आनन्द किरण
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आज विषय मिला है -स्वधर्म एवं परधर्म। स्व: शब्द का अर्थ अपना तथा पर शब्द का अर्थ पराया। अतः सरल अर्थ में विषय हो गया अपना धर्म एवं पराया धर्म। धृ धातु के मन प्रत्यय लगने से धर्म शब्द बना है। जिसका अर्थ सत्ता के अनुरूप भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तथ्यों को धारण करना। कुछ उदाहरण के द्वारा विषय थोड़ा सरल बनाया जा सकता है। पूजा करने की वृत्ति धारण करने वाला पूजारी कहलाता है। उसी प्रकार तपस्या वृत्ति वाला तपस्वी, सैन्य वृत्ति वाला सैनिक, चौर्य वृत्ति वाला चोर, डाक डालने वाला डाकू। अतः धर्म सदैव स्व: से जुड़ा रहता है। जब धर्म को स्व: से पृथक कर दिया जाए तो स्व: छिन्न भिन्न हो जाता है। अब हमने स्व, पर एवं धर्म शब्द को जान लिया इसलिए विषय को अधिक अच्छी तरह से समझ सकते हैं।
स्व शब्द - स्व: अथवा स्वयं का अथवा अपना शब्द पर ओर अधिक समझने की कोशिश करते हैं। अपना अर्थात मेरा एक वचन में तथा हमारा बहुवचन में। सबसे पहले एक वचन पर ध्यान देते अपना अर्थात मेरा। अतः वाक्य पूरा हुआ मेरा धर्म। प्रश्न मेरा धर्म क्या है? उत्तर - सबसे पहले बताओ कि मैं कौन हूँ। जब तक मनुष्य 'मैं' अर्थात स्वयं से परिचित नहीं है तब तक 'मेरा धर्म क्या है' का उत्तर प्राप्त नहीं कर सकता है। अतः 'मैं' को समझने के लिए निकलते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि 'मैं' का सूक्ष्मत्तम एवं गहनतम अर्थ है लेकिन हमारा विषय आध्यात्मिक नहीं, सामाजिक है, इसलिए सामाजिक दृष्टि से ही मैं समझने की कोशिश करेंगे। सामाजिक अथवा जागतिक दृष्टि से 'मैं' मनुष्य के लिए व्यवहार हुआ है। अर्थात मैं मनुष्य हूँ। चूंकि हम गाय, भैंस सिंह इत्यादि नहीं है। इसलिए 'मैं' का अर्थ मनुष्य ही हुआ। अर्थात मनुष्य का धर्म मेरा अपना धर्म स्वधर्म हुआ। जो धर्म मनुष्य का नहीं है, वह पराया धर्म अर्थात परधर्म हुआ।
मनुष्य का धर्म क्या है?
चूंकि मनुष्य का धर्म ही मेरे तथा हमारे लिए स्वधर्म है इसलिए विषय कहता है कि मनुष्य का धर्म क्या है समझ लिजीए स्वधर्म का सबसे बड़ा शोधपत्र तैयार हो जाएगा। सर्वप्रथम मनुष्य शब्द का अर्थ समझते हैं - मनु धातु से मनुष्य शब्द आया है। जिसका अर्थ है - मन प्रधान प्राणी। प्राणी जगत में एकमात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जिसका मन प्रधान है। शेष सभी प्राणियों के लिए शरीर प्रधान है। चूंकि मन का कार्य मननशीलता है। इसलिए मनुष्य शब्द का अर्थ हुआ, मननशील प्राणी। इससे सरल शब्द में चिन्तनशील अथवा विचारशील भी कह देते हैं। अतः मनुष्य के धर्म को समझने के मनुष्य शब्द की परिभाषा पर जोर देना आवश्यक है। मननशीलता मनुष्य का प्रधान गुणधर्म है। इसलिए मनुष्य की मननशीलता की ओर चलते हैं। मनुष्य की जन्मजात मननशीलता समग्र है। किसी भी प्रकार का भेद जनित मननशीलता मनुष्य की नहीं है। अतः जहाँ अपना-पराया, तेरा-मेरा का भेद है, वहाँ मनुष्य नहीं है। अतः मनुष्य का धर्म सार्वभौमिक एवं सर्वांगीण है। उसमें जाति, क्षेत्र, साम्प्रदायिक भेद जनित करना मनुष्य के धर्म छेद करना अथवा सेंधमारी है। अतः कोई जाति, देश, क्षेत्र तथा साम्प्रदाय मनुष्य का स्वधर्म नहीं है। मनुष्य का स्वधर्म मानव धर्म है। जिसे प्रथम स्तर पर पर हम मानवता कहते हैं। लेकिन सूक्ष्म दार्शनिक अर्थ में मानवता भी मनुष्य के स्वधर्म में नहीं समाती है। उसके लिए समग्र सृष्टि अपनी हैं। जैव तथा अजैव सत्ता उसकी अपनी है। अतः सभी के गुणधर्म की रक्षा करना ही मनुष्य का स्वधर्म है। अतः मानव धर्म के लिए उपयुक्त नवीन शब्द नव्य मानवता अथवा नव्य मानवतावाद दिया गया है। अतः हम कह सकते हैं कि मनुष्य का स्वधर्म नव्य मानवतावाद है। जिसमें सृष्ट व असृष्ट जगत के सभी तथ्य तथा उनके प्रति उत्तरदायित्व समाविष्ट है। अतः मनुष्य के स्वधर्म को परिभाषित करते समय जाति, क्षेत्र अथवा सम्प्रदाय का बोध कराने वाली युक्ति मनुष्य शब्द के साथ छेड़छाड़ करती है। अतः इस प्रकार के विषय के सभी तथाकथित धर्म के नाम परिचय देने वाले शब्द मनुष्य के परधर्म है, जो उसकी पहचान जाति, क्षेत्र एवं सम्प्रदाय के रूप में देते हैं। चूंकि हम समझ गए है कि मनुष्य का स्वधर्म क्या है, इसलिए मानव धर्म के बारें में विस्तार से जानना हमारा कर्तव्य है।
मानव धर्म - धर्म मनुष्य को परिपूर्णता के पथ पर ले चलता है। इसलिए संस्कृत में वृहद प्रणिधान को मनुष्य का धर्म बताया गया है। वृहद अर्थात विराटता अथवा समग्र व्यापकता। अतः संकीर्णता में मानव धर्म नहीं रह सकता है। मानव धर्म को रहने के लिए जातिगत, क्षेत्रगत, साम्प्रदायिकगत संकीर्णता से उपर उठना होगा। मानव धर्म अर्थात मनुष्य को समग्र व्यापकता के पथ ले चलने वाले तथ्य मानव धर्म है। अतः शास्त्र में मानव धर्म के चार स्तंभ निर्धारित किये है। यह विस्तार, रस, सेवा एवं तद स्थित है। अब हम इन चारों को समझने की कोशिश करते हैं।
विस्तार - मनुष्य वृहद बनना चाहता है। इसे संस्कृत में विराट तथा अंग्रेजी में Greatness कहते हैं। मनुष्य के धर्म का प्रथम स्तंभ विस्तार हैं। चूंकि मनुष्य का शरीरगत विस्तार एक विज्ञान है। अतः उसे अधिक विस्तार नहीं दिया जा सकता है। मन का विस्तार संभव है। अतः मन को सभी प्रकार की कुंठा से उपर उठाना ही मनुष्य का के मन विस्तार देना है। मनुष्य के मन को इतना बड़ा बनाया जा सकता है कि उसमें किसी भी प्रकार संकीर्णता नहीं रहती है। जो जातिगत , क्षेत्रगत एवं सम्प्रदायगत चिन्तन में संभव नहीं है। आत्मा समग्र शब्द है। इसलिए उसका विस्तार नहीं किया जाता है। जब मन माया के बंधन से हटकर आत्मा में विलीन हो जाता है, उस अवस्था का नाम परमात्मा है। इसलिए आत्मा सो परमात्मा कहा जाता है।
रस - मानव धर्म का दूसरा स्तंभ रस को बताया गया है। यदि मनुष्य का विस्तार रसमय नहीं है तो निरस विस्तार कोई नहीं चाहेगा। अतः मनुष्य के विस्तार के साथ रस अथवा आनन्द का होना आवश्यक है। अतः मनुष्य के मन की गति का विज्ञान कहता है कि प्रत्येक मनुष्य अनन्त सुख की ओर गतिमान है। संस्कृत में अनन्त सुख के आनन्द शब्द का व्यवहार हुआ। अतः मनुष्य के व्यापकता की वह यात्रा जो मनुष्य आनन्दमय परिवेश दे। जिसे भक्ति शास्त्र में रस विज्ञान के द्वारा खुब अधिक स्पष्ट किया है। अतः कहा जाता है कि जिस भजन में रस न हो वह भजन नहीं गाना चाहिए। भेद में आनन्द नहीं मिलता है।
सेवा - मानव धर्म का चतुर्थ तृतीय स्तंभ सेवा है। आनन्दमय विस्तार की यात्रा को जब सेवा से सिंचा जाता है तब धर्म वास्तविक रहता है। अन्यथा काल्पनिक अथवा पलायनवादी हो जाता है। अतः सेवा मनुष्य का धर्म व्रत है। नृयज्ञ, भूतयज्ञ, देवयज्ञ एवं आध्यात्मिक यज्ञ के नाम से मनुष्य की सेवा को सभी प्रकार की संकीर्णता मुक्त करके समझाया गया है। यज्ञ शब्द का अर्थ कर्म है। हवन, आहुति इत्यादि से यज्ञ का संबंध एक मत की अवधारणा है।जिसका सेवा से संबंध नहीं है। शरीर से, धन से, रक्षा करके तथा सत् शिक्षा देकर सतपथ दिखाकर सेवा की जाती है,इसलिए सेवा के चार वर्ग बताए गए हैं। अतः सेवा मनुष्य निर्माण का तृतीय स्तंभ है। मानव धर्म का तृतीय स्तंभ है।
तदस्थिति - संस्कृत शब्द तदस्थिति का अर्थ वैसे स्थिति जैसी मनुष्य की होनी चाहिए। मनुष्य की स्थिति है। पूर्णत्व की प्राप्ति। पूर्णत्व को आध्यात्म में परमात्मा पद कहा गया है। अतः नर को नारायण रुप में प्रकट करना तदस्थिति है। धर्म, मनुष्य की वह गति है जो उसे भगवान बना देती है। अतः भगवान स्थिति प्राप्त करने को धर्म का चतुर्थ स्तंभ बताया गया है। अतः कहा गया है जहाँ भेद है वहाँ भगवान रहते हैं। अतः भगवान बनने के लिए भेद रहित अवस्था को तदस्थिति कहा गया है।
मनुष्य का धर्म मानवधर्म के चतुष्पाद है। जो विस्तार, रस, सेवा एवं तदस्थिति के नाम से जाने जाते हैं। चूंकि मनुष्य की गति पूर्णत्व की है। जिसे सरल अर्थ में भगवद प्राप्ति है अतः संस्कृत में मानव धर्म को भावगत अर्थ में भागवत धर्म कहते हैं। भागवत शब्द का अर्थ वैष्णव संप्रदाय अथवा हिन्दू इत्यादि से लेना नही चाहिए। भगवद्गीता अथवा कोई भी शास्त्र समग्र मानवता के लिए लिखे गए हैं, उन्हें संस्कृत में भागवत शास्त्र कहते हैं। जहाँ संकीर्णता मुक्त है, वही भागवत धर्म, भागवत शास्त्र रहते हैं। भागवत धर्म ही मानव धर्म है, ऐसा नहीं है - मनुष्य के धर्म का दुनिया सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत में भागवत अर्थ में भागवत धर्म कहा गया है। अतः मनुष्य के धर्म के लिए संस्कृत शब्द भागवत धर्म है। भागवत धर्म में मनुष्य की सोच नव्य मानवतावादी रहती है। जहाँ नव्य मानवतावाद से कम स्वीकार्य नहीं है।