🔥 ईश्वर प्रणिधान🔥
------------------------------------------------
🙏श्री आनन्द किरण 🙏
------------------------------------------------
अष्टांग योग में वर्णित यम-नियम का पांचवा नियम एवं आनन्द मार्ग साधना का प्रथम पाठ ईश्वर प्रणिधान है। जीवन वेद में ईश्वर प्रणिधान की परिभाषा सम्पद व विपद में ईश्वर के प्रति दृढ़ विश्वास रखना बताया गया है। स्वामी विवेकानंद एवं भारतीय योग शास्त्र ईश्वर प्रणिधान को ईश्वर में समर्पित करने के रूप में परिभाषित किया है।
आनन्द मार्ग ने ईश्वर प्रणिधान की व्यवहारिक पद्धति का सूत्रपात किया है। इससे पूर्व ईश्वर प्रणिधान सिद्धांत के रुप में था। यह आनन्द मार्ग साधना का प्रथम पाठ है। इस पद्धति के पांच अंग है।
१. भूत शुद्धि - मन को सांसारिक एवं भौतिक जगत से हटाने का नाम भूत शुद्धि है।
२. आसन शुद्धि - मन को ईष्ट चक्र में स्थापित करने को आसान शुद्धि कहा गया है।
३. चित्त शुद्धि - चित्त को ब्रह्म भाव में स्थापित करना चित्त शुद्धि है।
४. ईष्ट मंत्र का जप - गुरु अथवा आचार्य द्वारा प्रदान किये गए ईष्ट मंत्र का जप किया जाता है।
५. भाव ग्रहण - ब्रह्म भाव को ग्रहण किया जाता है।
ईश्वर प्रणिधान शब्द ईश्वर व प्रणिधान दो शब्द से मिलकर बना है। भक्ति शास्त्र में ईश्वर को अष्ट ऐश्वर्य का स्वामी बताया गया है। प्रणिधान शब्द का जानना अथवा प्रयास करने के रुप में परिभाषित किया गया है। इस अर्थ में ईश्वर प्रणिधान का अर्थ ईश्वर को जानना अथवा जानने का प्रयास करना है। स्मरणीय है कि सर्वोच्च सत्ता का नाम ब्रह्म दिया गया है। ब्रह्म शब्द शाब्दिक अर्थ बृहद अर्थात विराट है। इस अर्थ में सर्वोच्च सत्ता को ईश्वर कहना न्याय संगत नहीं है। यह मात्र अष्ट ऐश्वर्य का स्वामी नहीं है। इसके साथ षड़ भग का स्वामी है इसलिए यह भगवान भी है। यहाँ ही सर्वोच्च सत्ता रुकती नहीं है। यह भगवान से उपर तारणहार के रुप में तारक ब्रह्म है। इसलिए आनन्द मार्ग ने साधना का नाम ब्रह्म साधना दिया है। जिसका अर्थ है ऐसी प्रक्रिया जिसके अनुसरण से जीव शिव बन जाता है।
ब्रह्म बनना प्रत्येक मनुष्य का लक्ष्य है तथा यह मनुष्य का धर्म है। तदनुकूल किया जाने वाला प्रयास ब्रह्म अथवा धर्म साधना है। आनन्द सूत्रम कहता है कि धर्म साधना सभी मनुष्य के लिए अवश्य करणीय कर्तव्य है। इस क्रम में ईश्वर प्रणिधान ब्रह्म को जानना अथवा ब्रह्म बनने का प्रयास है। इस प्रयास में प्रथम मनुष्य स्वयं को जानता है। स्वयं को जानने के प्रयास में मनुष्य कुछ प्रश्नों का सामना करता है।
१. मैं कौन हूँ?
२. मैं कहाँ से आया हूँ?
३. मुझे कहाँ जाना है?
इन प्रश्नों के अनुसंधान के क्रम में मनुष्य पाता है कि वह एक महत् (मन का उच्चतम बिंदु) है तथा वह सगुण ब्रह्म से आया है निर्गुण ब्रह्म में समाना है। इसको जानने के बाद उस हेतु प्रयास करता है। प्रयास करते करते एक दिन चरम लक्ष्य को प्राप्त करता है। इस मनुष्य नियमित रूप से लक्ष्य की ओर बढ़ने का प्रयास करता है, उसे ब्रह्म सााधना नाम दिया गया है। इस साधना का प्रथम पाठ को ईश्वर प्रणिधान कहते है।
----------------------------------------------
0 Comments: