क्या सहकारिता के बल. पर प्रउत स्थापित होगा?
क्या सहकारिता के बल पर _प्रउत_ आएगा ?

-------------------------------------------
         श्री आनन्द किरण "देव"
----------------------------------------
इन दिनों प्राउटिस्ट यूनिवर्सल के द्वारा 'प्रउत इन प्रैक्टिस' के नाम पर बिहार व झारखंड के कुछ अंचल में कतिपय सहकारिता समितियों की शुरुआत की गई है। मैं व्यक्तिशय इस कार्य योजना का अभिनंदन करता हूँ। प्रउत के लिए बनाईं गई इस वर्किंग पोलिसी ने जनमानस के समक्ष चर्चा का विषय परोसा है - क्या सहकारिता के बल पर 'प्रउत' आएगा? 

प्रउत का मूल मंत्र संगच्छध्वम् है, जो मनुष्य को, साथ मिलकर आगे बढ़ने की शिक्षा देता है, तथा सहकारिता का अर्थ साथ मिलकर कर काम करना है। मोटे तौर पर देखने पर एक भ्रम होता है कि प्रउत ही सहकारिता है तथा सहकारिता ही प्रउत है। वस्तुतः ऐसा नहीं है। सहकारिता, प्रउत अर्थव्यवस्था का एक अंग मात्र है, जिसे मध्यम तथा कृषि उद्योग संचालन का आधार बताया गया है। इसलिए हमें देखना होगा कि पूंजीवाद तथा साम्यवाद के युग में सहकारिता की चिंगारी, प्रउत की अलख जगाने में कारगर है?

एक तथ्य है कि पूंजीवाद तथा साम्यवाद में सहकारिता मात्र एक छलवा है अर्थात पूंजीवाद तथा साम्यवाद में सहकारिता सफल हो ही नहीं सकती है। हम इस समय पूंजीवादी युग में जी रहे है। पूंजीवाद का विकराल दैत्य अपनी छत्रछाया में किसी भी अर्थव्यवस्था को पनपने नहीं देता है। पूंजीवाद को ध्वंस करने के लिए आरपार की लड़ाई का शंखनाद करना होता है। प्रउत, नये युग की आदर्श सामाजिक आर्थिक व्यवस्था है। यह किसी के सामने हाथ जोड़कर भिक्षा मांगने वाला अभियान नहीं है। यह संपूर्ण व्यवस्था परिवर्तन करने वाला आंदोलन है। युग के प्राणधर्म को नोंच रही व्यवस्था विरुद्ध के समग्र क्रांति है। शोषण एवं अत्याचार के विरुद्ध खुला विप्लव है। जहाँ प्रउत की भाषा क्रांतिकारी शब्दावली से निर्मित वहाँ सहकारिता की मंद आवाज, युग की श्रवण शक्ति को कैसे प्रभावित कर सकती है? यह प्रश्न 'प्रउत इन प्रैक्टिस' के समक्ष है। जिसका उत्तर देना ही होगा। 

प्रउत की समग्र क्रांति संघर्ष तथा रचनात्मक अभिव्यक्ति (दोनों) को एक साथ लेकर चलती है। प्रउत के सामाजिक आर्थिक आंदोलन की योजना में आध्यात्मिकता नैतिकता के जागरण से लेकर सदविप्र राज की स्थापना तक का एक सुव्यवस्थित कार्यक्रम है। प्रउत का सामाजिक आर्थिक आंदोलन ज्यौं ज्यौं आगे बढ़ेगा, त्यौं त्यौं एक आदर्श समाज के लिए एक रचनात्मक योजना परोसता जाएगा। अतः हम कह सकते है कि प्रउत आंदोलन संघर्ष तथा सृजन (दोनों) को एक साथ लेकर चलता है। प्रउत का सामाजिक आर्थिक आंदोलन के दो पहिए - समाज आंदोलन तथा फैडरेशन आंदोलन है। जो अपनी शुरुआत सांस्कृतिक आंदोलन करते है। सांस्कृतिक आंदोलन की मूल जनमानस में आध्यात्मिक नैतिकता का जागरण करना है। यह आध्यात्मिक नैतिकता ही सामाजिक आर्थिक आंदोलन की दूसरे पायदान आर्थिक आंदोलन की आत्मा है।

हम विषय के रोचक मोड़ पर आ गये हैं। सामाजिक आर्थिक आंदोलन का आंदोलन का दूसरा पायदान आर्थिक समाज आंदोलन, पूंजीवाद की लूट तथा साम्यवाद की दिशाहीन नीति के विरुद्ध खुला संघर्ष करता है। इसके साथ स्थानीय इकाई को आत्मनिर्भर इकाई के रूप में विकसित करने का रचनात्मक कार्यक्रम भी देता है। यहाँ पर प्रउत व्यवस्था के प्रबंधकों (सद्विप्र बोर्ड) को अपनी संतुलित अर्थव्यवस्था को पसोसना होगा। शिक्षा व चिकित्सा की निशुल्क व्यवस्था को अमली जामा पहनाना होगा। इसलिए हम मात्र सहकारिता की कुछ समितियां बना कर दुनिया को प्रउत का प्रादर्श कैसे दिखा सकते है? आपकी आप जाने, मैं तो इसे एक हास्य के अतिरिक्त कुछ नहीं कह सकता हूँ। 

विषय के अंत में सहकारिता के आधार पर प्रउत लाने का दिवा स्वप्न दिखाने व देखने वालो से एक ही बात कहूँगा - प्रउत का सामाजिक आर्थिक आंदोलन जादू की छड़ी नहीं है, जो जिसके हाथ में लगे वह जादूगर बन कर जनमानस को नजरबंदी का खेल दिखाने लग जाए। यह मेहनत एवं पसीने की वह बाजी है, जिसमें हर बाजीगर को अपनी जान की बाजी लगाकर अथवा जान जोखिम में डाल कर सर्वजन हितार्थ, सर्वजन सुखार्थ की साधना करता है। अतः सहकारिता मात्र एक प्रयास हो सकता है, संपूर्ण आंदोलन का प्रादर्श नहीं। 

एक चर्चा आदर्श सहकारी समिति व उनके आदर्श पात्रों पर कर विषय को विराम देता हूँ। प्रउत में वर्णित आदर्श सहकारी समिति अपने सदस्यों को अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा की गारंटी देती है तथा प्रत्येक पात्र की समग्र आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा अपने हाथों में लेती है। दूसरी ओर सहकारी समिति का प्रत्येक सदस्य यम नियम में प्रतिष्ठित व भूमा भाव का साधक होता है, जो सबके साथ मिलकर सबके लिए काम करने के आदर्श सहकारिता के गुणों को मन, कर्म, वचन एवं अन्त:आत्मा से ग्रहण करता है तथा उसे पूर्ण निष्ठा से निभाता है। आदर्श सहकारिता का यह पात्र सार्वजनिक हित के समक्ष निजी हितों का बलिदान देने के लिए सदैव सबसे आगे रहता है। यदि उक्त गुण से लबालब भरी प्रउत इन प्रैक्टिस की सहकारी समितियां है, तो हम सभी को इनका अभिनंदन व अभिवादन करना ही चाहिए। मैं एक आशावादी गुरु का आशावादी शिष्य हूँ, इसलिए प्रउत यूनिवर्सल के प्रउत इन प्रैक्टिस कार्यक्रम का स्वागत करता हूँ। मैं उसी गुरु का जागरूक शिष्य होने के नाते यह कहता हूँ कि प्रउत वीरों की भाषा व साधुओं की जीवन शैली है। इसे व्यापारियों के व्यवसायिक दावपेच तथा राजनेताओं की राजनैतिक चालों से कभी नहीं आंकिये।
-------------------------
श्री आनन्द किरण "देव"
आओ मिलकर बनाते है - देवभूमि भारतवर्ष
         देवभूमि भारतवर्ष
-----------------------------------------
         श्री आनन्द किरण 'देव'
----------------------------------------
भारतवर्ष को देवभूमि कहा गया है। बताया गया है कि प्राचीन काल में भारतभूमि पर देवता निवास करते थे। देव शब्द का अर्थ दिव्य पुरुष बताया गया है तथा दिव्य नारी को देवी कहा जाता था। अर्थात जहाँ दिव्य पुरुष तथा दिव्य नारी रहते है, वह भूमि देवभूमि है। 

भारतवर्ष में 'नर से नारायण' प्रकट होने वाला सूत्र बहुत अधिक लोकप्रिय है। आध्यात्मिक विज्ञान भी बताता है कि मनुष्य जीव कोटि से ब्रह्म कोटि में उन्नत हो सकता है।  अब इस विज्ञान को थोड़ा विस्तार से समझते हैं - जीव में आहार, निंद्रा, भय तथा मैथुन नामक चार वृत्तियां होती है। मनुष्य को जीव से पृथक करने वाली वृत्ति धर्म है। धर्म मनुष्य के मन में कर्तव्य-अकर्तव्य का भान करता है। इसलिए धर्म ने मनुष्य को अन्य जीवों से विशिष्ट बनाया है। जो मनुष्य आहार, निंद्रा, भय तथा मैथुन्य तक ही सीमित है। वह पशु के समान है, उन्हें आध्यात्मिक विज्ञान में जीव कोटि कहा गया है। धर्म के द्वारा उन्नत गुण धारण करने के कारण मनुष्य  क्रमशः ईश्वर कोटि तथा ब्रह्म कोटि तक क्रमोन्नत होता है। यहाँ एक बात स्मरण रखने योग्य है कि देवगण आसमान से उतरे फरिश्ते नहीं है। इसी धरा से कर्म साधना के बल पर निखरने वाली महापुरुष है। जब पृथ्वीवासी आध्यात्मिक नैतिकता के पथ का अनुसरण कर लेंगे, तब यह धरा पर देवभूमि बन जाएगी। 

आध्यात्मिक नैतिकता के बल पर बनती है देवभूमि

इस धरा अथवा धरा के किसी भूभाग को देवभूमि की उपमा आध्यात्मिक नैतिकता दिलाती है। इसलिए आध्यात्मिक नैतिकता को समझना आवश्यक है। आध्यात्मिक नैतिकता शब्द आध्यात्म व नैतिक नाम दो शब्दों से बना है। जिसमें नैतिक शब्द प्रधान है। आध्यात्म शब्द नैतिक शब्द के साथ विशेषण का कार्य करता है। नैतिक शब्द को नियत मापदंड के सापेक्ष परिभाषित किया गया है। मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते, समाज मनुष्य से एक निश्चित मापदंड में आचरण करने की आशा रखता है। यह सामाजिक मापदंड समाज की सुचिता, स्वच्छता एवं पवित्रता को बनाये रखने के लिए अति आवश्यक तत्व है। जब मनुष्य इन नैतिक मापदंड के अनुकूल तथा इससे अधिक पवित्र जीवन जीने लग जाता है तब उसे महात्मा, महापुरुष एवं दिव्य पुरुष शब्द से उपमित करते है। नैतिकता शब्द मनुष्य के सिद्धांतवादी एवं पवित्र जीवन जीने की कला द्योतक है। सिद्धांतवादी मनुष्य का समाज में आदर होता है तथा समाज उन्हें आदर्श भी मानता है। सिद्धांतवादी जीवन शैली के  समक्ष पवित्र जीवन जीने का लक्ष्य होने पर सिद्धांतवादी मनुष्य के सिद्धांत समाज के लिए बोझिल नहीं होते है। इसके विपरीत मनुष्य के सिद्धांत पवित्र वातावरण को खंडित करने लग जाए अथवा समाज की शांति के समक्ष प्रश्न बनकर खड़े हो जाए तो, ऐसे सिद्धांतों को नैतिकता की परिधि में नहीं लिया जा सकता है। नैतिकता को  आसान शब्दावली में कभी-कभी ईमानदार तथा चरित्रवान जीवनशैली है।  नैतिकता दो प्रकार की होती है - साधारण एवं आध्यात्मिक नैतिकता। साधारण नैतिकता में आत्मिक प्रगति का पथ आवश्यक नहीं जबकि आध्यात्मिक नैतिकता में आत्मिक प्रगति आवश्यक है। आध्यात्मिक नैतिकता मात्र आत्मिक प्रगति पथ पर चलते हुए नैतिक जीवन जीने की कला ही नहीं है अपितु  आध्यात्मिक तथा सामाजिक जीवन को उन्नत बनाने के लिए नैतिक नियमावली को जीवन साधना के रुप में मानकर चलना भी है। इसलिए आध्यात्मिक नैतिकता के बल पर दिव्य नर तथा नारी बनते है। जिन्हें प्राचीन संस्कृत में देव तथा देवी शब्द दिया गया था। जैसे-जैसे समाज में देव-देवियों की संख्या बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे समाज का वातावरण स्वर्ग तुल्य बनता जाता है। किसी भूभाग विशेष में ऐसा समाज दिखने पर उसे देवभूमि कहा जाता है। अतीत में भारतवर्ष का समाज ऐसा था इसलिए भारतवर्ष को देवभूमि कहते थे। 

आध्यात्मिक नैतिकता,  साधारण नैतिकता से श्रेयस्कर कैसे?

जिस नैतिकता में जीवन लक्ष्य परमपद को प्राप्त करने का समावेश नहीं है, उसे साधारण नैतिकता कहते है। यह लोग सहज बुद्धि संपन्न होते है - जीवन में एकबार संकल्प ले लेते अथवा एकबार सिद्धांत बनाने उसे जीवन भर निभाते है। देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुकूल जीवन मूल्य में बदलाव आने पर साधारण नैतिकतावान अपने को समायोजन नहीं कर पाते है। ऐसे लोग यहाँ तो स्वार्थी तत्वों के हाथों ठगे जाते है अथवा युग की आंधी के समक्ष उखड़ जाते है। यद्यपि यह सत्य है कि साधारण नैतिकवान व्यक्ति का समाज में मान सम्मान अधिक होता है तथापि इनकी सफलता भाग्य के तराजू के हाथ में होती है। आध्यात्मिक नैतिकवान व्यक्ति सत्य एवं धर्म के रक्षा सतपथ पर चलने का संकल्प लेता है तथा तदनुकूल उस पथ पर चलता है। सदैव युग के अनुरूप आदर्श जीवन मूल्यों अपनाता है। सकारात्मक एवं समाज कल्याणकारी मूल्यों के समक्ष अपने निजी सभी वचन त्यागने के लिए तैयार रहते है। स्वयं को मिटाकर भी सर्वाजनिक हित की रक्षा करने को तैयार रहने वाला आध्यात्मिक नैतिकवान सिपाही है।  साधारण नैतिकवान व्यक्ति के लिए कभी कभी खुद के सिद्धांत सामाजिक हित से बड़े बनकर, सतपथ में बाधक बन जाते है। साधारण नैतिकवान को सत असत की लड़ाई में कई बार हारते  अथवा अपने सिद्धांतों छोड़ते देखा गया है। जबकि आध्यात्मिक नैतिकवान व्यक्ति अपने सुख दुःख त्याग कर भी जीवन को सफल बनाते है। इसलिए आध्यात्मिक नैतिकता, साधारण नैतिकता से श्रेयस्कर है। 

आध्यात्मिकता क्या है?

श्री श्री आनन्दमूर्ति जी लिखते है कि प्रेत शास्त्र से संबंधित विषय अध्यात्मवाद तथा परमपुरुष से संबंधित विज्ञान आध्यात्मिकता है। इसलिए आध्यात्मिकता को समझना आवश्यक है।  आत्मा से संबंधित विज्ञान आध्यात्मिकता कहते है।  आत्म विज्ञान के प्रमेय को सप्रमाण सिद्ध करना आध्यात्मिक है। आत्म विज्ञान के इस निर्मेय को रचना कर  आत्म संतुष्टि प्राप्त करना ही आध्यात्मिकता है। इन प्रमेय व निर्मेय को आत्म विज्ञान प्रयोगशाला में जाए बिना भावजड़ लोक में विचरण करना अध्यात्मवाद है। जहाँ भूत प्रेत, देवी देवता की ओट में स्वयं को ही भटका देते है। आध्यात्मिकता का विद्यार्थी इस अभिज्ञान को जानते है, इसलिए वे इसमें नहीं भटकते है। ब्रह्म मन के सप्तलोक, अणु मन के पंचकोष, प्रकृति पुरुष की लीला, दर्शन व कर्म विज्ञान का ज्ञान व अभ्यास आध्यात्मिकता है। आध्यात्मिक शब्द का सरल अर्थ आत्मज्ञान बताया गया है। व्यक्ति का स्वयं से परिचित होने की कला को आध्यात्मिकता नाम दिया है। मैं कौन हूँ? , सृष्टि की रचना कैसे हुई? , विभुसत्ता क्या है? अणु सत्ता का भूमा सत्ता से क्या संबंध है? मनुष्य साधना से भयभीत क्यों होता है? मुक्ति व मोक्ष क्या है? इत्यादि इत्यादि प्रश्नों का जबाब पाने के अन्त: मन विज्ञान की प्रयोगशाला किया जाने वाला साधना का अभ्यास आध्यात्मिकता है। इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर जाने बिना धार्मिक आडंबर रचने वाले तथा पांखडी आध्यात्मिकता से कोसों दूर है। 

भारतवर्ष देवभूमि थी क्योंकि आध्यात्मिक नैतिकता प्रत्येक व्यष्टि का जीवन व्रत था

भारतवर्ष के देवभूमि होने के प्रमाण उपलब्ध है, साथ में भारतवर्ष के देवभूमि होने के कारण व लक्षण भी उपलब्ध है। भारतवर्ष का प्राणधर्म आध्यात्मिकता को बताया गया है तथा भारतीय समाज में नैतिकता कूट कूटकर भरी थी। इसी कारण ने भारतवर्ष को देवभूमि बनाया था। इसलिए तो आज भी गाया जाता है -"हर बाला देवी की प्रतिमा, बच्चा-बच्चा राम है।" 

 अन्त में विषय का सार यही प्राप्त होता है कि भारतवर्ष के व्यष्टि-व्यष्टि तथा समष्टि में आध्यात्मिक नैतिकता है तो भारतवर्ष देवभूमि है। अन्यथा वास्तविकता जानते हुए भी मिथ्या बोझ लेकर घुमने के सिवाय कुछ नहीं है। शेखी हांकने तथा बड़े-बड़े भाषण देने से देवभूमि भारतवर्ष नहीं बनता है।भारतवर्ष को देवभूमि बनाने के लिए प्रत्येक नागरिक को देव-देवी बनना ही होगा। देव-देवी बनने के लिए आध्यात्मिकता नैतिकता को जीवन व्रत, जीवन संकल्प के रूप में धारण करना ही होगा। 

आओ आध्यात्मिक नैतिकवान जीवन जिए तथा भारतवर्ष को देवभूमि बनाने में अपना अमूल्य योगदान दे। यही सच्ची राष्ट्रभक्ति है। सच्चे अर्थ यही राष्ट्र सेवा है। 
-------------------------
श्री आनन्द किरण 'देव'
सहकारिता बनाम प्रउत
सहकारिता बनाम प्रउत
------------------------------------------
श्री आनन्द किरण "देव"
------------------------------------------
मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी बताया गया है। उसे भौतिक जगत में कार्य करने के लिए किसी के सहयोग की आवश्यकता होती है। यह सहयोग मालिक नौकर का होने पर पूंजीवाद का जन्म होता है तथा सहयात्री का सहयोग होने पर समाजवाद का जन्म होता है। जबकि सहकार्य  का सहयोग हो जाने पर सहकारी व्यवस्था अस्तित्व में आती है। प्रथम प्रकार के सहयोग में दो वर्ग उभर कर आते है तथा आपस में अपने हितों को लेकर संघर्ष करते है। जिस अर्थशास्त्र में 'वर्गसंघर्ष' नाम दिया है। द्वितीय प्रकार का सहयोग काल्पनिक साम्य में व्यक्ति को प्रतिष्ठित करता है, जो प्रकृत धर्म के अनुकूल नहीं होने के कारण ताश के पन्नों का महल साबित होता है।  जो हवा के एक झांकें से धराशायी हो जाता है। तृतीय सहयोग प्रकार सहयोग में सहकार्य होता है। जिसमें त्याग, सहयोग एवं लग्न का अनुपातिक संतुलन होता है। जबकि प्रथम दोनों विचार में उक्त संतुलन होना आवश्यक नहीं है।  प्रथम व्यवस्था में प्रथम पक्षकार सदैव प्रभावशाली होने कारण शोषक बनने की संभावना अधिक रहती है, जबकि द्वितीय प्रकार की व्यवस्था में कोई पक्ष प्रभावशाली नहीं होने के होने के कारण तीन तेरह होने की संभावना अधिक रहती है। तृतीय प्रकार की व्यवस्था में योग्य व गुणी पक्ष नेतृत्व करने के कारण सहभागिता के गुण को कायम रखने में सक्षम होता है। उपरोक्त कारणों से पूंजीवाद व साम्यवाद में सहकारी व्यवस्था असफल हुई है। पूंजीवाद में बड़ी मछली छोटी मछली को निगलने की व्यवस्था के कारण सहकारी तथा साझा व्यवस्था मर जाती है। साम्यवाद में डल व गल का एक ही भाव होने के कारण अंधेरी नगरी चौपट राजा बन जाती है। अतः सहकारी व्यवस्था को सही संरक्षण 'प्रउत व्यवस्था में ही मिलता है। 

सहकारी व समाज 

मनुष्य का समाज विविधता का गुलदस्ता है। जो रंग बिरंगे फूलों से सज्जा हुआ है। सभी फूलों की सुंगध एक सी नहीं होती है लेकिन वे आपस में एक दूसरे का सहयोग कर वातावरण को सुगंधित, पुष्टिवर्धनं तथा खुशनुमा बना देता है। इसलिए समाज को सहकारी होना आवश्यक हो जाता है। लघु स्तर को एक फूल ही महका देता है, जबकि बड़े स्तर को सजाने के लिए उनके फूलों की बगिया की जरूरत होती है। समाज में इस प्रकार के सहकार्य में आपसी सहयोग से  सहकारिता को जन्म लेती है। समाज की सुव्यवस्था के लिए लघु व कुटीर उद्योग व्यक्ति तथा परिवार द्वारा, मध्यम स्तर के उद्योग सहकारिता द्वारा  तथा बड़े, मूल उद्योग व सामरिक महत्व के उद्योग सामूहिक जिम्मेदारी से संचालित होने चाहिए, इसलिए इनका संचालन सरकार के हाथ में दिये जाता हैं। इस सुन्दर व्यवस्था की जननी 'प्रउत विचारधारा' है। अतः समाज तथा सहकारिता के लिए प्रउत व्यवस्था की नितांत आवश्यकता है। 

     प्रउत में सहकारिता
 समाज की सुन्दर व्यवस्था में उपस्थित सहकारी के गुण प्रउत की देन है। इसलिए प्रउत क्रियात्मक व रचनात्मक कार्यों की पृष्ठभूमि सहकारिता से आरंभ होती है। प्रउत समाज की रचना में अद्वितीय योगदान देता है, इसलिए सहकारिता के गुण समाज के अंग-अंग में भरने के लिए प्रउत की आदर्श सहकारी व्यवस्था को आत्मसात करना आवश्यक है। प्रउत की आदर्श सहकारिता के अनुसार जमीन, पूंजी, श्रम तथा प्रबंधन का निश्चित अंश होता है तथा उसी के अनुसार प्रतिफल भी प्राप्त करता है, साथ में परिलाभ पर गुणानुपात का नियम लागू हो जाता है। इसलिए यह किसी एक की जेब नहीं जाता है। प्रउत की सहकारी व्यवस्था में प्रबंधन में सदगुणों का संचार किया जाता है।  आध्यात्मिक नैतिकता को प्रबंधन के गुण की अनिवार्य शर्त के रुप में लागू किया गया है।  इसलिए सहकारिता का किसी भी साझेदार लूटने का डर नहीं रहता है। सहकारिता के असफल होने का सबसे प्रभावशाली कारण यही है। जिसे प्रउत ने जड़ मूल से खत्म कर दिया है। 

आदर्श सहकारिता के गुण

सहकारिता एक साथ  मिलकर काम करने के एक प्रणाली का नाम है। आदर्श सहकारिता सहकारी संस्था के प्रत्येक अंग के साथ सदैव न्याय करने वाली व्यवस्था का नाम है।  प्रउत आदर्श सहकारिता का सूत्रपात करती है।  जो सहकारिता के प्रत्येक अंग में सुरक्षा, सक्रियता व जिम्मेदारी के गुणों का जागरण करता है। साथ काम करने से अधिक एक दूसरे के लिए मिलकर काम करने का गुण सहकारिता के लिए आवश्यक है। प्रउत इसलिए सहकारिता में उक्त गुणों को पढ़ाता है तथा अपनाता है। सद्विप्र बोर्ड के न्याय का तराजू उक्त पर दृष्टि रखता है। यद्यपि सद्विप्र बोर्ड प्रउत की संपूर्ण व्यवस्था का ध्यान रखता है तथापि  सहकारी व्यवस्था में इसकी भूमिका अधिक महत्वपूर्ण है। आदर्श सहकारिता का द्वितीय गुण समान सामाजिक हित भी है। जब अलग-अलग सामाजिक हितों को लेकर सहकारी मिलकर सहकारिता करते है, तो समाज के प्रति दृष्टिकोण में अंतर आ जाता है तथा यह अंतर सहकारी कार्य पर भी पड़ सकता है। इसलिए समान सामाजिक व्यवस्था को आदर्श सहकारिता में अपनाया गया है। आदर्श सहकारिता के तृतीय गुण में आध्यात्मिक दर्शन तथा आध्यात्मिक यात्रा में समानता की आवश्यकता भी महसूस की गई है। आध्यात्मिक पथ की विभिन्नता का असर काम पर नहीं पड़ना चाहिए, यह वाक्य सुनने में अच्छा है लेकिन व्यवहारिकता में कई न कई असर छोड़ ही देता है। समान विश्वास नहीं होने पर कार्य के विश्वास पर भी असर पड़ता है। इसलिए एक आध्यात्मिक दर्शन के पथिकों की सहकारी आदर्श बनती दिखाई दी है। आदर्श सहकारिता का अंतिम तथा महत्वपूर्ण गुण आध्यात्मिक नैतिकता है। इसके अभाव में सभी किया कराये पर पानी फिर जाता है। 

प्रउत व सहकारिता 

सहकारिता संपूर्ण प्रउत नहीं है जबकि सहकारिता प्रउत के बिना संभव नहीं है। चूंकि सहकारिता प्रउत का अंग है इसलिए प्रउत की सामाजिक रचना में आदर्श सहकारिता के गुणों का प्रभाव दिखाई देता है। इसको देखकर कभी भ्रमित होकर सहकारिता को ही प्रउत मान लेता है। प्रउत अन्याय तथा शोषण के विरुद्ध संघर्ष भी करता है जबकि सहकारिता की विषय वस्तु में यह नहीं है। प्रउत की शब्दावली अधिकतम व न्यूनतम आय,  संचय प्रवृत्ति पर समाज की लगाम, विवेकपूर्ण वितरण, चरम उपयोग, प्रगतिशील तथ्य का भी समावेश है। सहकारिता प्रउत की शब्दावली का एक अंग है,  संपूर्ण प्रउत नहीं है। फिर भी सहकारिता समाज को पूंजीवाद की गोद में जाने से रोकता तथा साम्यवाद के छलावे से बचाता है।  सहकारिता प्रउत के लिए आधार भूमि तैयार करती है।
प्रउत का मूलभूत सिद्धांत
श्री आनन्द किरण "देव"

प्रउत का मूलभूत सिद्धांत ( मूल नीति) 
प्रउत का मूलभूत सिद्धांत प्रउत के अंतिम अक्षर त का प्रतिनिधित्व करता है। इसे प्रउत की भाषा में मूल नीति अथवा मूल सिद्धांत भी कहा जा सकता है। यहाँ सिद्धांत शब्द अंग्रेजी के प्रिन्सिपल(principle) शब्द के अर्थ में नहीं है। यह अंग्रेजी के थ्योरी (theory) शब्द के अर्थ में है। प्रउत के मूल सिद्धांत के दर्शन सर्वत्र है लेकिन सबसे अधिक स्पष्ट दर्शन 9 वें सूत्र में होते है। इसलिए अनुसंधान का प्रथम प्रयास यहाँ से ही होना चाहिए। 

(१.) युग के सर्व निम्न प्रयोजन, सबके लिए विधेय - प्रउत शब्द का अर्थ इस सूत्र से निकलता है। यह युग की सर्व निम्न प्रयोजन की सबके लिए आवश्यक मानता है। अन्न, आवास, वस्त्र, चिकित्सा तथा शिक्षा इत्यादि न्यूनतम आवश्यकता पर समाज के सभी नागरिक का अधिकार है। इससे किसी को भी वंचित रखना अधर्म व अन्याय है। इसलिए प्रउत समाज को स्पष्ट शब्दों में आदेश देता है कि व्यष्टि की न्यूनतम आवश्यकता पूर्ण करनी ही होगी तथा समाज की ओर से व्यष्टि को इस बात की गारंटी देनी होगी। अन्य शब्दों में व्यष्टि को समष्टि से इस बात की गारंटी लेने का अधिकार है। इस सूत्र की वजह से प्रउत ने अर्थशास्त्र के आदर्श, कल्याणकारी, व्यवहारिक, मानवीय एवं वैज्ञानिक स्वरूप को प्राप्त किया है। 

(२) प्रकृति के धर्म विचित्रता को अर्थव्यवस्था में स्थापित - प्रउत के 8 वें सूत्र में विविधता रुपी प्रकृति के धर्म को आर्थिक जगत में स्थापित किया गया है। चूंकि प्रकृति का धर्म भविष्य में अक्षुण्ण रहेगा इसलिए समान करने वाली अर्थनीति को स्वीकार नहीं किया गया है। यह सूत्र समाज में व्यक्ति की गरिमा का आदर करता है। यह व्यक्ति के आम व विशिष्ट स्वरूप को दिखाकर अर्थव्यवस्था का उसके अनुरूप संगठन करने की अवधारणा परोसता है। व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित होने के कारण व्यक्ति को नर से नारायण बनने के सभी अवसर देने वाला अर्थशास्त्र प्रउत के नाम से जाना जाएगा। 

(३.) गुणीजन का आदर - प्रउत के मूल सिद्धांत का तीसरा तत्व गुणीजन का आदर है। सबकी न्यूनतम आवश्यकता को पूर्ण करने के बाद जो अतिरिक्त संपदा रहेगी, उस पर गुणीजन का गुणानुपात में अधिकार है; यह बात प्रउत, अर्थशास्त्र से कहता है। यह विशेष योग्यजन के प्रति समाज की जिम्मेदारी को चित्रित करती है। जहाँ 8 वें प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित हुई थी, वही 9 वें बिन्दु में समाज की आम आदमी के प्रति जिम्मेदारी सुनिश्चित की थी तथा 10 वें सूत्र में विशिष्ट व्यक्ति के प्रति समाज का उत्तरदायित्व बताया गया है। अत: यह तीनों सूत्र एक दूसरे से जुड़े हुए है। 11 वां सूत्र मूल नीति अथवा मूल सिद्धांत को प्रगतिशील बनाता है। 

 
(४.) समाज चक्र में मूल सिद्धांत - समाज चक्र का प्रत्येक बिन्दु सामाजिक आर्थिक संसार का मूलभूत अवयव है। जहाँ वर्ण प्रधान चक्र की गतिधारा अर्थशास्त्र की गतिकीय स्वरूप को रेखांकित करता है, वही सद्विप्र की केन्द्र में स्थिति स्थैतिक अर्थशास्त्र से परिचय करता है। स्वाभाविक परिवर्तन, क्रांति तथा विप्लव अर्थशास्त्र के वर्धमान आलेख की सरल व ऋजु रैखिक गति को समझाता है, परिक्रांति की अवधारणा वृतीय आलेख को समझने में मदद करता है तथा विक्रांति व प्रति विप्लव अर्थशास्त्र के हास मान आरेख को समझने तथा आर्थिक गति के मार्ग में आने वाली रुकावटों को समझता है। इसको समझ कर ही मूल नीति का निर्माण होता है। 

(५.) उपयोग सूत्रों में मूल सिद्धांत - प्रउत के मौलिक सिद्धांत(प्रिंसिपल) 12 वें 16 वें सूत्रों को घोषित किया गया है। मूल सिद्धांत अथवा मूलभूत सिद्धांत प्रउत की मूल नीति में दिखाई देती है। प्रउत का उपयोग का सिद्धांत जगत वस्तु व्यवहार की विधा है। इसका उद्देश्य व्यष्टि व समष्टि सुख को अधिकतम करना है। प्रउत की मूल नीति भी व्यष्टि व समष्टि सुख को अधिकतम करती है। उत्पादन, वितरण एवं धन सञ्चय के सिद्धांत को मूल सिद्धांत है। इसलिए उपयोग सिद्धांत में मूल सिद्धांत खोजना सार्थक प्रयास है। 

(७.) प्रगतिशील सिद्धांत में मूल नीति - प्रगति की मूल में अनन्त सुख की अभिलाषा रहती है। यह प्रउत का मूल उद्देश्य है। स्थूल जगत की ऋद्धि, सूक्ष्म तथा कारण जगत की सिद्धि व समृद्धि स्थापित करने में मददगार होता है। प्रगति की परिभाषा आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त करने में निहित है। प्रउत मनुष्य तथा उनके समाज को उस ओर ही ले चलता है। प्रगतिशील सिद्धांत में प्रउत का मूल सिद्धांत कूट-कूटकर भरा हुआ है। 

प्रउत का मूल सिद्धांत, प्रउत के 'त' समझने में मदद करता है। अंग्रेजी से प्रउत शब्द को उद्धृत करने के क्रम में विद्वान 'प्राउट' शब्द लिख कर बड़ी भूल करते है। उन्हें समझना होगा कि प्रथम अक्षर 'प्र' तथा अंतिम अक्षर 'त' चाहे वह हिन्दी हो अथवा अंग्रेजी। प्र से प्रगतिशील होता है, प्रा से नहीं; इसी प्रकार त से तत्व आया है, ट से नहीं । 
---------------------------
श्री आनन्द किरण "देव"
प्रउत का उपयोग सिद्धांत

श्री आनन्द किरण "देव"
प्रउत का उपयोग सिद्धांत

प्रउत का दूसरा तथा मध्य वाला अक्षर उपयोग है। उपयोग शब्द का अर्थ - वस्तु तथा मूल्य को उचित प्रयोग में लेना है। प्रउत ने उपयोग को बहुत अधिक गुरुत्व प्रदान किया है। अतः प्रउत दर्शन में उपयोग सिद्धांत का अनुसंधान करने का प्रयास किया जा रहा है। 

प्रउत के उपयोग शब्द का स्पष्ट दर्शन 13 वें सूत्र से 15 वें सूत्र में होता है। इसलिए अनुसंधान की प्रथम सुई यही रखी जा रही है। 

(१.) चरम उपयोग की अवधारणा - प्रउत का उपयोग सिद्धांत का प्रथम सूत्र वस्तु के चरम उपयोग की अवधारणा है। विश्व में समस्या वस्तु के उपयोग से अधिक उपयोग नहीं होने में है। इसलिए सभी संसाधन का अधिकतम उपयोग करने के बात रेखांकित करता है। उपयोग का यह सूत्र ही प्रगतिशील सिद्धांत को जन्म देता है। अतः उपयोग सिद्धांत के बिना प्रगतिशील सिद्धांत की पुष्टि नहीं होती है


(२.) संपदा का चरमोत्कर्ष - प्रउत जगत की सभी संपदा का सोलह आना उत्कर्ष की बात कहता है। जगत में किसी चीज की कमी नहीं है, कमी है तो उनका उपयोग नहीं होना है। मशीनीकरण के युग से पहले मशीन में लगने वाले सभी पुर्जें किसी न किसी रुप में विद्यमान थे; लेकिन व्यक्ति उसको बनाना अथवा उपयोग में लेना नहीं जानता था। व्यक्ति की बुद्धि उचित प्रयोग ने एक मशीन का निर्माण कर दिया, जिसने व्यक्ति का काम सरल कर दिया। यह कार्य उत्कर्ष का परिणाम है। प्रउत इसलिए संपदा के चरमोत्कर्ष व चरमोपयोग की अवधारणा देता है। 

(३.) क्षमताओं का चरमोपयोग - प्रउत के उपयोग सिद्धांत का तृतीय तत्व व्यष्टि व समष्टि की शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक संभावनाओं एवं क्षमता का चरमोपयोग में निहित है। उपयोग का यह सूत्र व्यक्तिगत एवं समष्टिगत जीवन में कर्म स्थिलता अथवा आलस्य नहीं आने देता है। उपयोग का यह सूत्र प्रउत के मूलभूत सिद्धांत पर उठने वाले सभी प्रश्नों का सटीक उत्तर भी प्रदान करता है। 

(४.) उपयोग का संतुलन सिद्धांत - प्रउत के उपयोग सिद्धांत में संतुलित उपयोग नामक शब्द भी विद्यमान है। इसे विवेकपूर्ण उपयोग का सिद्धांत भी कह सकते है। इसके अभाव में उपयोग सिद्धांत अवैज्ञानिक बन सकता था। इसलिए प्रउत अपने 15 वें सूत्र में उपयोग में सुसंतुलन नामक तत्व लेकर आया है। व्यष्टि में शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक संभावनाओं में से जिस क्षमता का विकास हुआ है, समाज को उसका उपयोग समष्टि हित साधना में लेना चाहिए। उस संभावना की अनुपयोगी छोड़ना अथवा संभावना का गलत उपयोग होने देना अथवा संभावना पर ध्यान दिये बिना अविकसित संभावना का दोहन करते रहना, एक अवैज्ञानिक रीति है। इसलिए प्रउत ने मानव समाज का ध्यान इस ओर आकर्षित किया है। प्रउत का यह सूत्र एकाधिक संभावनाओं का उपयोग लेने की भी वैज्ञानिक विधि सिखाता है। 

(५.) संपदा एवं संभावनाओं का वर्गीकरण - प्रउत के उपयोग सिद्धांत में जागतिक संपदा तथा मानवीय क्षमताओं को तीन वर्गों में विभाजित किया है। जागतिक संपदा का यह वर्गीकरण भूमा जगत को समझने में मददगार हुआ है। इससे पूर्व के किसी भी सामाजिक आर्थिक दर्शन ने जगत को संपूर्ण रुप नहीं देखा था। इन दर्शनों ने जगत के एकमात्र स्थूल रुप को ही देखा था, आवश्यकतावश मानसिक संपदा का उपयोग हो रहा था लेकिन इसकी समझ नहीं थी। प्रउत ने कहा कि स्थूल जगत के अलावा सूक्ष्म तथा कारण जगत भी है। यहाँ से भी व्यक्ति के आवश्यकता की वस्तु मिल सकती है। इसी प्रकार प्रउत ने मनुष्य की क्षमताओं के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक वर्गीकरण को सामाजिक आर्थिक दर्शन में स्थान दिया है। यह भी सामाजिक आर्थिक दर्शन के लिए पहला अवसर है, जो यह बताता है कि मानसिक व आध्यात्मिक क्षमता का भी जागतिक ऋद्धि में उपयोग किया जा सकता है। 

(६.) वितरण की वैज्ञानिक अवधारणा - प्रउत विवेकपूर्ण वितरण की अवधारणा प्रस्तुत करता है। इससे सिद्ध होता है कि उपयोग का सिद्धांत मात्र उत्पादन क्या, क्यों तथा कैसे नामक अर्थशास्त्र की समस्याओं का ही निराकरण नहीं करता है अपितु यह उपभोक्ता में वितरण कैसे को भी समझाता है। इससे प्रउत का उपयोग सिद्धांत सीधा उपभोक्ता से जुड़ जाता है। वितरण की यह अवधारणा, प्रउत के उपयोग सिद्धांत को सीधा प्रउत के मूलभूत सिद्धांत से जोड़ता है। 

(७.) धन सञ्चय पर उपयोग मूलक दृष्टिकोण - समाज के आदेश के बिना धन सञ्चय अकर्तव्य है। अंधाधुंध तथा अविवेकपूर्ण सञ्चय वृत्ति समाज के लिए खतरनाक है। इससे काला धन में वृद्धि होती है। जो अर्थ व्यवस्था को अनुपयोगी बना देते है। इसलिए प्रउत प्रणेता ने प्रउत के उपयोग सिद्धांत सञ्चय को स्पष्ट किया है। 

प्रउत के उपयोग सिद्धांत में उपसंहार यह है कि प्रउत का उपयोग सिद्धांत, प्रउत के मूलभूत सिद्धांत को प्रगतिशील सिद्धांत से जोड़ता है। यह प्रउत को और अधिक वैज्ञानिक, व्यवहारिक तथा श्रेष्ठ बनाता है। 
-----------------------------
श्री आनन्द किरण "देव"
-----------------------------
क्या हम मठ/ मजहब की ओर जा रहे?

आज का प्रश्न धर्म/सत्य/ आनन्द के पथ पर चल रहे सभी पथिकों से है। इसका उत्तर देना सबका प्रथम कर्तव्य है क्योंकि आज धर्म/सत्य/आनन्द संक्रमण काल से गुजर रहा है। जो होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है तथा जो नहीं होना चाहिए वह हो रहा है। इस परिस्थिति में सबको अपने मानस पटल को टटोलना होता है कि कई हम अपने उद्देश्य से भटक तो नहीं रहे हैं?  इस प्रकार के प्रश्न मनुष्य अक्सर दूसरों से करता है लेकिन यह प्रश्न खुद से करने की आवश्यकता है। 

मठ अथवा मजहब की अवधारणा मनुष्य के पथ रुग्ण कर देती हैं। इसलिए हे धर्म/सत्य/आनन्द के राही! मठ व मजहबवादी अवधारणा में अपने को मत ले चल। यदि धर्म/सत्य/आनन्द का पथ कठिन है तो भी उसका ही वरण करना चाहिए यही महाजन एवं शास्त्र ने बताया है। मठ अथवा मजहब की राह कितनी भी सरल दिखती हो तो भी उस पर नहीं चलना चाहिए। पथिक के लिए यह संदेश आप्त वाक्य अथवा प्राण वाक्य है। 

मठ शब्द का प्रयोग भिक्षुओं के रहने के स्थान के लिए प्रयोग होने लगा। भिक्षु शब्द उन लोगों के लिए प्रयोग होता था जो सांसारिक दुखों से निवृत्ति के लिए उपाय करते थे। उन्हें सांसारिक जिम्मेदारी में दुख तथा जिम्मेदारी से पलायन में सुख दिखाई देता था। यह पथ  मनुष्य को धर्म अथवा धम्म की शरण में नहीं ले जाकर दिशाहीन पथ पर ले जाता है। भिक्षु तथा मठवादी अवधारणा ने भारतवर्ष को अंधकार की काल कोठरी में धकेला था। जिसका परिणाम दासता की बेडियां रहा। कुछ लोग भूलवश मठ को केन्द्र के अर्थ में प्रयोग करते है। केन्द्र उस क्षेत्र के लिए प्रयोग होता है, जहाँ प्रगति का कुछ उद्देश्य होता है जबकि मठ उद्देश्य विहिन विहार है, जहाँ रहकर भिक्षु अपने कर्तव्य तथा उत्तरदायित्व से मुह मोड़ता है। भारतवर्ष के संस्कार इसको कभी भी अपने प्राण धर्म के रुप में अंगीकार नहीं करते है। इसलिए तो राजशक्ति के बल पर जो मठ प्रभावशाली हुए थे वह राजशक्ति के हटते ही समाज से ओझल हो गए। विराट पुरुष का आह्वान है कि हे मनुष्य अपने को मठ तथा मठाधीशों के विकराल हाथों में जकड़ने मत दो, यह तुम्हारे मनुष्यत्व को मार देगा। हे मठाधीशी तुम्हें आनन्द/सत्य/ धर्म के मार्ग पर ले चलने का झांसा देकर अपने ही मायाजाल में फसा देंगे। जहाँ साधक रामस्वरूप बनने की बजाए रामदास बनकर रह जाएगा। इसलिए अपने आप से प्रश्न करें क्या मैं धर्म/सत्य/आनन्द मार्ग को छोड़कर कर अंधभक्ति के अंधविश्वास में तो नहीं जा रहा हूँ। जब किसी व्यक्ति को पथ प्रणेता, त्रिशास्त्र तथा व्यवस्था से अधिक अपने प्रिय मठाधीशी की बातें अथवा मठाधीशी प्यार लगने लग जाए तब समझना होगा कि तुम मठवासी बन रहे हो। अमुक आचार्य  ही मेरे पारिवारिक उत्सव व पर्व तथा आध्यात्मिक कार्यक्रम संपन्न कराएंगे, यह मनोभाव आपको मठाधीशी की माया में जकड़ रहा है। याद रखना होगा कि कोई भी विशेष सन्यासी हमारी भाग्य रेखा को नहीं बदल सकता है।भाग्यरेखा कर्म शक्ति के बल पर बदलती है।इसलिए परम पुरुष के व्यवस्था से निकला हर आचार्य हमारे पारिवारिक उत्सव व आध्यात्मिक कीर्तन का निर्देश करने के लिए उपयुक्त तथा सही है। यह अनुशासन आते मनुष्य मठवादी अवधारणा से उपर उठकर धर्म/सत्य/आनन्द के मार्ग पर चलने लग जाता है। 

मजहब शब्द  मननशील मानसिकता का दमन करने वाली शब्दावली का प्रतीक है। जब मनुष्य में से मननशील मानसिकता खत्म हो जाएगी तब मनुष्य के चलता फिरता शव अथवा कंकाल है। जिसकी जगह मनुष्य के समाज में नहीं कब्रिस्तान में है। हे मनुष्य! जब तुम मननशीलता को परित्याग कर भावजड़ता की ओर अग्रसर हो जाओगे तब तुम पशु बन जाओगे तथा पशुचारक के हाथों चरने को मजबूर होने के अलावा कोई रास्ता तुम्हारे पास नहीं रहेगा। सदगुरु कभी भी मनुष्य को मननशीलता से पृथक नहीं करते है। वे सदैव अपने शिष्य को अपनी शिक्षाओं पर अनुसंधान करने का पथ दिखाते है। यह साहस केवल सदगुरु में होता है कि वह अपने शिष्यों अंधकार का नहीं आलोक के पथ पर ले चलते है। शिष्य को सदैव उनके बताए रास्ते पर चलना होता है लेकिन आँख बंद कर चलने का आदेश नहीं देते है, वे सदैव अपने प्रगति का मूल्यांकन करने की सलाह देते है। मजहबवादी कभी भी अपने दीक्षा भाई की इस ओर ले जाना नहीं चाहेंगे क्योंकि उन्हें उनकी दुकान बंद होने का डर है, उन्हें जेब की चिंता है। "मेरा नहीं मेरे आदर्श का प्रचार करो" यह विप्लवी आदेश परम पुरुष का ही होता है। उस पर चलना ही एक आनन्द मार्गी का कर्तव्य है। कमजोर तथा अपरिपक्व तात्विक तत्व परोसने की बजाए बार बार तत्व प्रणेता को परोसता है। क्योंकि वह तत्व प्रणेता के अलौकिक चित्रण कर मनुष्य की बुद्धि के द्वारा किसी न किसी रुप में बंद कर अपने अधूरे सामर्थ्य को सिद्ध करना चाहता है। एक मजबूत व परिपक्व तात्विक सेमिनार लेते समय तथा धर्म चर्चा के दरमियान अति आवश्यक होने पर दृष्टांत का सहारा लेते है। जो खोखला पुरोधा है, वह ही अधिक से अधिक अपने प्रणेता की अलौकिक शक्तियों का प्रचार करता है। मजबूत पुरोधा साधकों परम पुरुष के विराट स्वरूप की ओर ले चलता है। इसलिए तो बाबा को कहना पड़ा, "मेरा नहीं मेरे आदर्श का प्रचार करो।" मजहब ज्ञान विज्ञान पर प्रवचन देने की बजाए बजाए कथाकार बन पसंद करते है। उसके नाम पर मनुष्य के चिंतन के द्वार सदैव सदैव के लिए बंद किया जा सकता है। धर्म/सत्य/ आनन्द दर्शन, मनुष्य को ज्ञान विज्ञान, आध्यात्म व भक्ति का संदेश सुनता है। यही मजहबी जब मायावी बन जाता है तब उसके मुख से निकली शब्दावली से परम पुरुष का नाम तथा परम पुरुष के उपकार को लेकर इस प्रकार का अभिनय करता है कि परम पुरुष सम्पूर्ण कृपा उनमें समा दी है तथा मायावी मौका मिलते ही राम राम जपना व पराया माला अपना को सिद्ध कर लेते हैं। उनका एक शब्द भी बिना राम नाम के नहीं निकलेगा, लोग समझेंगे कि यह बहुत निर्मल फकीर हैं। अभिवादन नमस्कार की बजाय कीर्तन मंत्र बना देना मायावियों का ही खेल है। हे मनुष्य हम सदगुरु को देखकर तथा समझकर सतपथ पर आए है उनके दिशा निर्देश ही हमारा आदर्श है। उसके आलावा मन अच्छी लगने वाली शब्दावली सदगुरु के आदेश से आगे बढ़ जाती है, वह ढ़ोंगी बनाने से अधिक कुछ नहीं कर सकती है। ढ़ोग, मायावी प्रवृत्ति, ठगी इत्यादि सभी मनुष्य का निर्माण नहीं कर सकते है। आनन्द/ सत्य/ धर्म का मार्ग मनुष्य निर्माण का पथ है। 

मठाधीशी व मजहबी प्रवृत्ति कभी समाज को जोडकर नहीं रख सकती है। उसमें दरार पड़ती है तथा वह संस्था तथा समाज को फाड़ो में विभाजित करती है। धर्म मनुष्य तथा उसके समाज को कभी भी टूटने नहीं देता है। इसलिए सतपुरुष मजहब तथा मठ की ओर नहीं जाते है। हम सभी धर्म के पथिक है इसलिए प्रश्न रहा है कि हम मठ/ मजहब की ओर तो नहीं जा रहे हैं? 
----------------------------
🔥🔥 🔥🔥🔥 
✒श्री आनन्द किरण "देव"