भगवान् की खोज में भटकते मन को एक दोहा समर्पण कर मैं हम भगवान को क्यों खोज रहे हैं? प्रश्न के उत्तर की तालाश में चलेंगे।
इदं तीर्थमिदं तीर्थ भ्रमन्ति तामसा: जना:।
आत्मतीर्थं न जानन्ति कथं मोक्ष वरानने।।
ईश्वर की खोज से ईश्वरत्व की प्राप्ति तक: एक आध्यात्मिक यात्रा
हम ईश्वर को क्यों ढूंढ रहे हैं? यह प्रश्न मानव सभ्यता के इतिहास में सबसे प्राचीन और सबसे गहरा प्रश्न है। अक्सर हम मंदिरों, मस्जिदों, गुफाओं और पहाड़ों में उसे तलाशते हैं, जैसे वह कहीं खो गया हो। लेकिन सत्य यह है कि ईश्वर 'ढूंढने' का विषय नहीं है, और न ही वह किसी बाहरी वस्तु की तरह 'मिलने' का विषय है। आध्यात्मिक साधना का वास्तविक लक्ष्य तो ईश्वर को 'पाना' है, और पाने का सरलतम अर्थ है—स्वयं भगवान बन जाना।
श्री श्री आनंदमूर्ति जी के शब्दों में, "साधना का अर्थ है अपनी संकुचित अहंता को विसर्जित कर उस अनंत सत्ता में एकाकार हो जाना।"
अक्सर हम परमात्मा को एक 'वस्तु' मान लेते हैं। जब हम किसी वस्तु को ढूंढते हैं, तो ढूंढने वाला (Subject) और ढूंढी जाने वाली वस्तु (Object) अलग-अलग होते हैं। लेकिन अध्यात्म में यह द्वैत ही सबसे बड़ी बाधा है। जब तक 'मैं' और 'वह' का भेद है, तब तक केवल खोज है, उपलब्धि नहीं।
"कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढे बन माहि।
ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखत नाहि।।"
कबीरदास जी स्पष्ट करते है कि जिस सुगंध को मृग बाहर खोज रहा है, वह उसके भीतर ही है। ढूंढने की क्रिया तब समाप्त होती है जब अंतर्मुखी होकर बोध शुरू होता है। अनुभव हमें सिखाता है कि भक्ति केवल भावुकता नहीं है, बल्कि यह अपने संकुचित 'अहम' (Ego) को विस्तार देकर 'विराट अहम' (Universal Ego) में बदल देने की वैज्ञानिक प्रक्रिया है। भगवान को ढूंढना एक भ्रम है, क्योंकि जो खोया ही नहीं, उसे ढूंढना कैसा? उसे तो केवल पहचानना है।
ईश्वर को पाने का अर्थ यह नहीं है कि हम उनसे भौतिक रूप से साक्षात्कार करेंगे। पाने का वास्तविक अर्थ है—तदाकार (Identification)। जैसे एक बूंद जब समुद्र में गिरती है, तो वह समुद्र को 'ढूंढती' नहीं, बल्कि वह स्वयं 'समुद्र' हो जाती है। जब तक बूंद का अपना अस्तित्व (Ego) है, तब तक वह छोटी और कमजोर है, लेकिन जैसे ही वह समुद्र हुई, वह असीम और शक्तिशाली हो गई।
उपनिषद् के ऋषि उद्घोष करते हैं:
"ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति"
(जो ब्रह्म को जान लेता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है।)
यही वह बिंदु है जहाँ भगवान को 'पाना' और 'भगवान बन जाना' एक ही क्रिया बन जाती है। आनन्द मार्ग के दर्शन के अनुसार, मनुष्य का मन जब साधना के माध्यम से परिष्कृत और सूक्ष्म होता जाता है, तो वह अपनी सीमाएं छोड़कर परम पुरुष के मानस (Cosmic Mind) में विलीन हो जाता है। "मैं मनुष्य हूँ" से "मैं ब्रह्म हूँ" (अहं ब्रह्मास्मि) तक की यात्रा ही वास्तविक पाना है।
केवल मनुष्य मात्र से प्रेम करने तक सीमित नहीं है। यह उससे कहीं अधिक गहरा और व्यापक है। यह चराचर जगत—पेड़-पौधे, जीव-जंतु और यहाँ तक कि निर्जीव वस्तुओं के प्रति भी उसी आत्मिक प्रेम का विस्तार है जो हम स्वयं के लिए रखते हैं। जब हमारी चेतना इतनी विस्तृत हो जाती है कि हम धूल के एक कण में भी उसी ईश्वर की स्पंदन सुनते हैं, तब हम 'ढूंढने' वाले नहीं रह जाते, हम 'ईश्वरत्व' के वाहक बन जाते हैं।
—"प्रेम ही परम तत्व है।"
"पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।"
जब हम हर प्राणी में ईश्वर को देखते हैं, तो हमारी सेवा 'परोपकार' नहीं रहती, वह 'आत्म-सेवा' बन जाती है। यहीं पर हम भगवान बनने की दिशा में पहला कदम बढ़ाते हैं। क्योंकि भगवान वही है जो सबको अपना मानता है, और जब हम सबको अपना मान लेते हैं, तो हममें और भगवान में अंतर ही क्या रह जाता है?
ईश्वर को पाना एक मानसिक और आध्यात्मिक प्रयोगशाला का कार्य है। आनन्द मार्ग में 'अष्टांग योग' के माध्यम से मन की परतों को साफ किया जाता है। भगवान कहीं बादलों के पार नहीं बैठा है, वह तो हमारे मन के सबसे गुप्त कक्ष में विराजमान है।
"मोको कहाँ ढूंढें रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना तीरथ में, ना मूरत में, ना एकांत निवास में।।"
ईश्वर हमारे 'पास' हैं, इसका अर्थ है कि वह हमारी चेतना का केंद्र (Nucleus) हैं। साधना का अर्थ है परिधि (Circumference) से केंद्र की ओर यात्रा करना। जैसे-जैसे हम केंद्र के निकट पहुँचते हैं, संसार का कोलाहल शांत होने लगता है और एक अलौकिक संगीत सुनाई देता है। जब हम केंद्र पर पहुँचते हैं, तो परिधि लुप्त हो जाती है। वहां न कोई साधक बचता है, न साधना, केवल 'परम शिव' या 'परम आनंद' शेष रह जाता है।
भगवान बनने का अर्थ यह नहीं है कि हम चमत्कार करने लगेंगे। भगवान बनने का अर्थ है—पूर्ण मानवीयता को प्राप्त करना। भगवान बनने का अर्थ है अपने भीतर के दोषों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) को ईश्वरीय गुणों (क्षमा, करुणा, प्रेम, निस्वार्थ सेवा) में बदल देना।
भगवान बुद्ध ने कहा था—"अप्प दीपो भव" (अपना दीपक स्वयं बनो)। जब आप स्वयं प्रकाश बन जाते हैं, तो आप केवल अपने लिए नहीं, बल्कि पूरी मानवता के लिए मार्गदर्शक बन जाते हैं। यही 'आनन्द मार्ग' का मूल मंत्र है—'आत्ममोक्षार्थं जगद्धिताय च' (अपनी मुक्ति और जगत का कल्याण)।
* ज्ञान: यह निरंतर बोध कि "मैं केवल यह नश्वर शरीर और चंचल मन नहीं हूँ, बल्कि मैं वह अविनाशी आत्मा हूँ।"
* कर्म: यह भाव कि संसार का प्रत्येक कार्य परमात्मा की सेवा है। "यत् कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्" (मैं जो भी कर्म करता हूँ, वह आपकी ही आराधना है)। प्रत्येक कर्म ईश्वर को देखना।
* भक्ति: उस परम सत्ता के प्रति अखंड और अनन्य अनुराग।
भक्ति के बिना ज्ञान सूखा है और कर्म बोझ। लेकिन जब भक्ति का समावेश होता है, तो कर्म 'योग' बन जाता है और ज्ञान 'बोध'। भक्त और भगवान के बीच की दूरी वैसे ही मिट जाती है जैसे अग्नि में पड़कर लोहा स्वयं अग्नि जैसा लाल और तेजस्वी हो जाता है।
"जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सांकरी, जामें दो न समाहिं।।"
जब तक 'मैं' (अहंकार) है, तब तक 'हरि' नहीं मिल सकते। और जब 'हरि' आ जाते हैं, तो 'मैं' मिट जाता है। यही वह स्थिति है जिसे हम 'भगवान बन जाना' कहते हैं—जहाँ भक्त और भगवान में कोई भेद शेष नहीं रहता।
हम भगवान को इसलिए ढूंढ रहे हैं क्योंकि हमें अपनी वास्तविक पहचान का विस्मरण हो गया है। हम उस राजकुमार की तरह हैं जो अपना राज्य भूलकर दर-दर की ठोकरें खा रहा है।
हमारा घर, हमारा मूल और हमारा गंतव्य वह ईश्वर ही है।
विषय गंभीर है, पर उत्तर वास्तव में सरल है। भगवान कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसे बाजार से या हिमालय की कंदराओं से खरीदकर लाया जा सके। वह तो आपके अस्तित्व की सुगंध है। साधना के माध्यम से उस सुगंध को प्रकट करना ही 'पाना' है।
अंतिम संदेश:
ढूंढना बंद करें और 'होना' शुरू करें। जब हम प्रेम बन जाते हैं, तो हम ईश्वर हो जाते हैं। जब हम करुणा बन जाते हैं, तो हम ईश्वर हो जाते हैं। जब हम न्याय और सेवा के जीवंत विग्रह बन जाते हैं, तो हम ईश्वर हो जाते हैं।
आनन्द मार्ग हमें इसी गरिमामय पथ पर चलने का आह्वान करता है, जहाँ हम एक दिन यह कह सकें—"मैं वही हूँ जिसका मैं ध्यान करता था।" । जिस दिन हमारे हृदय में समस्त संसार के लिए वही तड़प होगी जो एक माँ की अपने बालक के लिए होती है, समझ लेना कि आपने भगवान को 'पा' लिया है, क्योंकि आप स्वयं 'भगवान' के सांचे में ढल चुके हैं।
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