को समर्पित? यह तो अनोखा है।
*आनन्द* : बिल्कुल! सोम ऋग्वैदिक संस्कृति में अत्यंत महत्वपूर्ण था, जिसे आनंद, प्रेरणा और अमरता प्रदान करने वाला माना जाता था।
*दशम मंडल: पुरुष सूक्त और नासदीय सूक्त*
*आनन्द* : और अंत में, हमारा अंतिम पड़ाव है दशम मंडल, जो सबसे नया और सबसे दार्शनिक मंडल माना जाता है। इसमें कई महत्वपूर्ण सूक्त हैं, जैसे पुरुष सूक्त (जो सृष्टि के वर्णन और वर्ण व्यवस्था की अवधारणा को प्रस्तुत करता है) और नासदीय सूक्त (जो सृष्टि के रहस्य और उसके आरम्भ पर गहन दार्शनिक प्रश्न उठाता है)। इसमें विवाह, मृत्यु और विभिन्न सामाजिक पहलुओं पर भी सूक्त हैं।
*किरण* : सृष्टि का रहस्य! यह तो बहुत गहरा है।
*आनन्द* : यह मंडल ऋग्वैदिक ऋषियों की दार्शनिक परिपक्वता को दर्शाता है, जहाँ वे सृष्टि, अस्तित्व और परम सत्य पर विचार करते हैं। यह हमें सोचने पर मजबूर करता है।
*किरण* : (आँखों में चमक के साथ) आनन्द जी, यह अविश्वसनीय है! मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि ऋग्वेद इतना विस्तृत और गहरा होगा। हर मंडल की अपनी एक कहानी है, अपनी एक विशेषता है।
*आनन्द* : (मुस्कुराते हुए) हाँ, किरण। ऋग्वेद केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं है, यह एक इतिहास है, एक संस्कृति है, एक दर्शन है। यह हमें प्राचीन भारत की जीवन शैली, उनके विश्वासों, उनकी प्रार्थनाओं और उनके ज्ञान से जोड़ता है। यह हमें सिखाता है कि प्रकृति का सम्मान कैसे करें, देवताओं का आह्वान कैसे करें और जीवन के गहरे अर्थों को कैसे समझें।
*किरण* : मुझे लगता है कि मैंने अभी केवल सतह को छुआ है। मुझे इसे और गहराई से पढ़ना होगा।
*आनन्द* : (खुशी से) यही तो मैं चाहता था, किरण! यह ज्ञान अनंत है। तुम जितना गहरा जाओगे, उतना ही पाओगे। ऋग्वेद एक मार्गदर्शक है, जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है।
(आनन्द और किरण दोनों एक-दूसरे की ओर देखते हैं, उनके चेहरों पर ज्ञान की संतुष्टि और आगे बढ़ने की उत्सुकता दिखाई देती है। धीरे-धीरे रोशनी मंद होती है और अभिनय समाप्त होता है।)
`एकांकीकार - करण सिंह राजपुरोहित (शिवतलाव`
*यजुर्वेद: ज्ञान की यात्रा*
पात्र:
* *आनंद* : यजुर्वेद के गहन ज्ञाता, शांत और ज्ञानी स्वभाव के।
* *किरण* : युवा और जिज्ञासु, यजुर्वेद के बारे में जानने को उत्सुक।
*दृश्य* : एक शांत अध्ययन कक्ष। मेज पर कुछ प्राचीन ग्रंथ और दीपक रखा है।
(पर्दा उठता है। किरण कमरे में प्रवेश करता है, आनंद पहले से ही एक ग्रंथ के पास बैठे हैं।)
*किरण* : (विनम्रता से) नमस्कार, दादा जी।
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) नमस्कार किरण। आओ बैठो। लगता है आज फिर तुम्हारे मन में कोई प्रश्न उमड़ रहा है।
*किरण* : बिल्कुल दादा जी। आपने वेदों के बारे में बताया है, और मेरी सबसे ज़्यादा उत्सुकता यजुर्वेद को लेकर है। सुना है यह बहुत विशाल और महत्वपूर्ण है।
*आनंद* : (दीपक की ओर देखते हुए) तुम्हारी जिज्ञासा उचित है, किरण। यजुर्वेद वास्तव में वेदों में एक केंद्रीय स्थान रखता है। यह कर्मकांड प्रधान वेद है, जिसमें यज्ञों और अनुष्ठानों का विस्तृत वर्णन है।
किरण: यज्ञ? जैसे अग्निहोत्र और सोमयज्ञ?
*आनंद* : हाँ, ठीक समझे। यजुर्वेद का शाब्दिक अर्थ है 'यजुस' यानी यज्ञ और 'वेद' यानी ज्ञान। यह वह वेद है जो यज्ञों को संपन्न कराने की विधि और मंत्रों को समर्पित है।
किरण: लेकिन मैंने सुना है यजुर्वेद के दो प्रमुख भाग हैं – कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद। इनमें क्या अंतर है?
कृष्ण यजुर्वेद: रहस्य और मंत्रों का संगम।
*आनंद* : (गंभीर होते हुए) बहुत अच्छा प्रश्न, किरण। यहीं से यजुर्वेद की गहराई शुरू होती है। सबसे पहले बात करते हैं कृष्ण यजुर्वेद की। इसका नाम 'कृष्ण' इसलिए पड़ा क्योंकि इसमें मंत्र और ब्राह्मण (व्याख्यात्मक पाठ) एक साथ, मिले-जुले रूप में पाए जाते हैं। यह कुछ हद तक जटिल और अव्यवस्थित प्रतीत होता है, जैसे अंधेरे में बिखरे हुए मोती।
*किरण* : तो क्या यह समझना कठिन है?
*आनंद* : आरंभ में ऐसा लग सकता है। कृष्ण यजुर्वेद में मुख्य रूप से चार संहिताएँ हैं: तैत्तिरीय संहिता, मैत्रायणी संहिता, कठ संहिता और कपिष्ठल कठ संहिता। इनमें से तैत्तिरीय संहिता सबसे प्रसिद्ध है। यह संहिता यज्ञ की प्रक्रियाओं, उनके मंत्रों और उन मंत्रों के पीछे की कथाओं, और दर्शन को एक साथ प्रस्तुत करती है।
*किरण* : क्या इसमें सिर्फ यज्ञ के बारे में है या कुछ और भी?
*आनंद* : नहीं, केवल यज्ञ नहीं। इसमें विभिन्न प्रकार के यज्ञों का विवरण है, जैसे अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास (अमावस्या और पूर्णिमा के यज्ञ), सोमयज्ञ आदि। साथ ही, इसमें जीवन के विभिन्न पहलुओं से जुड़े मंत्र भी हैं, जैसे रोगों से मुक्ति, शत्रुओं पर विजय, समृद्धि की प्राप्ति। इसमें ब्राह्मण ग्रंथों की तरह ही यज्ञों के उद्देश्य, उनसे मिलने वाले फल और उनके प्रतीकात्मक अर्थ की भी चर्चा मिलती है। यह कर्मकांड के साथ-साथ उपनिषदों की दार्शनिक पृष्ठभूमि भी तैयार करता है।
*किरण* : यह तो बहुत विस्तृत लगता है।
*आनंद* : है भी। कृष्ण यजुर्वेद में हमें यज्ञों की बारीकियां, उनके क्रम, उपयोग की जाने वाली सामग्री, और प्रत्येक चरण में उच्चारित होने वाले मंत्र मिलते हैं। यह ऋग्वेद के स्तोत्रों से अलग है, क्योंकि यहाँ मंत्र क्रियाओं से सीधे जुड़े हुए हैं।
शुक्ल यजुर्वेद: प्रकाश और स्पष्टता का मार्ग
*किरण* : और शुक्ल यजुर्वेद? वह इससे कैसे अलग है? क्या वह 'प्रकाशमय' है?
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) बिल्कुल सही कहा तुमने, किरण। 'शुक्ल' का अर्थ है 'श्वेत' या 'प्रकाशमान'। शुक्ल यजुर्वेद में मंत्र और ब्राह्मण पूरी तरह से अलग-अलग हैं। यहाँ मंत्र भाग को संहिता कहा जाता है और ब्राह्मण भाग को शतपथ ब्राह्मण। यह स्पष्ट, व्यवस्थित और सुबोध है। जैसे दिन के प्रकाश में सब कुछ स्पष्ट दिखाई देता है।
*किरण* : यह तो सुनने में ज्यादा सरल लगता है।
*आनंद* : हाँ, इसकी संरचना अधिक व्यवस्थित है। शुक्ल यजुर्वेद की दो प्रमुख शाखाएँ हैं: वाजसनेयी माध्यंदिन संहिता और वाजसनेयी कण्व संहिता। इनमें से माध्यंदिन संहिता अधिक प्रचलित है। इसमें यज्ञों से संबंधित केवल मंत्रों का संग्रह है।
*किरण* : तो क्या इसमें भी वही यज्ञ हैं जो कृष्ण यजुर्वेद में हैं?
*आनंद* : हाँ, मुख्य यज्ञ वही हैं, जैसे दर्शपूर्णमास, अग्निहोत्र, वाजपेय, राजसूय, अश्वमेध। लेकिन शुक्ल यजुर्वेद का मुख्य ध्यान मंत्रों की शुद्धता और उनके सही उच्चारण पर है। शतपथ ब्राह्मण, जो शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण भाग है, अत्यंत विशाल और महत्वपूर्ण है। यह वैदिक साहित्य में सबसे बड़ा ब्राह्मण ग्रंथ है।
*किरण* : शतपथ ब्राह्मण क्या बताता है?
*आनंद* : शतपथ ब्राह्मण में यज्ञों की विस्तृत व्याख्या, उनके प्रतीकात्मक अर्थ, उनके पीछे की पौराणिक कथाएँ और दार्शनिक विचार दिए गए हैं। यह वैदिक कर्मकांड की कुंजी है। यह यज्ञों को केवल बाहरी क्रियाकलाप नहीं मानता, बल्कि उन्हें ब्रह्मांडीय प्रक्रियाओं और आध्यात्मिक उन्नयन से जोड़ता है। इसमें आत्मा, ब्रह्म, सृष्टि, और नैतिक मूल्यों पर भी गहरा चिंतन मिलता है। कई उपनिषदों का मूल भी इसी में निहित है।
*किरण* : यह तो बहुत अद्भुत है! तो, कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद का मूल अंतर क्या है?
दोनों का तुलनात्मक अध्ययन।
*आनंद* : देखो, मुख्य अंतर है उनकी संरचना और प्रस्तुति शैली में।
* *कृष्ण यजुर्वेद:*
* मंत्र और ब्राह्मण (व्याख्यात्मक भाग) मिले-जुले होते हैं।
* संरचना अव्यवस्थित लग सकती है, लेकिन यह यज्ञों की जटिलता को समग्रता में प्रस्तुत करती है।
* मुख्य संहिताएँ: तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ।
* *शुक्ल यजुर्वेद:*
* मंत्र (संहिता) और ब्राह्मण (शतपथ ब्राह्मण) अलग-अलग होते हैं।
* संरचना व्यवस्थित और स्पष्ट होती है।
* मुख्य संहिताएँ: वाजसनेयी माध्यंदिन, वाजसनेयी कण्व।
आनंद: दोनों का लक्ष्य एक ही है – यज्ञों का सफल संपादन और उनके माध्यम से आध्यात्मिक तथा भौतिक उन्नति। लेकिन उनका दृष्टिकोण अलग-अलग है। कृष्ण यजुर्वेद उस ऋषि की तरह है जो यज्ञ करते हुए ही उसके गूढ़ अर्थ को समझाता जाता है, जबकि शुक्ल यजुर्वेद उस ग्रंथ की तरह है जहाँ पहले सभी मंत्र दिए गए हैं, और फिर एक अलग ग्रंथ में उनकी विस्तृत व्याख्या है।
*किरण* : क्या कोई शाखा किसी दूसरी से अधिक महत्वपूर्ण है?
*आनंद* : नहीं, दोनों का अपना महत्व है। कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा और शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी शाखा दोनों ही आज भी अध्ययन और अनुष्ठानों में प्रचलित हैं। कई वैदिक विद्वान दोनों का अध्ययन करते हैं। कृष्ण यजुर्वेद का दर्शन और गूढ़ता उसे विशेष बनाती है, वहीं शुक्ल यजुर्वेद की स्पष्टता और शतपथ ब्राह्मण की विशालता उसे अद्वितीय बनाती है।
*किरण* : तो क्या इन वेदों का आज भी महत्व है? हम तो यज्ञ आदि उतना नहीं करते।
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) बहुत अच्छा प्रश्न, किरण। वेदों का महत्व केवल कर्मकांड तक सीमित नहीं है। यजुर्वेद हमें सिखाता है निश्चित कर्म और अनुशासन का महत्व। यह हमें बताता है कि सही ढंग से किए गए कर्म ही वांछित परिणाम देते हैं। यज्ञ केवल बाहरी अग्नि में आहुति देना नहीं है, यह आत्मशुद्धि, समर्पण और ब्रह्मांडीय ऊर्जा के साथ सामंजस्य स्थापित करने का प्रतीक है।
*आनंद* : यजुर्वेद में वर्णित मंत्रों की ध्वनि, उनके कंपन और उनके अर्थ में आज भी वैज्ञानिक और आध्यात्मिक गहराई है। यह हमें प्रकृति के नियमों, देवताओं की शक्तियों और मनुष्य के भीतर की क्षमता को समझने में मदद करता है। इसमें सामाजिक सद्भाव, राष्ट्र की समृद्धि और व्यक्तिगत कल्याण के लिए भी मार्गदर्शन मिलता है।
*किरण* : तो, यजुर्वेद हमें कर्म के महत्व और उसके पीछे के दर्शन को सिखाता है।
*आनंद* : बिल्कुल। यह हमें बताता है कि जीवन में प्रत्येक क्रिया का एक उद्देश्य होता है, और उसे सही विधि से करना चाहिए। यह केवल बाहरी कर्म नहीं, बल्कि हमारे विचारों और भावनाओं को भी शुद्ध करने का मार्ग दिखाता है।
*किरण* : दादा जी, आज आपने यजुर्वेद के इन दो रूपों को इतनी सरलता से समझाया कि मेरी सारी शंकाएं दूर हो गईं। ऐसा लगता है जैसे ज्ञान का एक नया द्वार खुल गया हो।
*आनंद* : (प्रेमपूर्वक किरण के कंधे पर हाथ रखते हुए) यही तो वेदों की महिमा है, किरण। वेदों का ज्ञान असीम है, और जितनी गहराई में तुम जाओगे, उतने ही नए रहस्य उजागर होंगे। यह केवल पुस्तकों का ज्ञान नहीं, जीवन जीने का एक मार्ग है।
*किरण* : मैं कृतज्ञ हूँ दादा जी। इस ज्ञान के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) तुम्हारी जिज्ञासा ही तुम्हें ज्ञान के मार्ग पर आगे बढ़ाएगी, किरण। लगे रहो।
(आनंद और किरण एक दूसरे को देखते हैं, दोनों के चेहरों पर संतोष का भाव है। आनंद वापस अपने ग्रंथ की ओर मुड़ जाते हैं। किरण उठकर श्रद्धापूर्वक प्रणाम करता है और फिर धीमे कदमों से बाहर निकल जाता है।)
(पर्दा गिरता है।)
`एकांकीकार - करण सिंह राजपुरोहित (शिवतलाव)`
*सामवेद: स्वरों का अमृत*
पात्र:
* *आनन्द* : सामवेद का गहरा ज्ञान रखने वाला एक शांत और अनुभवी व्यक्ति।
* *किरण* : सामवेद को जानने के लिए उत्सुक एक युवा और जिज्ञासु।
*स्थल* : एक शांत उपवन, जहाँ प्राकृतिक सौंदर्य और पक्षियों का कलरव है। मंच पर एक वेदी और कुछ आसन रखे हैं।
(दृश्य आरंभ होता है। किरण बेचैनी से टहल रहा है, कुछ सोच रहा है। आनन्द शांत भाव से एक आसन पर बैठे हैं, आंखें बंद कर कुछ गुनगुना रहे हैं।)
*किरण* : (स्वगत) सामवेद... वेदों में सबसे संगीतपूर्ण वेद। पर क्या है इसमें? सिर्फ मंत्र या कुछ और? क्या इसे समझना इतना मुश्किल है?
*आनन्द* : (आँखें खोलकर, मुस्कुराते हुए) बेचैनी कैसी, वत्स? मन में कोई प्रश्न है?
*किरण* : (चौंककर) दादाजी! क्षमा करें, मैंने आपको ध्यान में भंग किया। मैं सामवेद के बारे में सोच रहा था। यह मुझे बहुत रहस्यमयी लगता है।
*आनन्द* : रहस्यमयी? कदापि नहीं! सामवेद तो जीवन का अमृत है, स्वरों का महासागर है। इसमें रहस्य नहीं, बल्कि सीधा अनुभव है। बैठो, किरण।
(किरण आदरपूर्वक बैठ जाता है।)
*किरण* : दादाजी, मैंने सुना है कि सामवेद सिर्फ गाने के लिए है। क्या यह सत्य है? क्या इसमें ज्ञान और दर्शन नहीं है?
*आनन्द* : (हल्की मुस्कान के साथ) यह एक सामान्य भ्रांति है, किरण। सामवेद केवल 'गान' नहीं है, बल्कि ज्ञान का गान है। यह ऋग्वेद के मंत्रों का संगीतमय रूपांतरण है। कल्पना करो, ऋग्वेद के मंत्र जैसे शरीर हैं, और सामवेद उनमें प्राणवायु की तरह संगीत भरता है।
*किरण* : ओह! तो इसका मतलब है कि इसमें ऋग्वेद के ही मंत्र हैं?
*आनन्द* : हाँ, अधिकांश मंत्र ऋग्वेद से ही लिए गए हैं, लेकिन उन्हें विशेष साम-गायन के लिए रूपांतरित किया गया है। सामवेद में मुख्य रूप से 75 मूल मंत्र हैं, बाकी सभी ऋग्वेद से लिए गए हैं। कुल मिलाकर, इसमें 1875 मंत्र हैं।
*किरण* : 1875 मंत्र! यह तो बहुत अधिक हैं! और क्या सभी को गाया जाता है?
*आनन्द* : हाँ, इन सभी मंत्रों को विशेष ध्वनि, स्वर और लय के साथ गाया जाता है। यही सामगान की विशेषता है। सामवेद को भारतीय शास्त्रीय संगीत का जनक भी माना जाता है। हमारे सप्त स्वर - सा, रे, गा, मा, पा, धा, नि - की उत्पत्ति भी सामवेद से ही मानी जाती है।
*किरण* : यह अविश्वसनीय है! तो क्या सामवेद सिर्फ धार्मिक अनुष्ठानों के लिए है?
आनन्द: इसका उपयोग यज्ञों और अनुष्ठानों में होता है, विशेषकर सोम यज्ञ में। सामवेद के गायक, जिन्हें उद्गाता कहा जाता है, देवताओं का आह्वान करने और वातावरण को शुद्ध करने के लिए इन सामगानों का प्रयोग करते हैं। लेकिन इसका महत्व केवल अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है।
सामवेद का दर्शन और उपादेयता।
*आनन्द* : सामवेद हमें सिखाता है कि कैसे ध्वनि और संगीत के माध्यम से हम ब्रह्मांड से जुड़ सकते हैं। यह मन को शांत करता है, एकाग्रता बढ़ाता है, और आत्मा को ऊर्जावान बनाता है। सामगान का अभ्यास हमें आंतरिक शांति और सामंजस्य स्थापित करने में मदद करता है।
*किरण* : तो क्या इसका दर्शन भी है, दादाजी?
*आनन्द* : बिल्कुल। सामवेद के मंत्र, जब गाए जाते हैं, तो उनमें एक दिव्य ऊर्जा उत्पन्न होती है। यह ऊर्जा केवल सुनने वाले को ही नहीं, बल्कि गाने वाले को भी प्रभावित करती है। यह हमें प्रकृति के साथ, ब्रह्मांड के साथ एक गहरे संबंध का अनुभव कराती है। यह आत्म-खोज का मार्ग प्रशस्त करता है।
*किरण* : क्या सामवेद की कोई विशेष शाखाएँ हैं?
*आनन्द* : हाँ, सामवेद की मुख्य रूप से तीन शाखाएँ प्रचलित हैं: कौथुमीय, राणायनीय और जैमिनीय। इन सभी में सामगान की अपनी-अपनी विशिष्ट शैलियाँ और क्रम हैं।
*किरण* : क्या आप सामवेद के कुछ प्रमुख मंडलों के बारे में बता सकते हैं?
*आनन्द* : सामवेद को मुख्य रूप से पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक में विभाजित किया गया है।
* *पूर्वार्चिक* में अग्नि, इंद्र और सोम के विषय में मंत्र हैं, जिन्हें सामान्यतः 'साम' कहा जाता है इसमें 650 मंत्र हैं।
* *उत्तरार्चिक* में विभिन्न देवताओं और विशेष अनुष्ठानों के लिए सामगान का संग्रह है। इसमें 1225 मंत्र हैं।
इनके अलावा, सामवेद के उपनिषद भी बहुत महत्वपूर्ण हैं, जैसे कि छान्दोग्य उपनिषद और केनोपनिषद। ये उपनिषद सामवेद के गहन दार्शनिक पहलुओं की व्याख्या करते हैं।
सामवेद का दैनिक जीवन में प्रभाव।
*किरण* : दादाजी, क्या सामवेद आज भी हमारे लिए प्रासंगिक है?
*आनन्द* : निःसंदेह, किरण! आज के इस भागदौड़ भरे जीवन में सामवेद की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। सामगान का अभ्यास तनाव कम करने, मानसिक शांति प्रदान करने और ध्यान केंद्रित करने में अद्भुत रूप से सहायक है। यह हमें प्रकृति से जुड़ने और अपनी आंतरिक शक्तियों को जागृत करने की प्रेरणा देता है।
*किरण* : क्या हम भी सामगान का अभ्यास कर सकते हैं?
*आनन्द* : क्यों नहीं? सामगान सीखना कोई आसान कार्य नहीं है, इसमें वर्षों का अभ्यास और गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक है। लेकिन इसके मंत्रों को सुनना और उनकी ध्वनि में लीन होना भी अपने आप में एक ध्यान है। तुम सुन सकते हो, अनुभव कर सकते हो।
(आनन्द अपनी आँखें बंद करते हैं और एक छोटा सा सामगान गुनगुनाना शुरू करते हैं। उनकी आवाज में एक अद्भुत शांति और गहराई है। किरण मंत्रमुग्ध होकर सुनता है।)
*आनन्द* : (गायन समाप्त कर, आँखें खोलते हुए) इस ध्वनि में ही सब कुछ है, किरण। यह केवल शब्द नहीं, बल्कि ब्रह्मांड की ध्वनि है।
*किरण* : (गहरी साँस लेते हुए) अद्भुत, दादाजी! आज आपने सामवेद को मेरे लिए एक रहस्य से हटाकर एक जीवंत अनुभव बना दिया। मैंने समझा कि यह केवल मंत्रों का संग्रह नहीं, बल्कि जीवन की लय है, ब्रह्मांड का संगीत है।
*आनन्द* : यही सामवेद का सार है, किरण। यह हमें सिखाता है कि कैसे हर ध्वनि में, हर क्षण में, ईश्वर का वास है। यह हमें सामंजस्य और संतुलन की ओर ले जाता है।
*किरण* : मैं आपका आभारी हूँ, दादाजी। मैं सामवेद को और गहराई से जानने का प्रयास करूंगा।
*आनन्द* : यही तो मेरा उद्देश्य था, किरण। याद रखना, सामवेद सिर्फ सुना नहीं जाता, बल्कि अनुभव किया जाता है। यह हृदय से गाया जाता है, और हृदय को ही छूता है।
(आनन्द और किरण एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराते हैं। मंच पर धीरे-धीरे प्रकाश कम होता जाता है, सामगान की हल्की गूँज शेष रह जाती है।)
(पर्दा गिरता है)
`एकांकीकार - करण सिंह राजपुरोहित (शिवतलाव)`
*अथर्ववेद: ज्ञान की खोज*
पात्र:
* *आनंद* : अथर्ववेद के प्रकांड विद्वान और आध्यात्मिक पुरुष।
* *किरण* : जिज्ञासु , जो अथर्ववेद को जानना चाहता है।
*स्थान* : एक शांत उपवन, जहाँ एक बड़ा वृक्ष है और नीचे बैठने के लिए एक चबूतरा।
(पर्दा उठता है। आनंद, सफेद धोती और कुर्ता पहने, आँखें बंद किए ध्यानमग्न बैठे हैं। किरण उत्सुकता से उनके पास आता है, हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है। कुछ क्षण बाद, आनंद आँखें खोलते हैं और मुस्कुराते हैं।)
*किरण* : (विनम्रता से) नमस्कार दादाजी!
*आनंद* : (स्नेह से) नमस्कार किरण! कहो, कैसे आना हुआ? तुम्हारी आँखों में कुछ जानने की तीव्र इच्छा दिख रही है।
*किरण* : दादाजी, मैं अथर्ववेद के बारे में जानना चाहता हूँ। मैंने सुना है कि यह वेदों में सबसे अलग है, लेकिन इसकी गहराई को समझ नहीं पा रहा हूँ। कृपया मेरा मार्गदर्शन करें।
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) तुम्हारी जिज्ञासा सराहनीय है, पुत्र। अथर्ववेद वास्तव में अनूठा है। आओ, बैठो।
(किरण बैठ जाता है।)
*आनंद* : देखो, अथर्ववेद को 'अथर्वांगिरस वेद' भी कहते हैं। जहाँ ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद मुख्य रूप से यज्ञ, अनुष्ठान और स्तुतियों पर केंद्रित हैं, वहीं अथर्ववेद हमारे दैनिक जीवन, समाज, स्वास्थ्य और कल्याण से अधिक जुड़ा हुआ है। यह केवल प्रार्थनाओं का संग्रह नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला का विज्ञान है।
*किरण* : तो क्या इसमें जादू-टोना और अंधविश्वास जैसी बातें हैं, दादाजी? मैंने ऐसा कुछ सुना था।
*आनंद* : (हँसते हुए) यह एक आम भ्रांति है, किरण। अथर्ववेद को अक्सर 'जादू-टोने' से जोड़ा जाता है, लेकिन यह समझना आवश्यक है कि यहाँ 'जादू' का अर्थ प्राकृतिक शक्तियों और मंत्रों के सही उपयोग से है। इसमें रोगों को ठीक करने के लिए औषधीय पौधों का ज्ञान है, शत्रुओं से रक्षा के लिए सुरक्षात्मक मंत्र हैं, और सुख-समृद्धि के लिए किए जाने वाले अनुष्ठान भी हैं। यह सकारात्मक ऊर्जा के उपयोग पर बल देता है।
*किरण* : क्या आप कुछ उदाहरण दे सकते हैं?
*आनंद* : अवश्य। अथर्ववेद का एक बड़ा हिस्सा *आयुर्वेद* से संबंधित है। इसमें विभिन्न रोगों जैसे ज्वर, कुष्ठ, पीलिया आदि के उपचार के लिए मंत्रों और औषधियों का वर्णन है। यह उस समय के चिकित्सा विज्ञान को दर्शाता है। उदाहरण के लिए, इसमें एक सूक्त है जो कहता है, "हे औषधि! तुम वनस्पतियों में श्रेष्ठ हो, तुम रोगों को दूर करती हो।"
*किरण* : यह तो बहुत अद्भुत है! और क्या है इसमें?
*आनंद* : अथर्ववेद केवल व्यक्तिगत कल्याण तक सीमित नहीं है। यह सामाजिक सामंजस्य और राष्ट्र प्रेम की भी बात करता है। इसमें ' *भूमि सूक्त'* जैसा प्रसिद्ध भाग है, जहाँ पृथ्वी को माता के रूप में पूजनीय बताया गया है और उसके प्रति हमारे कर्तव्यों का वर्णन किया गया है। यह दिखाता है कि कैसे हमारा संबंध पर्यावरण और समाज से गहरा जुड़ा हुआ है।
*किरण* : भूमि सूक्त... यह तो मुझे और भी दिलचस्प लग रहा है।
*आनंद* : बिल्कुल! इसके अलावा, *अथर्ववेद में विवाह, गृह-निर्माण, व्यापार और कृषि जैसे लौकिक विषयों पर भी* मार्गदर्शन है। यह बताता है कि कैसे एक सुखी गृहस्थ जीवन जिया जाए, कैसे व्यापार में सफलता प्राप्त की जाए, और कैसे कृषि को उन्नत बनाया जाए। यह एक प्रकार से उस समय के समाज के लिए एक व्यापक जीवन-दर्शन था।
*किरण* : यानी यह सिर्फ धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि एक व्यावहारिक मार्गदर्शक भी है?
*आनंद* : ठीक समझे! यह हमें बताता है कि कैसे हम अपने जीवन में सकारात्मकता ला सकते हैं, कैसे समस्याओं का समाधान कर सकते हैं, और कैसे एक सुखी और समृद्ध जीवन जी सकते हैं। इसमें आत्मरक्षा, शत्रु-नाश (नकारात्मक शक्तियों का नाश), और शांति के लिए भी मंत्र हैं। यह 'अभिचार' यानी दूसरों को नुकसान पहुँचाने वाले मंत्रों की भी बात करता है, लेकिन इसका उद्देश्य उन्हें जानना और उनसे बचाव करना है, न कि उनका गलत उपयोग करना।
*किरण* : दादाजी, आपने मेरी आँखों से पर्दा हटा दिया। मैं अथर्ववेद को अब एक नए दृष्टिकोण से देख पा रहा हूँ। यह सिर्फ अनुष्ठानों का संग्रह नहीं, बल्कि जीवन के हर पहलू को छूने वाला एक गहन ज्ञानकोश है।
*आनंद* : यही तो अथर्ववेद की सुंदरता है, किरण। यह हमें सिखाता है कि आध्यात्मिकता केवल मंदिरों या जंगलों में नहीं, बल्कि हमारे दैनिक जीवन के हर कर्म में निहित है। यह हमें प्रकृति से जुड़ना सिखाता है, समाज से जुड़ना सिखाता है, और सबसे महत्वपूर्ण, अपने आप से जुड़ना सिखाता है।
*किरण* : मैं आपका बहुत आभारी हूँ, दादाजी। अब मैं अथर्ववेद का अध्ययन और भी गहनता से कर पाऊँगा।
*आनंद* : (शुभकामनाएं देते हुए) मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं, किरण। ज्ञान की यह यात्रा कभी समाप्त नहीं होती। जाओ, और इस ज्ञान को अपने जीवन में उतारो।
(किरण आनंद के चरणों को छूता है। आनंद मुस्कुराते हुए उसे देखते हैं। पर्दा गिरता है।)
`एकांकीकार - करण सिंह राजपुरोहित शिवतलाव'`
*ब्राह्मण ग्रंथों का ज्ञान*
पात्र:
* *आनन्द* : (ज्ञाता) - शांत और धैर्यवान।
* *किरण* : (जिज्ञासु पुरुष) - ज्ञान प्राप्ति का इच्छुक।
*दृश्य* : एक प्राचीन अध्ययन कक्ष। चारों ओर हस्तलिखित ग्रंथों का ढेर लगा है। आनन्द एक आसन पर बैठे कुछ पढ़ रहे हैं। किरण उत्सुकता से प्रवेश करता है।
( *किरण* ): नमस्कार दादाजी! क्षमा कीजिए, मैंने आपके एकांत में बाधा डाली।
( *आनन्द* ): (मुस्कुराते हुए) नमस्कार, आओ किरण, बैठो। बाधा कैसी? तुम तो ज्ञान के प्यासे हो। कहो, आज क्या जिज्ञासा है?
( *किरण* ): दादाजी, मैं वेदों के विषय में पढ़ रहा था, और सुना है कि उनके बाद ब्राह्मण ग्रंथ आते हैं। क्या आप मुझे इनके विषय में विस्तार से बता सकते हैं? मुझे इनके महत्व और विभिन्न प्रकारों को समझने में कठिनाई हो रही है।
( *आनन्द* ): तुम्हारी जिज्ञासा उचित है, किरण। ब्राह्मण ग्रंथ वैदिक साहित्य का एक अत्यंत महत्वपूर्ण भाग हैं। इन्हें कर्मकाण्ड प्रधान ग्रंथ भी कहते हैं। इनका मुख्य उद्देश्य यज्ञों और अनुष्ठानों की विस्तृत व्याख्या करना है, उनके विधान, फल और रहस्य को समझाना है।
( *किरण* ): तो ये केवल यज्ञों के बारे में बताते हैं?
( *आनन्द* ): केवल यज्ञ नहीं, बल्कि यज्ञों से जुड़े मंत्रों का विनियोग, उनके अर्थ, और उनका आध्यात्मिक महत्व भी बताते हैं। ये एक तरह से वेदों के भाष्य हैं, जो वैदिक ऋचाओं को व्यवहार में लाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
*विभिन्न ब्राह्मण ग्रंथ*
( *आनन्द* ): अब सुनो, प्रत्येक वेद के अपने ब्राह्मण ग्रंथ हैं।
( *किरण* ): ओह! यह तो बहुत रोचक है। कृपया विस्तार से बताएं।
( *आनन्द* ): बिल्कुल।
1. *ऋग्वेद के ब्राह्मण ग्रंथ:*
( *आनन्द* ): ऋग्वेद से संबंधित दो मुख्य ब्राह्मण ग्रंथ हैं:
* *ऐतरेय ब्राह्मण:* यह अत्यंत महत्वपूर्ण है और इसमें *राज्याभिषेक के नियम, सोम यज्ञ का विस्तृत वर्णन* , और कई प्राचीन आख्यान मिलते हैं। इसमें शुनःशेप आख्यान प्रसिद्ध है, जो मानव बलि की प्रथा के निषेध को दर्शाता है।
* *कौषीतकि ब्राह्मण* (या शांखायन ब्राह्मण): इसमें भी विभिन्न *यज्ञों और उनके अनुष्ठानों की व्याख्या* है, साथ ही कुछ दार्शनिक विचार भी मिलते हैं।
( *किरण* ): यह तो बहुत गहरी जानकारी है! तो क्या ये ग्रंथ सिर्फ कर्मकांड तक ही सीमित हैं?
( *आनन्द* ): नहीं, किरण। कर्मकांड की प्रधानता होते हुए भी, इनमें नैतिक उपदेश, सृष्टि संबंधी विचार, और आत्मा-परमात्मा से संबंधित कुछ प्रारंभिक दार्शनिक चिंतन भी मिलते हैं। ये उपनिषदों के लिए एक प्रकार से भूमिका तैयार करते हैं।
2. *यजुर्वेद के ब्राह्मण ग्रंथ:*
( *आनन्द* ): यजुर्वेद के दो शाखाएं हैं - कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद।
* *कृष्ण यजुर्वेद का तैत्तिरीय ब्राह्मण:* यह ब्राह्मण ग्रंथ संहिता के साथ मिश्रित है, यानी मंत्र और ब्राह्मण भाग साथ-साथ चलते हैं। इसमें विभिन्न यज्ञों का वर्णन है, जैसे अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास आदि। इसमें पितृयज्ञ और पुरुषमेध जैसे यज्ञों का भी उल्लेख मिलता है।
* *शुक्ल यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण:* यह ब्राह्मण ग्रंथों में सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण है। इसका नाम 'शतपथ' इसलिए पड़ा क्योंकि इसमें *सौ अध्याय* हैं। यह वाजसनेयी संहिता से संबंधित है।
* इसमें सभी प्रमुख वैदिक यज्ञों जैसे *अग्निचयन, अश्वमेध, राजसूय* आदि का अत्यंत विस्तृत और व्यवस्थित वर्णन है।
* इसमें *सृष्टि उत्पत्ति के सिद्धांत,* प्रजापति के महत्व, और पुनर्जन्म के प्रारंभिक संकेत भी मिलते हैं।
* *जल-प्लावन की कथा* का सबसे प्राचीन उल्लेख भी इसी में मिलता है, जो बाद में पुराणों में विस्तृत हुई। यह भारतीय संस्कृति का एक अमूल्य स्रोत है।
( *किरण* ): शतपथ ब्राह्मण तो अद्भुत लगता है! सौ अध्याय! इसका मतलब यह कितना विस्तृत होगा!
3. *सामवेद के ब्राह्मण ग्रंथ:*
( *आनन्द* ): सामवेद के कई ब्राह्मण ग्रंथ हैं, जो इसकी विभिन्न शाखाओं से संबंधित हैं:
* *ताण्ड्य महाब्राह्मण (या पंचविंश ब्राह्मण):* यह सामवेद का सबसे बड़ा ब्राह्मण है, जिसमें पच्चीस अध्याय हैं। इसमें सोम यज्ञों का अत्यंत विस्तृत वर्णन है। यह अपने भव्य यज्ञ अनुष्ठानों और सामगानों की महत्ता के लिए जाना जाता है। इसमें वातव्रात्य नामक एक विशेष अनुष्ठान का भी वर्णन है।
* *षड्विंश ब्राह्मण* : यह ताण्ड्य ब्राह्मण का पूरक है, जिसमें अंतिम छठा अध्याय अद्भुत ब्राह्मण कहलाता है, जिसमें अपशकुन और प्रायश्चित्त का वर्णन है।
* *सामविधान ब्राह्मण* : यह विभिन्न कामनाओं की पूर्ति के लिए किए जाने वाले सामगानों और उनके अनुष्ठानों का वर्णन करता है।
* *आर्षेय ब्राह्मण* : यह सामवेद के विभिन्न ऋषियों और उनके द्वारा देखे गए सामगानों की सूची है।
* *देवताध्याय ब्राह्मण* : इसमें सामगान के देवताओं का वर्णन है।
* *संहितोपनिषद ब्राह्मण:* यह सामगान के रहस्यों और उनके फल का वर्णन करता है।
* *वंश ब्राह्मण:* यह सामवेद के आचार्यों की वंशावली देता है।
( *किरण* ): इतने सारे ब्राह्मण ग्रंथ! सामवेद का ज्ञान तो अत्यंत गहरा है।
4. *अथर्ववेद के ब्राह्मण ग्रंथ:*
( *आनन्द* ): अथर्ववेद का एकमात्र उपलब्ध ब्राह्मण ग्रंथ है:
* *गोपथ ब्राह्मण* : यह अपेक्षाकृत नवीन ब्राह्मण ग्रंथ माना जाता है। यह अथर्ववेद की विशिष्टताओं, जैसे जादू-टोना, औषधि विज्ञान, और भूत-प्रेत संबंधी विधानों की व्याख्या करता है। इसमें अथर्ववेद की महिमा और अन्य वेदों से उसके संबंध पर भी प्रकाश डाला गया है।
( *किरण* ): तो दादाजी, इन सभी ब्राह्मण ग्रंथों का अध्ययन क्यों महत्वपूर्ण है?
( *आनन्द* ): किरण, इनका अध्ययन हमें वैदिक युग की जीवनशैली, धार्मिक विश्वासों, सामाजिक संरचना और दर्शन के प्रारंभिक स्वरूपों को समझने में मदद करता है। ये हमें बताते हैं कि हमारे पूर्वज कैसे यज्ञों के माध्यम से ब्रह्मांड और देवताओं से संबंध स्थापित करते थे। ये हमें वेदों के गूढ़ मंत्रों के व्यावहारिक प्रयोग को सिखाते हैं, और किस प्रकार प्रत्येक कर्म का एक विशिष्ट फल होता है, यह समझाते हैं।
( *किरण* ): अब मैं ब्राह्मण ग्रंथों के महत्व को भली-भांति समझ गया हूँ। आपने मेरे मन के सभी संशयों को दूर कर दिया। मैं कृतज्ञ हूँ, दादाजी!
( *आनन्द* ): (मुस्कुराते हुए) यही तो मेरा कार्य है, किरण। ज्ञान का प्रकाश फैलाना। अब जाओ और इन ग्रंथों का स्वयं अध्ययन करो। सैद्धांतिक ज्ञान के साथ-साथ अनुभव भी आवश्यक है।
( *किरण* ): आपकी आज्ञा शिरोधार्य, दादाजी। धन्यवाद!
(किरण आदरपूर्वक नमस्कार करके चला जाता है। आनन्द फिर अपने ग्रंथों में लीन हो जाते हैं।)
(पर्दा गिरता है)
`एकांकीकार - करण सिंह राजपुरोहित शिवतलाव`
*आरण्यक दर्शन: वन के चिंतन*
पात्र:
* *आनंद* : (ज्ञाता) - आरण्यकों का गहरा ज्ञान रखने वाला एक शांत और अनुभवी व्यक्ति।
* *किरण* : (जिज्ञासु पुरुष) - आरण्यकों के विषय में जानने को उत्सुक एक युवा।
स्थान: एक शांत वन कुटीर के बाहर, जहाँ प्रकृति की अनुपम शांति व्याप्त है।
* *(किरण, आनंद के पास आता है जो एक आसन पर बैठे हुए गहन चिंतन में लीन हैं।)* *
*किरण* : प्रणाम, दादाजी। मैं कई दिनों से आपके पास आने का सोच रहा था।
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) आओ, किरण। तुम्हारा स्वागत है। कहो, क्या जिज्ञासा लेकर आए हो?
*किरण* : दादाजी, मैंने वेदों के विषय में थोड़ा-बहुत पढ़ा है, लेकिन ये आरण्यक ग्रंथ क्या हैं? इनका क्या महत्व है और इनमें क्या विषयवस्तु है? मुझे इनके बारे में जानने की बहुत उत्सुकता है।
*आनंद* : तुम्हारी जिज्ञासा सराहनीय है, किरण। आरण्यक वास्तव में वेदों के गूढ़ और रहस्यमय भाग हैं। ये मुख्य रूप से कर्मकांड से ज्ञानकांड की ओर संक्रमण दर्शाते हैं। ये जंगल में, एकांत में बैठकर गहन चिंतन द्वारा रचे गए ग्रंथ हैं। इसीलिए इन्हें 'आरण्यक' कहा जाता है, जिसका अर्थ है 'वन से संबंधित'।
*किरण* : अच्छा! तो ये उपनिषदों से पहले के हैं या उनके साथ के?
*आनंद* : ये ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदों के बीच की कड़ी हैं। ये ब्राह्मणों के कर्मकांडों की सूक्ष्म व्याख्या करते हैं और उपनिषदों के गहन दार्शनिक विचारों की नींव रखते हैं। ये एक प्रकार से संन्यासियों और वानप्रस्थियों के लिए थे, जो वन में रहकर आध्यात्मिक चिंतन करते थे।
*किरण* : यह तो बड़ा रोचक है! तो मुख्य आरण्यक कौन-कौन से हैं और उनमें क्या खास बात है?
*आरण्यकों की विषयवस्तु*
*आनंद* : ध्यान से सुनो, मैं तुम्हें एक-एक करके मुख्य आरण्यकों और उनकी विषयवस्तु के बारे में बताता हूँ।
*आनंद* : सबसे पहले है ऐतरेय आरण्यक।
* यह ऋग्वेद से संबंधित है। इसकी विषयवस्तु मुख्य रूप से महाव्रत नामक कर्मकांड की विस्तृत व्याख्या, प्राण विद्या का महत्व और आत्मा के स्वरूप पर चिंतन है। इसमें 'आरणी' नामक यंत्र से अग्नि उत्पन्न करने की विधि का भी वर्णन है।
*किरण* : प्राण विद्या... क्या यह जीवन शक्ति से संबंधित है?
आनंद: बिल्कुल! इसमें प्राण को ही सर्वोच्च माना गया है, जो सभी इंद्रियों का आधार है।
*आनंद* : अगला है कौषीतकि आरण्यक।
* यह भी ऋग्वेद से ही संबंधित है। इसमें भी प्राण विद्या का विस्तृत विवेचन है, साथ ही आत्मा की अमरता, पुनर्जन्म और ध्यान के महत्व पर जोर दिया गया है। इसमें मोक्ष प्राप्त करने के उपायों पर भी चिंतन मिलता है।
*किरण* : तो ये दोनों आरण्यक प्राण और आत्मा पर बहुत केंद्रित हैं।
*आनंद* : हाँ, ये जीवन के गहन रहस्यों को समझने का प्रयास करते हैं।
*आनंद* : अब बात करते हैं तैत्तिरीय आरण्यक की।
* यह कृष्ण यजुर्वेद से संबंधित है। यह आकार में सबसे बड़ा आरण्यक है और इसमें कई महत्वपूर्ण उपनिषद जैसे तैत्तिरीय उपनिषद और महानारायण उपनिषद समाहित हैं। इसकी विषयवस्तु में पंचमहाभूतों, विभिन्न यज्ञों की आध्यात्मिक व्याख्या, सत्य और तपस्या का महत्व, और ओंकार की महिमा का वर्णन है। इसमें 'अरुणकेतुक अग्निचयन' नामक एक विशेष यज्ञ की प्रतीकात्मक व्याख्या भी है।
*किरण* : यह तो बहुत विस्तृत लगता है! इसमें यज्ञों की आध्यात्मिक व्याख्या का क्या अर्थ है?
*आनंद* : इसका अर्थ है कि यज्ञों को केवल कर्मकांड के रूप में नहीं, बल्कि उनमें छिपे गहरे आध्यात्मिक अर्थों और प्रतीकों को समझना। यह बाह्य क्रियाओं से आंतरिक अनुभव की ओर बढ़ने का मार्ग दिखाता है।
आनणद: फिर है बृहदारण्यक आरण्यक।
* यह शुक्ल यजुर्वेद से संबंधित है और इसका अधिकांश भाग बृहदारण्यक उपनिषद के रूप में है, जो सबसे महत्वपूर्ण उपनिषदों में से एक है। इसकी मुख्य विषयवस्तु आत्मज्ञान, ब्रह्म की पहचान, कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत, और विभिन्न दार्शनिक संवाद हैं। इसमें याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के प्रसिद्ध संवाद भी हैं।
*किरण* : याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी! मैंने उनके बारे में सुना है। यह तो गहन दार्शनिक चिंतन है।
*आनंद* : निश्चित रूप से। यह अद्वैत दर्शन की नींव रखता है और 'अहं ब्रह्मास्मि' जैसे महावाक्यों की ओर संकेत करता है।
*आनंद* : अंत में, शांखायन आरण्यक।
* यह भी ऋग्वेद से ही संबंधित है और कौषीतकि आरण्यक के समान ही विषयवस्तु रखता है। इसमें प्राण विद्या, आत्मज्ञान और मोक्ष के मार्ग पर जोर दिया गया है। यह तपस्या, ध्यान और नैतिक आचरण के महत्व को भी रेखांकित करता है।
*किरण* : (चिंतन में लीन होकर) तो, आरण्यक वास्तव में वेदों के वे भाग हैं जो कर्मकांड से हटकर आध्यात्मिक चिंतन, आंतरिक यज्ञ, प्राण विद्या और आत्मज्ञान पर बल देते हैं। ये वन में रहकर गहन मनन द्वारा प्राप्त ज्ञान का संग्रह हैं।
*आनंद* : बिल्कुल सही, किरण। आरण्यक हमें सिखाते हैं कि सच्चा यज्ञ केवल अग्नि में आहुति देना नहीं है, बल्कि अपनी इंद्रियों को संयमित करना, मन को शुद्ध करना और आत्मा के स्वरूप को जानना है। ये जीवन के अंतिम लक्ष्य - मोक्ष की ओर इंगित करते हैं। ये उन साधकों के लिए थे जो भौतिक बंधनों से मुक्त होकर परम सत्य की खोज में लीन थे।
*किरण* : दादा जी, आपने मेरी आँखों के सामने एक नया संसार खोल दिया। इन ग्रंथों के महत्व को अब मैं समझ पाया हूँ। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) यह तो केवल शुरुआत है, किरण। ज्ञान अनंत है। अब तुम इन ग्रंथों में निहित गहन अर्थों को स्वयं समझने का प्रयास करना। वन की शांति में ही कई रहस्यों का अनावरण होता है।
**(किरण आनंद को प्रणाम करता है और चिंतन में लीन होकर धीरे-धीरे वहाँ से चला जाता है। आनंद पुनः अपनी ध्यान मुद्रा में लौट जाते हैं।) **
`एकांकीकार - करण सिंह राजपुरोहित शिवतलाव`
*उपनिषद: ज्ञान की खोज*
पात्र:
* *आनंद* : एक ज्ञानी, शांत और धैर्यवान व्यक्ति।
* *किरण* : एक जिज्ञासु पुरुष, उत्सुक और प्रश्नों से भरा हुआ।
*दृश्य* : एक शांत कुटिया, जहाँ आनंद और किरण बैठे हुए हैं। पीछे पेड़ों की हरियाली दिख रही है और पक्षियों की चहचहाहट सुनाई दे रही है।
(पर्दा उठता है)
*किरण* : (बेचैनी से) दादाजी, मैं जीवन के गूढ़ रहस्यों को जानना चाहता हूँ। यह संसार क्या है? मैं कौन हूँ? मृत्यु के बाद क्या होता है? ये प्रश्न मुझे दिन-रात विचलित करते रहते हैं।
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) शांत हो, किरण। तुम्हारे प्रश्न ही तुम्हारी जिज्ञासा का प्रमाण हैं। इन सभी प्रश्नों के उत्तर उपनिषदों में छिपे हैं। आओ, हम उन पर विचार करें।
*किरण* : उपनिषद? मैंने उनके बारे में सुना है, पर उनका वास्तविक अर्थ क्या है?
*आनंद* : उपनिषद का अर्थ है 'गुरु के समीप बैठकर ज्ञान प्राप्त करना'। ये वैदिक साहित्य का अंतिम भाग हैं, इसीलिए इन्हें 'वेदांत' भी कहते हैं। ये हमें ब्रह्म, आत्मा, संसार और मोक्ष के बारे में बताते हैं।
**छान्दोग्य उपनिषद: 'तत्त्वमसि'*
*आनंद* : आओ, पहले छान्दोग्य उपनिषद से शुरू करते हैं। इसमें उद्दालक आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को समझाते हैं कि "तत्त्वमसि" – वह तुम हो।
*किरण* : "वह तुम हो"? इसका क्या अर्थ है, दादाजी?
*आनंद* : इसका अर्थ है कि यह संपूर्ण ब्रह्मांड जिस परम सत्ता से बना है, तुम भी उसी के अंश हो। जैसे विभिन्न नदियाँ अंततः समुद्र में मिल जाती हैं और अपना अलग अस्तित्व खो देती हैं, उसी प्रकार यह आत्मा भी उस परम ब्रह्म का ही अंश है। जल, अग्नि, पृथ्वी – ये सब उसी से उत्पन्न हुए हैं, और तुम भी।
*किरण* : तो क्या मेरा यह शरीर ही वह परम ब्रह्म है?
*आनंद* : नहीं, किरण। शरीर तो नश्वर है। वह परम ब्रह्म तुम्हारी आत्मा है, तुम्हारा वास्तविक स्वरूप है। जिस प्रकार एक नमक का ढेला पानी में घुल जाता है, लेकिन उसका स्वाद पूरे पानी में व्याप्त रहता है, उसी प्रकार ब्रह्म भी हर वस्तु में व्याप्त है, अदृश्य होते हुए भी। अपनी आत्मा के भीतर ही उस सत्य को खोजो।
*बृहदारण्यक उपनिषद: 'नेति नेति'*
*आनंद* : अब हम बृहदारण्यक उपनिषद की ओर बढ़ते हैं। इसमें ऋषि याज्ञवल्क्य ने आत्मा को 'नेति नेति' (यह नहीं, यह नहीं) कहकर समझाया है।
*किरण* : 'नेति नेति'? यह तो और भी रहस्यमय लगता है।
*आनंद* : बिलकुल। इसका अर्थ है कि तुम ब्रह्म को किसी एक परिभाषा या गुण में बाँध नहीं सकते। वह न यह शरीर है, न इंद्रियाँ हैं, न मन है, न बुद्धि है। तुम जो कुछ भी अनुभव करते हो, वह ब्रह्म नहीं है। वह इन सब से परे है। उसे जानने के लिए तुम्हें इन सभी सीमाओं को त्यागना होगा।
*किरण* : तो फिर उसे कैसे जाना जाए?
*आनंद* : उसे अनुभव से जाना जाता है, शब्दों से नहीं। जब तुम 'यह मैं नहीं हूँ', 'यह भी मैं नहीं हूँ' कहते हुए सब कुछ त्याग देते हो, तब जो शेष रहता है, वही तुम हो – वही आत्मा है, वही ब्रह्म है। वह प्रकाश का प्रकाश है, अमृत का अमृत है।
*कठोपनिषद: नचिकेता और यम*
*आनंद* : अब हम कठोपनिषद पर आते हैं, जिसमें नचिकेता ने मृत्यु के देवता यम से आत्मा के रहस्य को पूछा था।
*किरण* : (उत्सुकता से) यम से? यह तो अविश्वसनीय है!
*आनंद* : नचिकेता ने यम से तीन वर माँगे। तीसरे वर में उसने मृत्यु के बाद आत्मा के अस्तित्व के बारे में पूछा। यम ने उसे धन, साम्राज्य और लंबी आयु का लालच दिया, पर नचिकेता अडिग रहा। अंततः यम ने उसे आत्मज्ञान दिया।
*किरण* : और यम ने क्या बताया?
*आनंद* : यम ने कहा कि आत्मा न जन्म लेती है और न मरती है। वह अविनाशी है, शाश्वत है। उसे तलवार नहीं काट सकती, अग्नि जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, वायु सुखा नहीं सकती। वह सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान से महान है। इसे बुद्धि से नहीं, बल्कि ध्यान से जाना जाता है।
*किरण* : तो क्या आत्मा और ब्रह्म एक ही हैं?
*आनंद* : हाँ, किरण। यह उपनिषदों का सार है – अहं ब्रह्मास्मि (मैं ब्रह्म हूँ) और अयमात्मा ब्रह्म (यह आत्मा ब्रह्म है)। तुम्हारी व्यक्तिगत आत्मा और सार्वभौमिक ब्रह्म एक ही हैं।
*मुंडक उपनिषद: सत्यमेव जयते*
*आनंद* : मुंडक उपनिषद हमें एक महत्वपूर्ण सत्य बताता है: सत्यमेव जयते – सत्य की ही विजय होती है।
*किरण* : यह तो मैंने सुना है, पर इसका गहन अर्थ क्या है?
*आनंद* : इसका अर्थ है कि अज्ञान, झूठ और माया अस्थायी हैं। अंततः सत्य ही प्रकट होता है और विजयी होता है। ब्रह्म को जानने के लिए सत्य, तपस्या, सही ज्ञान और ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है। केवल इन गुणों के माध्यम से ही आत्मा को देखा जा सकता है, जो हृदय के भीतर प्रकाशित होती है।
*ईशोपनिषद: त्याग और अनासक्ति*
*आनंद* : अंत में, ईशोपनिषद हमें त्याग और अनासक्ति का महत्व सिखाता है।
*किरण* : अनासक्ति? क्या इसका मतलब है कि हमें सब कुछ छोड़ देना चाहिए?
*आनंद* : नहीं, किरण। इसका मतलब है कि तुम्हें अपने कर्मों को फल की इच्छा के बिना करना चाहिए। "ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।" – इस संपूर्ण ब्रह्मांड में जो कुछ भी है, वह ईश्वर से व्याप्त है। उसका त्यागपूर्वक उपभोग करो, और किसी के धन की इच्छा मत करो। यह तुम्हें मोक्ष की ओर ले जाएगा।
*निष्कर्ष*
*किरण* : (शांत और गंभीर होकर) दादाजी, आपने मेरी आँखों पर पड़ा अज्ञान का पर्दा हटा दिया। मैं अब समझ गया हूँ कि मैं सिर्फ यह शरीर नहीं हूँ, बल्कि एक अविनाशी आत्मा हूँ, जो उस परम ब्रह्म का ही अंश है।
*आनंद* : (प्रेम से हाथ रखते हुए) यही उपनिषदों का संदेश है, किरण। यह ज्ञान तुम्हें भय से मुक्ति देगा, क्योंकि जब तुम स्वयं को शाश्वत ब्रह्म का अंश जान लेते हो, तो तुम्हें मृत्यु का भय नहीं रहता। यह तुम्हें वास्तविक आनंद और शांति देगा।
*किरण* : मैं इस ज्ञान को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करूँगा। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, दादाजी।
*आनंद* : सदा कल्याण हो, प्रिय। ज्ञान की यह यात्रा अनंत है।
(पर्दा गिरता है)
`एकांकीकार - करण सिंह राजपुरोहित शिवतलाव`
*भारतीय आस्तिक एवं नास्तिक दर्शन: एक संवाद यात्रा*
पात्र:
* *आनंद* : एक शांत और अनुभवी ज्ञाता।
* *किरण* : एक उत्साही और जिज्ञासु।
*दृश्य 1: शांत उपवन में जिज्ञासा*
(स्थान: एक हरा-भरा उपवन, जहाँ एक बड़ा वटवृक्ष है. आनंद एक चट्टान पर बैठे हैं और आँखें मूंदे हुए हैं. किरण धीरे-धीरे उनके पास आता है.)
*किरण* : (विनम्रता से) नमस्कार, दादाजी।
*आनंद* : (आँखें खोलते हुए, मुस्कराते हुए) नमस्कार, किरण। कहो, आज किस जिज्ञासा ने तुम्हें यहाँ खींच लाया?
*किरण* : दादाजी, मेरा मन हमेशा से जीवन के गूढ़ रहस्यों, सृष्टि के अस्तित्व और मानव के उद्देश्य को लेकर भ्रमित रहा है। मैं भारतीय दर्शन के बारे में जानना चाहता हूँ, पर उसकी विशालता मुझे भयभीत करती है। क्या आप मुझे इस मार्ग पर चलने में सहायता कर सकते हैं?
*आनंद* : अवश्य, भारतीय दर्शन एक गहरा सागर है, पर यदि सही दिशा हो, तो मोती अवश्य मिलते हैं। आज हम आस्तिक और नास्तिक दर्शनों की यात्रा करेंगे।
*दृश्य 2: सांख्य और योग - प्रकृति और पुरुष का मिलन*
(आनंद और किरण एक छोटे से सरोवर के पास आ जाते हैं।)
*आनंद* : हम शुरुआत *महर्षि कपिल के सांख्य दर्शन* से करेंगे। यह दर्शन सृष्टि को प्रकृति और पुरुष नामक दो मूल तत्वों से बना मानता है. प्रकृति जड़ है, त्रिगुणमयी (सत्व, रज, तम) और पुरुष चेतन है, साक्षी मात्र. प्रकृति पुरुष के भोग और अपवर्ग (मोक्ष) के लिए ही कार्य करती है. जब पुरुष यह जान लेता है कि वह प्रकृति से भिन्न है, तभी उसे मुक्ति मिलती है।
*किरण* : तो क्या यह सब ईश्वर की भूमिका के बिना होता है?
*आनंद* : सांख्य दर्शन ईश्वर को सृष्टि के स्रष्टा के रूप में आवश्यक नहीं मानता, बल्कि प्रकृति की स्वतः प्रवृत्ति से ही सृष्टि का विकास देखता है। यहीं से *पंतजलि का योग दर्शन* का संबंध जुड़ता है। योग दर्शन सांख्य के सिद्धांतों को स्वीकार करता है, पर मोक्ष प्राप्ति के लिए ईश्वर-प्रणिधान (ईश्वर के प्रति समर्पण) और अष्टांग योग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि) का मार्ग बताता है। पतंजलि का योग सूत्र इसी का आधार है।
*किरण* : (विचारमग्न) तो _सांख्य ज्ञान का मार्ग है और योग उस ज्ञान को प्राप्त करने का व्यावहारिक मार्ग!_ अद्भुत!
*दृश्य 3: न्याय और वैशेषिक - तर्क और तत्वों की पहचान*
(वे दोनों एक प्राचीन सभ्यता के खंडहरों के पास पहुँचते हैं।)
आनंद: अब हम *महर्षि गौतम के न्याय दर्शन* और *महर्षि कणाद वैशेषिक दर्शन* की ओर चलते हैं। न्याय दर्शन को तर्कशास्त्र का आधार माना जाता है। यह प्रमाणों (प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द) के माध्यम से सत्य को जानने पर जोर देता है। गौतम का न्याय सूत्र इसी की नींव है। यह सही ज्ञान प्राप्त करने के लिए तार्किक विचार और वाद-विवाद को महत्वपूर्ण मानता है।
*किरण* : तो यह सत्य तक पहुँचने का वैज्ञानिक तरीका है!
*आनंद* : बिल्कुल. और वैशेषिक दर्शन इसका पूरक है. यह सृष्टि के मूल तत्वों को परमाणुओं से बना मानता है। यह बताता है कि पदार्थ कितने प्रकार के होते हैं (द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, अभाव) और कैसे वे आपस में मिलकर सृष्टि का निर्माण करते हैं। इसे कणाद मुनि ने प्रतिपादित किया था। यह ज्ञान हमें सृष्टि के विश्लेषण और उसके घटकों को समझने में मदद करता है।
*दृश्य 4: मीमांसा द्वय - कर्म और ज्ञान का मार्ग*
(वे दोनों एक नदी के किनारे बैठते हैं।)
*आनंद* : अब हम मीमांसा दर्शन की ओर बढ़ते हैं, जिसके दो प्रमुख भाग हैं। *महर्षि जैमिनि का पूर्व मीमांसा दर्शन* मुख्य रूप से वेदों के कर्मकांड भाग पर केंद्रित है। यह यज्ञों, अनुष्ठानों और धार्मिक कर्तव्यों के सही संपादन पर जोर देता है, ताकि लौकिक और पारलौकिक फल प्राप्त हो सकें। जैमिनी का मीमांसा सूत्र इसका मुख्य ग्रंथ है। यह मानता है कि धर्म का पालन ही जीवन का परम लक्ष्य है।
*किरण* : तो यह वेदों की क्रियात्मक पक्ष पर केंद्रित है?
*आनंद* : हाँ. और फिर आता है *महर्षि बादरायण का उत्तर मीमांसा दर्शन* , जिसे हम वेदांत दर्शन के नाम से भी जानते हैं। यह वेदों के ज्ञानकांड यानी उपनिषदों पर आधारित है। यह ब्रह्म की अवधारणा पर केंद्रित है - कि ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और आत्मा (जीव) ब्रह्म का ही अंश है। अज्ञान के कारण आत्मा स्वयं को ब्रह्म से अलग समझती है, और ज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है। इसके कई उप-संप्रदाय हैं जैसे शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत, रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत और माधवाचार्य का द्वैत।
*किरण* : (आश्चर्यचकित) तो एक दर्शन कर्म को महत्व देता है और दूसरा ज्ञान को! दोनों ही वेदों से निकले हैं!
*दृश्य 5: नास्तिक धाराएँ - परंपरा का खंडन*
(आनंद और किरण एक सूखी हुई झाड़ी के पास आते हैं।)
*आनंद* : अब तक हमने आस्तिक दर्शनों की बात की, जो वेदों को प्रमाण मानते हैं। पर भारतीय दर्शन में नास्तिक धाराएँ भी हैं, जिन्होंने इन पारंपरिक मान्यताओं को चुनौती दी। सबसे पहले, *देवगुरु बृहस्पति के चार्वाक दर्शन या लोकायत दर्शन है।* यह पूर्णतः भौतिकवादी है। यह कहता है कि केवल वही सत्य है जिसे इंद्रियों से प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सके। वे आत्मा, पुनर्जन्म, स्वर्ग, नरक और ईश्वर को नहीं मानते। उनका मुख्य सिद्धांत है "यावज्जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत" (जब तक जियो, सुख से जियो, कर्ज लेकर भी घी पियो)। यह जीवन के क्षणभंगुरता और भौतिक सुखों पर जोर देता है।
*किरण* : (हँसते हुए) यह तो बिल्कुल आज के समय का विचार लगता है!
*आनंद* : फिर आता है *बौद्ध दर्शन। गौतम बुद्ध द्वारा प्रतिपादित* यह दर्शन चार आर्य सत्यों (दुःख, दुःख समुदाय, दुःख निरोध, दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा) और अष्टांगिक मार्ग (सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक्, सम्यक कर्म, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि) पर आधारित है। यह आत्मा की नित्यता को नहीं मानता और क्षणभंगुरता, अनात्मवाद तथा प्रतीत्यसमुत्पाद (कार्य-कारण श्रृंखला) पर जोर देता है। इसका लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना है, जो सभी दुखों का अंत है। यह दर्शन अनित्य तथ्य पर टीका हैं। इसके अनुसार कोई भी नित्य नहीं है।
*किरण* : तो इसमें भी दुख से मुक्ति का मार्ग है, पर पारंपरिक आत्मा के बिना!
*आनंद* : बिल्कुल. और फिर है *जैन दर्शन। महावीर द्वारा प्रतिपादित* यह दर्शन अहिंसा परमो धर्म के सिद्धांत पर आधारित है। यह आत्मा की नित्यता को मानता है और कर्म के बंधन से मुक्ति के लिए त्रिरत्न (सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्र) और पंच महाव्रतों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) का पालन करने को कहता है. इसमें अनेकांतवाद (एक ही सत्य के अनेक पहलू) और स्यादवाद (किसी भी कथन का सापेक्ष होना) का सिद्धांत भी महत्वपूर्ण है। यह नित्यानित्य पर टीका इसके अनुसार कुछ नित्य अथवा कुछ अनित्य है।
*दृश्य 6: लुप्त और अज्ञात धाराएँ*
(वे दोनों एक टूटी हुई प्रतिमा के पास आते हैं।)
*आनंद* : अंत में, कुछ कम ज्ञात, पर महत्वपूर्ण दर्शन भी हैं. *आजीविक दर्शन* ने नियतिवाद (भाग्य पर पूर्ण विश्वास) पर जोर दिया। उनका मानना था कि सब कुछ पूर्व निर्धारित है और मानव के प्रयास से कुछ नहीं बदलता।
*किरण* : तो इसमें कर्म का कोई महत्व नहीं? आजकल भी ऐसे लोग मिल जाते हैं।
*आनंद* : उनके अनुसार, नहीं। फिर आता है *अज्ञेय दर्शन* । यह किसी भी निश्चित ज्ञान के दावे को अस्वीकार करता है, विशेष रूप से ईश्वर या परम सत्य के अस्तित्व के बारे में। उनका मानना था कि ऐसे विषयों पर कोई निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं की जा सकती। शायद हो भी सकता है, शायद नहीं भी हो सकता है।
*किरण* : तो वे किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहते?
*आनंद* : हाँ, उनका झुकाव अनिश्चितता की ओर था। और अंत में, *संचय दर्शन।* यह ज्ञान के संचय, विभिन्न स्रोतों से जानकारी इकट्ठा करने और फिर उस पर विचार करने की प्रक्रिया को महत्व देता है। यह किसी एक विशिष्ट सिद्धांत का पक्षधर नहीं है, बल्कि ज्ञान के संग्रह और विश्लेषण को प्राथमिकता देता है। यह सदैव संचय अथवा संदेह बनाए रखते हैं।
*दृश्य 7: निष्कर्ष और आगे का मार्ग*
(सूर्य ढल रहा है. आनंद और किरण पुनः वटवृक्ष के पास लौट आते हैं।)
*किरण* : (गहरी सांस लेते हुए) दादाजी, यह यात्रा तो मेरे लिए आँखों को खोलने वाली थी। इतने सारे विचार, इतनी सारी मान्यताएँ! कुछ एक-दूसरे का खंडन करती हैं, कुछ पूरक हैं।
*आनंद* : यही भारतीय दर्शन की सुंदरता है, किरण। यह हमें सोचने, प्रश्न करने और अपने स्वयं के मार्ग को खोजने के लिए प्रोत्साहित करता है. कोई एक अंतिम सत्य नहीं है जिसे हर कोई स्वीकार करे, बल्कि सत्य तक पहुँचने के अनेक मार्ग हैं।
*किरण* : तो अब मुझे क्या करना चाहिए?
*आनंद* : अब तुम इन विचारों को अपने भीतर आत्मसात करो। चिंतन करो। तुम्हें कौन सा दर्शन सबसे अधिक आकर्षित करता है? कौन सा मार्ग तुम्हें अपने जीवन के प्रश्नों का उत्तर देता हुआ प्रतीत होता है? यह यात्रा ज्ञान की शुरुआत है, अंत नहीं।
*किरण* : (उत्सुकता से) मैं अवश्य चिंतन करूँगा, दादाजी। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। मुझे एक नई दृष्टि मिली है। नमस्कार दादाजी
*आनंद* : (मुस्कराते हुए) नमस्कार। ज्ञान का मार्ग सदा तुम्हारे लिए खुला है।
(पर्दा गिरता है।)
`एकांकीकार- करण सिंह राजपुरोहित शिवतलाव`
*अष्टादश पुराण: ज्ञान और कहानियों का सागर*
पात्र:
* *आनंद* : वेदों और पुराणों के गहरे ज्ञाता।
* *किरण* : एक जिज्ञासु युवक, जो भारतीय संस्कृति और पौराणिक कथाओं को जानने का इच्छुक है।
*दृश्य* :
एक शांत अध्ययन कक्ष, जहाँ संस्कृत ग्रंथों और प्राचीन पांडुलिपियों से भरी अलमारियाँ हैं। आनंद एक आसन पर बैठे हैं, उनके सामने कुछ खुली पुस्तकें रखी हैं। किरण उनके पास आकर बैठता है।
(नाटक शुरू होता है)
*किरण* : प्रणाम दादाजी! आज मेरा मन बहुत अशांत है। जीवन के कई प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल रहे।
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) आओ किरण, बैठो। यह तो स्वाभाविक है। ज्ञान की खोज ही हमें शांति की ओर ले जाती है। क्या जानने की इच्छा है तुम्हें?
*किरण* : दादाजी, मैंने सुना है कि हमारे यहाँ 18 पुराण हैं, जिनमें अनेकों कहानियाँ और ज्ञान छिपा है। क्या आप मुझे उनके बारे में बता सकते हैं? मैं उनकी महत्ता और उनमें निहित ज्ञान को समझना चाहता हूँ।
*आनंद* : बहुत अच्छा प्रश्न है किरण! पुराण हमारे धर्म, इतिहास और संस्कृति के अमूल्य ग्रंथ हैं। ये वेदों के अर्थ को सरल भाषा में समझाते हैं, ताकि जनसामान्य भी धर्म के गूढ़ रहस्यों को जान सके। इन्हें 'पंचम वेद' भी कहा जाता है। आओ, मैं तुम्हें एक-एक करके इन 18 महापुराणों के बारे में बताता हूँ।
1. *ब्रह्म पुराण*
*आनंद* : सबसे पहले आता है ब्रह्म पुराण। यह सभी पुराणों में प्राचीन माना जाता है। इसमें सृष्टि की उत्पत्ति, ब्रह्माजी की महिमा, और अनेक तीर्थों का वर्णन है। यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों का ज्ञान देता है।
*किरण* : सृष्टि की उत्पत्ति! यह तो बहुत रोचक है।
2. *पद्म पुराण*
*आनंद* : दूसरा है पद्म पुराण। यह भगवान विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्माजी की उत्पत्ति का वर्णन करता है। इसमें विष्णु के विभिन्न अवतारों, गंगा की महिमा, और अनेक पवित्र नदियों का विस्तृत उल्लेख है।
*किरण* : तो क्या इसमें विष्णु के दश अवतारों का भी वर्णन है?
*आनंद* : हाँ, बिल्कुल!
3. *विष्णु पुराण*
*आनंद* : तीसरा है विष्णु पुराण। यह पुराण भगवान विष्णु को समर्पित है। इसमें सृष्टि, स्थिति और प्रलय का वर्णन है, जिसमें भगवान विष्णु को ही विश्व का आधार माना गया है। ध्रुव, प्रह्लाद और भरत जैसे महान भक्तों की कहानियाँ इसी में हैं।
*किरण* : ध्रुव और प्रह्लाद की कथाएँ तो मैंने सुनी हैं!
4. *शिव पुराण*
*आनंद* : चौथा है शिव पुराण। यह भगवान शिव की महिमा, उनके विभिन्न रूपों, अवतारों, और उनकी लीलाओं का वर्णन करता है। इसमें शिव-पार्वती विवाह, कार्तिकेय और गणेश के जन्म की कथाएँ प्रमुख हैं।
*किरण* : यह तो शिव भक्तों के लिए विशेष होगा!
5. *भागवत पुराण*
( *श्रीमद्भागवत महापुराण* )
*आनंद* : पाँचवाँ और सबसे महत्वपूर्ण है भागवत पुराण। इसे श्रीमद्भागवत महापुराण भी कहते हैं। इसमें भगवान कृष्ण के जीवन, उनकी बाल लीलाओं से लेकर महाभारत युद्ध तक का विस्तृत वर्णन है। भक्ति योग और ज्ञान योग का इसमें अद्भुत समन्वय है।
*किरण* : भगवान कृष्ण की कथाएँ! यह तो मेरा पसंदीदा है।
6. *नारद पुराण*
*आनंद* : छठा है नारद पुराण। यह देवर्षि नारद द्वारा संकलित है। इसमें विभिन्न तीर्थों की महिमा, पूजा-पद्धति, मंत्रों और वैष्णव धर्म के सिद्धांतों का विस्तार से वर्णन है।
7. *मार्कण्डेय पुराण*
*आनन्द* : सातवाँ है मार्कण्डेय पुराण। यह ऋषि मार्कण्डेय और जैमिनि के संवादों पर आधारित है। इसमें विशेष रूप से देवी महिमा (दुर्गा सप्तशती) का विस्तृत वर्णन है, जो शक्ति की उपासना का आधार है।
*किरण* : दुर्गा सप्तशती! मैं इसके बारे में जानता हूँ।
8. *अग्नि पुराण*
आनंद: आठवाँ है अग्नि पुराण। इसे 'भारतीय विश्वकोश' भी कहा जाता है। इसमें धर्म, नीति, राजनीति, आयुर्वेद, ज्योतिष, युद्ध कला, कला और विज्ञान जैसे विभिन्न विषयों का समावेश है। यह अग्निदेव द्वारा वशिष्ठ मुनि को सुनाया गया था।
9. *भविष्य पुराण*
*आनंद* : नौवाँ है भविष्य पुराण। इसमें भविष्य में होने वाली घटनाओं, कलयुग के लक्षण, और विभिन्न अवतारों केज आगमन की भविष्यवाणियाँ हैं। इसमें सूर्य पूजा और विभिन्न व्रतों का भी वर्णन है।
10. *ब्रह्मवैवर्त पुराण*
*आनंद* : दसवाँ है ब्रह्मवैवर्त पुराण। इसमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव और शक्ति की महिमा का वर्णन है, खासकर राधा-कृष्ण की प्रेम लीलाएँ इसमें विस्तार से वर्णित हैं।
11. *लिंग पुराण*
*आनंद* : ग्यारहवाँ है लिंग पुराण। यह भगवान शिव के 'लिंग' स्वरूप की महिमा और उनके विभिन्न रूपों का वर्णन करता है। इसमें शिव के अवतारों, ब्रह्मांड की उत्पत्ति और प्रलय का भी उल्लेख है।
12. *वराह पुराण*
*आनंद* : बारहवाँ है वराह पुराण। यह भगवान विष्णु के वराह अवतार को समर्पित है, जिसमें उन्होंने पृथ्वी को समुद्र से बचाया था। इसमें तीर्थों की महिमा और विभिन्न धर्मों का भी वर्णन है।
13. *स्कन्द पुराण*
*आनंद* : तेरहवाँ है स्कन्द पुराण। यह सबसे बड़ा पुराण माना जाता है। इसमें भगवान कार्तिकेय (स्कन्द) की महिमा, तीर्थों, पर्वतों, नदियों और मंदिरों का विस्तृत वर्णन है। काशी खंड, केदार खंड आदि इसके प्रमुख भाग हैं।
14. *वामन पुराण*
*आनंद* : चौदहवाँ है वामन पुराण। यह भगवान विष्णु के वामन अवतार की कथा को समर्पित है, जिसमें उन्होंने राजा बलि से तीन पग भूमि माँगी थी। इसमें शिव-पार्वती के विवाह का भी वर्णन है।
15. *कूर्म पुराण*
*आनंद* : पंद्रहवाँ है कूर्म पुराण। यह भगवान विष्णु के कूर्म (कछुआ) अवतार को समर्पित है, जिसमें समुद्र मंथन की कथा प्रमुख है। इसमें धर्म, मोक्ष और विभिन्न उपासना पद्धतियों का वर्णन है।
16. *मत्स्य पुराण*
आनंद: सोलहवाँ है मत्स्य पुराण। यह भगवान विष्णु के मत्स्य (मछली) अवतार को समर्पित है, जिसमें उन्होंने मनु को प्रलय से बचाया था। इसमें सृष्टि की उत्पत्ति, राजा मनु का इतिहास, और अनेक धार्मिक rites का वर्णन है।
17. *गरुड़ पुराण*
*आनंद* : सत्रहवाँ है गरुड़ पुराण। यह भगवान विष्णु और गरुड़ के संवादों पर आधारित है। इसमें मुख्य रूप से मृत्यु के बाद की स्थिति, नरक, स्वर्ग, पुनर्जन्म और श्राद्ध कर्मों का विस्तृत वर्णन है। यह जीवन के बाद के सत्य को उजागर करता है।
*किरण* : यह तो मुझे मृत्यु के बाद के जीवन को समझने में मदद करेगा।
18. *ब्रह्माण्ड पुराण*
*आनंद* : और अंत में, अठारहवाँ है ब्रह्माण्ड पुराण। इसमें ब्रह्मांड की उत्पत्ति, विभिन्न युगों, कल्पों और राजाओं की वंशावलियों का वर्णन है। इसमें भगवान परशुराम की कथा और ललिता सहस्रनाम का भी उल्लेख है।
*आनंद* : तो किरण, ये हैं हमारे 18 महापुराण। ये केवल कहानियों का संग्रह नहीं, बल्कि जीवन के सत्य, धर्म के सिद्धांतों, नीति-नियमों और आध्यात्मिकता के गहरे रहस्यों का भंडार हैं। प्रत्येक पुराण अपनी विशिष्टता लिए हुए है।
*किरण* : (आश्चर्यचकित होकर) दादाजी! यह तो अविश्वसनीय है! मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि इतने अद्भुत ग्रंथ हैं हमारे पास। इन सभी में इतना ज्ञान छिपा है। मेरा मन अब शांत हो गया है और मैं इन पुराणों को और अधिक गहराई से पढ़ना चाहता हूँ।
*आनंद* : यही तो इनका उद्देश्य है, किरण। ज्ञान की प्यास को बढ़ाना और जीवन को सही दिशा देना। जब भी तुम्हें कोई संदेह हो या कुछ और जानना हो, बेझिझक पूछना।
*किरण* : निश्चित रूप से दादाजी! आपने मेरे ज्ञान चक्षु खोल दिए।
*आनन्द* : _महर्षि वेदव्यास अष्टादश पुराण का सार एक वाक्य में बताते हैं कि परपीड़ा से दूर रहना तथा परसेवा का संकल्प लेना_
*किरण* : आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
(किरण श्रद्धापूर्वक आनंद को प्रणाम करता है। आनंद मुस्कुराते हैं। नाटक समाप्त होता है।)
`एकांकीकार - करण सिंह शिवतलाव`
*श्रीमद्भगवद्गीता: ज्ञान की यात्रा*
पात्र:
* *आनंद* : एक शांत और ज्ञानी व्यक्ति, जिसकी आँखों में गहरा अनुभव झलकता है।
* *किरण* : एक युवा, जिज्ञासु और उत्साहपूर्ण व्यक्ति, जिसके मन में अनेक प्रश्न हैं।
(मंच पर एक शांत वातावरण। एक प्राचीन वृक्ष के नीचे आनंद बैठा है, आँखों में शांति और मुख पर हल्की मुस्कान। किरण उसके पास आकर बैठता है, कुछ बेचैन सा।)
*किरण* : (गहरी साँस लेते हुए) दादा जी, मेरा मन अशांत है। जीवन के इतने प्रश्न हैं, जिनका कोई उत्तर नहीं मिलता। क्या कभी आप भी ऐसे थे?
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) किरण, हर व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी ऐसे मोड़ से गुज़रता है, जहाँ उसे दिशा की तलाश होती है। ठीक वैसे ही जैसे कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन थे।
*किरण* : अर्जुन? क्या आप श्रीमद्भगवद्गीता की बात कर रहे हैं? मैंने उसके बारे में सुना है, लेकिन कभी समझने का प्रयास नहीं किया। क्या वह केवल धर्म-ग्रंथ है या कुछ और?
*आनंद* : (शांत भाव से) श्रीमद्भगवद्गीता केवल धर्म-ग्रंथ नहीं, किरण। यह जीवन का सार है, कर्म का विज्ञान है, ज्ञान का प्रकाश है। इसके अठारह अध्याय मानो अठारह सीढ़ियाँ हैं, जो हमें अज्ञान से ज्ञान और दुःख से शांति की ओर ले जाती हैं। चलो, मैं तुम्हें इसकी यात्रा कराता हूँ।
*अध्याय 1: अर्जुन-विषाद योग - मोह का आरंभ*
*आनंद* : (भावुक होकर) सोचो, कुरुक्षेत्र का मैदान। युद्ध के लिए सेनाएँ सजी हैं। अर्जुन अपने सामने अपने ही बंधु-बांधवों, गुरुओं, और मित्रों को खड़ा देखता है। उसका गांडीव हाथ से छूट जाता है, मन मोह और विषाद से भर जाता है। वह युद्ध करने से इनकार कर देता है। यही है। अर्जुन-विषाद योग, जहाँ मनुष्य कर्तव्य और मोह के बीच फँस जाता है।
*किरण* : (चिंतित) मैं समझ सकता हूँ। कभी-कभी हम भी अपने ही प्रियजनों के कारण सही निर्णय नहीं ले पाते।
*अध्याय 2: सांख्य योग - ज्ञान का प्रकाश*
आनंद: (गंभीरता से) और तब श्रीकृष्ण आते हैं। वे अर्जुन को समझाते हैं कि आत्मा अमर है, शरीर नश्वर। जन्म और मृत्यु एक चक्र है। वे कर्म करने की प्रेरणा देते हैं, फल की चिंता किए बिना। यही है सांख्य योग, जो हमें आत्मा के अजर-अमर स्वरूप का ज्ञान कराता है।
*किरण* : (आश्चर्य से) तो इसका अर्थ है कि हमें मृत्यु से नहीं डरना चाहिए?
*आनंद* : बिल्कुल नहीं। डरना अज्ञान है।
*अध्याय 3: कर्मयोग - निष्काम कर्म का मार्ग*
*आनंद* : (उत्साह से) श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि कर्म करना अनिवार्य है। बिना कर्म किए कोई नहीं रह सकता। महत्वपूर्ण है कि कर्म फल की इच्छा से रहित होकर किया जाए। यही है कर्मयोग। अपने कर्तव्य को निष्ठा से निभाना, फल ईश्वर पर छोड़ देना।
*किरण* : (विचारमग्न) यानी, हमें काम करना चाहिए, लेकिन उसके परिणाम के प्रति बहुत ज्यादा आसक्ति नहीं रखनी चाहिए।
*अध्याय 4: ज्ञानकर्मसंन्यास योग - ज्ञान और कर्म का संगम*
*आनंद* : (आत्मविश्वास से) इसके बाद, श्रीकृष्ण ज्ञान और कर्म के समन्वय की बात करते हैं। वे कहते हैं कि ज्ञान से कर्म बंधन नहीं बनते। सच्चा ज्ञान वही है जो हमें सही कर्म की ओर प्रेरित करे। इसे ही ज्ञानकर्मसंन्यास योग कहते हैं।
*अध्याय 5: कर्मसंन्यास योग - कर्म में अकर्म*
*आनंद* : (शांत भाव से) अगला अध्याय कर्म के त्याग और कर्मफल के त्याग पर केंद्रित है। व्यक्ति कर्म करता रहे, लेकिन स्वयं को उसका कर्ता न माने, और फल की इच्छा त्याग दे। यही है कर्मसंन्यास योग। यह वैराग्य नहीं, बल्कि कर्म में अनासक्ति है।
*अध्याय 6: आत्मसंयम योग - मन पर नियंत्रण*
*आनंद* : (दृढ़ता से) मन चंचल है, किरण। इसे नियंत्रित करना आवश्यक है। श्रीकृष्ण ध्यान, योग और अभ्यास से मन को वश में करने की विधि बताते हैं। यही है आत्मसंयम योग। अपने मन को अपना मित्र बनाना, दुश्मन नहीं।
*किरण* : (निराश होकर) यह बहुत कठिन लगता है।
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) अभ्यास से सब संभव है।
*अध्याय 7: ज्ञानविज्ञान योग - परमतत्व का ज्ञान*
*आनंद* : (गहरी आवाज़ में) श्रीकृष्ण अर्जुन को अपनी वास्तविक पहचान बताते हैं। वे बताते हैं कि वे ही संपूर्ण सृष्टि के मूल हैं, परम सत्य हैं। यह ज्ञानविज्ञान योग है, जहाँ हमें परमतत्व के स्वरूप का ज्ञान होता है।
*अध्याय 8: अक्षरब्रह्म योग - मृत्यु और पुनर्जन्म*
*आनंद* : (धीमे से) यह अध्याय मृत्यु के समय की स्थिति और पुनर्जन्म पर प्रकाश डालता है। बताया गया है कि अंत समय में जिस भाव से व्यक्ति शरीर छोड़ता है, उसी के अनुसार उसे अगला जन्म मिलता है। इसे अक्षरब्रह्म योग कहते हैं।
*अध्याय 9: राजविद्याराजगुह्य योग - सर्वश्रेष्ठ ज्ञान*
*आनंद* : (उत्कृष्ट भाव से) श्रीकृष्ण इसे सभी विद्याओं का राजा, सभी रहस्यों का रहस्य बताते हैं। वे बताते हैं कि वे ही इस सृष्टि के रचियता, पालक और संहारक हैं। यह राजविद्याराजगुह्य योग है।
*अध्याय 10: विभूति योग - ईश्वर की महिमा*
*आनंद* : (विस्मय से) इस अध्याय में श्रीकृष्ण अपनी अनंत विभूतियों का वर्णन करते हैं। वे बताते हैं कि वे ही हर उस वस्तु में हैं, जो श्रेष्ठ और प्रभावशाली है। वे ही सूर्य की चमक हैं, नदियों का प्रवाह हैं, जीवों का जीवन हैं। इसे विभूति योग कहते हैं।
**अध्याय 11: विश्वरूप दर्शन योग - विराट स्वरूप का दर्शन*
*आनंद* : (आँखें बंद करके, मानो अनुभव कर रहा हो) अर्जुन श्रीकृष्ण से उनके विराट स्वरूप को देखने का आग्रह करते हैं। और तब श्रीकृष्ण उन्हें अपना असीमित, अद्भुत विश्वरूप दिखाते हैं। यह दर्शन इतना भव्य और भयावह था कि अर्जुन भयभीत हो जाते हैं। यही है विश्वरूप दर्शन योग।
*किरण* : (आश्चर्य से) यह तो अकल्पनीय है!
*अध्याय 12: भक्ति योग - प्रेम और समर्पण का मार्ग*
*आनंद* : (कोमल भाव से) विश्वरूप दर्शन के बाद, अर्जुन पूछते हैं कि कौन श्रेष्ठ है – सगुण भक्ति या निर्गुण भक्ति। श्रीकृष्ण बताते हैं कि सगुण भक्ति, जहाँ ईश्वर के किसी स्वरूप की उपासना की जाती है, अधिक सुगम है। यही है भक्ति योग, जो प्रेम, श्रद्धा और समर्पण का मार्ग है।
*अध्याय 13: क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग - शरीर और आत्मा का भेद*
*आनंद* : (स्पष्टता से) इस अध्याय में शरीर को 'क्षेत्र' और आत्मा को 'क्षेत्रज्ञ' बताया गया है। आत्मा शरीर से भिन्न है और शरीर केवल एक उपकरण है। इसे क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग कहते हैं।
*अध्याय 14: गुणत्रय विभाग योग - त्रिगुणों का प्रभाव*
*आनंद* : (विश्लेषण करते हुए) श्रीकृष्ण बताते हैं कि यह संसार सत्व, रज और तम - तीन गुणों से बना है। ये गुण हमें प्रभावित करते हैं और हमारे कर्मों को निर्धारित करते हैं। हमें इन गुणों के प्रभाव से ऊपर उठने का प्रयास करना चाहिए। यही है गुणत्रय विभाग योग।
*अध्याय 15: पुरुषोत्तम योग - परम पुरुष*
*आनंद* : (गर्व से) इस अध्याय में श्रीकृष्ण स्वयं को 'पुरुषोत्तम' बताते हैं, जो क्षर (नश्वर) और अक्षर (अविनाशी) दोनों से परे हैं। वे ही परम सत्य हैं। इसे पुरुषोत्तम योग कहते हैं।
*अध्याय 16: दैवासुर संपद् विभाग योग - दैवी और आसुरी प्रवृत्तियाँ*
*आनंद* : (चेतावनी देते हुए) श्रीकृष्ण दैवी और आसुरी संपत्तियों का वर्णन करते हैं। दैवी संपदाएँ हमें मोक्ष की ओर ले जाती हैं, जबकि आसुरी संपदाएँ बंधन और पतन की ओर। हमें दैवी गुणों को अपनाना चाहिए। यही है दैवासुर संपद् विभाग योग।
*अध्याय 17: श्रद्धात्रय विभाग योग - श्रद्धा के प्रकार*
*आनंद* : (विस्तार से) श्रद्धा तीन प्रकार की होती है – सात्विक, राजसिक और तामसिक। हम जिस प्रकार की श्रद्धा रखते हैं, वैसे ही हमारे कर्म और जीवन होते हैं। यह श्रद्धात्रय विभाग योग है।
*अध्याय 18: मोक्षसंन्यास योग - अंतिम उपदेश और सार*
*आनंद* : (शांति और पूर्णता के भाव से) और अंत में, गीता का सार – मोक्षसंन्यास योग। श्रीकृष्ण अर्जुन को सभी धर्मों (कर्तव्यों) को छोड़कर उनकी शरण में आने को कहते हैं। वे वचन देते हैं कि वे सभी पापों से मुक्त कर देंगे। यह अध्याय ज्ञान, कर्म और भक्ति का अंतिम समन्वय है, जो हमें पूर्ण स्वतंत्रता (मोक्ष) की ओर ले जाता है।
(आनंद मुस्कुराता है, किरण उसकी ओर देखता है, उसकी आँखों में अब शांति और स्पष्टता है।)
*किरण* : (नतमस्तक होकर) दादा जी, आपने मेरी आँखें खोल दीं। यह तो जीवन का पथ-प्रदर्शक है। हर अध्याय एक नया दृष्टिकोण देता है। अब मैं समझा, गीता केवल एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला है।
*आनंद* : (प्रेरणा देते हुए) बिल्कुल, किरण। अब तुम इस ज्ञान को अपने जीवन में उतारो। कर्म करो, लेकिन फल की चिंता मत करो। मन को नियंत्रित करो, और ईश्वर पर श्रद्धा रखो। यही सच्ची शांति का मार्ग है।
किरण: (दृढ़ संकल्प से) मैं अवश्य प्रयास करूँगा। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
(दोनों शांत भाव से बैठे रहते हैं, मंच पर धीमी रोशनी फैलती है।)
(पर्दा गिरता है)
`एकांकीकार - करण सिंह राजपुरोहित शिवतलाव
*नासदीय सूक्त - सृष्टि का रहस्य*
पात्र:
* आनन्द: ज्ञानी विशेषज्ञ।
* किरण: जिज्ञासु ।
स्थान: एक शांत पुस्तकालय का कोना।
समय: शाम का समय, जब सूरज की किरणें खिड़की से अंदर आ रही हैं।
पहला दृश्य
(आनन्द और किरण पुस्तकालय में बैठे हैं। किरण चिंतित और उलझन में दिखती है।)
किरण: दादाजी, मैंने पुराणों और ग्रंथों में सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में बहुत कुछ पढ़ा है, लेकिन मेरे मन में फिर भी कई प्रश्न हैं। यह सब कैसे अस्तित्व में आया?
आनन्द: (हंसते हुए) किरण, यह प्रश्न नया नहीं है। ऋग्वेद में एक सूक्त है, जिसे नासदीय सूक्त कहते हैं, वह इसी विषय पर गहन चिंतन प्रस्तुत करता है। सुनो, उसका पहला श्लोक कहता है:
> नासदीय सूक्त का श्लोक 1:
> नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।
> किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम्॥
आनन्द: इसका अर्थ है: "उस समय न तो 'असत' था और न ही 'सत' (न अभाव था न भाव)। न रज (धूल या अंतरिक्ष) था, न ही वह आकाश था जो उसके पार है। वह सब कुछ किसने ढका था? कहाँ था? और किसके आश्रय में था? उस समय क्या गहन और गंभीर जल था?"
किरण: (आश्चर्यचकित होकर) दादाजी, यह तो बहुत ही गूढ़ है। यह बताता है कि सृष्टि से पहले कुछ भी नहीं था, फिर भी कुछ था।
दूसरा दृश्य
(किरण चिंतन में लीन हो जाती है। आनन्द उसे देखते हैं।)
आनन्द: यही तो रहस्य है। यह सूक्त सृष्टि की शुरुआत को परिभाषित करने की बजाय, उस अवस्था का वर्णन करता है जहाँ हमारी सामान्य समझ काम नहीं करती। दूसरा श्लोक इसी पर आगे बढ़ता है।
> नासदीय सूक्त का श्लोक 2:
> न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
> आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास॥
आनन्द: "उस समय न मृत्यु थी और न अमरता। न दिन का ज्ञान था और न ही रात का। वह 'एक' बिना हवा के अपनी शक्ति से साँस ले रहा था। उस 'एक' के अलावा और कुछ भी नहीं था।"
तीसरा दृश्य
(किरण के चेहरे पर अब और भी अधिक उत्सुकता है।)
किरण: तो क्या वह 'एक' ही सृष्टि का मूल कारण है?
आनन्द: यह 'कारण' नहीं, बल्कि 'अस्तित्व' था। तीसरा श्लोक बताता है कि उस समय गहन अंधकार था, और उस अंधकार में छिपा हुआ वह 'एक' अपनी शक्ति के प्रभाव से प्रकट हुआ।
> नासदीय सूक्त का श्लोक 3:
> तम आसीत्तमसा गूळ्हमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।
> तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकम्॥
आनन्द: "पहले सब ओर अंधकार ही अंधकार था। यह सारा जगत जल के समान अव्यक्त और अगम्य था। वह तुच्छ (अव्यक्त) शक्ति से ढका हुआ था। तप (चेतना की शक्ति) के प्रभाव से वह 'एक' प्रकट हुआ।"
चौथा दृश्य
(किरण और आनंद गहरे संवाद में लीन हैं।)
किरण: यह तो अद्भुत है! तो क्या वह चेतना ही सृष्टि की जननी है?
आनन्द: हाँ, और चौथा श्लोक इसी पर प्रकाश डालता है। यह बताता है कि काम (इच्छा) ही उस 'एक' का पहला बीज था।
> नासदीय सूक्त का श्लोक 4:
> कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
> सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा॥
आनन्द: "सबसे पहले मन में काम (इच्छा) उत्पन्न हुई, जो सृष्टि का प्रथम बीज था। कवियों (मनीषियों) ने अपने हृदय में गहन विचार कर असत में सत के संबंध को पाया।"
पाँचवाँ दृश्य
(किरण और आनंद शांत मुद्रा में बैठते हैं। किरण के सभी प्रश्न अब एक बड़े रहस्य में बदल गए हैं।)
किरण: लेकिन इस सृष्टि का विस्तार कैसे हुआ? यह सब कहाँ से आया?
आनन्द: पाँचवां श्लोक यही बताता है। वह बीज जो ऊपर-नीचे, तिरछा-सीधा हर जगह फैला।
> नासदीय सूक्त का श्लोक 5:
> तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासीदुपरि स्विदासीत्।
> रेतोधा आसन्महिमान आसन्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात्॥
आनन्द: "उनकी किरणें तिरछी फैल गईं। क्या वह नीचे थी? क्या वह ऊपर थी? उस समय बीज धारण करने वाले (उत्पादक शक्ति) थे और महिमा भी थी। नीचे स्वधा (अपनी प्रकृति) थी और ऊपर प्रयत्न (अधिशक्ति पुरुष) था।"
छठा दृश्य
(किरण और आनंद गहरे संवाद में लीन हैं।)
किरण: यह सब किसने बनाया? क्या कोई जानता है?
आनन्द: यही इस सूक्त का सबसे महत्वपूर्ण और अंतिम प्रश्न है। यह प्रश्न ही इस सूक्त का सार है।
> नासदीय सूक्त का श्लोक 6:
> को अद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
> अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव॥
आनन्द: "कौन वास्तव में जानता है और यहाँ कौन बता सकता है कि यह विसर्जन (सृष्टि) कहाँ से उत्पन्न हुई? देवता भी इस सृष्टि के बाद हुए, तो कौन जानता है कि यह कहाँ से उत्पन्न हुई?"
किरण: तो क्या कोई नहीं जानता?
आनन्द: शायद कोई जानता है, लेकिन वह कौन है? अंतिम श्लोक इसी पर समाप्त होता है।
> नासदीय सूक्त का श्लोक 7:
> इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
> यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद॥
आनन्द: "यह सृष्टि जहाँ से उत्पन्न हुई, क्या उसने इसे धारण किया या नहीं? जो इसका अध्यक्ष है, उस परम आकाश में, वह निश्चय ही जानता है, या शायद वह भी नहीं जानता।"
मंच पर एक काव्य गुंजता है।
ना था सत, ना ही असत, न था जग में कुछ भी,
न दिन था, न थी रात, न मृत्यु थी तब ही।
अंधकार था घना, छुपा उस गहन में,
अकेला वो 'एक' था, अपनी ही शक्ति में।।
हवा भी ना थी जहाँ, वहाँ वो साँस लेता था,
तप की उस शक्ति से, वो स्वयं प्रकट होता था।। १।।
काम था पहला बीज, मन में जो उगा,
सत का था संबंध, असत में मिला।
किरणें फैलीं सब ओर, तिरछी और सीधी,
यह सृष्टि कैसे बनी, कोई नहीं जानता, कोई नहीं जानता है।।
देवता भी आए बाद में, क्या कोई बता सकता है?
जो है इसका अध्यक्ष, परम आकाश में रहता है,
शायद वही जानता है, या शायद वह भी नहीं जानता है।।२।।
(नाटक का पर्दा गिरता है। किरण और आनन्द अभी भी चिंतन में हैं। यह नाटक दिखाता है कि सृष्टि के रहस्य को जानने की हमारी यात्रा कभी समाप्त नहीं होती।)
0 Comments: