प्रउत का उपयोग सिद्धांत


श्री आनन्द किरण "देव"
प्रउत का उपयोग सिद्धांत

प्रउत का दूसरा तथा मध्य वाला अक्षर उपयोग है। उपयोग शब्द का अर्थ - वस्तु तथा मूल्य को उचित प्रयोग में लेना है। प्रउत ने उपयोग को बहुत अधिक गुरुत्व प्रदान किया है। अतः प्रउत दर्शन में उपयोग सिद्धांत का अनुसंधान करने का प्रयास किया जा रहा है। 

प्रउत के उपयोग शब्द का स्पष्ट दर्शन 13 वें सूत्र से 15 वें सूत्र में होता है। इसलिए अनुसंधान की प्रथम सुई यही रखी जा रही है। 

(१.) चरम उपयोग की अवधारणा - प्रउत का उपयोग सिद्धांत का प्रथम सूत्र वस्तु के चरम उपयोग की अवधारणा है। विश्व में समस्या वस्तु के उपयोग से अधिक उपयोग नहीं होने में है। इसलिए सभी संसाधन का अधिकतम उपयोग करने के बात रेखांकित करता है। उपयोग का यह सूत्र ही प्रगतिशील सिद्धांत को जन्म देता है। अतः उपयोग सिद्धांत के बिना प्रगतिशील सिद्धांत की पुष्टि नहीं होती है


(२.) संपदा का चरमोत्कर्ष - प्रउत जगत की सभी संपदा का सोलह आना उत्कर्ष की बात कहता है। जगत में किसी चीज की कमी नहीं है, कमी है तो उनका उपयोग नहीं होना है। मशीनीकरण के युग से पहले मशीन में लगने वाले सभी पुर्जें किसी न किसी रुप में विद्यमान थे; लेकिन व्यक्ति उसको बनाना अथवा उपयोग में लेना नहीं जानता था। व्यक्ति की बुद्धि उचित प्रयोग ने एक मशीन का निर्माण कर दिया, जिसने व्यक्ति का काम सरल कर दिया। यह कार्य उत्कर्ष का परिणाम है। प्रउत इसलिए संपदा के चरमोत्कर्ष व चरमोपयोग की अवधारणा देता है। 

(३.) क्षमताओं का चरमोपयोग - प्रउत के उपयोग सिद्धांत का तृतीय तत्व व्यष्टि व समष्टि की शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक संभावनाओं एवं क्षमता का चरमोपयोग में निहित है। उपयोग का यह सूत्र व्यक्तिगत एवं समष्टिगत जीवन में कर्म स्थिलता अथवा आलस्य नहीं आने देता है। उपयोग का यह सूत्र प्रउत के मूलभूत सिद्धांत पर उठने वाले सभी प्रश्नों का सटीक उत्तर भी प्रदान करता है। 

(४.) उपयोग का संतुलन सिद्धांत - प्रउत के उपयोग सिद्धांत में संतुलित उपयोग नामक शब्द भी विद्यमान है। इसे विवेकपूर्ण उपयोग का सिद्धांत भी कह सकते है। इसके अभाव में उपयोग सिद्धांत अवैज्ञानिक बन सकता था। इसलिए प्रउत अपने 15 वें सूत्र में उपयोग में सुसंतुलन नामक तत्व लेकर आया है। व्यष्टि में शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक संभावनाओं में से जिस क्षमता का विकास हुआ है, समाज को उसका उपयोग समष्टि हित साधना में लेना चाहिए। उस संभावना की अनुपयोगी छोड़ना अथवा संभावना का गलत उपयोग होने देना अथवा संभावना पर ध्यान दिये बिना अविकसित संभावना का दोहन करते रहना, एक अवैज्ञानिक रीति है। इसलिए प्रउत ने मानव समाज का ध्यान इस ओर आकर्षित किया है। प्रउत का यह सूत्र एकाधिक संभावनाओं का उपयोग लेने की भी वैज्ञानिक विधि सिखाता है। 

(५.) संपदा एवं संभावनाओं का वर्गीकरण - प्रउत के उपयोग सिद्धांत में जागतिक संपदा तथा मानवीय क्षमताओं को तीन वर्गों में विभाजित किया है। जागतिक संपदा का यह वर्गीकरण भूमा जगत को समझने में मददगार हुआ है। इससे पूर्व के किसी भी सामाजिक आर्थिक दर्शन ने जगत को संपूर्ण रुप नहीं देखा था। इन दर्शनों ने जगत के एकमात्र स्थूल रुप को ही देखा था, आवश्यकतावश मानसिक संपदा का उपयोग हो रहा था लेकिन इसकी समझ नहीं थी। प्रउत ने कहा कि स्थूल जगत के अलावा सूक्ष्म तथा कारण जगत भी है। यहाँ से भी व्यक्ति के आवश्यकता की वस्तु मिल सकती है। इसी प्रकार प्रउत ने मनुष्य की क्षमताओं के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक वर्गीकरण को सामाजिक आर्थिक दर्शन में स्थान दिया है। यह भी सामाजिक आर्थिक दर्शन के लिए पहला अवसर है, जो यह बताता है कि मानसिक व आध्यात्मिक क्षमता का भी जागतिक ऋद्धि में उपयोग किया जा सकता है। 

(६.) वितरण की वैज्ञानिक अवधारणा - प्रउत विवेकपूर्ण वितरण की अवधारणा प्रस्तुत करता है। इससे सिद्ध होता है कि उपयोग का सिद्धांत मात्र उत्पादन क्या, क्यों तथा कैसे नामक अर्थशास्त्र की समस्याओं का ही निराकरण नहीं करता है अपितु यह उपभोक्ता में वितरण कैसे को भी समझाता है। इससे प्रउत का उपयोग सिद्धांत सीधा उपभोक्ता से जुड़ जाता है। वितरण की यह अवधारणा, प्रउत के उपयोग सिद्धांत को सीधा प्रउत के मूलभूत सिद्धांत से जोड़ता है। 

(७.) धन सञ्चय पर उपयोग मूलक दृष्टिकोण - समाज के आदेश के बिना धन सञ्चय अकर्तव्य है। अंधाधुंध तथा अविवेकपूर्ण सञ्चय वृत्ति समाज के लिए खतरनाक है। इससे काला धन में वृद्धि होती है। जो अर्थ व्यवस्था को अनुपयोगी बना देते है। इसलिए प्रउत प्रणेता ने प्रउत के उपयोग सिद्धांत सञ्चय को स्पष्ट किया है। 

प्रउत के उपयोग सिद्धांत में उपसंहार यह है कि प्रउत का उपयोग सिद्धांत, प्रउत के मूलभूत सिद्धांत को प्रगतिशील सिद्धांत से जोड़ता है। यह प्रउत को और अधिक वैज्ञानिक, व्यवहारिक तथा श्रेष्ठ बनाता है। 
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