प्रउत का प्रगतिशील सिद्धांत

प्रउत का प्रगतिशील सिद्धांत
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श्री आनन्द किरण "देव"
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प्रउत शब्द का पहला अक्षर प्रगतिशील है। प्रगति शब्द का अर्थ गति के प्रकेष्ठ रुप को स्वीकारा गया है। इसलिए सभी को प्रगति शब्द अत्यंत प्रिय है। व्यष्टि व समष्टि सभी क्षेत्र में प्रगति की चाहत रखते है। मनुष्य का प्रगतिशील होना सभी दृष्टि से अच्छा माना गया है। इसलिए प्रगतिशील विचारों की सभी जगह सहराना होती है। 

प्रउत प्रणेता ने अपने सामाजिक आर्थिक दर्शन को प्रगतिशील बनाया है। इसलिए यह खोजने की एक कोशिश की जा रही है कि प्रउत का प्रगतिशील सिद्धांत क्या है? 

प्रउत के अन्तिम सूत्र में प्रगतिशील शब्द का प्रयोग हुआ है। अतः यहाँ से ही प्रगतिशील सिद्धांत का अनुसंधान किया है। 

*(१.) त्रिमापदंड (देश, काल व पात्र) की स्वीकृति* - सामाजिक, आर्थिक एवं जागतिक मूल्यों के मापन के  प्रकृति के त्रिदंड - देश, काल व पात्र को स्वीकार करने से प्रउत प्रगतिशील होने का प्रथम अधिकारी है। विश्व के अन्य सामाजिक आर्थिक दर्शन में यह मापदंड स्वीकार नहीं किया गया है। इसलिए वे भाव जडता को प्राप्त होकर रुग्ण होते-होते मृत अवस्था को प्राप्त करते है। प्रउत द्वारा इन तथ्यों को स्वीकार करने के अमरत्व अथवा अन्य शब्द में चिरंजीवीत्व को प्राप्त किया है। यह विचारधारा कभी भी रुग्ण नहीं हो सकती है। अतः इसके अवसाद की भी कोई संभावना नहीं है। प्रउत सभी देशों( स्थानों), कालों(समय) एवं पात्रों के लिए मान्य  व स्वीकार्य है। यही प्रउत के प्रगतिशील सिद्धांत का प्रथम तथ्य है। 

(२.)  *परिवर्तनशीलता की स्वीकृति* - प्रउत के प्रगतिशील सिद्धांत का दूसरा तथ्य परिवर्तनशीलता है। जिस विचार में परिवर्तन की गुंजाइश नहीं होती है, वह लकीर का फकीर बनकर पुरातन का कंकाल बन जाता है। प्रउत ने परिवर्तन को स्वीकार कर कंकाल बनने की अवस्था को अस्वीकार किया है। जहाँ परिवर्तन है, वहाँ युग के नूतन विचारों को ग्रहण करने का द्वार खुला है। अतः यह सदैव नूतन बना रहता है। परिवर्तन होने का गुण प्रगतिशील सिद्धांत से लबालब भरा होता है।  इसे प्रउत के प्रगतिशील होने के दूसरे तत्व के रूप में स्वीकार किया जाता है। 

(३.) *सर्वजन हित व सर्वजन सुख में प्रचारित* - प्रगति का अर्थ सर्वांगीण विकास में निहित है। समाज की प्रगति में सर्वजन का हित व सुख निहित होता है। बहुजन हिताय बहुजन सुखाय धारणा सुनने में सुन्दर लगती है लेकिन समाज के साथ समग्र न्याय नहीं करती है। इसलिए प्रगतिशील सिद्धांत को सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय होना आवश्यक है। प्रउत प्रणेता ने प्रउत को सर्वजन के लिये प्रचारित कर प्रगतिशीलता की जयमाला पहनाईं है। 

(४.) *समाज मानक मापदंड का वर्धमान होना* - प्रउत के 11 वें सूत्र में समाज के न्यूनतम व उच्चतम मान में निरंतर वृद्धिशील होना, प्रगतिशील गतिधारा का सिद्धांत है। प्रगति वृद्धि की अवधारणा है तथा प्रउत जीवन स्तर में वृद्धि को स्वीकार करता है। 
 
(५.) *क्रयशक्ति का अधिकार* -  प्रउत ने उपभोक्ता को क्रयशक्ति का मूल अधिकार प्रदान किया है। कीमत की बढ़त एवं कमी चिंता का विषय नहीं है, वास्तव में चिंता का विषय क्रय क्षमता के निर्धारित मापदंड काश्रनहीं होना है। यदि अर्थव्यवस्था उपभोक्ता की क्रय क्षमता को सुनिश्चित करती है, तो उपभोक्ता का शोषण कदापि नहीं हो सकता है। यह प्रगतिशील अर्थव्यवस्था की पहचान है। प्रउत का प्रगतिशील सिद्धांत क्रयशक्ति का मौलिक अधिकार है।

(६.)  *उपयोग की अवधारणा* -  प्रउत का दूसरा अक्षर उपयोग है, इसलिए प्रउत में उपयोग सिद्धांत भी विद्यमान है, लेकिन उपयोग की अवधारणा प्रगतिशील सिद्धांत की पुष्टि है। प्रगतिशील सिद्धांत तब ही उपयुक्त एवं सिद्ध माना जाता है, जब उनके प्रत्येक तथ्य का सही उपयोग हो। प्रउत समाज के प्रत्येक अंग का उपयोग करने तथा उस उपयोग में युग, परिवेश तथा व्यष्टि व समष्टि सामर्थ्य के अनुसार उपयोग लेने का सिद्धांत उपयोग को प्रगतिशील बनाता है तथा प्रगतिशील सिद्धांत की अवधारणा को प्रमाणित करती है। 

प्रउत ने प्रगतिशील सिद्धांत को प्रथम अंग के रूप में स्वीकार कर सामाजिक आर्थिक दर्शन को समाज हितैषी बना है। यह समष्टि तथा व्यष्टि का हितैषी होने के कारण उन्हें आनन्द मार्ग की ओर ले चलता है। अत: सारांश में कहा जा सकता है कि प्रउत का प्रगतिशील सिद्धांत आनन्द मार्ग के  नैव्यष्टिक पथिक है।
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श्री आनन्द किरण "देव"
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