विचित्रता प्रकृति का धर्म है। अत: प्रकृति के रहते सबकुछ समान नहीं हो सकता है। जो समानता की बात करते हैं, वे प्राकृत धर्म के विरोध में जा रहे हैं। इनकी बातें सबको ध्वस्त करने वाली है। प्रउत दर्शन की यह घोषणा, विश्व के सभी अर्थशास्त्रियों एवं समाजशास्त्रियों के लिए विचारणीय है। आज का विश्व स्वतंत्रता, समानता एवं भातृत्व के आदर्श पर खड़ा है। आर्थिक जगत में खुली अर्थव्यवस्था एवं मुक्त बाजार का प्रचलन जोरों पर है। इसलिए 'विचित्रता प्रकृति का धर्म है।' यह सबके लिए समझने योग्य विषय है।
आनन्द मार्ग एक अखंड अविभाज्य मानव समाज चाहता है, जो एक चुल्हा एक चौका तथा विश्व बंधुत्व की नारे में समाया हुआ है। वही प्रउत की प्रकृति के धर्म वाली घोषणा अवश्य ही विचारणीय है।
प्रउत, विश्व के लिए अर्थव्यवस्था निर्माण करने चला है जबकि आनन्द मार्ग विश्व के लिए समाज का निर्माण कर रहा है। अर्थव्यवस्था का संबंध मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं व व्यक्ति के काम करने के सामर्थ्य से है। प्रउत ने सर्वप्रथम समाज चक्र देकर व्यक्ति की क्षमताओं को वर्गीकृत करता है तथा बता है कि युग सभी वर्णों की प्रधानता को देखते हुए आगे बढ़ता है। इसलिए मनुष्य मनुष्य में भेद सृष्ट करने की एक भी लकीर समाज धर्म के प्रतिकूल है। अत: प्रकृति की विचित्रता को प्राकृत धर्म बताने वाले अध्याय का गहनता से अध्ययन आवश्यक है। विश्व को अपनी अर्थव्यवस्था का निर्माण करते समय प्राकृत धर्म, युग धर्म, नागरिक धर्म एवं समाज धर्म इत्यादि सभी का आदर करना होता है। प्रउत ऐसा करके अपनी जिम्मेदारी निभाई है।
प्रउत की मूलनीति से
१. प्राकृत धर्म - विचित्रता प्राकृत धर्म है। इसलिए अर्थव्यवस्था के निर्माण में इसको अंगीकार करते हुए सबके लिए एक समान व्यवस्था की कल्पना से अपने दूर रखता है। अर्थव्यवस्था को ऐसी माकूल व्यवस्था का निर्माण करना होता है, जहाँ बहुरंगी विविधता की यह सृष्टि एकता के सूत्र में बंध जाये तथा विभिन्न रंगों फूलों को एकता के सूत्र में पिरोने वाली माला प्रउत है।
२. युग धर्म - अर्थव्यवस्था समाज का अंग है तथा समाज युग का आदर करता है इसलिए युग धर्म का सम्मान करना अर्थव्यवस्था का दायित्व है। युग धर्म कहता है कि रहे न कोई भूखा नंगा ऐसा एक समाज बनेगा। इसलिए प्रउत ने युगस्य सर्वनिम्नप्रायोजनं सर्वेषविधेयम् माना है। प्रकृति कभी युग की सभी निम्न आवश्यकता के साथ छेड़छाड़ नहीं करती है। विचित्रता प्रकृति का धर्म है तो युग का धर्म है कि अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा सब के लिए सुलभ एवं सहज हो जाए ऐसे व्यवस्था करना। युग अर्थव्यवस्था से न्यूनतम मजदूरी एवं क्रयशक्ति का अधिकार मांगता हैै। विचित्रता मूलक प्रकृति युग की इस मांग आदर करते हुए, ऐसी व्यवस्था देती है। जिससे व्यक्ति की गरिमा तथा समाज का दायित्व दोनों ही सुरक्षित रहे।
३. नागरिक धर्म - समाज का विकास नागरिक की कार्यक्षमता पर टिका हुआ है। इसलिए व्यक्ति की कार्य क्षमता का आदर करना होता है। नागरिक का धर्म है कि अपने गुणों का सम्पूर्ण उपयोग करें तथा समाज का दायित्व है उसका आदर करें। अत: प्रउत कहता है कि अतिरिक्तं प्रदातव्यं गुणानुपातेन। प्रउत अतिरिक्त संपदा गुण के अनुपात में वितरित करके नागरिक को अपने धर्म के रास्ते से भटकने नहीं देता है। यदि नागरिक अपने निजी धर्म से भटक जाए तो सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था डावांडोल हो जाएगी। इसलिए प्रउत नागरिक धर्म का सम्मान करता है तथा गुणीजन को अतिरिक्त संंपदा में से उनके गुण के अनुपात में कुछ विशेष देता है।
४. समाज धर्म - प्रगति समाज का धर्म है। इसके बिना समाज का जीवन संकट में है। इसलिए प्रउत कहता है कि सर्वनिम्नमानवर्धनं समाजजीवलक्षणम्। साधारण मनुष्य की निम्न आवश्यकता का जो मान स्थिरीकृत है, गुणियों को उससे कुछ अधिक अवश्य मिलेगा, किन्तु इस निम्नतम मान को ऊपर उठाने की भी अन्तहीन चेष्टा करनी होगी। यह समाज का जीवित रहने का लक्षण हैं। यह चेष्टा ही मनुष्य की जागतिक ऋद्धि दिलाता है। प्रउत समाज के निम्नतम मान में वृद्धि करता रहता है।
प्रउत में प्रकृति, युग, नागरिक एवं समाज चारों का ध्यान रखा गया है। इसलिए प्रउत दर्शन दुनिया का निराला, अनोखा एवं विचित्र दर्शन है। जो आध्यात्मिकता को सामाजिक आर्थिकता का तथा सामाजिक आर्थिकता को आध्यात्मिक पाठ पढ़ाता है। बिना नैतिकता के इसकी सिद्धी नहीं होेती है। इसलिए प्रउत ने समाज की धूरि में सदविप्र को बैठाया है। प्रउत का सैनिक सदविप्र बनकर समाज में आदर्श स्थापित करता है।
विचित्रता प्रकृति का धर्म है, समान कभी नहीं हो सकता। लेकिन मनुष्य को अपनी अर्थव्यवस्था को संगच्छध्वं के पथ पर चलना है। इसलिए व्यक्ति की
गरिमा तथा समाज के आदर्श को सुरक्षित रखते हुए। प्रउत अर्थव्यवस्था का निर्माण हुआ। पूंजीवाद का व्यक्ति एवं समाजवाद का समाज दोनों ही प्रउत में सुरक्षित एवं प्रगतिशील है। इतना ही नहीं यह प्रगतिशील उपयोग तत्व भी है।
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श्री आनन्द किरण "देव"
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