समाजादेशेन बिना धनसञ्चय: अकर्तव्य: (Samajadeshen bina dhansanchayah Akartavyah)


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प्रउत प्रथम मूल सिद्धांत एवं आनन्द सूत्रम का 5/12 वां सूत्र "समाजादेशेन बिना धनसञ्चय: अकर्तव्य:"  कहता है कि समाज के आदेश के बिना धन का सञ्चय करना अकर्तव्य यानि अधर्म है। आज के युग में कितने अधर्मियों के हाथों में राजनीति, अर्थनीति, धर्मनीति एवं समाजनीति की‌ डोर है? उनको गिनना भी मुश्किल है। उस युग में प्रउत एक चिंगारी बनकर युग को चुनौती देने के खड़ा है। इस चुन्नौती को समझना ही आज का‌ विषय है। 

धन सञ्चय करने की नहीं चलयमान रहने की वस्तु है। जिससे समाज एवं व्यक्ति दोनों की ऋद्धि होती है। व्यक्ति अपनी तिजोरी में धन को इसलिए बंद करके रखता है कि उस अपने कर्तव्य धर्म पर भरोसा नहीं। वह‌ आज की नहीं कल की चिंता अधिक करता है। इसका कारण है कि समाज ने उसको यही पाठ पढ़ाया है कि धन बुरे वक्त में काम आता है। लेकिन शास्त्र कहते है कि‌ मनुष्य का सच्चा साथी धर्म है। वह उसके अच्छे एवं बुरे वक्त में उसकी रक्षा करता है। धर्म एवं धन के गुंथी व्यक्ति को अपने में उलझाकर रख देते हैं। प्रउत तो यह भी कहता है कि अनाधिकृत धन संग्रहण करना समाज विरोधी है। यह काम आहरण एवं संचय दोनों के लिए सटीक है। आज के युग आहरण किया गया धन भ्रष्टाचार, रिश्वत एवं घूसखोरी इत्यादि नाम से चिन्हित है तथा अनाधिकृत संचय जमाखोरी, लूट, कर चोरी इत्यादि में दिखा जाता है। ऐसे दोनों ही प्रकार के अनाधिकृत धन को कालाधन नाम दिया गया है। जिसे  अवैधानिक एवं अपराध की‌ श्रेणी में रखा गया है। यहाँ तक प्रउत का दर्द एवं आधुनिक युग के दर्द में एकरूपता है। कहानी निर्णायक मोड़ यहाँ से लेती है कि कानून सहमत धन संचय की बेलगाम छूट को भी प्रउत ने समाज के लिए सिरदर्द चिन्हित किया है जबकि आधुनिक युग को इससे एतराज नहीं है। प्रउत कहता है धन‌ के  उपभोग पर सबका अधिकार है लेकिन धन‌ अपव्यय पर किसी को अधिकार नहीं है। अत: उपभोग के अतिरिक्त संपदा पर समाज का अधिकार है। समाज के वस्तु व्यक्ति की तिजोरी में रहना समाज के लिए सिरदर्द की वस्तु है। इसका इलाज है। आर्थिक क्षेत्र को पारदर्शी एवं संयमित बनाना। इसको आर्थिक लोकतंत्र नाम अच्छी तरह समझा जा सकता है। आर्थिक जगत का संचालन पूर्णतया लोकतांत्रिक रीति हो धन‌ की अंधी लूट खत्म हो जाएगी। यह काम अपनी क्षमता के अनुसार तथा कमाई तुम्हारी जरूरत पर आधारित नहीं है। इसलिए इसको समझने के लिए प्रउत दूसरे मूल सिद्धांत के पास जाते हैं। 

आनन्द सूत्रम 5/13 वां सूत्र स्थूलसूक्ष्मकारणेषु चरमोपयोग: प्रकर्तव्य: विचारसमर्थितं वण्टनञ्च। प्रउत के इस सिद्धांत के अनुसार भौतिक(धरती), मानसिक(पाताल) एवं आध्यात्मिक(आकाश) में जो भी संपदा उपलब्ध है उसका चरम उत्कर्ष करके विचार समर्थित बंटन करना होगा। चरम उत्कर्ष का अर्थ सोलह आना उपभोग में लाना तथा विचारपूर्ण वितरण का अर्थ है। न्यूनतम आवश्यकता पूर्ण करने के बाद गुणीजन को गुण के अनुपात में देना है। जिससे योग्यता में समाज के प्रति समर्पण एवं काम के प्रति लगाव बना रहता है। योग्यता को अतिरिक्त संपदा में से कुछ विशेष मिलते रहने से उनके योग्यता समाज हित में लगी रहेगी। अत: समाज का दायित्व है कि व्यष्टि एवं समष्टि का उपयोग करे। इसके उपयोग में समाज के पास सुस्पष्ट नीति होना आवश्यक है। उसके अभाव कार्य में शिथिलता आ सकती है। इसलिए प्रउत तीसरे मूल सिद्धांत के पास जाना होगा। 

आनन्द सूत्रम 5/14 वां सूत्र व्यष्टिसमष्टिशारीरमानसाध्यात्मिकसंभवनायां चरमोपयोगश्च। व्यष्टि एवं समष्टि की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक संभावनाओं का पता लगाकर चरम उपयोग करना है। यहाँ व्यक्ति एवं समाज को एक इकाई मानता है। इसलिए व्यष्टि व समष्टि दोनों के दायित्व को चित्रित करता है। समाज एवं व्यक्ति में पिता पुत्र का संबंध विकसित किया है। समष्टि का कल्याण व्यष्टि में तथा व्यष्टि का कल्याण समष्टि में निहित है। इसलिए व्यष्टि एवं समष्टि की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षमताएं किसी भी हालत में अनुपयोगी नहीं रहे। इसका उपयोग ही नहीं चरम उपयोग करना है। समष्टि जगत प्राप्त उत्पाद का चरम उपयोग एवं उत्पादनकर्ता व उपभोक्ता की क्षमता का भी चरम उपयोग होना चाहिए। शत प्रतिशत रोजगार एवं व्यक्ति की सम्पूर्ण दिनचर्या कर्म को समर्पित होनी चाहिए। समष्टि अर्थात सार्वजनिक क्षेत्र अथवा सभी प्रकार संस्थान को भी सदैव क्रियाशील रहना चाहिए। समष्टि को व्यष्टि से काम लेना है इसकी नीति समझने के प्रउत के चौथे सिद्धांत को समझते हैं। 

आनन्द सूत्रम 5/15 वां सूत्र स्थूलसूक्ष्मकारणोपयोगा:  सुसन्तुलिता: विधेया:। व्यष्टि की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्ति के उपयोग के लिए जो नीति प्रयोग में लाई जाएंगी उसे सुसन्तुलित नीति कहा जाता है। प्रउत यह नीति समाज को विधेय अर्थात प्रदान करता है। अन्य शब्द में समाज इसको प्रउत से प्राप्त करता है। विधेय को आवश्यकता के अर्थ में भी समझा जा सकता है। शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक में से व्यष्टि के पास जो योग्यता है, उसका उपयोग समाज करेगा। अर्थात रोजगार देना समाज का दायित्व है, रोजगार ढूँढना व्यष्टि की तड़प नहीं है। यदि किसी व्यष्टि उपरोक्त तीनों अथवा दो होने पर उपयोग करने का एक क्रम अधिक से कम की ओर आध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक है। आध्यात्मिक शक्ति सबसे अधिक कार्य करा सकती है। मुर्दे में जान फूंक सकती है। मानसिक शक्ति शारीरिक शक्ति की तुलना अधिक प्रभावशाली है इसलिए उपयोग के क्रम दूसरे स्थान पर है। उपयोग की इस नीति मात्र संतुलित ही नहीं सुसंतुलित बनाकर पेश किया गया है। इसमें कोई गलती नही होनी चाहिए। अंत में युग प्रउत से प्रश्न करता है कि क्या हर समय, हर परिस्थिति तथा हरेक के लिए यही नीति रहेगी? प्रउत का उत्तर है नहीं। तो क्या? इसके प्रउत का पांचवा मूल सिद्धांत आया है। 

आनन्द सूत्रम 5/16 वां सूत्र देशकालपात्रै: उपयोगा: परिवर्त्तन्ते ते उपयोगा: प्रगतिशीला: भवेयु:।  प्रउत कहता है देश, काल एवं पात्र के अनुसार उपयोग में परिवर्तन होना, ऐसा उपयोग प्रगतिशील उपयोग होता है। यदि ऐसा नहीं होता है तो वे लकीर के फकीर की तरह पुरातन के कंकाल को ही जकड़ कर रखना चाहते है। इसलिए वे समाज में खारिज हो जाते है। हम जानते हैं कि जो खारिज हो जाता है। उसे फैक दिया जाता है अथवा नष्ट कर दिया जाता है। यदि हमें नष्ट नहीं होना है तो देश, काल व पात्र के अनुसार नीति में परिवर्तन करना है। यहाँ एक बात स्मरण रखनी आवश्यक है नीतियां परिवर्तित हो जाती है लेकिन सिद्धांत कभी नहीं बदलते हैं। 

संचय नीति उत्कर्ष नीति, वितरण नीति व‌ उपयोग नीति‌ (चरम उपयोग,सुसंतुलित उपयोग एवं परिवर्तनशील उपयोग) का जिसको स्पष्ट भान है, वह सर्वजन हितार्थ सर्वजन सुखार्थ प्रगतिशील उपयोग तत्व को प्रचारित करने में प्रउत प्रणेता का साथ देता है।

संचय नीति - समाज द्वारा नियंत्रित। 

उत्कर्ष नीति - सोलह आना उत्कर्ष पर आधारित। 

वितरण नीति - विवेकपूर्ण वितरण पर आधारित। 

उपयोग नीति - चरम उपयोग, सुसंतुलित उपयोग एवं परिवर्तनशील उपयोग

चरम उपयोग - संभावना का पता लगाकर क्षमताओं का अधिकतम उपयोग करता है। 

सुसंतुलित उपयोग - संभावना में सामंजस्य स्थापित करता है। 

परिवर्तनशील उपयोग - उपयोग को प्रगतिशील बनाया है। 
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श्री आनन्द किरण "देव"
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