चैतन्य के विभिन्न स्तर : एक आध्यात्मिक शोध ( Different Levels of Consciousness: A Spiritual Research)

चैतन्य के सम्पूर्ण विस्तार को समझने का यह प्रयास आनन्द मार्ग के अध्यात्म दर्शन पर आधारित है, जो अस्तित्व के समस्त आयामों को ऊर्ध्व एवं निम्न लोकों के माध्यम से प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त करता है।



यह चैतन्य का सर्वोच्च एवं चरम स्तर है, जो मानस सीमा (मन) से पूर्णतः परे है। यह परम सत्य की अवस्था है और निर्गुण ब्रह्म (निराकार, निर्विशेष ब्रह्म) का शाश्वत निवास स्थल है। इस लोक को परम तारकब्रह्म का धाम भी माना जाता है।  जो सगुण स्पर्श किये हुए हैं।यहाँ अणु चैतन्य  और भूमा चैतन्य का अभिसरण होता है, जो अस्तित्व की मूलभूत प्रकृति सत्-चित्-आनन्द (सच्चिदानंद) के रूप में प्रकट होती है। यह विशुद्ध, अप्रतिबंधित परम आनन्द की अवस्था है। मोक्ष की अवस्था। 


ये सात लोक मन के क्रमिक ऊर्ध्वमुखी विकास और मन की विभिन्न अवस्थाओं को दर्शाते हैं। 


यह परमपुरुष का स्थल तथा सगुण ब्रह्म का निवास है। यह महत्त तत्व  और अहं तत्व  की उच्चतम भूमि है। यह मुक्ति की वह अवस्था है जहाँ जीवात्मा अपने शुद्ध आध्यात्मिक स्वरूप में स्थित होती है।


यह सिद्ध पुरुष एवं तपस्वी जीवों का निवास स्थान है। यह ईश्वर कोटि की चेतना है, जहाँ शुद्ध, केंद्रित आध्यात्मिक ऊर्जा व्याप्त रहती है। इसे हिरण्यमय लोक  भी कहा जाता है, जो कठोर तपस्या से प्राप्त होता है। बोधि की स्थिति है। 


यह विशेष जन जैसे ऋषि, मुनि, वैज्ञानिक एवं दार्शनिक (जिन्हें उच्च ज्ञान प्राप्त है) का स्तर है। यह लोक विज्ञानमय कोष  से संबंधित है, जो विशेष बुद्धि, विवेक और उच्च अंतर्ज्ञान को संचालित करता है।


यह महान स्थल या विराट चेतना का लोक है। यह महापुरुषों के जीने का स्तर है, जिसे अक्सर अतिमानस लोक के रूप में भी समझा जाता है, जहाँ से वैश्विक सत्य और सार्वभौमिक चेतना का ज्ञान प्राप्त होता है।


यह मनुष्य से उन्नत जीव (देवयोनी) का निवास है। यह देवगुण (सत्त्व प्रवृत्ति) वाले लोगों का स्तर है। यह लोक मनोमय कोष  से जुड़ा है, जो विचारों, इच्छाओं और भावनाओं के सूक्ष्म रूप का प्रबंधन करता है।


यह उन्नत मनुष्य का स्तर है, जो पंचभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) से बने स्थूल शरीर में होते हुए भी उच्च समझ रखते हैं। यह स्थूल मन की ही सूक्ष्म अवस्था को दर्शाता है, जहाँ मानसिक एवं भावनात्मक गतिविधियाँ अपेक्षाकृत परिष्कृत होती हैं। यद्यपि स्थूल लोक फिर चेतना का विकास है। 


यह साधारण मनुष्य श्रेणी के जीवों का लोक है। यह स्थूल मन की जड़ अवस्था है, जहाँ चेतना भौतिक शरीर और संसार से अत्यधिक जुड़ी रहती है। यह काम मय कोष है।‌ 

इसे लोक से नीचे के स्तरों को मनुष्य योनि से निम्न जीवन माना जाता है।


सप्त-पाताल निम्न चेतना के सात स्तरों का प्रतीकात्मक चित्रण करते हैं, जो मन के भौतिक बंधन की तीव्रता को दर्शाते हैं। 


'तल' भूलोक की सतह के समीप का स्तर है। इसका शाब्दिक अर्थ तल पर होता है। यह प्रतीकात्मक रूप से पशु योनि (जरायुज/स्तनधारी) को दर्शाता है। इस स्तर की चेतना मुख्यतः सहज प्रवृत्ति (Instinct) और बुनियादी आवश्यकताओं पर केंद्रित होती है।


'अतल' तल के नीचे का स्तर है, जो पक्षी योनि (अंडज) का प्रतिनिधित्व करता है। अतल का शाब्दिक अर्थ तल रहित है।यह गतिशीलता और सीमित स्वतंत्रता का प्रतीक है। अंडज जीव, भौतिक तल और आध्यात्मिक आकाश के मध्य सेतु का कार्य करते हैं।


'वितल' अतल से नीचे का स्तर है, जिसका शाब्दिक अर्थ तल सहित है। जिसे कृमि अथवा सरीसृप योनि से जोड़ा गया है। यह चेतना के उस निम्नतम स्तर को दर्शाता है जो सीमित गतिशीलता के साथ मंद गति से प्रगति करता है।


'तलातल' वितल के नीचे का स्तर है। इसका शाब्दिक तल एवं ऊपर नीचे। इसको प्रतीकात्मक रूप से स्थावर योनि (पेड़-पौधे) को दर्शाता है। यह पूर्ण जड़ता (Inertia) और स्थिरता का द्योतक है, जहाँ सक्रिय गतिशीलता का पूर्ण अभाव होता है।


'पाताल' तलातल के नीचे का स्तर है, जिसे जलचर जीवों की श्रेणी में लिया गया है। पाताल का शब्द तल के नीचे।  जलचर योनि जीवन के उद्गम (Origin) को इंगित करती है, जहाँ चेतना तरल एवं गहन जलमय वातावरण में अपने आरंभिक रूपों में सक्रिय होती है।


'अतिपाताल' पाताल से भी नीचे का स्तर है, जो जीवन के सूक्ष्म या आरंभिक प्रयास (एककोशिकीय जीव) की श्रेणी को दर्शाता है। इस स्तर पर, मन भौतिक रूप में अपनी इकाई को विकसित करने का बुनियादी, मूलभूत प्रयास कर रही होती है। अति पाताल का शाब्दिक अर्थ  तल से इतना नीचे अर्थात सूक्ष्म की सामान्यतः अदृश्य हो। 


'रसातल' सबसे निम्नतम स्तर है, जिसे जड़ वस्तु बनने या पूर्ण अचेतनता (Absolute Inertia) से जोड़ा गया है। यह वह चरम निम्नतम बिंदु है जहाँ जीवात्मा भौतिक बंधन में पूरी तरह से निष्क्रिय (dormant) और निर्जीव हो जाती है (जैसे: पत्थर, खनिज)। रसातल का शाब्दिक अर्थ तल में रसापसा अर्थात तल तुल्य, भौतिक स्थिति, जैविक स्थिति रहित। 

सारांश : -  चैतन्य की विशुद्ध अवस्था से लेकर चरम जड़त्तम अवस्था का एक विज्ञान है। जो एक साधक के लिए जानना नितांत जरुरी है। 
स्वधर्म एवं परधर्म                     (Self dharm and other dharm)

      आनन्द किरण
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आज विषय मिला है -स्वधर्म एवं परधर्म। स्व: शब्द का अर्थ अपना तथा पर शब्द का अर्थ पराया। अतः सरल अर्थ में विषय हो गया अपना धर्म एवं पराया धर्म। धृ धातु के मन प्रत्यय लगने से धर्म शब्द बना है। जिसका अर्थ सत्ता के अनुरूप भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तथ्यों को धारण करना। कुछ उदाहरण के द्वारा विषय थोड़ा सरल बनाया जा सकता है। पूजा करने की वृत्ति धारण करने वाला पूजारी कहलाता है। उसी प्रकार तपस्या वृत्ति वाला तपस्वी, सैन्य वृत्ति वाला सैनिक, चौर्य वृत्ति वाला चोर, डाक डालने वाला डाकू। अतः धर्म सदैव स्व: से जुड़ा रहता है। जब धर्म को स्व: से पृथक कर दिया जाए तो स्व: छिन्न भिन्न हो जाता है। अब हमने स्व, पर एवं धर्म शब्द को जान लिया इसलिए विषय को अधिक अच्छी तरह से समझ सकते हैं। 

स्व शब्द‌ -  स्व: अथवा स्वयं का अथवा अपना शब्द पर ओर अधिक समझने की कोशिश करते हैं। अपना अर्थात मेरा एक वचन में तथा हमारा बहुवचन में। सबसे पहले एक वचन पर ध्यान देते अपना अर्थात मेरा। अतः वाक्य पूरा हुआ मेरा धर्म। प्रश्न मेरा धर्म क्या है? उत्तर - सबसे पहले बताओ कि मैं कौन हूँ। जब तक मनुष्य 'मैं' अर्थात स्वयं से परिचित नहीं है तब तक 'मेरा धर्म क्या है' का उत्तर प्राप्त नहीं कर सकता है। अतः 'मैं' को समझने के लिए निकलते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि 'मैं' का सूक्ष्मत्तम एवं गहनतम अर्थ है लेकिन हमारा विषय आध्यात्मिक नहीं, सामाजिक है, इसलिए सामाजिक दृष्टि से ही मैं समझने की कोशिश करेंगे। सामाजिक अथवा जागतिक दृष्टि से 'मैं' मनुष्य के लिए व्यवहार हुआ है। अर्थात मैं मनुष्य हूँ। चूंकि हम गाय, भैंस सिंह इत्यादि नहीं है। इसलिए 'मैं' का अर्थ मनुष्य ही हुआ। अर्थात मनुष्य का धर्म मेरा अपना धर्म स्वधर्म हुआ। जो धर्म मनुष्य का नहीं है, वह पराया धर्म अर्थात परधर्म हुआ। 

मनुष्य का धर्म क्या है? 

 चूंकि मनुष्य का धर्म ही मेरे तथा हमारे लिए स्वधर्म है इसलिए विषय कहता है कि मनुष्य का धर्म क्या है समझ लिजीए स्वधर्म का सबसे बड़ा शोधपत्र तैयार हो जाएगा। सर्वप्रथम मनुष्य शब्द का अर्थ समझते हैं - मनु धातु से मनुष्य शब्द आया है। जिसका अर्थ है - मन प्रधान प्राणी। प्राणी जगत में एकमात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जिसका मन प्रधान है। शेष सभी प्राणियों के लिए शरीर प्रधान है। चूंकि मन का कार्य मननशीलता है। इसलिए मनुष्य शब्द का अर्थ हुआ, मननशील प्राणी। इससे सरल शब्द में चिन्तनशील अथवा विचारशील भी कह देते हैं। अतः मनुष्य के धर्म को समझने के मनुष्य शब्द की परिभाषा पर जोर देना आवश्यक है। मननशीलता मनुष्य का प्रधान गुणधर्म है। इसलिए मनुष्य की मननशीलता की ओर चलते हैं। मनुष्य की जन्मजात मननशीलता समग्र है। किसी भी प्रकार का भेद जनित मननशीलता मनुष्य की नहीं है। अतः जहाँ अपना-पराया, तेरा-मेरा का भेद है, वहाँ मनुष्य नहीं है। अतः मनुष्य का धर्म सार्वभौमिक एवं सर्वांगीण है। उसमें जाति, क्षेत्र, साम्प्रदायिक भेद जनित करना मनुष्य के धर्म छेद करना अथवा सेंधमारी है। अतः कोई जाति, देश, क्षेत्र तथा साम्प्रदाय मनुष्य का स्वधर्म नहीं है। मनुष्य का स्वधर्म मानव धर्म है। जिसे प्रथम स्तर पर पर हम मानवता कहते हैं। लेकिन सूक्ष्म दार्शनिक अर्थ में मानवता भी मनुष्य के स्वधर्म में नहीं समाती है। उसके लिए समग्र सृष्टि अपनी हैं। जैव तथा अजैव सत्ता उसकी अपनी है। अतः सभी के गुणधर्म की रक्षा करना ही मनुष्य का स्वधर्म है। अतः मानव धर्म के लिए उपयुक्त नवीन शब्द नव्य मानवता अथवा नव्य मानवतावाद दिया गया है। अतः हम कह सकते हैं कि मनुष्य का स्वधर्म नव्य मानवतावाद है। जिसमें सृष्ट व असृष्ट जगत के सभी तथ्य तथा उनके प्रति उत्तरदायित्व समाविष्ट है। अतः मनुष्य के स्वधर्म को परिभाषित करते समय जाति, क्षेत्र अथवा सम्प्रदाय का बोध कराने वाली युक्ति मनुष्य शब्द के साथ छेड़छाड़ करती है। अतः इस प्रकार के विषय के सभी तथाकथित धर्म के नाम परिचय देने वाले शब्द मनुष्य के परधर्म है, जो उसकी पहचान जाति, क्षेत्र एवं सम्प्रदाय के रूप में देते हैं। चूंकि हम समझ गए है कि मनुष्य का स्वधर्म क्या है, इसलिए मानव धर्म के बारें में विस्तार से जानना हमारा कर्तव्य है। 

मानव धर्म - धर्म मनुष्य को परिपूर्णता के पथ पर ले चलता है। इसलिए संस्कृत में वृहद प्रणिधान को मनुष्य का धर्म बताया गया है। वृहद अर्थात विराटता अथवा समग्र व्यापकता। अतः संकीर्णता में मानव धर्म नहीं रह सकता है। मानव धर्म को रहने के लिए जातिगत, क्षेत्रगत, साम्प्रदायिकगत संकीर्णता से उपर उठना होगा। मानव धर्म अर्थात मनुष्य को समग्र व्यापकता के पथ ले चलने वाले तथ्य मानव धर्म है। अतः शास्त्र में मानव धर्म के चार स्तंभ निर्धारित किये है। यह विस्तार, रस, सेवा एवं तद स्थित है। अब हम इन चारों को समझने की कोशिश करते हैं। 

विस्तार - मनुष्य वृहद बनना चाहता है। इसे संस्कृत में विराट तथा अंग्रेजी में Greatness कहते हैं। मनुष्य के धर्म का प्रथम स्तंभ विस्तार हैं। चूंकि मनुष्य का शरीरगत विस्तार एक विज्ञान है। अतः उसे अधिक विस्तार नहीं दिया जा सकता है। मन का विस्तार संभव है। अतः मन को सभी प्रकार की कुंठा से उपर उठाना ही मनुष्य का के मन विस्तार देना है। मनुष्य के मन को इतना बड़ा बनाया जा सकता है कि उसमें किसी भी प्रकार संकीर्णता नहीं रहती है। जो जातिगत , क्षेत्रगत एवं सम्प्रदायगत चिन्तन में संभव नहीं है। आत्मा समग्र शब्द है। इसलिए उसका विस्तार नहीं किया जाता है। जब मन माया के बंधन से हटकर आत्मा में विलीन हो जाता है, उस अवस्था का नाम परमात्मा है। इसलिए आत्मा सो परमात्मा कहा जाता है। 

रस - मानव धर्म का दूसरा स्तंभ रस को बताया गया है। यदि मनुष्य का विस्तार रसमय नहीं है तो निरस विस्तार कोई नहीं चाहेगा। अतः मनुष्य के विस्तार के साथ रस अथवा आनन्द का होना आवश्यक है। अतः मनुष्य के मन की गति का विज्ञान कहता है कि प्रत्येक मनुष्य अनन्त सुख की ओर गतिमान है। संस्कृत में अनन्त सुख के आनन्द शब्द का व्यवहार हुआ। अतः मनुष्य के व्यापकता की वह यात्रा जो मनुष्य आनन्दमय परिवेश दे। जिसे भक्ति शास्त्र में रस विज्ञान के द्वारा खुब अधिक स्पष्ट किया है। अतः कहा जाता है कि जिस भजन में रस न हो वह भजन नहीं गाना चाहिए। भेद में आनन्द नहीं मिलता है। 

सेवा - मानव धर्म का चतुर्थ तृतीय स्तंभ सेवा है। आनन्दमय विस्तार की यात्रा को जब सेवा से सिंचा जाता है तब धर्म वास्तविक रहता है। अन्यथा काल्पनिक अथवा पलायनवादी हो जाता है। अतः सेवा मनुष्य का धर्म व्रत है। नृयज्ञ, भूतयज्ञ, देवयज्ञ एवं आध्यात्मिक यज्ञ के नाम से मनुष्य की सेवा को सभी प्रकार की संकीर्णता मुक्त करके समझाया गया है। यज्ञ शब्द का अर्थ कर्म है। हवन, आहुति इत्यादि से यज्ञ का संबंध एक मत की अवधारणा है।जिसका सेवा से संबंध नहीं है। शरीर से, धन से, रक्षा करके तथा सत् शिक्षा देकर सतपथ दिखाकर सेवा की जाती है,इसलिए सेवा के चार वर्ग बताए गए हैं। अतः सेवा मनुष्य निर्माण का तृतीय स्तंभ है। मानव धर्म का तृतीय स्तंभ है। 

तदस्थिति - संस्कृत शब्द तदस्थिति का अर्थ वैसे स्थिति जैसी मनुष्य की होनी चाहिए। मनुष्य की स्थिति है। पूर्णत्व की प्राप्ति। पूर्णत्व को आध्यात्म में परमात्मा पद कहा गया है। अतः नर को नारायण रुप में प्रकट करना तदस्थिति है। धर्म, मनुष्य की वह गति है जो उसे भगवान बना देती है। अतः भगवान स्थिति प्राप्त करने को धर्म का चतुर्थ स्तंभ बताया गया है। अतः कहा गया है जहाँ भेद है वहाँ भगवान रहते हैं। अतः भगवान बनने के लिए भेद रहित अवस्था को तदस्थिति कहा गया है। 

मनुष्य का धर्म मानवधर्म के चतुष्पाद है। जो विस्तार, रस, सेवा एवं तदस्थिति के नाम से जाने जाते हैं। चूंकि मनुष्य की गति पूर्णत्व की है। जिसे सरल अर्थ में भगवद प्राप्ति है अतः संस्कृत में मानव धर्म को भावगत अर्थ में भागवत धर्म कहते हैं। भागवत शब्द का अर्थ वैष्णव संप्रदाय अथवा हिन्दू इत्यादि से लेना नही चाहिए। भगवद्गीता अथवा कोई भी शास्त्र समग्र मानवता के लिए लिखे गए हैं, उन्हें संस्कृत में भागवत शास्त्र कहते हैं। जहाँ संकीर्णता मुक्त है, वही  भागवत धर्म, भागवत शास्त्र रहते हैं। भागवत धर्म ही मानव धर्म है, ऐसा नहीं है - मनुष्य के धर्म का दुनिया सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत में भागवत अर्थ में भागवत धर्म कहा गया है। अतः मनुष्य के धर्म के लिए संस्कृत शब्द भागवत धर्म है। भागवत धर्म में मनुष्य की सोच नव्य मानवतावादी रहती है। जहाँ नव्य मानवतावाद से कम स्वीकार्य नहीं है।
एक आदर्श राज्य - रामराज्य  (An ideal state‌ - Ramrajya)
रामराज्य क्या एवं कैसे
भारतवर्ष में आदर्श राज्य की परियोजना का नाम 'रामराज्य' दिया गया है। इस परियोजना का निर्माण संभवतया महर्षि वशिष्ठ गुरुकुल के आचार्यों, तात्विकों एवं पुरोधाओं द्वारा किया गया था। जिसमें एक आदर्श व्यक्ति, आदर्श परिवार, आदर्श राज्य एवं आदर्श समाज का चित्रण गया था। उसके आधार पर नव भारतवर्ष का संगठन होना है। आज हम उसी आदर्श व्यवस्था 'रामराज्य' को समझने की कोशिश करेंगे। 

(१) रामराज्य का प्रथम संकल्प आदर्श व्यक्ति का निर्माण :- समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार में सर्वप्रथम व्यक्ति का निर्माण होता है। यद्यपि व्यक्ति की समाज में गुरुत्व भूमिका है तथापि व्यक्ति को समाज छोटी इकाई का दर्जा नहीं मिला है। क्योंकि एक व्यक्ति समाज नहीं होता है। यह भी सत्य है कि व्यक्तियों से मिलकर समाज बनता है। व्यक्ति का निर्माण आदर्श व्यवस्था की प्रथम योजना है। रामराज्य में राम को आदर्श रूप में स्थापित कर व्यक्ति के निर्माण की योजना का विकास किया गया था। यदि हमें नायक की भूमिका में रहना अथवा मिली है तो राम बनो। राम सहजता, प्रेम, मधुरता एवं महानता की प्रतिमूर्ति है। इसके अलावा यदि हमें सह नायक की भूमिका में रहना है तो पिता के रूप दशरथ, माता के रूप में कौशल्या, भाई के रूप भरत तथा पत्नी के रूप सीता के आदर्श को ग्रहण करना चाहिए। इसके अलावा आचार्य के रूप में महर्षि वशिष्ठ, मंत्री के रूप आर्यसुमन, ससूर के रूप में जनक तथा प्रजा के रूप अयोध्यावासी आदर्श नागरिक की भूमिका को आदर्श रूप में चित्रित किया गया है। इस प्रकार रामराज्य नामक परियोजना का प्रथम संकल्प व्यक्ति निर्माण है।  अतः रामराज्य नामक परियोजना कहती है कि हमारा प्रथम अभियान मनुष्य निर्माण होना चाहिए। यदि मनुष्य ही नहीं बना तो परिवार, राष्ट्र एवं समाज किसी का निर्माण नहीं हो सकता है। [Our mission is manav nirman (Man making) mission]

(२) रामराज्य का द्वितीय संकल्प आदर्श परिवार का निर्माण :- व्यक्ति का निर्माण परिवार व समाज में होता है। जबकि परिवार का निर्माण व्यक्ति के व्यक्तित्व से होता है। अतः परिवार के सभी सदस्यों को अपने व्यक्तित्व का ऐसा संगठन करना चाहिए कि परिवार सदैव एक अविभाजित इकाई के रूप में रहे। जिसको जो कर्तव्य मिला है उसे साधना, सेवा एवं त्याग की कसौटी पर रखकर स्वयं अधिक परिवार को महत्व देने की शिक्षा रामराज्य नामक परियोजना से मिलती है। परिवार एक ऐसा संगठन है जिसमें रक्तसंबंध, धर्म का संबध एवं अन्य संबंध के आधार पर अपनत्व, ममत्व तथा दायित्व पालन का स्थायी निर्माण होता है। अतः परिवार की परिभाषा किसी निश्चित शब्दावली में नहीं होती है। इसकी परिभाषा व्यक्ति की सोच एवं समझ में निहित है। किसी एक व्यक्ति के परिवार रक्तसंबंध का समूह, दूसरी के लिए रक्तसंबंध के साथ धर्म संबंध भी जुड़ जाते हैं, तीसरे के लिए परिवार कुछ बड़ा होता जिसमें उसकी आवश्यकता के लिए जो सहयोग देते हैं वह भी उनके परिवार के सदस्य समझता है तथा वृहद मानसिकता के वसुधैव कुटुबं परिवार है। परिवार का जो भी रुप हो उसमें दायित्व का प्रथम गुरुत्व दिया गया है। इसके साथ कभी भी अपनत्व एवं ममत्व को भी नहीं त्यागना है। अतः हमारा कर्तव्य है आदर्श परिवार, कुटुबं एवं गाँव का निर्माण करना। 

(३) रामराज्य में आदर्श राज्य :- रामराज्य का तीसरा संकल्प आदर्श सामाजिक आर्थिक इकाई का निर्माण करना है, जिसे रामराज्य कहा गया है। एक आत्मनिर्भर सामाजिक आर्थिक इकाई ही व्यक्ति को सुख दे सकती है। इसलिए रामराज्य परियोजना के मूल में इसे रखा गया है। यह इकाई समान आर्थिक समस्या, समान आर्थिक संभावना, भावनात्मक एकता एवं नस्लीय समानता नामक चारों स्तंभों पर खड़ी है। अतः रामराज्य की निर्माण की इस मूल को समझकर ही राष्ट्र निर्माण की साधना में लग जाना है। 

(४) रामराज्य से समाज निर्माण का संकल्प पत्र - रामराज्य नामक परियोजना के अंतिम चरण में एक अखंड अविभाज्य मानव समाज का निर्माण करना है। मानव समाज में भौगोलिक, सामाजिक, व्यवसायिक एवं अन्य कोई भी गुटबाजी है तो वह कभी भी स्वस्थ परिवेश का निर्माण नहीं होने देती है। इसलिए विश्व बंधुत्व की भावना लेकर महाविश्व निर्माण करना रामराज्य की असली समझ है। सामाजिक आर्थिक इकाइयाँ अखिल विश्व समाज निर्माण की योजना में सामाजिक आर्थिक न्याय स्थापित करता है। इसे मानवीय न्याय की परिधि में लाने के लिए समाज निर्माण का संकल्प आया है। 

[श्री] आनन्द किरण "देव"
प्रभात संगीत एवं रुहानी यात्रा (PS & ST)
संगीत का मानव मन की गहराइयों से गहरा रिश्ता है। एक भाव तंरग को दूसरी भाव तरंग से जोड़ता है तथा मानव मन में विशिष्ट रस की सरिता बहती है। मुझे गाना नहीं आता है इसलिए उस स्थित का रसास्वादन तो नहीं करा सकता लेकिन रुहानी यात्रा में ऐसी स्थितियाँ से रुबरु होना पड़ता है इसलिए इनके बारे में थोड़ी समझ रखता हूँ। मनुष्य का जीवन भाव से भरा हुआ है। भाव रस से अभिव्यक्त होता है। इसलिए संगीत का महत्व सभी के जीवन में अल्प एवं अधिक परिणाम में है। जो विभिन्न राग रागिनियों तथा लफ़्ज़ों से झलकता है। 

संगीत की दुनिया में आशा व निराशा, प्रेम एवं विरह, सकारात्मक एवं नकारात्मक तथा राग व द्वेष इत्यादि का संगम देखा है। जो संगीत मनुष्य को दुख के दलदल में ले जाकर रुलाते है, उदास करते हैं अथवा हताश करते हैं। यह मनुष्य की गति एवं प्रगति दोनों को रोक लेते हैं। इसके विपरीत जहाँ आनन्द प्रेम, उत्साह तथा ऊर्जा का संचार होता है। वे संगीत मनुष्य को गतिमान एवं प्रगतिशील बनाते हैं। संगीत शास्त्र की ऐसी शाखा को मनुष्य ने आनन्द संगीत नाम दिया है। जहाँ सुख शांति एवं कर्मशीलता का निवास होता है। आनन्द संगीत में प्रगति, अग्रगति एवं बृहद का आकर्षण दिखाई दे तो उस नूतन उषा की संज्ञा दी जाती है। इसलिए इसे एक नूतन विधा में रखना होता है। प्राचीन काल में जब भक्त रात्रि जागरण करते थे तब अपनी संगीत शास्त्र को दुनिया जगत से उठाकर ज्यौं ज्यौं निशा की घनघोर छाए में जाता था। वैराग्य तथा फकीरी में मन लिप्त होता था। फकीरी को गाते गाते जब एक नहीं उषा के नजदीक पहुँचता उसे ऐहसास होता था कि असली आनन्द प्रभु के साथ मिलकर प्रभु के कर्म करने है। इसलिए वह प्रभाती गाता था। भक्त एवं भगवान में एकरूपता दिखाई देती है। जो भक्त का है, वह भगवान‌ का है तथा जो भगवान है वह भक्त का है। सारे जहान से मोहब्बत करता है। वह फकीरी  पलायन में नहीं कर्तव्य कर्म में अनुभव करता है तथा जगत को साथ लेकर रुहानी यात्रा में निकलता है। जब प्रभात की यह अवस्था चौबीस घंटा, जीवनभर तथा हर क्षण रह जाए तो मनुष्य अपने जीवन को प्रफुल्लित, आनन्दित एवं प्रगतिशील बना देता है। इसलिए मनुष्य प्रभात संगीत की विधा एक पृथक विधा के रूप में आवश्यकता महसूस से कर रहा है।

मनुष्य की इस अभिलाषा को प्रतिफलित होने का आखिरकार अवसर मिली ही गया तथा मनुष्य ने परमपुरुष के कंठ से प्रभात संगीत को निकलवा ही दिया। परम पुरुष भक्त की इस आकूति को प्रभात संगीत का रुप देकर आनन्द मार्ग परिवार को प्रभात संगीत प्रदान किया। आनन्द मार्ग परिवार ने प्रथम प्रभात संगीत  14 सितम्बर 1982 सुना। उसके बाद आठ वर्ष तक परम पुरुष के मुख से एक पर एक 5018 संगीत का एक शास्त्र तैयार हो गया। 

प्रभात संगीत की हृदयस्पर्शी विधा को सजाए रखना भक्त का दायित्व है। साधक को अपने साधना में ओर भी प्रभात संगीत सुनाई देते रहेगें तथा अपनी मस्ती में गाता भी रहेगा। प्रभात संगीत एवं रूहानी यात्रा के बारे सबके अलग अलग अनुभव है इसलिए उसे एक सामान्य शब्दमाला में नहीं पिरोया जा सकता है। फिर भी प्रयास करना बुरा नहीं है। मनुष्य की आध्यात्मिक यात्रा को दर्शन पंचकोषात्मक के रूप में व्यष्टि  को तथा सप्तलोकत्मक कहकर समष्टि में समझाता है। भक्त अपने मन में उस अवस्था को देखकर जो नाम बन पाता है। दे देता है। इसलिए आध्यात्मिक जगत में आध्यात्मिक पड़ावों को अलग अलग नाम चित्रित किया गया। प्रभात संगीत प्रत्येक पड़ाव के साधक की मनोदशा का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत करता है। कई बार साधक अनुभव करता है कि यह प्रभात संगीत एक वर्ष पहले गाता था तब अलग अनुभूति देता है आज अलग। मैं पुनः कहता हूँ कि मुझे गाना बजाना नहीं आता है इसलिए प्रभात संगीत की विधा को सही नहीं समझा पाता हूँ। लेकिन रुहानी यात्रा में जो अनुभव करता हूँ उसे लिख लेता हूँ। 

प्रभात संगीत के संग हम सबकी रूहानी यात्रा चिरस्मरणीय रहे। 
🙏🙏🙏🙏🙏
श्री आनन्द किरण "देव"

ईश्वर प्रणिधान                       (Devotion to god)

जगत के नियंता को ईश्वर कहा गया है। प्रणिधान का अर्थ प्रयत्न करना। ईश्वर प्रणिधान शब्द का अर्थ हुआ ईश्वर बनने का प्रयत्न करना अथवा ईश्वर बनने विधि। चूंकि मनुष्य का चरम एवं परम लक्ष्य मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ है ईश्वर में मिलकर एक हो जाना। इसलिए साधना जगत का प्रथम सोपान का नाम ईश्वर प्रणिधान दिया गया है। यद्यपि नियम साधना में इसका स्थान अंतिम में रखा गया है लेकिन आध्यात्मिक साधना में यह प्रथम स्थान पर है। 

ईश्वर प्रणिधान का मूलभाव अहम ब्रह्मास्मि है। मैं  ब्रह्म हूँ भाव में प्रतिष्ठित होने का जो प्रयत्न है, उसे ईश्वर प्रणिधान नाम दिया गया है। मनुष्य की स्व: भाव से आनन्द भाव की साधना को ईश्वर प्रणिधान से समझा जाता है। शास्त्र कहता है कि सबसे उत्तम साधना ब्रह्म सद्भाव की है। ब्रह्म भाव की साधना का नाम ही ईश्वर प्रणिधान है।

ब्रह्म भाव में प्रतिष्ठित होने की प्रक्रिया को ईश्वर प्रणिधान कहा गया है। इसलिए इस प्रक्रिया को जानना, अपनाना एवं आत्मसात करना आवश्यक है। इस प्रक्रिया का मूल 'मैं' तथा 'वह' है। 'मैं साधक तथा वह साध्य है। जब साधक मैं वही हूँ' भाव लेते लेते अन्ततोगत्वा उसमें ही प्रतिष्ठित हो जाता है तो साधना पूर्ण हो जाती है। भाव का निर्माण में शब्द सहायक होता है। इसलिए इष्ट मंत्र की अवधारणा विकसित हुई। इष्ट में प्रतिष्ठित करने वाला शब्द शक्तिपूंज को इष्ट मंत्र कहा जाता है। यह मंत्र बीज अक्षरों के समूह से बनता है। चूंकि ब्रह्म भाव की साधना में मैं व वह नामक दो बिन्दु है। इसलिए यथासंभव दो अक्षरों का ही इष्ट मंत्र होता है। पहला अक्षर मैं तथा दूसरा अक्षर वह प्रतिनिधित्व करता है। चूंकि बीजाक्षर उस भाव मूल होता है इसलिए मंत्र को शक्तिपूंज कहा जाता है। मैं तथा वह को एक करने की प्रक्रिया साधना है। जहाँ मैं वह तथा वह मैं बन जाता है। इनमें पार्थक्य करना एवं देखना असंभव हो जाता है। इसलिए मैं ओर वह को बांधने वाले रस्सी के प्रतीक्षाकर के कई मात्रा युक्त तो कहीं ढ़ाई अक्षर का मंत्र भी देखा जाता है। फिर भी मंत्र में दो ही बिन्दु होते हैं। तीन बिन्दु की साधना एक अव्यवहारिक सोच है। तीन बिन्दु की साधना में मैं, वह के बीच तुम होता है अर्थात साधक, गुरु एवं भगवान। इसमें प्रथम क्रम गुरु एवं भगवान एक होते तथा तुम वह में तथा वह तुम में मिल जाता है तथा अंत में मैं तथा वह एक हो जाते हैं। 

ब्रह्म साधना की प्रक्रिया समझ रहे हैं इसलिए उसकी संक्रिया भी समझना आवश्यक है। संक्रिया के क्रम में व्यक्ति के चित्त को ब्रह्म रुप में बैठाना पड़ता है। शास्त्र इस चित्त शुद्धि नाम देता है। चित्त यदि ब्रह्म के अतिरिक्त किसी अन्य रुप में गोता लगा रहा है तो मैं वही हूँ की साधना ध्येय में प्रतिष्ठित करके जड़ बना देते हैं। जिस पथभ्रष्ट नाम भी दिया गया है। अतः साधक एक निश्चित संक्रिया के माध्यम से चित्त शुद्धि करता है तथा चित्त ब्रह्म में बैठता है। इस संक्रिया को संपन्न करने के लिए चित्त को अपने में लौटना होता है, इसलिए आसन शुद्धि की आवश्यकता होती है। चित्त जहाँ कही है वहाँ से उसे उन सभी केन्द्र से होकर चित्त को पुनः अपने चित्त में लाने की संक्रिया को आसान शुद्धि कहते हैं। चित्त को इसलिए सभी केन्द्रों से होकर लाना होता है तांकि चित्त आभागों को जी कर भोग रहित हो जाए तथा ब्रह्म भाव का आभोग शतप्रतिशत ग्रहण कर ले। आसान शुद्धि की इस संक्रिया में सिद्धि के पहले बाहरी परिवेश मन छुड़ाना होता है। इस संक्रिया को भूत शुद्धि कहा जाता है। भूत शुद्धि में मन बाहर के परिवेश हटाकर एक सीमाहीन परिवेश में लाकर रखा जाता है। जहाँ से आसान शुद्धि चित्त में ले जाती है तथा चित्त शुद्धि ब्रह्म में ले जाती है। यहाँ इष्ट मंत्र ब्रह्म भाव तथा ब्रह्म भाव मूल लक्ष्य में प्रतिष्ठित करता है। 

ईश्वर प्रणिधान भूत शुद्धि, आसान शुद्धि, चित्त शुद्धि, इष्ट मंत्र का जप तथा ब्रह्म भाव का अधिग्रहण की मिलित प्रणाली का नाम है। जिस साधक के पास यह प्रणाली है, वह अपना उद्धार करता है अर्थात यह पथ उसके उद्धार का पथ है। इसी को शास्त्र में सत् पथ कहा गया है। सत् पथ मनुष्य के लिए आनन्द ले आता है। इसलिए साधना मार्ग आनन्द मार्ग कहा जाता है। 

आओ आनन्द मार्ग पर चलते हैं। जीवन को धन्य बनाते हैं। मनुष्य होने का सुलाभ प्राप्त करते हैं। यही जीवन का सार है। 
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श्री आनन्द किरण "देव"
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आध्यात्मिक रामायण              (Spiritual Ramayana)
रामायण का नया रूप - आध्यात्मिक रामायण
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श्री आनन्द किरण "देव"
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आज आध्यात्मिक रामायण लिखने जा रहा हूँ। यह आलेख मेरी पुस्तक रामायण में ब्रह्म विज्ञान के सारांश के रूप में लिखा जा रहा है। रामायण श्रीराम की अयोध्या से लंका तथा लंका से पुनः अयोध्या आगमन का यात्रा वृतांत है। इस यात्रा के 14 वर्ष की अवधि में दिखाया है। आध्यात्मिक जगत में मानष शरीर में सहस्त्राचक्र से मूलाधार तक सात चक्रों का अलेख है। इस प्रकार 7+7 = 14, यदि एक चक्र एक वर्ष कहा जाए तो चौदह वर्ष हो जाते हैं। सहस्त्राचक्र को‌ अयोध्या तथा मूलाधार को लंका माना गया है। अयोध्या का मतलब अ + योध्य + आ है। योध्य का मतलब युद्ध द्वारा जय किया जाने वाला क्षेत्र, आ लगने से स्त्रिलिंग शब्द नगरी हो जाता है। अर्थात अयोध्या का मतलब वह नगरी जिसे साधना समर‌ द्वारा जयी नहीं किया जा सकता है। वह सहस्त्राचक्र है, जो साधना  द्वारा नहीं तारक ब्रह्म की कृपा से नियंत्रित होता है। आज्ञा चक्र पंचवटी है, जो पांचों तत्व का नियंत्रक बिन्दु है। विशुद्ध चक्र शब्द तंमात्रा वहन करने वाले आकाश तत्व का धारक है, जो शबरी का प्रतीक है। अनाहत चक्र पवन का प्रतीक हनुमान, अग्नि ऊर्जा का वाहक मणिपुर चक्र बालि सुग्रीव की नगरी किष्किन्धा, रामसेतू जल तत्व का धारक स्वाधिष्ठान चक्र  तथा सोने की लं से लंका मूलाधार वाला पृथ्वी तत्व है। हमारे शरीर के यह सप्तचक्र है। इसके अलावा नासिक अर्थात नासिका में स्थित ललना चक्र चित्रकूट एवं भरत मिलाप स्थली गुरुचक्र है। इन दोनों को सप्तचक्र की गिनती से पृथक रखा गया है। यद्यपि इन दोनों का साधना में महत्व है। निषादराज का क्षेत्र अयोध्या की परिधि में है। 

अब श्रीराम की अयोध्या से लंका तक की यात्रा रामायण का प्रथम पहलू वनवास कहलाता है। इसमें श्रीराम दक्षिण दिशा में अर्थात शरीर के निम्न भाग में गमन करते हैं। वन का अर्थ पेड़ पौधों का झुरमुट है। अर्थात चैतन्य से दूर की प्रदेश है। श्रीराम सकल धनात्मक शिव भाव  तथा सीता सकल ऋणात्मक जीव भाव कुल कुंडलीनी शक्ति है। लक्ष्मण सदैव लक्ष्य में मन रखने वाला सदैव लक्ष्य के साथ संयुक्त रहने वाला भक्त मन है। दशरथ तथा तीनों रानियाँ त्रिगुण युक्त प्रकृति एवं साक्षी पुरुष का प्रतीक है। भरत व शत्रुघ्न भी विशेष प्रकार के साधकों के प्रतीक है। वशिष्ठ आध्यात्मिक गुरु हैं, जो सदगुरु का प्रतीक है। रावण अंधकार का प्रतीक है। मेधनाथ, कुंभकर्ण इत्यादि रात सदृश्य रावण की शक्तियां है। विभीषण का अर्थ बुराई को सतपथ की राय देने वाले न्याय धर्म का साथी घर का भेदी अर्थात शरीर मन प्रदेश के रहस्य का ज्ञाता है। 

लंका से अयोध्या की यात्रा का साथी पुष्पक विमान साधना है। स्वास प्रवास पुष्पक विमान का पायलट हनुमान है। यह सैद्धांतिक पक्ष नहीं होने के कारण अधिक वर्णन नहीं मिलता है। व्यवहारिक पक्ष होने के कारण गुरु के अधिकार क्षेत्र में है।