वर्णप्रधानता चक्रधारायाम्

    🙏वर्णप्रधानता चक्रधारायाम्🙏
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         प्रउत की मूल नीति का प्रथम सूत्र वर्ण + प्रधान + ता + चक्र + धारा + आयाम - चक्र की धारा में वर्ण की प्रधानता है। चक्र से भावगत अभिव्यक्ति समाज चक्र से है। अर्थात समाज चक्र की घूर्णन गति में वर्ण की प्रधानता है।  वर्ण का अर्थ वृत्ति से है। व्यष्टि के अंदर कार्य करने की क्षमता के गुणों वर्ण कहते है। प्राचीन भारत के समाजशास्त्रियों ने व्यष्टि में विद्यमान इन क्षमताओं के आधार पर व्यष्टि की चार श्रेणियाँ बताई गई है - शूूूद्र, क्षत्रिय, विप्र एवं वैश्य। 

शारीरिक क्षमता की प्रधानता वाले दो वर्ण है - शूद्र एवं क्षत्रिय

शूद्र एवं शूद्र युग - शूद्र शारीरिक क्षमता का स्वयं से उपयोग नहीं कर सकते है। इसलिए अन्यन इसका उपयोग सेवा कार्य में लेते है। एक युग में इसे लोगों का प्रधान्य था। इसलिए प्रउत के अनुसार उस युग को शूद्र युग कहा गया।

क्षत्रिय एवं क्षत्रिय युग - क्षत्रिय अपने शारीरिक क्षमता का उपयोग साहसिक कार्य में करते है। इनके इस गुण के कारण धीरे धीरे सभी इनके आश्रय में आ गए तथा समाज में इनकी प्रधानता हो गई। इसलिए इस युग को क्षत्रिय युग कहा गया। 

मानसिक क्षमता वाले दो वर्ण - विप्र एवं वैश्य है। 

विप्र एवं विप्र युग - मानसिक क्षमता का उपयोग ज्ञान विज्ञान एवं विषयी में करते है। उनके इस विशेष योग्यता के समक्ष क्षत्रिय नतमस्तक हो गए तथा समाज में इनकी प्रधानता स्थापित हो गई। अत: यह युग विप्र युग के नाम से जाना गया।

वैश्य एवं वैश्य युग - वैश्य मानसिक क्षमता का उपयोग विषय के साथ करते है। जगत में व्यापार विनिमय का कार्य संपन्न होता है। इनके इस गुण के आर्थ शक्ति एवं संसाधनों पर इनका कब्जा हो जाता है। शेष अपनी  क्षुधापूर्ति के इनके नियंत्रण में आ गए। इस युग को वैश्य युग कहा गया। 

     हमने देखा कि प्रउत का समाज चक्र की धारा में वर्ण की प्रधानता है।

समाज चक्र की धारा का क्रम शूद्र, क्षत्रिय, विप्र एवं वैश्य क्यों? 
             सृष्टि चक्र में बताया गया है कि मनुष्य   पाश्विक जीवन से विकास है।  यहाँ पाश्विक गुणों की प्रधानता होने के कारण शरीर एवं स्व: केन्द्रित मानसिकता रहती है। पाश्विक गुणधर्म  आहार, निंद्रा, भय, मैथुन से अधिक चिन्तन का नहीं होने की दशा को शूद्र मानसिकता कहते है। पाश्विक जगत से मानवीय मानसिकता के आगमन के कारण सर्व प्रथम शूद्र युग का आगमन हुआ।
        तत्पश्चात क्षत्रिय युग का आगमन होता है। शरीर प्रधानता मानसिकता का युग में शारीरिक शक्ति का उपयोग शौर्य प्रदर्शन में करने लगे। इनके इस गुण के कारण इतिहास में सर्वप्रथम एक मनुष्य ने दूसरे मनुष्य का आश्रय स्वीकार किया। शूद्र एवं क्षत्रिय दोनों मानसिकता शरीर से संबंधित है। अन्तर इतना है कि प्रथम शरीर के आभोग से अधिक चिन्तन नहीं है जबकि द्वितीय शरीर का उपयोग दूसरों की रक्षार्थ करता है। अतः शूद्र युग के बाद क्षत्रिय युग का आगमन होता है।
            इस प्रकार शरीर से रक्षार्थ की ओर बढ़ती मानव मनीषा में ज्ञान विज्ञान आलोक जग गया। यहाँ शरीर से अधिक मन महत्वपूर्ण हुआ। यहाँ मानसिकता पूर्णतया मन केन्द्रित होती है। इस प्रकार शारीरिक से शरीरमानसिक एवं शरीर मानसिक से मानसिक विकास के क्रम में क्षत्रिय युग के बाद विप्र युग का आगमन होता है।
                 उन्नत मानसिक विकास के शिखर पर पहुँचने के बाद मुक्ति की ओर अग्रसर होने पर मन आध्यात्मिक की ओर चलने से सदविप्र हो जाता है। यह समाज चक्र के प्राण केन्द्र की ओर अग्रसर हो जाते है। कुछ मानसिकता उन्नति के शिखर पर पहुँचने पूर्व ही विषय में लिप्त हो जाती है तथा यह मन का उपयोग भौतिक संसाधन में करने लगते है। इस प्रकार विप्र युग के बाद वैश्य युग आता है।
        वैश्यों का विषय को लेकर चलने वाले क्रियाकलाप शारीरिक भोग की ओर अधिक आकृष्ट करते है तथा शरीर का चिन्तन अधिक होने लगता है। इस प्रकार पुनः शूद्र युग स्थापित हो जाता है तथा प्रउत का समाज चक्र पूर्ण हो जाता है।

वर्ण प्रधानता को लेकर कतिपय प्रश्न
        वर्ण प्रधान समाज चक्र की शूद्र, क्षत्रिय, विप्र एवं वैश्य चार अवस्था से कुछ प्रश्न उभरकर हमारे समक्ष आए हैं।

(1)  क्या अर्थतंत्र के यह अवस्थाएँ जातिवाद की भेंट नहीं चढ़गी? ➡ कदापि नहीं। क्योंकि अर्थतंत्र के यह चिन्तन प्रस्तुत करने से पूर्व ही समाज को नव्य मानवताद एवं वैश्विक दृष्टिकोण से सजाया गया है। मानव समाज की उग्र एकता का भाव इसे जातिवाद की भेंट नहीं चढ़ने देते है। यह मानव में निहित आर्थिक क्षमताओं के गुण है। यह सामाजिक विभाजन का आधार नहीं है।

(2) क्या हिन्दू वर्णव्यवस्था एवं प्रउत की आर्थिक अवस्थाएँ समान है ➡ नहीं, वह एक सामाजिक वर्गीकरण था। यद्यपि इसका प्रारंभिक रूप कर्म पर आधारित था तथापि यह जन्मगत स्वरूप में रुपांतरित हो गई क्योंकि यहाँ सामाजिक स्तर का विन्यास था। प्रउत की अवस्था में इसके नामकरण से समानता है। लेकिन यह पूर्णतया आर्थिक विन्यास है। जिससे सामाजिक स्तर में कोई अंतर नहीं आता है।

(3) वर्णव्यवस्था का क्रम विप्र, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र है जबकि प्रउत का क्रम शूद्र, क्षत्रिय, विप्र एवं वैश्य क्यों ➡ यह इन दोनों में संबंध नहीं होने को प्रमाणित करती है। प्रउत की आर्थिक अवस्थाओं का क्रम एक आर्थिक मनोविज्ञान है। जबकि यह एक आस्था एवं विश्वास है। वर्णव्यवस्था में समाज एवं धार्मिक हैसियत के आधार पर व्यक्ति  के स्तर तय किया लेकिन प्रउत में व्यक्ति का स्तर नहीं समाज में प्रभुत्व का क्रम एक आर्थिक मनोविज्ञान से चलता है। उसका चित्रण किया गया है।

(4) कार्ल मार्क्स से इतिहास की भौतिक अवस्था से प्रउत के समाज चक्र कोई संबंध है ➡ नहीं। कार्ल मार्क्स की भौतिक अवस्थाएँ साम्यवाद में जाकर समाप्त हो जाती है। आदिम अवस्था, दास अवस्था, सामंतवाद, पूंजीवाद, सर्वहारा का अधिनायकवाद साम्यवाद। यहाँ जाकर रुक जाता है तथा सभी अवस्था प्रभुत्व की नहीं है। प्रउत की अवस्था शुद्ध अर्थव्यवस्था पर प्रभुत्व पर आधारित है। इसलिए इसका कार्ल मार्क्स की भौतिक अवस्था से संबंध नहीं है। कार्ल मार्क्स के साम्यवादी अवस्था वर्ग शून्य अवस्था बताता है। प्रउत हर युग दूसरे की उपस्थिति रखता है। प्रउत का समाज चक्र गतिमान है। किसी दृष्टि से कार्ल मार्क्स की भौतिक अवस्था से संबंधित नहीं है।

          वर्णप्रधानता चक्रधारायाम् एक सामाजिक आर्थिक दर्शन का एक मनोविज्ञान है तथा यह पूर्णतया व्यवहारिक है। 



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श्री आनन्द किरण

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