स्वधर्म एवं परधर्म                     (Self dharm and other dharm)

      आनन्द किरण
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आज विषय मिला है -स्वधर्म एवं परधर्म। स्व: शब्द का अर्थ अपना तथा पर शब्द का अर्थ पराया। अतः सरल अर्थ में विषय हो गया अपना धर्म एवं पराया धर्म। धृ धातु के मन प्रत्यय लगने से धर्म शब्द बना है। जिसका अर्थ सत्ता के अनुरूप भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तथ्यों को धारण करना। कुछ उदाहरण के द्वारा विषय थोड़ा सरल बनाया जा सकता है। पूजा करने की वृत्ति धारण करने वाला पूजारी कहलाता है। उसी प्रकार तपस्या वृत्ति वाला तपस्वी, सैन्य वृत्ति वाला सैनिक, चौर्य वृत्ति वाला चोर, डाक डालने वाला डाकू। अतः धर्म सदैव स्व: से जुड़ा रहता है। जब धर्म को स्व: से पृथक कर दिया जाए तो स्व: छिन्न भिन्न हो जाता है। अब हमने स्व, पर एवं धर्म शब्द को जान लिया इसलिए विषय को अधिक अच्छी तरह से समझ सकते हैं। 

स्व शब्द‌ -  स्व: अथवा स्वयं का अथवा अपना शब्द पर ओर अधिक समझने की कोशिश करते हैं। अपना अर्थात मेरा एक वचन में तथा हमारा बहुवचन में। सबसे पहले एक वचन पर ध्यान देते अपना अर्थात मेरा। अतः वाक्य पूरा हुआ मेरा धर्म। प्रश्न मेरा धर्म क्या है? उत्तर - सबसे पहले बताओ कि मैं कौन हूँ। जब तक मनुष्य 'मैं' अर्थात स्वयं से परिचित नहीं है तब तक 'मेरा धर्म क्या है' का उत्तर प्राप्त नहीं कर सकता है। अतः 'मैं' को समझने के लिए निकलते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि 'मैं' का सूक्ष्मत्तम एवं गहनतम अर्थ है लेकिन हमारा विषय आध्यात्मिक नहीं, सामाजिक है, इसलिए सामाजिक दृष्टि से ही मैं समझने की कोशिश करेंगे। सामाजिक अथवा जागतिक दृष्टि से 'मैं' मनुष्य के लिए व्यवहार हुआ है। अर्थात मैं मनुष्य हूँ। चूंकि हम गाय, भैंस सिंह इत्यादि नहीं है। इसलिए 'मैं' का अर्थ मनुष्य ही हुआ। अर्थात मनुष्य का धर्म मेरा अपना धर्म स्वधर्म हुआ। जो धर्म मनुष्य का नहीं है, वह पराया धर्म अर्थात परधर्म हुआ। 

मनुष्य का धर्म क्या है? 

 चूंकि मनुष्य का धर्म ही मेरे तथा हमारे लिए स्वधर्म है इसलिए विषय कहता है कि मनुष्य का धर्म क्या है समझ लिजीए स्वधर्म का सबसे बड़ा शोधपत्र तैयार हो जाएगा। सर्वप्रथम मनुष्य शब्द का अर्थ समझते हैं - मनु धातु से मनुष्य शब्द आया है। जिसका अर्थ है - मन प्रधान प्राणी। प्राणी जगत में एकमात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जिसका मन प्रधान है। शेष सभी प्राणियों के लिए शरीर प्रधान है। चूंकि मन का कार्य मननशीलता है। इसलिए मनुष्य शब्द का अर्थ हुआ, मननशील प्राणी। इससे सरल शब्द में चिन्तनशील अथवा विचारशील भी कह देते हैं। अतः मनुष्य के धर्म को समझने के मनुष्य शब्द की परिभाषा पर जोर देना आवश्यक है। मननशीलता मनुष्य का प्रधान गुणधर्म है। इसलिए मनुष्य की मननशीलता की ओर चलते हैं। मनुष्य की जन्मजात मननशीलता समग्र है। किसी भी प्रकार का भेद जनित मननशीलता मनुष्य की नहीं है। अतः जहाँ अपना-पराया, तेरा-मेरा का भेद है, वहाँ मनुष्य नहीं है। अतः मनुष्य का धर्म सार्वभौमिक एवं सर्वांगीण है। उसमें जाति, क्षेत्र, साम्प्रदायिक भेद जनित करना मनुष्य के धर्म छेद करना अथवा सेंधमारी है। अतः कोई जाति, देश, क्षेत्र तथा साम्प्रदाय मनुष्य का स्वधर्म नहीं है। मनुष्य का स्वधर्म मानव धर्म है। जिसे प्रथम स्तर पर पर हम मानवता कहते हैं। लेकिन सूक्ष्म दार्शनिक अर्थ में मानवता भी मनुष्य के स्वधर्म में नहीं समाती है। उसके लिए समग्र सृष्टि अपनी हैं। जैव तथा अजैव सत्ता उसकी अपनी है। अतः सभी के गुणधर्म की रक्षा करना ही मनुष्य का स्वधर्म है। अतः मानव धर्म के लिए उपयुक्त नवीन शब्द नव्य मानवता अथवा नव्य मानवतावाद दिया गया है। अतः हम कह सकते हैं कि मनुष्य का स्वधर्म नव्य मानवतावाद है। जिसमें सृष्ट व असृष्ट जगत के सभी तथ्य तथा उनके प्रति उत्तरदायित्व समाविष्ट है। अतः मनुष्य के स्वधर्म को परिभाषित करते समय जाति, क्षेत्र अथवा सम्प्रदाय का बोध कराने वाली युक्ति मनुष्य शब्द के साथ छेड़छाड़ करती है। अतः इस प्रकार के विषय के सभी तथाकथित धर्म के नाम परिचय देने वाले शब्द मनुष्य के परधर्म है, जो उसकी पहचान जाति, क्षेत्र एवं सम्प्रदाय के रूप में देते हैं। चूंकि हम समझ गए है कि मनुष्य का स्वधर्म क्या है, इसलिए मानव धर्म के बारें में विस्तार से जानना हमारा कर्तव्य है। 

मानव धर्म - धर्म मनुष्य को परिपूर्णता के पथ पर ले चलता है। इसलिए संस्कृत में वृहद प्रणिधान को मनुष्य का धर्म बताया गया है। वृहद अर्थात विराटता अथवा समग्र व्यापकता। अतः संकीर्णता में मानव धर्म नहीं रह सकता है। मानव धर्म को रहने के लिए जातिगत, क्षेत्रगत, साम्प्रदायिकगत संकीर्णता से उपर उठना होगा। मानव धर्म अर्थात मनुष्य को समग्र व्यापकता के पथ ले चलने वाले तथ्य मानव धर्म है। अतः शास्त्र में मानव धर्म के चार स्तंभ निर्धारित किये है। यह विस्तार, रस, सेवा एवं तद स्थित है। अब हम इन चारों को समझने की कोशिश करते हैं। 

विस्तार - मनुष्य वृहद बनना चाहता है। इसे संस्कृत में विराट तथा अंग्रेजी में Greatness कहते हैं। मनुष्य के धर्म का प्रथम स्तंभ विस्तार हैं। चूंकि मनुष्य का शरीरगत विस्तार एक विज्ञान है। अतः उसे अधिक विस्तार नहीं दिया जा सकता है। मन का विस्तार संभव है। अतः मन को सभी प्रकार की कुंठा से उपर उठाना ही मनुष्य का के मन विस्तार देना है। मनुष्य के मन को इतना बड़ा बनाया जा सकता है कि उसमें किसी भी प्रकार संकीर्णता नहीं रहती है। जो जातिगत , क्षेत्रगत एवं सम्प्रदायगत चिन्तन में संभव नहीं है। आत्मा समग्र शब्द है। इसलिए उसका विस्तार नहीं किया जाता है। जब मन माया के बंधन से हटकर आत्मा में विलीन हो जाता है, उस अवस्था का नाम परमात्मा है। इसलिए आत्मा सो परमात्मा कहा जाता है। 

रस - मानव धर्म का दूसरा स्तंभ रस को बताया गया है। यदि मनुष्य का विस्तार रसमय नहीं है तो निरस विस्तार कोई नहीं चाहेगा। अतः मनुष्य के विस्तार के साथ रस अथवा आनन्द का होना आवश्यक है। अतः मनुष्य के मन की गति का विज्ञान कहता है कि प्रत्येक मनुष्य अनन्त सुख की ओर गतिमान है। संस्कृत में अनन्त सुख के आनन्द शब्द का व्यवहार हुआ। अतः मनुष्य के व्यापकता की वह यात्रा जो मनुष्य आनन्दमय परिवेश दे। जिसे भक्ति शास्त्र में रस विज्ञान के द्वारा खुब अधिक स्पष्ट किया है। अतः कहा जाता है कि जिस भजन में रस न हो वह भजन नहीं गाना चाहिए। भेद में आनन्द नहीं मिलता है। 

सेवा - मानव धर्म का चतुर्थ तृतीय स्तंभ सेवा है। आनन्दमय विस्तार की यात्रा को जब सेवा से सिंचा जाता है तब धर्म वास्तविक रहता है। अन्यथा काल्पनिक अथवा पलायनवादी हो जाता है। अतः सेवा मनुष्य का धर्म व्रत है। नृयज्ञ, भूतयज्ञ, देवयज्ञ एवं आध्यात्मिक यज्ञ के नाम से मनुष्य की सेवा को सभी प्रकार की संकीर्णता मुक्त करके समझाया गया है। यज्ञ शब्द का अर्थ कर्म है। हवन, आहुति इत्यादि से यज्ञ का संबंध एक मत की अवधारणा है।जिसका सेवा से संबंध नहीं है। शरीर से, धन से, रक्षा करके तथा सत् शिक्षा देकर सतपथ दिखाकर सेवा की जाती है,इसलिए सेवा के चार वर्ग बताए गए हैं। अतः सेवा मनुष्य निर्माण का तृतीय स्तंभ है। मानव धर्म का तृतीय स्तंभ है। 

तदस्थिति - संस्कृत शब्द तदस्थिति का अर्थ वैसे स्थिति जैसी मनुष्य की होनी चाहिए। मनुष्य की स्थिति है। पूर्णत्व की प्राप्ति। पूर्णत्व को आध्यात्म में परमात्मा पद कहा गया है। अतः नर को नारायण रुप में प्रकट करना तदस्थिति है। धर्म, मनुष्य की वह गति है जो उसे भगवान बना देती है। अतः भगवान स्थिति प्राप्त करने को धर्म का चतुर्थ स्तंभ बताया गया है। अतः कहा गया है जहाँ भेद है वहाँ भगवान रहते हैं। अतः भगवान बनने के लिए भेद रहित अवस्था को तदस्थिति कहा गया है। 

मनुष्य का धर्म मानवधर्म के चतुष्पाद है। जो विस्तार, रस, सेवा एवं तदस्थिति के नाम से जाने जाते हैं। चूंकि मनुष्य की गति पूर्णत्व की है। जिसे सरल अर्थ में भगवद प्राप्ति है अतः संस्कृत में मानव धर्म को भावगत अर्थ में भागवत धर्म कहते हैं। भागवत शब्द का अर्थ वैष्णव संप्रदाय अथवा हिन्दू इत्यादि से लेना नही चाहिए। भगवद्गीता अथवा कोई भी शास्त्र समग्र मानवता के लिए लिखे गए हैं, उन्हें संस्कृत में भागवत शास्त्र कहते हैं। जहाँ संकीर्णता मुक्त है, वही  भागवत धर्म, भागवत शास्त्र रहते हैं। भागवत धर्म ही मानव धर्म है, ऐसा नहीं है - मनुष्य के धर्म का दुनिया सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत में भागवत अर्थ में भागवत धर्म कहा गया है। अतः मनुष्य के धर्म के लिए संस्कृत शब्द भागवत धर्म है। भागवत धर्म में मनुष्य की सोच नव्य मानवतावादी रहती है। जहाँ नव्य मानवतावाद से कम स्वीकार्य नहीं है।
एक आदर्श राज्य - रामराज्य  (An ideal state‌ - Ramrajya)
रामराज्य क्या एवं कैसे
भारतवर्ष में आदर्श राज्य की परियोजना का नाम 'रामराज्य' दिया गया है। इस परियोजना का निर्माण संभवतया महर्षि वशिष्ठ गुरुकुल के आचार्यों, तात्विकों एवं पुरोधाओं द्वारा किया गया था। जिसमें एक आदर्श व्यक्ति, आदर्श परिवार, आदर्श राज्य एवं आदर्श समाज का चित्रण गया था। उसके आधार पर नव भारतवर्ष का संगठन होना है। आज हम उसी आदर्श व्यवस्था 'रामराज्य' को समझने की कोशिश करेंगे। 

(१) रामराज्य का प्रथम संकल्प आदर्श व्यक्ति का निर्माण :- समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार में सर्वप्रथम व्यक्ति का निर्माण होता है। यद्यपि व्यक्ति की समाज में गुरुत्व भूमिका है तथापि व्यक्ति को समाज छोटी इकाई का दर्जा नहीं मिला है। क्योंकि एक व्यक्ति समाज नहीं होता है। यह भी सत्य है कि व्यक्तियों से मिलकर समाज बनता है। व्यक्ति का निर्माण आदर्श व्यवस्था की प्रथम योजना है। रामराज्य में राम को आदर्श रूप में स्थापित कर व्यक्ति के निर्माण की योजना का विकास किया गया था। यदि हमें नायक की भूमिका में रहना अथवा मिली है तो राम बनो। राम सहजता, प्रेम, मधुरता एवं महानता की प्रतिमूर्ति है। इसके अलावा यदि हमें सह नायक की भूमिका में रहना है तो पिता के रूप दशरथ, माता के रूप में कौशल्या, भाई के रूप भरत तथा पत्नी के रूप सीता के आदर्श को ग्रहण करना चाहिए। इसके अलावा आचार्य के रूप में महर्षि वशिष्ठ, मंत्री के रूप आर्यसुमन, ससूर के रूप में जनक तथा प्रजा के रूप अयोध्यावासी आदर्श नागरिक की भूमिका को आदर्श रूप में चित्रित किया गया है। इस प्रकार रामराज्य नामक परियोजना का प्रथम संकल्प व्यक्ति निर्माण है।  अतः रामराज्य नामक परियोजना कहती है कि हमारा प्रथम अभियान मनुष्य निर्माण होना चाहिए। यदि मनुष्य ही नहीं बना तो परिवार, राष्ट्र एवं समाज किसी का निर्माण नहीं हो सकता है। [Our mission is manav nirman (Man making) mission]

(२) रामराज्य का द्वितीय संकल्प आदर्श परिवार का निर्माण :- व्यक्ति का निर्माण परिवार व समाज में होता है। जबकि परिवार का निर्माण व्यक्ति के व्यक्तित्व से होता है। अतः परिवार के सभी सदस्यों को अपने व्यक्तित्व का ऐसा संगठन करना चाहिए कि परिवार सदैव एक अविभाजित इकाई के रूप में रहे। जिसको जो कर्तव्य मिला है उसे साधना, सेवा एवं त्याग की कसौटी पर रखकर स्वयं अधिक परिवार को महत्व देने की शिक्षा रामराज्य नामक परियोजना से मिलती है। परिवार एक ऐसा संगठन है जिसमें रक्तसंबंध, धर्म का संबध एवं अन्य संबंध के आधार पर अपनत्व, ममत्व तथा दायित्व पालन का स्थायी निर्माण होता है। अतः परिवार की परिभाषा किसी निश्चित शब्दावली में नहीं होती है। इसकी परिभाषा व्यक्ति की सोच एवं समझ में निहित है। किसी एक व्यक्ति के परिवार रक्तसंबंध का समूह, दूसरी के लिए रक्तसंबंध के साथ धर्म संबंध भी जुड़ जाते हैं, तीसरे के लिए परिवार कुछ बड़ा होता जिसमें उसकी आवश्यकता के लिए जो सहयोग देते हैं वह भी उनके परिवार के सदस्य समझता है तथा वृहद मानसिकता के वसुधैव कुटुबं परिवार है। परिवार का जो भी रुप हो उसमें दायित्व का प्रथम गुरुत्व दिया गया है। इसके साथ कभी भी अपनत्व एवं ममत्व को भी नहीं त्यागना है। अतः हमारा कर्तव्य है आदर्श परिवार, कुटुबं एवं गाँव का निर्माण करना। 

(३) रामराज्य में आदर्श राज्य :- रामराज्य का तीसरा संकल्प आदर्श सामाजिक आर्थिक इकाई का निर्माण करना है, जिसे रामराज्य कहा गया है। एक आत्मनिर्भर सामाजिक आर्थिक इकाई ही व्यक्ति को सुख दे सकती है। इसलिए रामराज्य परियोजना के मूल में इसे रखा गया है। यह इकाई समान आर्थिक समस्या, समान आर्थिक संभावना, भावनात्मक एकता एवं नस्लीय समानता नामक चारों स्तंभों पर खड़ी है। अतः रामराज्य की निर्माण की इस मूल को समझकर ही राष्ट्र निर्माण की साधना में लग जाना है। 

(४) रामराज्य से समाज निर्माण का संकल्प पत्र - रामराज्य नामक परियोजना के अंतिम चरण में एक अखंड अविभाज्य मानव समाज का निर्माण करना है। मानव समाज में भौगोलिक, सामाजिक, व्यवसायिक एवं अन्य कोई भी गुटबाजी है तो वह कभी भी स्वस्थ परिवेश का निर्माण नहीं होने देती है। इसलिए विश्व बंधुत्व की भावना लेकर महाविश्व निर्माण करना रामराज्य की असली समझ है। सामाजिक आर्थिक इकाइयाँ अखिल विश्व समाज निर्माण की योजना में सामाजिक आर्थिक न्याय स्थापित करता है। इसे मानवीय न्याय की परिधि में लाने के लिए समाज निर्माण का संकल्प आया है। 

[श्री] आनन्द किरण "देव"
प्रभात संगीत एवं रुहानी यात्रा (PS & ST)
संगीत का मानव मन की गहराइयों से गहरा रिश्ता है। एक भाव तंरग को दूसरी भाव तरंग से जोड़ता है तथा मानव मन में विशिष्ट रस की सरिता बहती है। मुझे गाना नहीं आता है इसलिए उस स्थित का रसास्वादन तो नहीं करा सकता लेकिन रुहानी यात्रा में ऐसी स्थितियाँ से रुबरु होना पड़ता है इसलिए इनके बारे में थोड़ी समझ रखता हूँ। मनुष्य का जीवन भाव से भरा हुआ है। भाव रस से अभिव्यक्त होता है। इसलिए संगीत का महत्व सभी के जीवन में अल्प एवं अधिक परिणाम में है। जो विभिन्न राग रागिनियों तथा लफ़्ज़ों से झलकता है। 

संगीत की दुनिया में आशा व निराशा, प्रेम एवं विरह, सकारात्मक एवं नकारात्मक तथा राग व द्वेष इत्यादि का संगम देखा है। जो संगीत मनुष्य को दुख के दलदल में ले जाकर रुलाते है, उदास करते हैं अथवा हताश करते हैं। यह मनुष्य की गति एवं प्रगति दोनों को रोक लेते हैं। इसके विपरीत जहाँ आनन्द प्रेम, उत्साह तथा ऊर्जा का संचार होता है। वे संगीत मनुष्य को गतिमान एवं प्रगतिशील बनाते हैं। संगीत शास्त्र की ऐसी शाखा को मनुष्य ने आनन्द संगीत नाम दिया है। जहाँ सुख शांति एवं कर्मशीलता का निवास होता है। आनन्द संगीत में प्रगति, अग्रगति एवं बृहद का आकर्षण दिखाई दे तो उस नूतन उषा की संज्ञा दी जाती है। इसलिए इसे एक नूतन विधा में रखना होता है। प्राचीन काल में जब भक्त रात्रि जागरण करते थे तब अपनी संगीत शास्त्र को दुनिया जगत से उठाकर ज्यौं ज्यौं निशा की घनघोर छाए में जाता था। वैराग्य तथा फकीरी में मन लिप्त होता था। फकीरी को गाते गाते जब एक नहीं उषा के नजदीक पहुँचता उसे ऐहसास होता था कि असली आनन्द प्रभु के साथ मिलकर प्रभु के कर्म करने है। इसलिए वह प्रभाती गाता था। भक्त एवं भगवान में एकरूपता दिखाई देती है। जो भक्त का है, वह भगवान‌ का है तथा जो भगवान है वह भक्त का है। सारे जहान से मोहब्बत करता है। वह फकीरी  पलायन में नहीं कर्तव्य कर्म में अनुभव करता है तथा जगत को साथ लेकर रुहानी यात्रा में निकलता है। जब प्रभात की यह अवस्था चौबीस घंटा, जीवनभर तथा हर क्षण रह जाए तो मनुष्य अपने जीवन को प्रफुल्लित, आनन्दित एवं प्रगतिशील बना देता है। इसलिए मनुष्य प्रभात संगीत की विधा एक पृथक विधा के रूप में आवश्यकता महसूस से कर रहा है।

मनुष्य की इस अभिलाषा को प्रतिफलित होने का आखिरकार अवसर मिली ही गया तथा मनुष्य ने परमपुरुष के कंठ से प्रभात संगीत को निकलवा ही दिया। परम पुरुष भक्त की इस आकूति को प्रभात संगीत का रुप देकर आनन्द मार्ग परिवार को प्रभात संगीत प्रदान किया। आनन्द मार्ग परिवार ने प्रथम प्रभात संगीत  14 सितम्बर 1982 सुना। उसके बाद आठ वर्ष तक परम पुरुष के मुख से एक पर एक 5018 संगीत का एक शास्त्र तैयार हो गया। 

प्रभात संगीत की हृदयस्पर्शी विधा को सजाए रखना भक्त का दायित्व है। साधक को अपने साधना में ओर भी प्रभात संगीत सुनाई देते रहेगें तथा अपनी मस्ती में गाता भी रहेगा। प्रभात संगीत एवं रूहानी यात्रा के बारे सबके अलग अलग अनुभव है इसलिए उसे एक सामान्य शब्दमाला में नहीं पिरोया जा सकता है। फिर भी प्रयास करना बुरा नहीं है। मनुष्य की आध्यात्मिक यात्रा को दर्शन पंचकोषात्मक के रूप में व्यष्टि  को तथा सप्तलोकत्मक कहकर समष्टि में समझाता है। भक्त अपने मन में उस अवस्था को देखकर जो नाम बन पाता है। दे देता है। इसलिए आध्यात्मिक जगत में आध्यात्मिक पड़ावों को अलग अलग नाम चित्रित किया गया। प्रभात संगीत प्रत्येक पड़ाव के साधक की मनोदशा का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत करता है। कई बार साधक अनुभव करता है कि यह प्रभात संगीत एक वर्ष पहले गाता था तब अलग अनुभूति देता है आज अलग। मैं पुनः कहता हूँ कि मुझे गाना बजाना नहीं आता है इसलिए प्रभात संगीत की विधा को सही नहीं समझा पाता हूँ। लेकिन रुहानी यात्रा में जो अनुभव करता हूँ उसे लिख लेता हूँ। 

प्रभात संगीत के संग हम सबकी रूहानी यात्रा चिरस्मरणीय रहे। 
🙏🙏🙏🙏🙏
श्री आनन्द किरण "देव"

ईश्वर प्रणिधान                       (Devotion to god)

जगत के नियंता को ईश्वर कहा गया है। प्रणिधान का अर्थ प्रयत्न करना। ईश्वर प्रणिधान शब्द का अर्थ हुआ ईश्वर बनने का प्रयत्न करना अथवा ईश्वर बनने विधि। चूंकि मनुष्य का चरम एवं परम लक्ष्य मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ है ईश्वर में मिलकर एक हो जाना। इसलिए साधना जगत का प्रथम सोपान का नाम ईश्वर प्रणिधान दिया गया है। यद्यपि नियम साधना में इसका स्थान अंतिम में रखा गया है लेकिन आध्यात्मिक साधना में यह प्रथम स्थान पर है। 

ईश्वर प्रणिधान का मूलभाव अहम ब्रह्मास्मि है। मैं  ब्रह्म हूँ भाव में प्रतिष्ठित होने का जो प्रयत्न है, उसे ईश्वर प्रणिधान नाम दिया गया है। मनुष्य की स्व: भाव से आनन्द भाव की साधना को ईश्वर प्रणिधान से समझा जाता है। शास्त्र कहता है कि सबसे उत्तम साधना ब्रह्म सद्भाव की है। ब्रह्म भाव की साधना का नाम ही ईश्वर प्रणिधान है।

ब्रह्म भाव में प्रतिष्ठित होने की प्रक्रिया को ईश्वर प्रणिधान कहा गया है। इसलिए इस प्रक्रिया को जानना, अपनाना एवं आत्मसात करना आवश्यक है। इस प्रक्रिया का मूल 'मैं' तथा 'वह' है। 'मैं साधक तथा वह साध्य है। जब साधक मैं वही हूँ' भाव लेते लेते अन्ततोगत्वा उसमें ही प्रतिष्ठित हो जाता है तो साधना पूर्ण हो जाती है। भाव का निर्माण में शब्द सहायक होता है। इसलिए इष्ट मंत्र की अवधारणा विकसित हुई। इष्ट में प्रतिष्ठित करने वाला शब्द शक्तिपूंज को इष्ट मंत्र कहा जाता है। यह मंत्र बीज अक्षरों के समूह से बनता है। चूंकि ब्रह्म भाव की साधना में मैं व वह नामक दो बिन्दु है। इसलिए यथासंभव दो अक्षरों का ही इष्ट मंत्र होता है। पहला अक्षर मैं तथा दूसरा अक्षर वह प्रतिनिधित्व करता है। चूंकि बीजाक्षर उस भाव मूल होता है इसलिए मंत्र को शक्तिपूंज कहा जाता है। मैं तथा वह को एक करने की प्रक्रिया साधना है। जहाँ मैं वह तथा वह मैं बन जाता है। इनमें पार्थक्य करना एवं देखना असंभव हो जाता है। इसलिए मैं ओर वह को बांधने वाले रस्सी के प्रतीक्षाकर के कई मात्रा युक्त तो कहीं ढ़ाई अक्षर का मंत्र भी देखा जाता है। फिर भी मंत्र में दो ही बिन्दु होते हैं। तीन बिन्दु की साधना एक अव्यवहारिक सोच है। तीन बिन्दु की साधना में मैं, वह के बीच तुम होता है अर्थात साधक, गुरु एवं भगवान। इसमें प्रथम क्रम गुरु एवं भगवान एक होते तथा तुम वह में तथा वह तुम में मिल जाता है तथा अंत में मैं तथा वह एक हो जाते हैं। 

ब्रह्म साधना की प्रक्रिया समझ रहे हैं इसलिए उसकी संक्रिया भी समझना आवश्यक है। संक्रिया के क्रम में व्यक्ति के चित्त को ब्रह्म रुप में बैठाना पड़ता है। शास्त्र इस चित्त शुद्धि नाम देता है। चित्त यदि ब्रह्म के अतिरिक्त किसी अन्य रुप में गोता लगा रहा है तो मैं वही हूँ की साधना ध्येय में प्रतिष्ठित करके जड़ बना देते हैं। जिस पथभ्रष्ट नाम भी दिया गया है। अतः साधक एक निश्चित संक्रिया के माध्यम से चित्त शुद्धि करता है तथा चित्त ब्रह्म में बैठता है। इस संक्रिया को संपन्न करने के लिए चित्त को अपने में लौटना होता है, इसलिए आसन शुद्धि की आवश्यकता होती है। चित्त जहाँ कही है वहाँ से उसे उन सभी केन्द्र से होकर चित्त को पुनः अपने चित्त में लाने की संक्रिया को आसान शुद्धि कहते हैं। चित्त को इसलिए सभी केन्द्रों से होकर लाना होता है तांकि चित्त आभागों को जी कर भोग रहित हो जाए तथा ब्रह्म भाव का आभोग शतप्रतिशत ग्रहण कर ले। आसान शुद्धि की इस संक्रिया में सिद्धि के पहले बाहरी परिवेश मन छुड़ाना होता है। इस संक्रिया को भूत शुद्धि कहा जाता है। भूत शुद्धि में मन बाहर के परिवेश हटाकर एक सीमाहीन परिवेश में लाकर रखा जाता है। जहाँ से आसान शुद्धि चित्त में ले जाती है तथा चित्त शुद्धि ब्रह्म में ले जाती है। यहाँ इष्ट मंत्र ब्रह्म भाव तथा ब्रह्म भाव मूल लक्ष्य में प्रतिष्ठित करता है। 

ईश्वर प्रणिधान भूत शुद्धि, आसान शुद्धि, चित्त शुद्धि, इष्ट मंत्र का जप तथा ब्रह्म भाव का अधिग्रहण की मिलित प्रणाली का नाम है। जिस साधक के पास यह प्रणाली है, वह अपना उद्धार करता है अर्थात यह पथ उसके उद्धार का पथ है। इसी को शास्त्र में सत् पथ कहा गया है। सत् पथ मनुष्य के लिए आनन्द ले आता है। इसलिए साधना मार्ग आनन्द मार्ग कहा जाता है। 

आओ आनन्द मार्ग पर चलते हैं। जीवन को धन्य बनाते हैं। मनुष्य होने का सुलाभ प्राप्त करते हैं। यही जीवन का सार है। 
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श्री आनन्द किरण "देव"
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आध्यात्मिक रामायण              (Spiritual Ramayana)
रामायण का नया रूप - आध्यात्मिक रामायण
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श्री आनन्द किरण "देव"
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आज आध्यात्मिक रामायण लिखने जा रहा हूँ। यह आलेख मेरी पुस्तक रामायण में ब्रह्म विज्ञान के सारांश के रूप में लिखा जा रहा है। रामायण श्रीराम की अयोध्या से लंका तथा लंका से पुनः अयोध्या आगमन का यात्रा वृतांत है। इस यात्रा के 14 वर्ष की अवधि में दिखाया है। आध्यात्मिक जगत में मानष शरीर में सहस्त्राचक्र से मूलाधार तक सात चक्रों का अलेख है। इस प्रकार 7+7 = 14, यदि एक चक्र एक वर्ष कहा जाए तो चौदह वर्ष हो जाते हैं। सहस्त्राचक्र को‌ अयोध्या तथा मूलाधार को लंका माना गया है। अयोध्या का मतलब अ + योध्य + आ है। योध्य का मतलब युद्ध द्वारा जय किया जाने वाला क्षेत्र, आ लगने से स्त्रिलिंग शब्द नगरी हो जाता है। अर्थात अयोध्या का मतलब वह नगरी जिसे साधना समर‌ द्वारा जयी नहीं किया जा सकता है। वह सहस्त्राचक्र है, जो साधना  द्वारा नहीं तारक ब्रह्म की कृपा से नियंत्रित होता है। आज्ञा चक्र पंचवटी है, जो पांचों तत्व का नियंत्रक बिन्दु है। विशुद्ध चक्र शब्द तंमात्रा वहन करने वाले आकाश तत्व का धारक है, जो शबरी का प्रतीक है। अनाहत चक्र पवन का प्रतीक हनुमान, अग्नि ऊर्जा का वाहक मणिपुर चक्र बालि सुग्रीव की नगरी किष्किन्धा, रामसेतू जल तत्व का धारक स्वाधिष्ठान चक्र  तथा सोने की लं से लंका मूलाधार वाला पृथ्वी तत्व है। हमारे शरीर के यह सप्तचक्र है। इसके अलावा नासिक अर्थात नासिका में स्थित ललना चक्र चित्रकूट एवं भरत मिलाप स्थली गुरुचक्र है। इन दोनों को सप्तचक्र की गिनती से पृथक रखा गया है। यद्यपि इन दोनों का साधना में महत्व है। निषादराज का क्षेत्र अयोध्या की परिधि में है। 

अब श्रीराम की अयोध्या से लंका तक की यात्रा रामायण का प्रथम पहलू वनवास कहलाता है। इसमें श्रीराम दक्षिण दिशा में अर्थात शरीर के निम्न भाग में गमन करते हैं। वन का अर्थ पेड़ पौधों का झुरमुट है। अर्थात चैतन्य से दूर की प्रदेश है। श्रीराम सकल धनात्मक शिव भाव  तथा सीता सकल ऋणात्मक जीव भाव कुल कुंडलीनी शक्ति है। लक्ष्मण सदैव लक्ष्य में मन रखने वाला सदैव लक्ष्य के साथ संयुक्त रहने वाला भक्त मन है। दशरथ तथा तीनों रानियाँ त्रिगुण युक्त प्रकृति एवं साक्षी पुरुष का प्रतीक है। भरत व शत्रुघ्न भी विशेष प्रकार के साधकों के प्रतीक है। वशिष्ठ आध्यात्मिक गुरु हैं, जो सदगुरु का प्रतीक है। रावण अंधकार का प्रतीक है। मेधनाथ, कुंभकर्ण इत्यादि रात सदृश्य रावण की शक्तियां है। विभीषण का अर्थ बुराई को सतपथ की राय देने वाले न्याय धर्म का साथी घर का भेदी अर्थात शरीर मन प्रदेश के रहस्य का ज्ञाता है। 

लंका से अयोध्या की यात्रा का साथी पुष्पक विमान साधना है। स्वास प्रवास पुष्पक विमान का पायलट हनुमान है। यह सैद्धांतिक पक्ष नहीं होने के कारण अधिक वर्णन नहीं मिलता है। व्यवहारिक पक्ष होने के कारण गुरु के अधिकार क्षेत्र में है। 
वैचित्र्यं प्राकृतधर्म:          (Vaecitryam prakrtadharmah)
   

विचित्रता प्रकृति का धर्म है। अत: प्रकृति के रहते सबकुछ समान नहीं हो सकता है। जो  समानता की बात करते हैं, वे प्राकृत धर्म के विरोध में जा रहे हैं। इनकी बातें सबको ध्वस्त करने वाली है। प्रउत दर्शन की यह घोषणा, विश्व के सभी अर्थशास्त्रियों एवं समाजशास्त्रियों के लिए विचारणीय है। आज का विश्व स्वतंत्रता, समानता एवं भातृत्व के आदर्श पर खड़ा है। आर्थिक जगत में खुली अर्थव्यवस्था एवं मुक्त बाजार का प्रचलन जोरों पर है। इसलिए 'विचित्रता प्रकृति का धर्म है।' यह सबके लिए समझने योग्य विषय है। 

आनन्द मार्ग एक अखंड अविभाज्य मानव समाज चाहता है, जो एक चुल्हा एक चौका तथा विश्व बंधुत्व की नारे में समाया हुआ है। वही प्रउत की प्रकृति के धर्म वाली घोषणा अवश्य ही विचारणीय है। 

प्रउत, विश्व के लिए अर्थव्यवस्था निर्माण करने चला है जबकि आनन्द मार्ग विश्व के लिए समाज का निर्माण कर रहा है। अर्थव्यवस्था का संबंध मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं व व्यक्ति के काम करने के सामर्थ्य से है।  प्रउत ने सर्वप्रथम समाज चक्र देकर व्यक्ति की  क्षमताओं को वर्गीकृत करता है तथा  बता है कि युग सभी वर्णों की प्रधानता को देखते हुए आगे बढ़ता है। इसलिए मनुष्य मनुष्य में भेद सृष्ट करने की एक भी लकीर समाज धर्म के प्रतिकूल है। अत: प्रकृति की विचित्रता को प्राकृत धर्म बताने वाले अध्याय का गहनता से अध्ययन आवश्यक है। विश्व को अपनी अर्थव्यवस्था का निर्माण करते समय प्राकृत धर्म, युग धर्म, नागरिक धर्म एवं  समाज धर्म इत्यादि सभी का आदर करना होता है। प्रउत ऐसा करके अपनी जिम्मेदारी निभाई है। 

प्रउत की मूलनीति से

१. प्राकृत धर्म - विचित्रता प्राकृत धर्म है। इसलिए अर्थव्यवस्था के निर्माण में इसको अंगीकार करते हुए सबके लिए एक समान व्यवस्था की कल्पना से अपने दूर रखता है। अर्थव्यवस्था को ऐसी माकूल व्यवस्था का निर्माण करना होता है, जहाँ बहुरंगी विविधता की यह सृष्टि एकता के सूत्र में बंध जाये‌‌ तथा विभिन्न रंगों फूलों को एकता के सूत्र में पिरोने वाली माला प्रउत है। 

२. युग धर्म - अर्थव्यवस्था समाज का अंग है तथा समाज युग का आदर करता है इसलिए युग धर्म का सम्मान करना अर्थव्यवस्था का दायित्व है‌। युग धर्म कहता है कि रहे न कोई भूखा नंगा ऐसा एक समाज बनेगा। इसलिए प्रउत ने युगस्य सर्वनिम्नप्रायोजनं सर्वेषविधेयम् माना है। प्रकृति कभी युग की सभी निम्न आवश्यकता के साथ छेड़छाड़ नहीं करती है। विचित्रता प्रकृति का धर्म है तो युग का धर्म है कि अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा सब के लिए सुलभ एवं सहज हो जाए ऐसे व्यवस्था करना। युग अर्थव्यवस्था से न्यूनतम मजदूरी एवं क्रयशक्ति का अधिकार मांगता हैै। विचित्रता मूलक प्रकृति युग की इस मांग आदर करते हुए, ऐसी व्यवस्था देती है। जिससे व्यक्ति की गरिमा तथा समाज का दायित्व दोनों ही सुरक्षित रहे। 

३. नागरिक धर्म - समाज का विकास नागरिक की कार्यक्षमता पर  टिका हुआ है। इसलिए व्यक्ति की कार्य क्षमता का आदर करना होता है। नागरिक का धर्म है कि अपने गुणों का सम्पूर्ण उपयोग करें तथा समाज का दायित्व है उसका आदर करें। अत: प्रउत कहता है कि अतिरिक्तं प्रदातव्यं गुणानुपातेन। प्रउत अतिरिक्त संपदा गुण के अनुपात में वितरित करके नागरिक को‌ अपने धर्म के रास्ते से भटकने नहीं देता है। यदि नागरिक अपने निजी धर्म से भटक जाए तो सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था डावांडोल हो जाएगी। इसलिए प्रउत नागरिक धर्म का सम्मान करता है तथा गुणीजन को अतिरिक्त संंपदा में से उनके गुण के अनुपात में कुछ विशेष देता है। 

४. समाज धर्म - प्रगति समाज का धर्म है। इसके बिना समाज का जीवन संकट में है‌। इसलिए प्रउत कहता है कि सर्वनिम्नमानवर्धनं समाजजीवलक्षणम्। साधारण मनुष्य की निम्न आवश्यकता का जो मान स्थिरीकृत है,  गुणियों को उससे कुछ अधिक अवश्य मिलेगा, किन्तु इस निम्नतम मान को ऊपर उठाने की भी अन्तहीन चेष्टा करनी होगी। यह समाज का जीवित रहने का लक्षण हैं। यह चेष्टा ही मनुष्य की जागतिक ऋद्धि दिलाता है। प्रउत समाज के निम्नतम मान में वृद्धि करता रहता है। 

प्रउत में प्रकृति, युग, नागरिक एवं समाज चारों का ध्यान रखा गया है। इसलिए प्रउत दर्शन दुनिया का निराला, अनोखा एवं विचित्र दर्शन है। जो आध्यात्मिकता को सामाजिक आर्थिकता का तथा सामाजिक आर्थिकता को आध्यात्मिक पाठ पढ़ाता है। बिना नैतिकता के इसकी सिद्धी नहीं होेती है। इसलिए प्रउत ने समाज की धूरि में सदविप्र को बैठाया है। प्रउत का सैनिक सदविप्र बनकर समाज में आदर्श स्थापित करता है। 

विचित्रता प्रकृति का धर्म है, समान कभी नहीं हो सकता। लेकिन मनुष्य को अपनी अर्थव्यवस्था को संगच्छध्वं के पथ पर चलना है। इसलिए व्यक्ति की 
गरिमा तथा समाज के आदर्श को सुरक्षित रखते हुए। प्रउत अर्थव्यवस्था का निर्माण हुआ। पूंजीवाद का व्यक्ति एवं समाजवाद का समाज दोनों ही प्रउत में सुरक्षित एवं प्रगतिशील है। इतना ही नहीं यह प्रगतिशील उपयोग तत्व भी है। 
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         श्री आनन्द किरण "देव"
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क्या शून्य का कोई मूल्य नहीं होता? (Does zero have no value?)

गणित एवं आध्यात्म में समस्या का हल करने की वैज्ञानिक प्रणाली होती है। आध्यात्म कभी भी आस्थाओं का पूंज नहीं अपितु सत्य का‌ आलोक है। जिस प्रकार गणित में अवधारणा को स्वत: सिद्ध माना जाता है, उसी प्रकार आध्यात्म में आस्थाओं के साथ छेड़छाड़ नहीं की जाती है। आस्थाओं का निर्माण अवधारणा की भांति ही होता है। जिनके पिछे एक ठोस सत्य होता है। आस्था का अर्थ अंधविश्वास की धारणा नहीं होता है। आस्था का अर्थ विश्वास को पक्का करना है। जिन आस्थाओं के पीछे को सत्य नहीं उन्हें आस्था कहना उचित नहीं है। आस्था शब्द से आस्तिक शब्द आता है। आस्तिक का ईश्वर, आत्मा एवं आत्मज्ञान में विश्वास रखने वाला। जो इन तीनों में विश्वास नहीं रखता है, उन्हें नास्तिक कहा जाता है। यही शून्य की अवधारणा आती है। 

शून्य का अर्थ कुछ नहीं बताया जाता है। लेकिन किसी के सापेक्ष इसका मूल्य बढ़ जाता है। अत: शून्य को निरपेक्ष कहना एक भूल है। शून्यवाद यहाँ मुह के बल पर गिर जाता है। शून्यवाद गिरने के साथ नकारात्मकता तथा संसार दुखों का घर की अवधारणा अप्रमाणित हो जाती है। यदि कोई इसे आस्था नाम दे तो यह उसका अंधविश्वास है। धर्म कहता है कि जहाँ युक्ति एवं तर्क कार स्थान नहीं, वहाँ ज्ञान नहीं रह‌ सकता है। यह लोग अंधभक्त कहलाते हैं। शून्य एक सापेक्ष मूल्यवान अंक है। जिसके बिना गणित रुक जाती है। 10 में शून्य का महत्व दस एक के बराबर हो जाती है। शून्य का यह महत्व एक की वजह से है। अत: वास्तव में शून्य का महत्व नहीं होते हुए भी सापेक्ष महत्व है। जगत को मिथ्या कहने वाले रस्सी में सर्प दर्शन का भ्रम‌ बताकर शून्य के पक्ष में एक प्रमाण देते है लेकिन रस्सी एवं सांप के ज्ञान रखने वाले को भ्रम होता है अर्थात जगत मिथ्या कहने वाले को पहले आपेक्षिक सत्य मानना पड़ता है। अत: शून्यवादी स्वयं भूलभुलैया में खोया हुआ है।

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        करण सिंह की कलम से
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नाम बनाम काम   (Name vs Work)
     (यह चित्र नाम है अथवा काम) 

यदि प्रश्न 'नाम बनाम काम' के बीच में किया जाए तो काम‌ के पक्ष में लगभग सभी वोट आते हैं। लेकिन भारत का भक्ति शास्त्र नाम की महिमा काम से अधिक करता है। इसलिए विषय अधिक प्रासंगिक हो जाता है कि 'नाम बनाम काम' में से हम किसको चुनेंगे? 

भारत के आध्यात्मिक जगत का सिरमौर विद्या तंत्र का अधिकांश भाग प्रैक्टिकल है।  प्रैक्टिकल का सीधा संबंध काम से है। भारत का वैदिक साहित्य भी पुरुषार्थ पर बल देता है। पुरुषार्थ का संबंध भी काम से है। लेकिन भक्ति साहित्य में नाम को महत्व दिया गया है। भारतवर्ष के कई‌ पंथ तो अपने आध्यात्मिक साधना का ब्रह्मास्त्र नाम को‌ ही स्वीकार करते है। रामचरितमानस सहित कुछ अन्य ग्रंथ ने तो कलयुग को नाम आधारा माना है। इसलिए भी 'नाम बनाम काम' विषय इस युग के लिए प्रासंगिक है। 

'नाम बनाम काम' विषय को समझने के लिए नाम एवं काम को समझना आवश्यक है।

नाम शब्द का साधारण अर्थ पहचान का प्रतीकाक्षर होता है। लेकिन गूढ़ार्थ में नाम व्यक्ति के व्यक्तित्व का आधार है। इसलिए शिशु के नामकरण को उसका जातकर्म कहा जाता है। जात शब्द का अर्थ वर्तमान युग में प्रचलित जाति नहीं है। जात‌ का अर्थ है कि शिशु के व्यक्तित्व का निर्धारण करना। हमसब मिलकर शिशु को क्या बनाना चाहते हैं, उसके लिए तदरुप नाम चुना जाता है। तथा वही नाम उसको दिया जाता है। यहाँ नाम में कर्मशक्ति दी जाती है। सरल शब्दों में कहा जाए तो नाम में कर्ममाला छिपी होती है अथवा कर्ममाला को एक नाम के माध्यम से हम‌ जानते हैं। 

नाम को आध्यात्मिक जगत में मंत्र का पर्याय में दिखाया जाता है। लेकिन यह सत्य नहीं है। मंत्र किसी सत्ता के निर्माण बीजाक्षर से होता है, जिसे आध्यात्मिक भाषा में बीजमंत्र कहा जाता है। इसके अलावा कुछ मंत्र मन‌ की प्रगति के लिए बनाए जाते हैं। जिसमें से इष्टमंत्र एवं गुरुमंत्र सबसे महत्वपूर्ण होते हैं। यह सभी के लिए आवश्यक भी है। इसलिए इन्हें मंत्र विज्ञान के केन्द्र में रखा गया है। सभी मंत्र इनके इर्दगिर्द घूमते हैं। लग रहा है कि विषय कुछ जटिल रास्ता पकड़ रहा है। लेकिन नाम एवं काम समझने के लिए यह आवश्यक है। अब हमें इष्टमंत्र एवं गुरुमंत्र की निर्माण कला को जानना आवश्यक है। यद्यपि इसका सही राज तो सदगुरु ही बता सकते हैं। मैं गुरुदेव की अहैतुकी कृपा से जो जान पाया उसे साक्षी रखकर विषय की ओर बढ़ना चाहूँगा। इष्टमंत्र का निर्माण सदगुरु करते हैं। दीक्षार्थी को गुरु की ओर से जो इष्ट दिया जाता है, तदनुसार शिष्य को बनाने के लिए गुरु द्वारा इष्टमंत्र का निर्माण किया जाता है। यद्यपि सभी के लिए एक इष्टमंत्र नहीं होता है लेकिन गुरु युग की मानस गति देखकर कुछ इष्टमंत्र तैयार कर आचार्यों को देते हैं। आचार्य मानस गति श्रेणी देखकर इष्टमंत्रों के समूह में से एक दीक्षा भाई के मन में प्रवेश कराते हैं। इस इष्टमंत्र में प्रचंड कर्म शक्ति विद्यमान होती है। जिसका मंत्रचैतन्य की बेला पर अनुभव होता है। 

अब गुरुमंत्र के निर्माण का विज्ञान समझने की कोशिश करते हैं। गुरुमंत्र का निर्माण गुरु द्वारा शिष्य को जैसा वस्तु को दिखाना चाहते हैं, उसके अनुसार गुरुमंत्र भी तैयार‌ किये जाते हैं। गुरुमंत्र भी एकाधिक होते हैं। अब प्रश्न इष्ट एवं आदर्श सभी के एक हैं तो इष्ट एवं गुरुमंत्र एक क्यों नहीं? इसका एक उत्तर है सभी के मन की स्थित एक सी नहीं होने के कारण साधन में अनेकता है। 

पुनः विषय की ओर लौटते हैं। नाम को हम समझ रहे हैं। नामदान की विद्या बताती है कि नाम आध्यात्मिक यात्रा में विभिन्न पड़ाव है। उसमें भाषाई विभिन्नता का रहना स्वभाविक है। कुछ नामदान के पंडित कहते हैं कि सच्चा नाम संस्कृत, फारसी, अरबी, लैटिन, ग्रीक इत्यादि विश्व की सभी भाषाओं के वर्णमाला के अक्षरों में नहीं है। यद्यपि मैं इस गुप्त रहस्य का ज्ञाता नहीं हूँ फिर भी इतना सत्य है कि ध्वनि विज्ञान से परे कोई नाम नहीं है। ध्वनि विज्ञान के सभी अक्षरों को संस्कृत वर्णमाला में सजाया गया है। संस्कृत वर्णमाला ने ध्वनि विज्ञान के एक अक्षर को भी नहीं छोड़ा है। फिर भी इस रहस्य को विषय के पुरोधा ही अधिक स्पष्ट कर सकते हैं। एक रुहानी यात्रा को कुछ लोग मोटे रुप से तीन पड़ाव में बांटते हैं। इसलिए तीन नाम देते हैं। कोई पांच तो कोई सात अथवा अधिक। उसी के अनुसार पांच, सात अथवा अधिक नाम देते हैं। 

वस्तुतः प्रत्येक आध्यात्मिक लोक का एक ही साक्षी पुरुष होते हैं। तथापि प्रत्येक लोक में साधक में भाव सृष्ट होता है। उसी के अनुरूप साक्षी पुरुष नाम दिया गया है। उस लोक में साधक साक्षी पुरुष को अपने आश्रयदाता, अभिभावक, संरक्षक, पिता / पति / सखा / प्रियतम के रूप में मानता है। उसका पुकारु नाम सदैव एक होता है। अफसर के रुप में सभी डिपार्टमेंट में बॉस अथवा‌ वरिष्ठ को सर, व्यापारिक जगत में सेठ तथा सामाजिक एवं‌ पारिवारिक जगत में बाबा सबसे प्रचलित शब्द है। चूंकि परमपिता व गुरु से अपनत्व का रिश्ता होता है, जिसे पारिवारिक संबंध कहते हैं। अत: आध्यात्मिक जगत के सभी लोकों के साक्षी सत्ता सदैव "बाबा" रहते हैं। अत: एकमात्र नाम "बाबा" से आध्यात्मिक यात्रा पुरी संपन्न हो जाएगी। इसलिए भगवान श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने 'बाबा नाम केवलम' के रुप में कीर्तन देकर नाम लोक में महाविपल्वी कार्य किया है। रुहानी यात्रा के राही बताते हैं कि प्रत्येक लोक हमें एक विशेष प्रकार की ध्वनि सुनाई देती है। वह ध्वनि ही‌ हमारा सबद है। यदि हम पूर्वघोषणा के अनुसार रुहानी यात्रा में निकलेंगे तो तदनुसार शब्द का गूंजना संभव है। मैंने इस यात्रा के आनन्द मार्गियों के अनुभव सुने तो किसी ने पहले‌‌ बंशी ध्वनि सुनी‌‌ है तो किसी ने शंख, मृदंग इत्यादि की ध्वनि। इसलिए यह कहना शायद गलत है कि किसी विशेष लोक की वही ध्वनि है, वही हमारा नाम है। 

नाम को समझने के बाद काम को समझने की ओर चलते हैं। काम विषय एषणा अथवा काम (सेक्स) के अर्थ में लिया जाता है। लेकिन हमारा विषय काम को‌ कर्म (work) के अर्थ में लेकर आया है। इसलिए काम रिपु की ओर नहीं चलेंगे। काम शब्द का अर्थ शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रगति के लिए किया गया प्रयास अथवा प्रयत्न है। मनुष्य एवं जगत के सभी जीव अजीवों को जीवन के प्रथम से अंतिम क्षण तक कर्म करना ही होता है। उसके प्रत्येक कर्म का एक नाम है। वस्तुतः काम व नाम में एकरूपता है। अत: काम के सलेक्शन में नाम का सलेक्शन हो जाता है तथा नाम के सलेक्शन में काम। 

'नाम बनाम काम' जंग तब होती है जब नाम एवं कर्म में अंतर होता है। नाम राम तथा काम रावण का तो दोनों में जंग होगी। उस दशा में व्यक्ति अपनी मन‌ की अवस्था के अनुसार नाम अथवा काम में से किसी को वोट देता है। 

आध्यात्मिक जगत के रहस्य से निकल कर हम समाज में आते हैं। यहाँ भी काम एवं नाम के बीच द्वंद युद्ध चलता है। कोई नाम के लिए काम करता है। तो कोई अपने दायित्व धर्म के लिए काम करता है। प्रथम में अहंकार की पुष्टि होती है। ऐसे लोग प्रशंसा सुनने के आदी हो जाते हैं। यह उन्हें खुशी प्रदान करती है। निंदा इनको कर्कश लगती है। यह उन्हें दुखदायी लगती है। नाम के लिए काम करने वाला व्यक्ति इसकी अत्युग्र अवस्था में रोगी बन जाता है तथा उसकी गति को सुदिशा देने वाला भी शत्रु नजर आता है। समालोचना करने वाला अथवा सुझाव देने वाले पर भुखे भेडिये की‌ तरह नोंचने को‌ निकल पड़ता है। राजनैतिक जगत में ऐसे राजाओं को निरंकुश अधिनायक अथवा तानाशाह कहा गया है। इसके विपरीत जो लोग दायित्व धर्म के निवहन के लिए काम करते हैं, उन्हें अनुकूल-प्रतिकूल सभी परिस्थितियों में आनन्द मिलता है। वह विरोधी से भी बहुत प्यार करता है। उनमें घृणा होती ही नहीं है। 

विषय का सारांश यही‌ है कि प्रत्येक काम एक नाम है। प्रत्येक नाम का एक काम है। नाम एवं काम में एकरूपता होनी चाहिए। लेकिन काम नाम की चाहत में नहीं किया जाना चाहिये बल्कि नाम सदैव काम की चाहत में होना चाहिए। काम दायित्व धर्म की चाहत में रहता है। नाम व काम में से बड़ा काम है। लेकिन नाम भी छोटा नहीं है क्योंकि प्रत्येक काम नाम भी है। अंत में नाम एवं काम में से‌ हमें किसी एक का चुनाव करना हो तो काम को चुनना चाहिए।

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श्री आनन्द किरण "देव"
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पत्रकारिता व्यवसाय अथवा दायित्व (Journalistic Profession or Duty)
(आज भारतीय मीडिया गोदी मीडिया, व चापलूस मीडिया की उपमा में झकड़ता देखकर पत्रकारिता का फर्ज अदा करने के लिए कलम चलाई है। मैं उन स्वतंत्र 
पत्रकारों एवं सोसियल मीडिया कार्मिकों को धन्यवाद दूंगा जिनकी बदौलत अंधकार के युग में मीडिया जिंदा है। ) 

खबर को खोजकर सर्वाजनिक प्रसारण करने के कार्य को पत्रकारिता कहते हैं। इसके बदले समाज उन्हें सम्मान एवं आदर देता है लेकिन सच्चा पत्रकार कभी भी इसकी चाहत नहीं रखता है। लोकतंत्र में पत्रकारिता एक व्यवसाय बनकर उभरा है। एक वर्ग इसमें अपना केरियर देखता है। वस्तुतः पत्रकारिता शब्द की परिभाषा में पत्रकारिता का पेशा होने का उल्लेख नहीं है। पत्रकारिता जब व्यवसाय रहेगा तब तक खबरें बनाई जाती रहेगी। वस्तुतः खबर बनती बनती नहीं है, घटित होती है। पत्रकार का कार्य उसे प्रकाश में लाना होता है। ताकि जग उस घटना को देख सके, सजग रह सके तथा उसके प्रति संवेदनशील रहे।

भारतीय पत्रकारिता के पुरोधा बताते है कि नारद विश्व का‌ प्रथम पत्रकार था। नारद‌ भारतीय पौराणिक साहित्य का एक पात्र है। जो देवता, मानव एवं दैत्यों के बीच होने वाली घटनाओं को जन जन तक पहुँचता था तथा तब तक दम नहीं लेता था जब तक संबंधित पात्र तक बात नहीं पहुंचे अथवा संबंधित समस्या का समाधान नहीं निकल जाए। पत्रकारिता का कार्य भी सरकार की बातों को जनता तक पहुँचाना एवं जनता की आवाज को सरकार तक पहुँचाने का है। यदि भारत वर्ष के पत्रकार नारद को अपना पितामह मानते है तो उनसे मुझे एक बात जबाब चाहिए क्या पत्रकारिता नारद का पेशा था? मैंने साहित्य कई भी यह नहीं पढ़ा की पत्रकारिता नारद का पेशा था। फिर भी शोधकरके बताया जा सकता है। 

पत्रकारिता की शुरुआत लेखन पत्रकारिता हुई थी। जो आरंभ के क्षणों में दान एवं अखबार की बिक्री की आय से चलता था। धीरे धीरे इसमें विज्ञापन का प्रवेश होता है तथा सरकारी एवं गैर सरकारी विज्ञापन इसकी आय का मुख्य स्रोत बन‌ गया। इसको लेकर आजकल प्रत्येक समाचार पत्र एवं न्यूज़ चैनल में एक विज्ञापन विभाग होता है। जिसका मुख्य कार्य आय का कलेक्शन करना है। जब तक आय कलेक्शन का यह रास्ता सीधा एवं नियमानुसार चलता रहता है, तब तक मीडिया सही कार्य करता है। जब कभी भी इसमें गड़बड़ी होती है तब‌‌ स्वयं‌ मीडिया सवालों के घेरे में आ जाता है। 

यदि मीडिया सेवा अथवा दायित्व ही रहेगा तो पत्रकार खायेगा क्या? निस्संदेह यह प्रश्न जरुरी एवं वाजिब है। पत्रकार के पेट‌ की चिंता समाज की जिम्मेदारी है। भारतीय पत्रकारिता के पितामह नारद के पेट, वस्त्र एवं आवागमन की व्यवस्था समाज द्वारा प्रदान की गई थी। ठीक उसी प्रकार पत्रकार के रोटी, कपड़ा, मकान एवं आवागमन की चिंता समाज की है।  यदि पत्रकारिता पेशा बन जाता है तो समाज इस जिम्मेदारी से मुक्त है। 

पुनः एक बार समाचार पत्र एवं न्यूज़ चैनल की दुनिया में चलते हैं। समाचार पत्र में मुख्य रूप से पांच विभाग होते हैं। प्रथम संपादन विभाग इसमें संपादक एवं पत्रकार आते हैं। पत्रकार खबर बनाता है तथा संपादक उसे प्रकाशित करता है। दूसरा प्रिंट विभाग संपादक द्वारा तैयार किया गया फार्मेट प्रिंट करने का कार्य यह विभाग करता है। इसके बाद तृतीय विभाग सर्कुलर विभाग जगता है। यह समाचार पत्र को पाठक तक पहुँचाने का कार्य करता है। इसके अलावा एक विभाग विज्ञापन का तथा एक प्रबंधन व लेखा विभाग होता है। इस प्रकार अखबार तैयार होता है। न्यूज़ चैनल के क्षेत्र में संपादकीय विभाग, तकनीक प्रसारण विभाग, विज्ञापन विभाग एवं प्रबंधन विभाग होता है। इस प्रकार प्रथम दृष्टि में यह एक शुद्ध व्यवसायिक चक्र लगता है। लेकिन मीडिया का धर्म एवं दायित्व इसे शुद्ध व्यवसायिक श्रेणी में रखने की इजाजत नहीं देता है। 

अब मीडिया की भूमिका के लोक में लेकर चलता हूँ। लोकतंत्र में मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ बताया गया है। यह जनमत के निर्माण एवं प्रभावित करने में भूमिका निभाता है। लोकतंत्र के प्रथम तीन स्तंभ व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं न्याय पालिका है। यह तीनों मिलकर सरकार है। इसलिए चौथे स्तम्भ की‌‌ अवधारणा काल्पनिक  है। वस्तुतः मीडिया को सरकार का ऐसा अंग बनाना चाहिए था, जो जनता एवं सरकार की‌ आवाज बनने का कार्य करता है। इनका खर्च सरकार संचय निधि से चलने की व्यवस्था होनी चाहिए थी। ऐसा रहता तो पत्रकार सरकार के समक्ष‌ झुकता नहीं तथा‌ पत्रकारिता व्यवसाय बनकर उभरता नहीं। इस व्यवस्था में एक संदेह अवश्य ही जन्म लेता है कि पत्रकारिता समाज के प्रति जवाबदेही नहीं होता। आज का भी पत्रकार भी समाज के प्रति जवाबदेही कहाँ है? आज का सरकारी कर्मचारी भी समाज के प्रति जवाबदेही नहीं दिखता है। इसके लिए सरकारी क्षेत्र में जनता की अभिभावक व्यवस्था लागू करनी चाहिए। जिसमें जनता सरकार एवं‌ सरकारी कर्मचारी की करेक्टर रिपोर्ट भरे, उसी के आधार पर उनके वेतन एवं प्रमोशन इत्यादि सुविधा का निर्धारण होना चाहिए। आजकल फीडबैक लिया जाता है लेकिन फीडबैक देने वाले का कोई दायित्व नहीं होता है। 

पुनः मूल प्रश्न की‌ ओर चलते हैं। पत्रकारिता व्यवसाय अथवा दायित्व। मुझे लगता है कि शत प्रतिशत उत्तर दायित्व के पक्ष में जाएगा लेकिन वास्तविक स्थिति में आज की पत्रकारिता एक व्यवसाय है। जो नहीं होना चाहिए। 
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करण सिंह की कलम से
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कर्ण पर एक अनुसंधान
महाभारत के पात्र कर्ण को धनुर्धर कर्ण, सुतपुत्र कर्ण, राधेय कर्ण, अंगराज कर्ण, परशुराम शिष्य कर्ण एवं कुन्ती पुत्र  कर्ण के रूप में चित्रित किया गया है। आज हम इस पात्र के संदर्भ में अध्ययन करते है। 

१. धनुर्धर कर्ण - हस्तिनापुर के रंगमंच पर तात्कालिक भारतवर्ष अर्थात विश्व के सभी राजकुमारों की शिक्षाओं का प्रदर्शन हो रहा था। (उस समय गुरूकुल से शिक्षा पूर्ण करने के बाद अपनी योग्यता की परीक्षा का यह एक तरीका था। जहाँ प्रश्न पत्र विद्यार्थी स्वयं बनाता था। परीक्षक जन साधारण के बीच में अलग-अलग जगह बैठकर मूल्यांकन करते थे। यह परीक्षा शिक्षक तथा शिष्य दोनों की होती थी। जिसमें शिक्षक मुखदृष्टा की शिष्य को नकल नहीं करने देने की भूमिका में होता था) सभी राजकुमार अपने प्रश्नपत्र हल कर रहे थे। उसी बीच अर्जुन के परीणाम पर सभी परीक्षक सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर की मोहर लगा चुके थे कि एक धनुर्धर आ खड़ा हुआ और कहने लगा यह परीक्षा फल गलत है - मैं सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हूँ, मै भी परीक्षा दूंगा। आयोजकों ने परीक्षार्थी, गुरुकुल  तथा मूल निवास का नाम पूछा? इसके जबाब में उस बालक ने अपना परिचय धनुर्धर कर्ण के रुप में दिया। यह उत्तर प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए पर्याप्त नहीं था। इसलिए उसे प्रतियोगिता के लिए अयोग्य (disqualified) करार दे दिया। इस प्रकार धनुर्धर कर्ण प्रतियोगिता में भाग लेने से वंचित हो गया। 

उपरोक्त घटना का वर्तमान संदर्भ - आज यदि कोई प्रतियोगिता चल रही हो तथा कोई व्यक्ति बिना फार्म भरें, यदि पेन लेकर आ जाए ओर कहने लग जाए मैं भी आईएएस अथवा अन्य किसी भी प्रतियोगिता में बैठुंगा तो क्या केन्द्राध्यक्ष अथवा प्रतियोगिता का सबसे बड़ा अयोजक परीक्षा में बैठने की अनुमति दे देगा? उत्तर नहीं आज तो आवेदन किये हुए को भी बिना प्रवेश पत्र तथा पहचान पत्र के भी रोका जाता है। इस स्थिति को देखकर आप बताइये कर्ण को प्रतियोगिता से बाहर करना उचित था अथवा अनुचित? 

(२) अंगराज कर्ण -  धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन ने राजा के  परिवार के निर्वाह के लिए संरक्षित निजी भूभाग में से एक क्षेत्र अंगदेश, उस धनुर्धर को देकर उसे अंगदेश का राजा बना दिया। ऐसा करने के बाद दुर्योधन ने फिर से प्रतियोगिता आयोजक तथा प्रतियोगिता के संरक्षक महाराज धृतराष्ट्र के समक्ष दावा पेश किया कि मेरे मित्र कर्ण अंगराज है। इसलिए प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए योग्य (eligible) है। इस प्रकार एक बार फिर सन्नाटा छा गया। सबकी निगाहें आयोजक मंडल की ओर टिकी हुई थी। आयोजक मंडल ने अंगराज कर्ण से पुछा आप अपने गुरु तथा गुरुकुल का नाम बताया तथा शिक्षा पूर्ण करने का प्रमाण पत्र बताइये। इसपर अंगराज कर्ण मौन हो गए। (क्योंकि कर्ण अंतिम परीक्षा में असफल हो गया था तथा बिना प्रमाण पत्र के ही गुरुकुल से लौट आया था। क्योंकि उसने अपनी झूठी पहचान के आधार पर अपने गुरु से शिक्षा ली थी।)  जब आयोजक द्वारा  बार-बार पूछे जाने पर पर कर्ण ने अपने धनुष को ही प्रतियोगिता के लिए पर्याप्त बताया। इस प्रकार एक फिर बिना उचित प्रमाण पत्र के कर्ण अयोग्य घोषित कर दिया गया। क्योंकि वह प्रतियोगिता, गुरुकुल से शिक्षा संपन्न किये राजकुमारों के बीच थी। इस पर दुर्योधन आगबबूला गया लेकिन इसका आयोजक मंडल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। 

आज के संदर्भ में देखे तो बताइये कि केवल आईडी प्रुफ मिलने तथा केवल ज्ञान होने पर कोई व्यक्ति किसी प्रतियोगिता योग्य हो सकता है? नहीं उसे अपने उचित शैक्षणिक योग्यता एवं निर्धारित समयावधि में आवेदन करना अनिवार्य है। 

(३) सुतपुत्र कर्ण -  अंगराज कर्ण के रुप में भी प्रतियोगिता में प्रवेश नहीं मिलने पर आगबबूला हुए दुर्योधन की हिंसक दहाडों से जनता में भय का वातावरण छा गया। इसी बीच  महाराज धृतराष्ट्र का पूर्व सारथी एवं हस्तिनापुर के वयोवृद्ध नागरिक अधिरथ निकल कर सामने आया तथा कर्ण से कहने लगा  चल बेटा!, घर चलते हैं। हमें इस प्रकार झगड़ों में नहीं पडना है। इस पर प्रकार दुनिया कर्ण की तीसरी पहचान सारथी पुत्र अर्थात् सुतपुत्र के रूप में मिलती है। सुत का अर्थ रथ हाकने वाले का पुत्र। तात्कालिक व्यवस्था के अनुसार मनुष्य का वर्ण कर्म प्रधान था। इसलिए कर्ण एक क्षत्रिय थे लेकिन उसके पालक पिता एक सूत अथवा शूद्र थे। किसी भी पुत्र को अपने पिता के व्यवसाय तथा पहनावे, ओढ़ावे, तथा रहन सहन से धृणा नहीं होनी चाहिए। कर्ण प्रतियोगिता से बाहर था लेकिन उसके मन में अर्जुन का प्रतियोगिता जीतना सहन नहीं हो रहा था। इसमें अर्जुन का कोई कसूर नहीं था। कर्ण प्रतियोगिता में भाग नहीं लेने देने में अर्जुन का कोई योगदान नहीं था। फिर भी कर्ण अर्जुन को शत्रु समझ बैठा, जिसका परिणाम सुतपुत्र कर्ण के गाली बन गई। जो कर्ण को कभी भी पांडवों के नजदीक नहीं आने दिया। अब कर्ण के अतीत के बारे में अनुसंधान होने लगे। यह अनुसंधान हस्तिनापुर की मंत्रीपरिषद तथा पांडव सभी पक्षों की ओर से किये गए। हस्तिनापुर की राज परिषद ने अनुसंधान में पाया कि कर्ण ने भगवान परशुराम गुरुकुल से ब्राह्मण बनकर शिक्षा पायी थी तथा अधिरथ को गंगा नदी से कर्ण मिला था। 

(४) परशुराम शिष्य कर्ण - महाभारत युग में विभिन्न विषयों के गुरुकुल एवं विद्यापीठ चलते थे। विद्यापीठ एवं गुरुकुल में यह अंतर था कि गुरुकुल शिक्षालय होते थे, जहाँ विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करता था, जबकि विद्यापीठ में अनुसंधान होते थे। व्यास विद्यापीठ थी जबकि द्रोण का गुरूकुल था। कर्ण सबसे पहले द्रोण गुरुकुल में गया। वहाँ वह प्रवेश नहीं कर पाया क्योंकि यह गुरुकुल अस्थायी राजपरिवार के बच्चों के लिए बनाया गया था। सुरक्षा कारणों से अन्य को प्रवेश नहीं दिया जाता था। कर्ण इसे जातिगत कारण मान गया तथा  ब्राह्मण वेश बनाकर परशुराम गुरुकुल में प्रवेश कर लिया।  परशुराम गुरुकुल में मात्र ब्राह्मणों को शिक्षा व दीक्षा दी जाती थी। ब्राह्मण शब्द किसी जाति अथवा वर्ण द्योतक नहीं है। ब्राह्मण शब्द का अर्थ जिनका लक्ष्य ब्रह्म प्राप्ति हो, जो शिक्षा राज्य अथवा जागतिक सुख सुविधा के लिए नहीं आध्यात्मिक विकास के लिए लेता है। कर्ण का तात्कालिक लक्ष्य योद्धा बनना था,  ब्राह्मण का लक्ष्य  समाज सेवा के लिए एक त्यागी सन्यासी बनने का होता है। वर्ण व्यवस्था में विप्र वर्ण होता है। ब्राह्मण अथवा सन्यासी बनने के लिए द्वार सभी के लिए खुले थे। कर्ण का गुप्त लक्ष्य जागतिक ऐश्वर्य का आकर्षण था, गुरुकुल में अंतिम दिनों में पकड़ में आया, जो गुरुकुल के नियमों के प्रतिकूल था होगा। इसलिए प गुरुकुल से निकाल दिया गया।  यदि कर्ण चाहता तो अन्य किसी गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त कर सकता था, जो आम लोगों के लिए तथा जन साधारण के लिए संचालित थे प्राप्त कर सकता था। उसे सरकारी स्कूल की बजाए निजी स्कूल सुख अधिक आकर्षित करता था। आम गुरुकुल में शिष्यों को अधिक कष्ट उठाने पड़ते थे।

वर्तमान संदर्भ में  आज आर्मी स्कूल में कोई पढ़ने के हठ करे तो पढ़ सकता है? यदि किसी सन्यासी परिक्षण केन्द्र पर जाकर राजनीति के शिक्षा पाना चाहें तो देंगे क्या❓

(५)  दानवीर कर्ण - कर्ण अंगराज बन गया लेकिन उनके योद्धा बनने का तरीका उसे खलता था। झूठ तथा कपट बल पर शिक्षा पाना अयुक्ति संगत लगता था तथा वह जानता था कि पांडव नहीं कौरव अधर्मी है। अत: अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिए दान पुण्य अधिक करने लगा। धीरे धीरे यह उसके अभिमान का बिन्दु बन गया। युधिष्ठिर धर्मवीर है तो मैं दानवीर हूँ। मेरे यहाँ मांगने की अभिलाषा से आया व्यक्ति खाली हाथ नहीं लौट सकता है। इसलिए तो कुंती, इन्द्र एवं श्रीकृष्ण के आगे अपनी मौत तथा पराजय ही दान में दे दिया। मनुष्य को सतकर्म करने चाहिए लेकिन उसका अंहकार नहीं होना चाहिए। यदि उसे कर्म का भी अहंकार आ गया तो भी पतन निश्चित है। यही कारण था कि श्रीकृष्ण के समझाने पर भी कर्ण  का अहंकार उसे समझने नहीं दे रहा था। 

(६) राधेय कर्ण - कर्ण की पालक माता राधा थी। इसलिए कर्ण राधेय कहला सकता है। कर्ण राधा भाव की साधना करता था इसलिए अपने आप को राधेय कहता था। राधा भाव का साधक परमपुरुष के बिना एक पल भी नहीं रह सकता है। लेकिन कर्ण परमपुरुष के पास रहकर भी कर्म मार्ग से उनसे दूर रहता था। उनके द्वारा द्रोपदी को वैश्या कहना राधा भाव की साधना में द्रोपदी से जलन का परिणाम था। द्रोपदी भी राधा भाव की साधिका थी। जो कर्ण से सदैव आगे रहती थी। उस युग में भीष्म, द्रोण, विदुर, कुन्ती, कर्ण, द्रोपदी, अर्जुन तथा शेष पांडव अच्छे तथा तगड़े साधक थे। लेकिन कर्ण ओर द्रोपदी को छोड़कर शेष की भक्ति राधा भाव से दूर थी। अर्जुन ने सखा भाव से साधना की थी जबकि भीष्म तथा कुन्ती वात्सल्य भाव के भक्त थे। विदुर की भक्ति केवला भक्ति थी। द्रोण की भक्ति रागात्मिका तथा  पांडवों की रागानुगा भक्ति थी। गांधारी भी उस युग सात्विक भक्ति प्राप्त साधिका थी। शकुनि तामसिक साधक तथा कौरव राजसिक भक्ति के उपासक थे। राधेय कर्ण के मन में प्रतियोगिता करने का जो भाव था, वही उसे अच्छे होने पर अच्छा नहीं बनने दिया।

(७.) कुन्ती पुत्र कर्ण - कर्ण को कुन्ती पुत्र कर्ण के रुप में अंतिम पहचान मिली।  जब कुन्ती को  ज्ञात हुआ कि  अधिरथ का पालक पुत्र कर्ण ही उसका पुत्र  है। तब तक कर्ण पूर्णतया दलदल में फस गया था। (महाभारत की पात्र कुन्ती पंच पूजनीय कन्याओं में से एक है। कुन्ती ने विवाह से पूर्व सूर्य नामक राजा से एक पुत्र तथा शादी के बाद पति की आज्ञा से तीन पुत्र धर्मराज, पवनराज, इन्द्रराज नामक राजाओं तीन पुत्र प्राप्त किये थे।) शादी पूर्व माता बनना उस युग में निंदनीय नहीं था। इसलिए किसी ने कभी भी कुन्ती के ओर अंगुली नहीं उठाई। कर्ण से किसी ने कुन्ती पुत्र होने के कारण अथवा सुतपुत्र के आधार पर धृणा नहीं की। कर्ण पर उठने वाले सभी अंगुलियाँ उसके आचरण के कारण थी। द्रोपदी के हाथ में वरमाला थी। वह स्वतंत्र थी कि किसके गले में वरमाला डाले, इसलिए प्रतियोगिता में वही भाग ले सकता था जिसका आवेदन कन्या स्वीकृत करती है। इसे द्रोपदी को गाली देने का आधार नहीं बन सकता था। अर्जुन से प्रतिस्पर्धा करना भी उसकी मुर्खता थी। आज बहुत से अच्छे विद्यार्थी, शिक्षक एवं कर्मचारी सर्वश्रेष्ठता खिताब नहीं जीत पाते है, इसका अर्थ यह नहीं होता है कि वे खिताब प्राप्त करने वालों से धृणा करें। यद्यपि कर्ण छल व कपट का पक्षधर नहीं था लेकिन छलकपट होते देखता था तथा उसका  मुक समर्थक भी बन जाता था। जब  कर्ण को ज्ञात हुआ कि वह कौन्तेय है। तब तक वह पाप के दलदल में पूर्णतया फस चुका था। उससे बाहर निकलना मुश्किल ही नामुमकिन मानता था। इसलिए महाभारत के निर्णायक युद्ध में उसने पांडवो का साथ नहीं दिया लेकिन वह चाहता था कि पांडवों की विजय हो ताकि धर्म की स्थापना हो। इससे प्रतीत होता है कि कर्ण बुरा नहीं था। वह परिस्थितिवश तथा संगति के कारण बुरा कहलाया। इसलिए मनुष्य को अपनी संगति सोच समझ कर करनी चाहिए।

श्री आनन्द किरण "देव"