आनन्द मार्ग साधना पर एक अध्ययन पत्र

आनन्द मार्ग साधना पर एक अध्ययन पत्र
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               मनुष्य को पूर्णत्व प्राप्त कराने की कला का नाम  साधना है। ऋषि मुनियों ने इसे मनुष्य को नर से नारायण बनाने की विधा के रुप में परिभाषित किया है। दर्शन इसे अणु चैतन्य को भूमा चैतन्य में रुपांतरित करने का विज्ञान बताता है। भक्ति शास्त्र इसकी आवागमन के चक्र से मुक्त करने के साधन के रुप में व्यख्या करता है। एक साधक इसे मुक्ति-मोक्ष की यात्रा पथ के रुप में देखता है। एक आचार्य इसे सृष्टि चक्र के प्राण केन्द्र पुरुषोत्तम में विलिन होने की पद्धति के रुप में जिज्ञासु को सिखाता है।

🙏🌹साधना एक कला है 🌹🙏

नर(स्त्री व पुरुष दोनों) से नारायण बनाने की कला को साधना मार्ग के द्वारा समझा जा सकता है। शास्त्र में साधना के तीन मार्ग बताए है।
(1) ज्ञान मार्ग ➡ आत्मज्ञान को प्राप्त कर साधक तत्व सदृश्य हो जाने की बात शास्त्र में ऋषि मुनियों द्वारा उल्लेखित की गई है।
(2) कर्म मार्ग ➡ निष्काम कर्म द्वारा परम पद की ओर पाना शास्त्र की शिक्षा है।
(3) भक्ति मार्ग ➡ भगवद् भावना के द्वारा भगवद् बन जान की कला को शास्त्र में भक्ति मार्ग बताया है।
       वस्तुत:  ज्ञान, कर्म एवं भक्ति का संगम है।  ज्ञान एवं कर्म दो मार्ग है तथा भक्ति ध्येय है। एक पथिक प्रथम गंतव्य स्थल, मार्ग व साधन का ज्ञान अर्जित करता है तत्पश्चात वह उपयुक्त रास्ते एवं संसाधन के द्वारा गंतव्य स्थल की ओर चलता है। रास्ते में उसे वस्तु स्थित का साक्षात्कार होता है। अंततोगत्वा गंतव्य स्थल पर पहुँच कर अपने लक्ष्य को पाता है। इस यात्रा में आरंभ से अंत तक लक्ष्य पर ध्यान रहता है तथा उसी भाव में यात्रा चलती है। यह भाव अर्थात भक्ति मनुष्य का ध्येय के रूप में रहते है। ज्ञान व कर्म दोनों मार्ग साथ साथ चलते है। आनन्द मार्ग साधना में साधक इसको समझता है।

🙏🌹साधना एक विज्ञान है🌹🙏

साधना विज्ञान के अनुसरण से अणु चैतन्य भूमा चैतन्य हो जाता है।
(1) योग ➡ जीवात्मा को परमात्मा बनाने के विज्ञान को योग नाम दिया है। योग के आठ अंग है।
(१) यम ➡ समष्टि जगत के अनुशासन के लिए साधक अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह नामक पंच यमों को धारण करता है।
(२) नियम ➡ स्वयं पर अनुशासन के लिए साधक शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान नाम पंच नियम को अपना कर चलता है।
(३) आसनशारीरिक क्रियाओं के नियमन एवं नियंत्रण कर आत्मिक पथ पर चलने के योग को आसन कहते है।
(४) प्राणायाम ➡ प्राण वायु के नियमन व मानवीय चेतना के आध्यात्मिकरण को प्राणायाम के द्वारा समझाया जाता है।
(५) प्रत्याहार ➡ मन को बाह्य जगत् से आत्मिक विकास की ओर ले जाने वाला योग प्रत्याहार है।
(६) धारण ➡ मन को परमात्मा भाव के में प्रतिष्ठित करने की विधा धारण नाम दिया गया है।
(७) ध्यान ➡  मन को ध्येय में प्रतिष्ठित करने की प्रक्रिया का नाम ध्यान दिया जा सकता है।
(८) समाधि ➡ अणु भूमा में स्थापित होने समाधि से समझा जा सकता है।
(i) सविकल्प समाधि ➡ महत के भूमा महत् में संस्थापित होना सविकल्प समाधि है। यह सुगम स्थित है। संस्कार क्षय होने पर तथा तारकंब्रह्म की कृपा साधक सगुण स्थित में स्थायी वास करने को मुक्ति कहा गया है।
(ii) निर्विकल्प समाधि ➡ महत का भूमा चैतन्य में संस्थापित होना निर्विकल्प समाधि कहते है। यह निर्गुण स्थित है। संस्कार क्षय होने पर तथा तारकंब्रह्म की कृपा साधक निर्गुण स्थित में स्थायी वास करने को मोक्ष कहा गया है।
(2) तंत्र ➡ जीव के शिव बनने के विज्ञान को तंत्र से समझा जाता है। मानव शरीर, मन एवं आत्म के संचालन एवं संगठन का जीव वैज्ञानिक एवं जैव मनोवैज्ञानिक व्यवस्था है। जीव विज्ञान की भाषा में उन्हें भी तंत्र (system)  नाम दिया है। मनुष्य के शरीर में इन सभी व्यवस्थाओं का नियंत्रण एवं नियमन जिस व्यवस्था होता है। उसे आध्यात्मिक तंत्र के द्वारा सुगमता से समझा जा सकता है। आध्यात्मिक तंत्र अथवा तंत्र को इसकी कार्यशैली के आधार पर दो रुपों में समझा जा सकता है।
(I) विद्या तंत्र - स्थूल से सूक्ष्मत्तम की ओर गति को विद्या माया से समझा जाता है तथा व्यवहारिक अनुभव विद्या तंत्र के माध्यम से करते है। जहाँ जड़ता चेतन से चैतन्य हो जाती है। यह साधक के प्रगति पथ है।
(II) अविद्या तंत्र ➡ सूक्ष्मत्तम से जड़ता की ओर गति को अविद्या माया से समझा जाता है तथा व्यवहारिक अनुभव अविद्या तंत्र में होता है। यह चेतना को जड़ बनाती है। साधक को अवनीति  की ओर ले जाते है।
       तंत्र को विभिन्न चक्रों के माध्यम से शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्रियाओं को नियंत्रित करता है।
(१) मूलाधार चक्र ➡साधना से संबंधित अध्ययन से ज्ञात होता है कि साधना मनुष्य कीं बिन्दुओं को चक्र नाम दिया गया है।  मेरुदंड की अंतिम भाग में उदरगुहा के पीछे प्रथम संगम बना है। जिसे मूलाधार चक्र कहा गया है। यहाँ शरीर के ठोस भाग का नियंत्रण होता है। मन के सबसे जड़ स्वरूप के नियमन एवं नियंत्रण का विज्ञान है। यहाँ से साधक की साधना आरंभ होता है।  यहाँ मनुष्य का जीव भाव कूल कुण्ड़लिनी सुप्त अवस्था में रहता है।
(२) स्वाधिष्ठान चक्र ➡ इंड़ा पिघला एवं सुषमना का द्वितीय संगम लैगिक ग्रंथियों के पाश्व भाग में है। इस स्वाधिष्ठान चक्र नाम दिया गया है। यहाँ शरीर का तरल पदार्थों का नियमन एवं नियंत्रण करता है।
(३) मणिपुर चक्र ➡ नाभि के पीछे शरीर के तापमान एवं ऊर्जा को नियंत्रित करने का कार्य मणिपुर चक्र में संपन्न होता है।
(४) अनाहत चक्र ➡ गैसीय तत्वों का नियंत्रण सीने के स्थान पर स्थित अनाहत चक्र के द्वारा होता है।
(५) विशुद्ध चक्र ➡आकाश तत्व का नियंत्रक कंठ पर स्थित विशुद्ध चक्र के द्वारा होता है।
(६) आज्ञा चक्र ➡ मन की अधिष्ठात्रा चक्र त्रिकुटी में स्थित आज्ञा चक्र कहते है।
(७) सहस्त्राचक्र ➡ आत्मिक क्रिया का नियंत्रण ब्रह्म तालु सहस्त्राचक्र है।
(८) गुरु चक्र ➡सहस्त्राचक्र का आंतरिक भाग गुरु चक्र नाम दिया गया है।
(९) ललना चक्र ➡ नासिका पटल के चक्र को ललना चक्र कहते है।
         इन चक्रों की मानसिक एवं आध्यात्मिक अवस्थाएँ है। जिनका वर्णन करने का अधिकार मात्र गुरु को है।

(3) भक्ति ➡ भक्ति साधना की पराकाष्ठा है। एक व्यवहारिक प्रक्रिया है। ज्यौ-ज्यौ साधक साधना के क्षेत्र में उत्तरोत्तर प्रगति करता है। प्रियतम के प्रति उनके भावों में पराकाष्ठा आती है।
(1) शाक्त भाव ➡ प्रारंभ में शाक्त भाव रहता है। वह साधना मार्ग की बाधाओं से संघर्ष करता है।
(2) वैष्णव भाव ➡ शाक्त भाव के बाद साधक मन लीलानंद के आनन्दमयी बन जाता है। साधक हर परिस्थिति में आनन्द की अनुभूति करता है।
(१) बृज भाव- साधना की लीला में आनन्द लेता साधक परम की वस्तु, कहानी एवं वाक्यों को स्मरण कर आनन्दित होता है। वह इनके स्पर्श में बार-बार आना चाहता है।
(२) गोप भाव - यहाँ वह परम पुरुष की ओर इसलिए बढ़ता है। उसे ऐसा करने में आनन्द की अनुभूति होती है।
(३) राधा भाव ➡यहाँ वह इसलिए आगे बढ़ता है कि ऐसा करने से परम पुरुष को आनन्द मिलता है।  इस रागात्मिका भक्ति, रागानुगा भक्ति एवं केवला भक्ति की ओर अग्रसर होता है।
(3) शैव भाव ➡ वैष्णव भाव के साधना की पराकाष्ठा उसे दिव्यचार शैव भाव की ओर ले चलते हैं।
      मनुष्य के जीवन लक्ष्य का मार्ग आनन्द मार्ग पर चल रहे साधक अनुभव करता है कि आनन्द मार्ग साधना में योग तंत्र एवं भक्ति का बेजोड़ समन्वय है।

🙏🌹साधना मनोविज्ञान है 🌹🙏

साधना अणु सत्ता का भूमा सत्ता के साथ संयुक्तिकरण क्रिया है। साधना जगत में इस क्रिया के सात आयाम है
(1) गंध तन्मात्र  ➡ गंध की स्पंदन से कई जीव वस्तु जगत की क्रिया संपन्न करते है। अविद्या तांत्रिक यहाँ अपनी साधना शुरू करते है। विद्या तांत्रिक के लिए यह परम पुरुष की सुगंध आनन्दानुभूति को प्राप्त करते है।
(2) रस तन्मात्र ➡  रस तन्मात्र के माध्यम भी वस्तु जगत से संयुक्त होने का माध्यम है। रस की स्पंदन रासलीला एक अभिव्यक्ति है। मनुष्य के अंदर वीर रस, श्रृंगार रस व हास्य रस इत्यादि के भाव रहते है। यह भूमा से आध्यात्मिक रस को पाकर आनन्द के सागर में गोथे लगाता है।
(3) रुप तन्मात्र ➡ यह दृश्य तन्मात्रिक अभिव्यक्ति है। इसके माध्यम से रुप की धारणा की जाती है। धारणा एवं ध्यान में इसकी उपादेयता दिखती है।
(4) स्पर्श तन्मात्र ➡ यह परम तत्व के सामीप्य साजुप्य इत्यादि के आनन्द लेने की साधना का नाम है।
(5) शब्द तन्मात्र ➡ वस्तु जगत की सबसे सूक्ष्म भावाभिव्यक्ति है । नाम साधना (संगीत, कीर्तन, सिमरन व श्रवण) एवं जप साधना का अंग है। आध्यात्मिक साधना में इसका उपयोग किया जाता है।
(6) भाव ➡ आध्यात्मिक साधना का वास्तविक रूप यहाँ से है। मनुष्य इसके माध्यम भूमामन में रुपांतरित होता है अर्थात सगुणास्थिति को प्राप्त करता है।
(7) भावातीत ➡ भाव के अतीत की अवस्था है। इसके माध्यम से निर्गुणावस्था को प्राप्त किया जाता है।
           भाव व भावातीत सेतु तारकंब्रह्म ब्रह्म साधना एवं भक्ति के नियंता है। आनन्द मार्ग साधना में भाव भावातित का अनुभव करता है तथा तंमात्र की उपादेयता प्रमाणित होती है।

🙏🌹साधना एक वास्तविक विज्ञान है 🌹🙏

           साधना किताबी वस्तु नहीं एक व्यवहारिक प्रक्रिया का नाम है। जिसका एक निश्चित क्रम है।
(1) गुरु साष्टांग ➡साधना की व्यवहारिक प्रक्रिया में गुरु को साष्टांग से आरम्भ होता है। यहाँ मनुष्य अपने स्व: भाव को प्रियतम के समक्ष समर्पित करता है।
(2) प्रभात संगीत ➡ संगीत मनुष्य के भावों की अभिव्यक्ति का रसात्मक प्रस्तुति है। प्रभात संगीत साधक के मन को सकारात्मक ऊर्जा से सदैव नूतन एवं उषामान रखता है।
(3) कीर्तन ➡ नाम संकीर्तन के माध्यम से भावतीत बनने की ओर अग्रसर होता है। सस्वर नाम की स्पंदन कीर्तन कहलाती है। नाम मानसिक स्मरण सिमरन तथा इसे वस्तु जगत एवं भूमा जगत सुनना श्रवण कहा गया है। साधना में सुनाई देने वाली विभिन्न ध्वनियाँ शब्द साधना की संपदा है।
(4) यम नियम ➡ साधना मार्ग की चल रहे आनन्द मार्गी के मन में वस्तु जगत में एक नीति को लेकर चलता है।
(१) यम ➡ सार्वजनिक जीवन में साधक का अनुशासन। यह पांच है।
(i) अहिंसा ➡  परपीड़ा, विनाश एवं विध्वंसक भाव एवं कर्म से उपर जीवन यापन करने की साधना है।
(ii) सत्य ➡ परहित के भाव, वचन एवं कर्म का जीवन अंगीकार करने की साधना है।
(iii) अस्तेय ➡ पर वस्तु व सेवा को अनुचित रुपेण स्वीकार करने की भाव, कर्म, लालसा एवं चाहत से उपर जीवन जीने की साधना है।
(iv) अपरिग्रह ➡ वस्तु जगत एवं भाव जगत में दूसरों को उनके अधिकार से वंचित करने के कृत्य एवं भाव तथा स्वयं को भोग प्रवृत्ति उपर जीवन जीने की साधना है।
(v) ब्रह्मचर्य ➡ वस्तु जगत की आसक्ति से उपर ब्रह्म में विचरण करने की साधना है।
(२) नियम ➡व्यक्तिगत जीवन में साधक का अनुशासन।
(i) तप ➡ पर कष्ट को अपने उपर लेकर सेवा भाव की साधना।
(ii) शौच ➡ काया, मन  व परिवेश की स्वच्छता में आनन्द लेने की साधना है।
(iii) संतोष ➡ तड़प एवं व्यथा से उपर आनन्दमय जीवन निर्माण की साधना है।
(iv) स्वाध्याय ➡ स्वयं, ब्रह्म एवं जगत के अध्ययन, श्रवण, पठन एवं मनन कर जीवन सरल बनाने की साधना है।
(v) ईश्वर प्रणिधान ➡ परम सत्ता के प्रति विश्वास तथा कर्मशील होने की साधना है।
(5) आसन ➡ साधना योग्य शरीर के संगठन की साधना है।
(6) शुद्धि ➡ मन को भौतिक जगत, शारीरिक एवं मानसिक परिक्षेत्र परे ब्रह्म परिक्षेत्र में स्थापित करने की साधना है।
(7) जपभाव ➡ इष्ट मंत्र जप के माध्यम से ब्रह्म भाव में प्रतिष्ठित होनी की साधना है।
(8) मधुविद्या ➡ जगत एवं कर्म को ब्रह्ममय बनाने की साधना है।
(9) तत्व धारणा ➡ पंच तत्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश को मन में धारण कर अपने नियंत्रण में लाने की साधना है।
(10) प्राणायाम ➡ प्राण वायु  पर नियंत्रण करना, ब्रह्म चेतना में विलिन होना तथा ब्रह्म चेतनामय बनने की साधना है।
(11) चक्र शोधन ➡ शरीर में मानसाध्यात्मिक क्रिया को नियंत्रण में लाने वाले चक्र का शोधन कर आध्यात्मिक विकास की साधना है।
(12) ध्यान ➡ ध्येय में स्वंय को मिलाने की साधना है। आरंभ में साधक, साधना एवं साध्य नामक तीन बिन्दु रहते है। तत्पश्चात साधक एवं साध्य तथा अंत में साध्य में स्वयं विलिन हो जाता है।
(13) गुरु वंदना ➡ अपना सबकुछ एवं स्वयं को गुरु चरणों में समर्पित करने की साधना है।
(14) समर्पण ➡ तारकंब्रह्म को समर्पित होने करने की साधना है।
(15) गुरु सकाश ➡ ब्रह्म के संग जीवन जीने की साधना है।
(16) पंचजन्य ➡ प्रभात संगीत, कीर्तन, साधना, गुरु वंदना एवं साष्टांग की संयुक्त अभिव्यक्ति के माध्यम से पाप मुक्त जीवन की साधना है।
(17) आध्यात्मिक नृत्य ➡ आध्यात्मिक के यात्री के जीवन में आनन्द के संचार होता रहता है। आत्मिक विकास यात्रा में नृत्य भी एक साधना है।
(१) ललित नृत्य ➡ कीर्तन में ललित नृत्य एक मुद्रा है। समर्पण की साधना है।
(२) कौषिकी नृत्य ➡ हार्मोन्स का अन्तर्मन बनाने की साधना है।
(३) तांडव नृत्य ➡ पौरुष भाव के जागरण के एक शक्तिशाली बनाकर बंधन मुक्ति की साधना है।
(18) यज्ञ ➡ मनुष्य के कर्तव्य कर्म को शास्त्र यज्ञ नाम देता है। यह चार प्रकार के है।
(१) पितृयज्ञ ➡ पूर्व पुरुषों (नारी व पुरुष दोनों) कार्य एवं देन के प्रति ब्रह्म भाव आरोपित करने को पितृयज्ञ द्वारा समझ जाता है। कर्ता, कर्म, वस्तुएवं क्रिया सबकुछ ब्रह्म होती है। यह भाव साधक के समझ है।
(२) नृयज्ञ ➡ समस्त मनुष्य जाति के प्रति अपने उत्तरदायित्व निशान में नारायण सेवा का भाव साधक को साधना में अग्रगति प्रदान करता है।
(३) भूतयज्ञ ➡ प्राणि जगत के प्रति साधक का दायित्व ब्रह्म ज्ञान से समझता है। भूतयज्ञ उसी का नाम है।
(४) आध्यात्मिक यज्ञ ➡ ब्रह्म साधना द्वारा स्वयं को मुक्ति के पथ पर ले जाना स्वयं के प्रति साधक का दायित्व है। इस आध्यात्मिक यज्ञ द्वारा समझ जाता है।
(19) सेवा ➡ मनुष्य के महान होने तीन साधन है- साधना, सेवा एवं त्याग। वस्तुत सेवा व त्याग भी साधना है। इसे चार रुपों में समझते है।
(१) शूद्रोंचित सेवा - शरीर द्वारा की जाने वाली सेवा।
(२) क्षत्रियोचित सेवा ➡ बाहुबल द्वारा की जाने वाली सेवा।
(3) वैश्योचित सेवा ➡ अर्थ द्वारा की जाने वाली सेवा।
(4) विप्रोचित सेवा ➡ ज्ञान, विज्ञान एवं शिक्षा द्वारा की जाने वाली सेवा।
        सेवा साधक को सेव्य  में ब्रह्म रुप के दर्शन कराती है। इसके माध्यम से साधक ब्रह्मोपल्बधि में सुगमता का अनुभव करता है।
(20) चतुष्कऋण ➡ पितृ, मातृ, आचार्य एवं गुरु ऋण को परिशोधन आत्म मुक्ति होने पर संभव है। ऐसा गुरु शिष्यो को कहता है। इसलिए उसे समस्त पुरुष, महिला जाति को सत पथ पर ले चलना होता है, आचार्य तथा आचार्य के का ध्यान रखकर चलना व गुरु द्वारा निर्धारित निदिष्ट कर्तव्य का पालन करने की साधना साधक को आत्म मुक्ति की यात्रा में सहायता करती है।
(21) विधि व शील ➡ आध्यात्मिक यात्री के लिए एक निर्धारित विधि तथा निर्धारित शील का अनुसरण करना होता है। यह गुरु द्वारा निर्धारित किया जाता है। जिससे किसी को परिवर्तन करने का अधिकार नहीं है। मनुष्य के षोडश विधि एवं पंचदश शील का होना चाहिए। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी  द्वारा - जल प्रयोग, त्वक्, केश, लंगोट, व्यापक शौच,  स्नान, भोजन, उपवास, साधना, ईष्ट, आदर्श, आचरण संहिता, चरम निर्देश, धर्म चक्र, शपथ व सी(आचरण संहिता) एस(सेमिनार) डी (कर्तव्य) के(कीर्तन) नामक षोडश विधि तथा  पंचदश शील निर्धारित किये है।

         साधना के वास्तविक आनन्द के लिए साधक को व्यवहारिक बनना होता है।

🙏🌹साधना एक आदर्श विज्ञान है 🌹🙏

साधक के समक्ष आदर्श प्रतिमान के रहने से साधक की लक्ष्य की ओर सतत् चलती रहती है। शास्त्र मनुष्य के दर्शन, मनुष्य के कर्म, मनुष्य के मनन, मनुष्य की प्रकृति एवं मनुष्य के समाज आदर्श प्रतिमान में रखकर साधक को साधना मार्ग दिखाया है।
(1) मनुष्य का दर्शन ➡ मानव के दर्शन आनन्द मार्ग के माध्यम समझाया है। मनुष्य आनन्द का राही है इसलिए उसका दर्शन भी आनन्द मार्ग है। ब्रह्म, सृष्टि, ज्ञान, क्रिया एवं भाव पंच विधा है।
(१) ब्रह्म ➡ शिवशक्तयात्मक ब्रह्म में शिव की आज्ञा शक्ति की संचर व प्रति संचर काल में सिद्धि होती है। इस ब्रह्म चक्र के प्राण केन्द्र परम शिव पुरुषोत्तम है।
(२) सृष्टि ➡ प्रवृत्ति काल में भूमामन महत,अहम व चित्त के रुप में तथा जगत व्योम, मरु, तेज, जल व क्षिति के रूप में संचर है तथा निवृत्ति काल में जीवदेह, जीव प्राण, जीवमन का प्रति संचर होता है।
(३) ज्ञान ➡ ब्रह्म ज्ञान दृक पुरुष व दर्शन शक्ति, संचर ज्ञान भूमा चैतन्य से भूमामन, भूमामन से पंच महाभूत तथा प्रतिसंचर ज्ञान जीव देह, प्राण, मन के विकास तथा मुक्ति का ज्ञान है।
(४) क्रिया ➡ साधना, समाधि तथा संस्कारक्षय द्वारा मुक्ति-मोक्ष क्रिया है।
(५) भावपक्ष  ➡ भाव सगुण, भावतित  निर्गुण तथा दोनों का सेतु तारकंब्रह्म है।
(2) मनुष्य की कर्मधारा ➡ आनन्द के लक्ष्य के आनन्द मार्ग के पथ पर, आनन्द मार्गी साधना के द्वारा बढ़ता है। मनुष्य की इस कर्म यात्रा को आनन्द मार्ग कहा जाता है।
(१) लक्ष्य ➡अनुकूल परिवेश सुख की ओर चल रहे जैव जगत में मनुष्य अनंत सुख आनन्द ही ब्रह्म का राही है। यह उपलब्ध होने सभी तृष्णा की निवृत्ति होती है। इसलिए ब्रह्म अर्थात वृहद को पाना मनुष्य का धर्म है तथा मनुष्य के लिए धर्म साधना करणीय है। यह लक्ष्य का मूल्यांकन करता है तथा संचर प्रति संचर का ज्ञान मनुष्य आत्मसाक्षात्कार की ओर चलने को कहता है। यह लक्ष्य का प्रमाणीकरण है।
(२) पथ ➡ आत्म मोक्ष एवं जगत सेवा का पथ आनन्द मार्ग है। साधक जानता है कि जगत का बीज मन के अतीत में है अर्थात मन ज्ञान के सृष्ट प्रश्नों के उत्तर नहीं पा सकता है। वह जानता है कि सृष्ट जगत गुणाधीन है इसलिए सगुण से जगत आया है तथा उसके भीतर ही है। अत: वह ब्रह्म सत्य है उसका अनुसंधान ही मनुष्य को आनन्द देता है । चूंकि जगत ब्रह्म द्वारा सृष्ट एवं उसके भीतर उसका ही अंग है इसलिए वह मिथ्या नहीं हो सकता है, दूसरी ओर वह शास्वत सत्य भी नहीं है। अतः जगत आपेक्षिक सत्य है तथा मानकर चलना है। आनन्द मार्गी ब्रह्म को पाने की लक्ष्य एवं जगत में सम समाजिकता के स्थापना की आकूति लेकर चलता है। यही मनुष्य का मार्ग है। इसलिए कहा जाता है कि आनन्द मार्ग मनुष्य मात्र का मार्ग है तथा मनुष्य का एक मात्र मार्ग है।
(३) पथिक ➡ मनुष्य साधना मार्ग का पथिक है। उसके आत्मा साक्षी भाव में रहने के कारण अकर्ता है तथा महत भी विषय संयुक्त रहने पर भी अकर्ता ही रहते है। अहम कर्ता है तथा फलभोक्ता है। मनुष्य का चित्त कर्मफल है। इसके कारण उसमें विकृति आती है। वह कर्मफल के भोग के माध्यम से पुन: मूल अवस्था में आता है। इसलिए मृत्यु के बाद भी उसके संस्कार उसे जगत में लाता है। क्योंकि स्वर्ग व नरक नाम के कोई जगह नहीं है। कर्मफल के अनुसार जगत में मिलने वाले परिवेश को स्वर्ग एक नरक नाम दिया गया है। मन संस्कार शून्य अवस्था में मुक्त होता है। अतः यह इस अवस्था को प्राप्त करने चेष्टा करने वाला राही है।
(४) साधन ➡ मनुष्य भूमा चित्त की जड़ अवस्था पंच महाभूत में रहता है। जहाँ शब्द, स्पर्श, रुप, रस एवं गंध तंमात्र के माध्यम से भूमा से भाव ग्रहण करता तदनुकूल मनुष्य के शरीर में ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम भाव ग्रहण करता है तथा कर्मेन्द्रियों के माध्यम से भाव उत्साहित करता है। यह स्नायु तंतु के माध्यम से स्नायु कोष में भाव के रूप ग्रहण होता है। अतः मनुष्य की  साधना भाव से भावातित की चलती है।
(3) मनुष्य की मनन धारा ➡ मनुष्य के मन का संगठन ब्रह्म मन के संगठन से हुआ है। उसकी मनन धारा भक्ति की ओर जा रही है।
(१) जैव मन एवं ब्रह्म मन  ➡ पंचकोषात्मक जैविसत्ता कदली के पुष्प के समान है तथा सप्तलोकात्मक ब्रह्म मन है। यह पंचकोष साधना एवं सप्तलोक साधना, साधना का एक आदर्श विज्ञान है।
(०) अन्नमय कोष ➡   जैव सत्ता में शरीर जिसे अन्नमय कोष कहा जाता है। यह जीव की स्थूल देह है।
(i) काममय कोष ➡ यह जीव का स्थूल मन है। जो जीव की जाग्रत अवस्था है। इस अवस्था के साक्षी पुरुष को प्राज्ञ नाम से जाना जा सकता है। ब्रह्म मन के परिपेक्ष्य में यह भू व भव लोक है। भू लोक ब्रह्म मन परिदृश्य मान अभिव्यक्ति है। इसलिए यह स्थूल देह कहलाती है। भव: ब्रह्म मन अदृश्य मान अभिव्यक्ति है। यह ब्रह्म का स्थूल मन है। इसके साक्षी पुरुष को ईश्वर कहते है।
(ii) मनोमय कोष ➡  जीव का सूक्ष्म मन जो स्वप्न अवस्था व जाग्रत में क्रियाशील रहता है। इसके साक्षी पुरुष को तैजस कहते है। ब्रह्म मन में स्व: लोक मनोमय कोष कहते है। यह ब्रह्म का सूक्ष्म मन है। इसके साक्षी पुरुष को हिरण्यगर्भ कहते है।
(iii) अतिमानसमय कोष ➡ ब्रह्म मन का मह: लोक।
(iv) विज्ञानमय कोष ➡ ब्रह्म मन का जन: लोक।
(v) हिरण्यमय कोष ➡ ब्रह्म मन का तप: लोक।
         अतिमानसमय, विज्ञानमय व हिरण्यमय कोष मिलकर कारण मन कहलाते है तथा काममय कोष से हिरण्यमय कोष  तक यह पंच कोष जीव की सूक्ष्म देह मानी गई है। कारण मन जाग्रत, सूक्ष्म एवं सुप्त तीन अवस्था में क्रियाशील रहता है। इसका साक्षी पुरुष जैव सत्ता में विश्व तथा ब्रह्म मन में विराट या वैश्वशनार कहते है।
(•) सत्य लोक ➡ अहम् व महत् मन को सत्य लोक, सचखंड कहते हैं। यह जैव व ब्रह्म मन की सामान्य अथवा कारण देह है। ब्रह्म मन में इसके साक्षी पुरुष को पुरुषोत्तम कहा गया है।
      यह साधना की सूक्ष्मता एवं प्रगति की कहानी है।
(२) मन मुक्ति की राह पर ➡ कारण मन की दीर्घ निंद्रा को मृत्यु कहा गया है तथा विपाक कर्म संस्कार के रुप मनुष्य के साथ रहते है। चूंकि विदेही मन सुख-दुख का अनुभव नही करता है तथा भूत प्रेत भ्रांत धारणा है। अतः जन्म मरण का चक्र चलता है। यह सब होते हुए भी मनुष्य के मन ब्रह्म को पाने की हितेषणा यह उस इस चक्र बाहर निकलने हेतु अपवर्ग करता है। जिससे उसके मन में मुक्ति की आकांक्षा जगती है। इस आकांक्षा के बल पर सदगुरु की प्राप्ति होती है। जिनके निर्देश पर मनुष्य साधना करता है। मुक्ति की ओर बढ़ने पर साधना मार्ग में बाधाएं आती है। यह साधक के शत्रु नहीं मित्र हैं। अतः साधक परम ब्रह्म की ओर बढ़ता ही जाता है। प्रार्थना, स्तुति, अर्चना इत्यादि भ्रममूलक है। यह भक्ति नही है। भक्ति भगवद भावना है इसका पूजा अर्चना से संबंध नहीं है।
(4) मनुष्य की प्रकृत गति ➡ प्रकृत गति के  अनुसार मनुष्य को परम के आश्रय में जाना होता है।
(१) प्रकृति का स्वरूप एवं गति ➡ प्रकृति सत्व रज एवं तम तथा तम रज एवं सत्व की गति धारा में परिणाम स्वरूप त्रिकोण अशेष रहती है। सृष्टि अंकुरण की पूर्व अवस्था सैद्धांतिक है इस अवस्था में पुरुष शिव तथा प्रकृति शिवानी या कौषिकी कहलाती है। द्वितीय सकल में सृष्टि का अंकुरण होता है। सृष्ट जगत की प्रथम अवस्था में पुरुष भैरव व प्रकृति भैरवी कहलाती है। अन्ततोगत्वा कला का उदभव होता है। जिससे मनुष्य की संतान मनुष्य होने पर भी हुबहू समान नहीं होती है।
(२) कुण्डलिनी ➡ संकल्प धनात्मक बिन्दु शंभूलिंग तथा सकल ऋणात्मक स्वयंभू लिंग कहलता है। जहाँ सुप्त अवस्था में कुण्डलिनी है। यह साधना विज्ञान के द्वारा जाग्रत कर परमपुरुष की ओर बढ़ती है।
(5) मनुष्य की सामाजिक मानसिकता ➡  मनुष्य की सामाजिक मानसिकता उसे सम सामाजिकता यह एक उच्च आध्यात्मिक प्रधान अर्थ व्यवस्था प्रगतिशील उपयोग तत्व का निर्माण करना होता है। जिससे मनूष्य दूषित आर्थिकता भौतिकता के चक्र दग्ध करता है। जबकि प्रगतिशील उपयोग तत्व मनुष्य को शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक विकास की ओर चले।

🙏🌹साधना एक विधा है 🌹🙏

आनन्द मार्ग साधना पर अध्ययन पत्र तैयार करने के क्रम में मुक्ति के मार्ग, वैज्ञानिक साधन, व्यवहारिक साधना तथा दार्शनिक तथ्य  आदर्श प्रतिमान में स्थापित करती है।  यह मनुष्य जीवन की एक विधा है।
(1) सिमरन ➡ साधक द्वारा साध्य को स्मरण करने की विधा का नाम सिमरन दिया गया है। इस विधा में गुरु को उनके नाम पूर्वक स्मरण करते है। यहाँ नाम के महत्व को स्वीकार किया गया है।  साधक साध्य को स्मरण करते करते उसमें समा जाता है।
(2) श्रवण ➡ सिमरन में साधक की ओर साध्य स्मरण किया जाता है जबकि श्रवण में साध्य की ओर से साधक को आकर्षित करने की ध्वनि श्रवण करने विधा को श्रवण कहा जाता है। कीर्तन में सिमरन भी होता है साथ में श्रवण का कार्य भी संपन्न होता है। साधना में इन साधक अनुभव करते है। श्रवण में साध्य की ओर आने वाली ध्वनि सुनते ही उस ओर चल पड़ता अन्ततोगत्वा उसमें समा जाता है।
(3) दर्शन ➡ लक्ष्य को देखने का नाम दर्शन कहा गया है। साधक अपने साध्य विशेष मुद्रा में देखता है। देखते देखते उसमें समा जाता है। गुरु सकाश में इनका अनुभव होता है।
(4) वंदन ➡ आभार प्रकट करने के क्रम में वंदन आया। गुरु वंदना के माध्यम से साधक साध्य का आभार प्रकट है।
(5) नमन ➡ नम्रता प्रकट करने के क्रम में नमन आया है।  गुरु को नमन कर साधक साध्य के प्रति नम्रता प्रकट करता है।
(6) समर्पण ➡ तुम्हारा तुझे समर्पण कर साधक साध्य को समर्पित करता है।
(7) अमृत ➡ साध्य की ओर साधक जो प्राप्त करता है। वह अमृत है। इस चरणामृत एवं पंचामृत इत्यादि नाम से अमृत को दर्शाया गया है। इससे साधक के भाग्य की पाप राशि का सुगमता से क्षय होता है तथा माया की फांसी कट जाती है। इसलिए साधक को पंचजन्य करना होता है।
        आनन्द मार्ग के साधक को पंचजन्य, गुरु सकाश, नित्य शुद्धम, गुरु पूजा, समर्पण इत्यादि साधनोचित क्रियाओं से  उपरोक्त विधाओं का अनुभव करता है।

उपसंहार ➡ साधना के गुप्त रहस्य को गुरु बताते तथा इस विषय की शिक्षा आचार्य देते है। तात्विक साधना गुढ़ रहस्य से परिचय कराते है। पुरोधा साधना से संबंधित सभी प्रश्नों के उत्तर देता है। मुझे इस विषय पर किसी को कुछ बताने का अधिकार नहीं है। इसलिए यह पत्र मेरा निजी है।



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    🙏🌹  श्री आनन्द किरण 🌹🙏

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