समाज आंदोलन के सिवाय, प्रउत स्थापना का कोई उपाय नहीं (There is no way to establish Praut except social (Samaj) movement)

 श्री प्रभात रंजन सरकार (श्री आनंदमूर्ति जी) के 'प्रउत' (PROUT - Progressive Utilization Theory) दर्शन के व्यावहारिक धरातल को स्थापना करने की आधार शीला की ओर चलते हैं। 

क्रांतिकारी शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने अपने पिता को लिखे अंतिम पत्र में स्पष्ट किया था कि भारत की मुक्ति का मार्ग केवल जन आंदोलन से ही प्रशस्त होगा। जन आंदोलनों की इसी शक्ति को एक नई दिशा और वैज्ञानिक आधार प्रदान करते हुए श्री प्रभात रंजन सरकार ने इसे 'समाज आंदोलन' की संज्ञा दी।
ऐतिहासिक रूप से भारत में अनेक जन आंदोलन हुए, किंतु उनके परिणाम प्रायः संतोषजनक नहीं रहे। इसके तीन प्रमुख कारण दृष्टिगोचर होते हैं : -

 * ** ** दिशाहीनता : -आंदोलन का स्वरूप तो तय होता है, किंतु उसकी वैचारिक दिशा स्पष्ट नहीं होती।

 * **** सत्ता-उन्मुखता : - आंदोलन प्रायः सत्ता से प्रश्न करते हैं और सत्ता की ओर ही ताकते हैं, जबकि उन्हें समाज से प्रश्न कर समाज के साथ चलना चाहिए।
 *****  केंद्रीकरण : आंदोलनों का ध्यान सत्ता के केंद्र पर होता है, जबकि वास्तविक परिवर्तन केंद्र से निकलकर अंतिम व्यक्ति (जन-जन) तक पहुँचना चाहिए।

श्री प्रभात रंजन सरकार के दृष्टिकोण के आलोक में, "समाज आंदोलन ही वास्तविक जन आंदोलन है"—इस तथ्य को निम्नलिखित छह बिंदुओं के माध्यम से सिद्ध किया जा सकता है : -

1. सामाजिक-आर्थिक इकाई का निर्धारण (Socio-Economic Units)
कोई भी जन आंदोलन तब तक दिशाहीन रहता है जब तक उसकी सामाजिक-आर्थिक इकाई (Samaj) का निर्धारण न हो जाए। समाज राजनीति से नहीं, बल्कि अपनी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से संचालित होता है। अतः हमें केवल राजनीतिक सीमाओं को नहीं, बल्कि एक संयुक्त क्षेत्र को आधार बनाना होगा। इसके निर्धारण हेतु चार अनिवार्य कारक हैं : -

 ***** समान आर्थिक समस्याएँ एवं संभावनाएँ : साझा अभाव और विकास के समान अवसर।

 ***** भावनात्मक एकता : भाषाई और सांस्कृतिक जुड़ाव।

 ***** भौगोलिक समानता : जलवायु और भूगोल के आधार पर विकसित मानवीय लक्षण (जिसे नस्लीय समानता कहा गया है, जो जाति या संप्रदाय से परे है)।

2. समग्र संगठनात्मक संरचना

समाज आंदोलन की सफलता के लिए एक ऐसी संगठनात्मक संरचना अनिवार्य है जो केंद्र से लेकर समाज की अंतिम इकाई तक सक्रिय हो। प्रायः देखा गया है कि संगठनात्मक ढांचे के अभाव में जन आंदोलन सत्ता मिलते ही दिशाभ्रमित या 'अराजक' हो जाते हैं। एक सुदृढ़ ढांचा ही आंदोलन के मूल्यों को सत्ता के गलियारों में सुरक्षित रख सकता है।

3. समाज की समग्र योजना (Comprehensive Master Plan)
समाज आंदोलन का प्राथमिक लक्ष्य केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि समाज का सर्वांगीण रूपांतरण है। इसके लिए समाज के पास अपनी एक समग्र योजना होनी चाहिए। यह योजना 'ब्लूप्रिंट' का कार्य करती है, जो सत्ता प्राप्ति की स्थिति में भी नेतृत्व को भटकने नहीं देती और अंतिम व्यक्ति के कल्याण को सुनिश्चित करती है।

4. ब्लॉक स्तरीय योजना (Block-Level Planning)
ब्लॉक लेवल प्लानिंग समाज आंदोलन की 'जीवन रेखा' है। जब एक लघु समाज इकाई वृहद समाज इकाई में परिवर्तित होती है, तब वहां की मिट्टी की प्रकृति, नदियों के प्रवाह और स्थानीय संसाधनों के आधार पर बनाई गया ब्लॉक तथा उस आधारित योजना ही वास्तविक विकास का आधार बनती है। यह विकेंद्रीकृत नियोजन ही जन आंदोलन को समाज आंदोलन में बदलता है।

5. ग्रामीण सशक्तिकरण एवं कृषि आधारित अर्थव्यवस्था (Rural empowerment and agriculture-based economy) 
समाज की वास्तविक शक्ति शहरों में नहीं, बल्कि गाँवों में निहित है। समाज आंदोलन ऐसी औद्योगिक शहरीकरण योजनाओं का विरोध करता है जो खेतों को नष्ट करती हों। इसके स्थान पर:

 ***** कृषि, कृषि-सहायक और कृषि-आधारित उद्योगों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
 * **** ग्रामीण अर्थव्यवस्था को स्वावलम्बी बनाकर ही 'प्रउत' के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है।

6. भुक्ति (जिला) व्यवस्था शासन का मूलाधार  ( Bhukti (district) system foundation of governance) 

यद्यपि राजनीतिक शक्ति का केन्द्रीकरण होता है , तथापि शासन का वास्तविक मूलाधार 'भुक्ति' (जिला स्तर) व्यवस्था की स्थापित होना चाहिए। जब शासन की शक्तियाँ स्थानीय स्तर पर (भुक्ति व्यवस्था) केंद्रित होंगी, तभी जन-जन की भागीदारी सुनिश्चित होगी और शोषणमुक्त समाज की स्थापना संभव हो सकेगी।

निष्कर्ष:

समाज आंदोलन मात्र एक विरोध प्रदर्शन नहीं, बल्कि एक रचनात्मक क्रांति है। यह सत्ता की ओर नहीं, बल्कि समाज की आत्मा की ओर मुड़ने का आह्वान है। जब तक जन आंदोलन 'समाज' की इन वैज्ञानिक कड़ियों से नहीं जुड़ेगा, तब तक वांछित सुखद परिणाम की प्राप्ति असंभव है।



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