हम भगवान को क्यों ढूँढ रहे हैं?                 (Why are we looking for God?)
भगवान् की खोज में भटकते मन को एक दोहा समर्पण कर मैं हम भगवान को क्यों खोज रहे हैं? प्रश्न के उत्तर की तालाश में चलेंगे। 
इदं तीर्थमिदं तीर्थ भ्रमन्ति तामसा: जना:।
आत्मतीर्थं न जानन्ति कथं मोक्ष  वरानने।।

ईश्वर की खोज से ईश्वरत्व की प्राप्ति तक: एक आध्यात्मिक यात्रा

हम ईश्वर को क्यों ढूंढ रहे हैं? यह प्रश्न मानव सभ्यता के इतिहास में सबसे प्राचीन और सबसे गहरा प्रश्न है। अक्सर हम मंदिरों, मस्जिदों, गुफाओं और पहाड़ों में उसे तलाशते हैं, जैसे वह कहीं खो गया हो। लेकिन सत्य यह है कि ईश्वर 'ढूंढने' का विषय नहीं है, और न ही वह किसी बाहरी वस्तु की तरह 'मिलने' का विषय है। आध्यात्मिक साधना का वास्तविक लक्ष्य तो ईश्वर को 'पाना' है, और पाने का सरलतम अर्थ है—स्वयं भगवान बन जाना।
 श्री श्री आनंदमूर्ति जी के शब्दों में, "साधना का अर्थ है अपनी संकुचित अहंता को विसर्जित कर उस अनंत सत्ता में एकाकार हो जाना।"


अक्सर हम परमात्मा को एक 'वस्तु' मान लेते हैं। जब हम किसी वस्तु को ढूंढते हैं, तो ढूंढने वाला (Subject) और ढूंढी जाने वाली वस्तु (Object) अलग-अलग होते हैं। लेकिन अध्यात्म में यह द्वैत ही सबसे बड़ी बाधा है। जब तक 'मैं' और 'वह' का भेद है, तब तक केवल खोज है, उपलब्धि नहीं।

  "कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढे बन माहि।
  ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखत नाहि।।"

कबीरदास जी  स्पष्ट करते है कि जिस सुगंध को मृग बाहर खोज रहा है, वह उसके भीतर ही है। ढूंढने की क्रिया तब समाप्त होती है जब अंतर्मुखी होकर बोध शुरू होता है। अनुभव हमें सिखाता है कि भक्ति केवल भावुकता नहीं है, बल्कि यह अपने संकुचित 'अहम' (Ego) को विस्तार देकर 'विराट अहम' (Universal Ego) में बदल देने की वैज्ञानिक प्रक्रिया है। भगवान को ढूंढना एक भ्रम है, क्योंकि जो खोया ही नहीं, उसे ढूंढना कैसा? उसे तो केवल पहचानना है।


ईश्वर को पाने का अर्थ यह नहीं है कि हम उनसे भौतिक रूप से साक्षात्कार करेंगे। पाने का वास्तविक अर्थ है—तदाकार (Identification)। जैसे एक बूंद जब समुद्र में गिरती है, तो वह समुद्र को 'ढूंढती' नहीं, बल्कि वह स्वयं 'समुद्र' हो जाती है। जब तक बूंद का अपना अस्तित्व (Ego) है, तब तक वह छोटी और कमजोर है, लेकिन जैसे ही वह समुद्र हुई, वह असीम और शक्तिशाली हो गई।
उपनिषद् के ऋषि उद्घोष करते हैं:

 "ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति"
 (जो ब्रह्म को जान लेता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है।)

यही वह बिंदु है जहाँ भगवान को 'पाना' और 'भगवान बन जाना' एक ही क्रिया बन जाती है। आनन्द मार्ग के दर्शन के अनुसार, मनुष्य का मन जब साधना के माध्यम से परिष्कृत और सूक्ष्म होता जाता है, तो वह अपनी सीमाएं छोड़कर परम पुरुष के मानस (Cosmic Mind) में विलीन हो जाता है। "मैं मनुष्य हूँ" से "मैं ब्रह्म हूँ" (अहं ब्रह्मास्मि) तक की यात्रा ही वास्तविक पाना है।


केवल मनुष्य मात्र से प्रेम करने तक सीमित नहीं है। यह उससे कहीं अधिक गहरा और व्यापक है। यह चराचर जगत—पेड़-पौधे, जीव-जंतु और यहाँ तक कि निर्जीव वस्तुओं के प्रति भी उसी आत्मिक प्रेम का विस्तार है जो हम स्वयं के लिए रखते हैं। जब हमारी चेतना इतनी विस्तृत हो जाती है कि हम धूल के एक कण में भी उसी ईश्वर की स्पंदन सुनते हैं, तब हम 'ढूंढने' वाले नहीं रह जाते, हम 'ईश्वरत्व' के वाहक बन जाते हैं।

—"प्रेम ही परम तत्व है।"
 "पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।"
 
जब हम हर प्राणी में ईश्वर को देखते हैं, तो हमारी सेवा 'परोपकार' नहीं रहती, वह 'आत्म-सेवा' बन जाती है। यहीं पर हम भगवान बनने की दिशा में पहला कदम बढ़ाते हैं। क्योंकि भगवान वही है जो सबको अपना मानता है, और जब हम सबको अपना मान लेते हैं, तो हममें और भगवान में अंतर ही क्या रह जाता है?


ईश्वर को पाना एक मानसिक और आध्यात्मिक प्रयोगशाला का कार्य है। आनन्द मार्ग में 'अष्टांग योग' के माध्यम से मन की परतों को साफ किया जाता है। भगवान कहीं बादलों के पार नहीं बैठा है, वह तो हमारे मन के सबसे गुप्त कक्ष में विराजमान है।

 "मोको कहाँ ढूंढें रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
 ना तीरथ में, ना मूरत में, ना एकांत निवास में।।"

ईश्वर हमारे 'पास' हैं, इसका अर्थ है कि वह हमारी चेतना का केंद्र (Nucleus) हैं। साधना का अर्थ है परिधि (Circumference) से केंद्र की ओर यात्रा करना। जैसे-जैसे हम केंद्र के निकट पहुँचते हैं, संसार का कोलाहल शांत होने लगता है और एक अलौकिक संगीत सुनाई देता है। जब हम केंद्र पर पहुँचते हैं, तो परिधि लुप्त हो जाती है। वहां न कोई साधक बचता है, न साधना, केवल 'परम शिव' या 'परम आनंद' शेष रह जाता है।


भगवान बनने का अर्थ यह नहीं है कि हम चमत्कार करने लगेंगे। भगवान बनने का अर्थ है—पूर्ण मानवीयता को प्राप्त करना। भगवान बनने का अर्थ है अपने भीतर के दोषों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) को ईश्वरीय गुणों (क्षमा, करुणा, प्रेम, निस्वार्थ सेवा) में बदल देना।

भगवान बुद्ध ने कहा था—"अप्प दीपो भव" (अपना दीपक स्वयं बनो)। जब आप स्वयं प्रकाश बन जाते हैं, तो आप केवल अपने लिए नहीं, बल्कि पूरी मानवता के लिए मार्गदर्शक बन जाते हैं। यही 'आनन्द मार्ग' का मूल मंत्र है—'आत्ममोक्षार्थं जगद्धिताय च' (अपनी मुक्ति और जगत का कल्याण)।


 * ज्ञान: यह निरंतर बोध कि "मैं केवल यह नश्वर शरीर और चंचल मन नहीं हूँ, बल्कि मैं वह अविनाशी आत्मा हूँ।"

 * कर्म: यह भाव कि संसार का प्रत्येक कार्य परमात्मा की सेवा है। "यत् कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्" (मैं जो भी कर्म करता हूँ, वह आपकी ही आराधना है)। प्रत्येक कर्म ईश्वर को देखना। 

 * भक्ति: उस परम सत्ता के प्रति अखंड और अनन्य अनुराग।

भक्ति के बिना ज्ञान सूखा है और कर्म बोझ। लेकिन जब भक्ति का समावेश होता है, तो कर्म 'योग' बन जाता है और ज्ञान 'बोध'। भक्त और भगवान के बीच की दूरी वैसे ही मिट जाती है जैसे अग्नि में पड़कर लोहा स्वयं अग्नि जैसा लाल और तेजस्वी हो जाता है।

"जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सांकरी, जामें दो न समाहिं।।"

जब तक 'मैं' (अहंकार) है, तब तक 'हरि' नहीं मिल सकते। और जब 'हरि' आ जाते हैं, तो 'मैं' मिट जाता है। यही वह स्थिति है जिसे हम 'भगवान बन जाना' कहते हैं—जहाँ भक्त और भगवान में कोई भेद शेष नहीं रहता।


हम भगवान को इसलिए ढूंढ रहे हैं क्योंकि हमें अपनी वास्तविक पहचान का विस्मरण हो गया है। हम उस राजकुमार की तरह हैं जो अपना राज्य भूलकर दर-दर की ठोकरें खा रहा है। 

 हमारा घर, हमारा मूल और हमारा गंतव्य वह ईश्वर ही है।

विषय गंभीर है, पर उत्तर वास्तव में सरल है। भगवान कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसे बाजार से या हिमालय की कंदराओं से खरीदकर लाया जा सके। वह तो आपके अस्तित्व की सुगंध है। साधना के माध्यम से उस सुगंध को प्रकट करना ही 'पाना' है।

अंतिम संदेश:
ढूंढना बंद करें और 'होना' शुरू करें। जब हम प्रेम बन जाते हैं, तो हम ईश्वर हो जाते हैं। जब हम करुणा बन जाते हैं, तो हम ईश्वर हो जाते हैं। जब हम न्याय और सेवा के जीवंत विग्रह बन जाते हैं, तो हम ईश्वर हो जाते हैं।

आनन्द मार्ग हमें इसी गरिमामय पथ पर चलने का आह्वान करता है, जहाँ हम एक दिन यह कह सकें—"मैं वही हूँ जिसका मैं ध्यान करता था।" । जिस दिन हमारे हृदय में समस्त संसार के लिए वही तड़प होगी जो एक माँ की अपने बालक के लिए होती है, समझ लेना कि आपने भगवान को 'पा' लिया है, क्योंकि आप स्वयं 'भगवान' के सांचे में ढल चुके हैं।

समाज आंदोलन के सिवाय, प्रउत स्थापना का कोई उपाय नहीं (There is no way to establish Praut except social (Samaj) movement)
 श्री प्रभात रंजन सरकार (श्री आनंदमूर्ति जी) के 'प्रउत' (PROUT - Progressive Utilization Theory) दर्शन के व्यावहारिक धरातल को स्थापना करने की आधार शीला की ओर चलते हैं। 

क्रांतिकारी शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने अपने पिता को लिखे अंतिम पत्र में स्पष्ट किया था कि भारत की मुक्ति का मार्ग केवल जन आंदोलन से ही प्रशस्त होगा। जन आंदोलनों की इसी शक्ति को एक नई दिशा और वैज्ञानिक आधार प्रदान करते हुए श्री प्रभात रंजन सरकार ने इसे 'समाज आंदोलन' की संज्ञा दी।
ऐतिहासिक रूप से भारत में अनेक जन आंदोलन हुए, किंतु उनके परिणाम प्रायः संतोषजनक नहीं रहे। इसके तीन प्रमुख कारण दृष्टिगोचर होते हैं : -

 * ** ** दिशाहीनता : -आंदोलन का स्वरूप तो तय होता है, किंतु उसकी वैचारिक दिशा स्पष्ट नहीं होती।

 * **** सत्ता-उन्मुखता : - आंदोलन प्रायः सत्ता से प्रश्न करते हैं और सत्ता की ओर ही ताकते हैं, जबकि उन्हें समाज से प्रश्न कर समाज के साथ चलना चाहिए।
 *****  केंद्रीकरण : आंदोलनों का ध्यान सत्ता के केंद्र पर होता है, जबकि वास्तविक परिवर्तन केंद्र से निकलकर अंतिम व्यक्ति (जन-जन) तक पहुँचना चाहिए।

श्री प्रभात रंजन सरकार के दृष्टिकोण के आलोक में, "समाज आंदोलन ही वास्तविक जन आंदोलन है"—इस तथ्य को निम्नलिखित छह बिंदुओं के माध्यम से सिद्ध किया जा सकता है : -

1. सामाजिक-आर्थिक इकाई का निर्धारण (Socio-Economic Units)
कोई भी जन आंदोलन तब तक दिशाहीन रहता है जब तक उसकी सामाजिक-आर्थिक इकाई (Samaj) का निर्धारण न हो जाए। समाज राजनीति से नहीं, बल्कि अपनी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से संचालित होता है। अतः हमें केवल राजनीतिक सीमाओं को नहीं, बल्कि एक संयुक्त क्षेत्र को आधार बनाना होगा। इसके निर्धारण हेतु चार अनिवार्य कारक हैं : -

 ***** समान आर्थिक समस्याएँ एवं संभावनाएँ : साझा अभाव और विकास के समान अवसर।

 ***** भावनात्मक एकता : भाषाई और सांस्कृतिक जुड़ाव।

 ***** भौगोलिक समानता : जलवायु और भूगोल के आधार पर विकसित मानवीय लक्षण (जिसे नस्लीय समानता कहा गया है, जो जाति या संप्रदाय से परे है)।

2. समग्र संगठनात्मक संरचना

समाज आंदोलन की सफलता के लिए एक ऐसी संगठनात्मक संरचना अनिवार्य है जो केंद्र से लेकर समाज की अंतिम इकाई तक सक्रिय हो। प्रायः देखा गया है कि संगठनात्मक ढांचे के अभाव में जन आंदोलन सत्ता मिलते ही दिशाभ्रमित या 'अराजक' हो जाते हैं। एक सुदृढ़ ढांचा ही आंदोलन के मूल्यों को सत्ता के गलियारों में सुरक्षित रख सकता है।

3. समाज की समग्र योजना (Comprehensive Master Plan)
समाज आंदोलन का प्राथमिक लक्ष्य केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि समाज का सर्वांगीण रूपांतरण है। इसके लिए समाज के पास अपनी एक समग्र योजना होनी चाहिए। यह योजना 'ब्लूप्रिंट' का कार्य करती है, जो सत्ता प्राप्ति की स्थिति में भी नेतृत्व को भटकने नहीं देती और अंतिम व्यक्ति के कल्याण को सुनिश्चित करती है।

4. ब्लॉक स्तरीय योजना (Block-Level Planning)
ब्लॉक लेवल प्लानिंग समाज आंदोलन की 'जीवन रेखा' है। जब एक लघु समाज इकाई वृहद समाज इकाई में परिवर्तित होती है, तब वहां की मिट्टी की प्रकृति, नदियों के प्रवाह और स्थानीय संसाधनों के आधार पर बनाई गया ब्लॉक तथा उस आधारित योजना ही वास्तविक विकास का आधार बनती है। यह विकेंद्रीकृत नियोजन ही जन आंदोलन को समाज आंदोलन में बदलता है।

5. ग्रामीण सशक्तिकरण एवं कृषि आधारित अर्थव्यवस्था (Rural empowerment and agriculture-based economy) 
समाज की वास्तविक शक्ति शहरों में नहीं, बल्कि गाँवों में निहित है। समाज आंदोलन ऐसी औद्योगिक शहरीकरण योजनाओं का विरोध करता है जो खेतों को नष्ट करती हों। इसके स्थान पर:

 ***** कृषि, कृषि-सहायक और कृषि-आधारित उद्योगों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
 * **** ग्रामीण अर्थव्यवस्था को स्वावलम्बी बनाकर ही 'प्रउत' के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है।

6. भुक्ति (जिला) व्यवस्था शासन का मूलाधार  ( Bhukti (district) system foundation of governance) 

यद्यपि राजनीतिक शक्ति का केन्द्रीकरण होता है , तथापि शासन का वास्तविक मूलाधार 'भुक्ति' (जिला स्तर) व्यवस्था की स्थापित होना चाहिए। जब शासन की शक्तियाँ स्थानीय स्तर पर (भुक्ति व्यवस्था) केंद्रित होंगी, तभी जन-जन की भागीदारी सुनिश्चित होगी और शोषणमुक्त समाज की स्थापना संभव हो सकेगी।

निष्कर्ष:

समाज आंदोलन मात्र एक विरोध प्रदर्शन नहीं, बल्कि एक रचनात्मक क्रांति है। यह सत्ता की ओर नहीं, बल्कि समाज की आत्मा की ओर मुड़ने का आह्वान है। जब तक जन आंदोलन 'समाज' की इन वैज्ञानिक कड़ियों से नहीं जुड़ेगा, तब तक वांछित सुखद परिणाम की प्राप्ति असंभव है।



क्या हम तानाशाह होना चाहते हैं?                (Do we want to be dictators?)

वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में, जहाँ एक ओर आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना की बात ज़ोर पकड़ रही है, वहीं दूसरी ओर कुछ विचारकों द्वारा एक विशेष संगठन पर तानाशाही व्यवस्था का वाहक होने का आरोप लगाया जा रहा है। यह भ्रांति संभवतः 'बाबा' (श्री श्री आनन्दमूर्ति जी) के गूढ़ विचारों को पूर्ण रूप से आत्मसात न कर पाने के कारण उत्पन्न हुई है। बाबा का स्पष्ट उद्घोष रहा है कि समाज के सर्वांगीण कल्याण और उत्थान हेतु सद्विप्रों का अधिनायक तंत्र (Dictatorship of the Sadvipras) आवश्यक है। यह वक्तव्य किसी व्यक्ति विशेष या व्यक्तियों के समूह की निरंकुश सत्ता का समर्थन नहीं करता, बल्कि एक आदर्श, नैतिकवान और आध्यात्मिक नेतृत्व की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

अतः, यह स्पष्ट करना नितांत आवश्यक है कि तानाशाही व्यवस्था को बढ़ावा देना संगठन के मूल आदर्शों को खोखला करना है। हमें आज यह समझना होगा कि सद्विप्रों का अधिनायक तंत्र और आर्थिक लोकतंत्र क्या हैं और उनका वास्तविक आशय क्या है।

                 पहला प्रश्न

सद्विप्र शब्द का अर्थ एवं विशेषताएँ
श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने 'आनन्द सूत्रम' के अध्याय-05, सूत्र-02 में सद्विप्र को परिभाषित किया है : - "जो नीतिवादी आध्यात्मिक साधक अपने शक्ति सम्प्रयोग से पाप का दमन करना चाहते हैं, वे ही सद्विप्र हैं।"

इस परिभाषा के अनुसार, सद्विप्र में दो मूलभूत विशेषताएँ अनिवार्य हैं।

(1) नीतिवादी आध्यात्मिक साधक : - 
      (i) नीतिवाद का पैमाना : - व्यक्ति को यम-नियम में प्रतिष्ठित होना चाहिए तथा पंचदश शील (पंद्रह आध्यात्मिक नैतिक सामाजिक सिद्धांत) का अनुसरण करना चाहिए। उनके आचरण, व्यवहार और सिद्धांतों में इन गुणों की स्पष्ट झलक मिलनी चाहिए।
(ii) आध्यात्मिक साधक का पैमाना : - उन्हें ब्रह्मभाव (भूमाभाव) की साधना में पारंगत होना चाहिए, जिसका अर्थ है चरम चेतना के साथ एकाकार होने की साधना।
 
(2) पाप का दमन करने की शक्ति : - उनमें अपनी नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति का प्रयोग कर समाज में व्याप्त अनैतिकता और शोषण को समाप्त करने का सामर्थ्य होना चाहिए।


 यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि 'सद्विप्र का अधिनायक' नहीं, अपितु 'सद्विप्रों का अधिनायक' कहा गया है। यह स्पष्ट रूप से किसी एक व्यक्ति के निरंकुश शासन का नहीं, अपितु एक समूह के संगठित एवं नैतिक नेतृत्व की स्थापना का संदेश देता है।

यह क्या है? - यह आध्यात्मिक और नैतिकवान साधकों का सामूहिक अधिनायक तंत्र है। यह किसी व्यक्ति विशेष, सामान्य समूह या पापी स्वभाव के लोगों का अधिनायक नहीं है।
यह कैसा है? :-  सद्विप्र वस्तुतः सम्पूर्ण समाज है, जिसका नियंत्रण एक सद्विप्र बोर्ड द्वारा होगा। इस बोर्ड में कुल पाँच अलग-अलग श्रृखंलाबद्ध बोर्ड होंगे, जो एक-दूसरे से एक मजबूत चेन के माध्यम से जुड़े होंगे। इस बोर्ड के संगठन और सदस्यों के चयन में भी लोकतांत्रिक मूल्यों का समावेश होता है।

                 दूसरा प्रश्न 

आर्थिक लोकतंत्र (Economic Democracy) एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था है जो भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग और न्यायसंगत वितरण पर बल देती है।

आर्थिक लोकतंत्र की मुख्य विशेषताएँ : -
* (१) न्यूनतम आवश्यकता की गारंटी : यह वह सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था है, जहाँ प्रत्येक नागरिक को उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं (जैसे अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा, शिक्षा) की गारंटी मिले
* (२) क्रयशक्ति का मूल अधिकार : - यह वह सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था है, जहाँ व्यक्ति के पास अपनी आवश्यकतानुसार वस्तुओं और सेवाओं को क्रय करने की शक्ति का मूल अधिकार प्राप्त हो।
* (३) शत-प्रतिशत रोज़गार की अवस्था : - समाज में काम करने योग्य जनसमुदाय को शत-प्रतिशत रोज़गार की गारंटी प्रदान करना।
* (४) समन्वित सहकारी व्यवस्था : -  यह आर्थिक क्षेत्र में सीमित व्यक्तिवाद और सीमित समाजवाद के बीच समन्वय स्थापित करती है। बड़े तथा वैश्विक महत्व के उद्योग सरकार द्वारा 'न लाभ, न हानि' की नीति से संचालित होंगे, जबकि छोटे उद्योग व्यक्तिगत तथा मध्यम उद्योग समन्वित सहकारिता पर आधारित होंगे। इस व्यवस्था में आर्थिक क्षेत्र वंशवाद नहीं, अपितु योग्यता (Merit) का क्षेत्र होगा।
* (५) गुणीजन का सम्मान : -  आर्थिक लोकतंत्र गुणीजनों के गुण का सम्पूर्ण आदर करता है और उन्हें सामाजिक एवं आर्थिक परिलाभ प्रदान करता है। हालांकि, यह सामाजिक उच्च-नीच तथा किसी अन्य प्रकार के भेद को स्वीकार नहीं करता है।
* (६) वृद्धिमान सामाजिक मानक : - समाज के विकास एवं प्रगति को मापने वाला मानक कभी भी स्थिर या ह्रासमान नहीं होता है। यह सदैव वृद्धिमान (Progressive) होता है।
* (७) संपत्ति संचयन पर समाज की लगाम : - संचय वृत्ति को एक आर्थिक रोग मानते हुए, इसको अनियंत्रित छोड़ना समाज को दूषित करना माना गया है, अतः इस पर समाज का नियंत्रण आवश्यक है।
* (८) संसाधनों का अधिकतम उत्कर्ष एवं विवेकपूर्ण वितरण: भौतिक, अधिभौतिक एवं मानस-भौतिक संसाधनों का चरम उत्कर्ष करना तथा उत्पादित सामग्री का विवेकपूर्ण और न्यायसंगत वितरण करना। इसका अर्थ है: पहले सभी की न्यूनतम आवश्यकता को पूर्ण करना, तथा अतिरिक्त संपदा को गुणीजनों में उनके गुण के अनुपात में वितरित करना
* (९) मानवीय संसाधन का अधिकतम एवं सुसंतुलित उपयोग : - मानवीय क्षमता के उपयोग में अधिकतम तथा सुसंतुलित (Good Balance) नीति का समावेश है।
* (१०) उपयोगिता की परिवर्तनशीलता : -  उपयोगिता सबके लिए एक समान नहीं होती। यह देश-देश, काल-काल व पात्र-पात्र के अनुसार परिवर्तनशील होना आवश्यक है।
* (११) वैचित्र्यता का सम्मान : -  आर्थिक मूल्य प्रकृति के धर्म वैचित्र्यता (Diversity) का सम्मान करते हुए निर्धारित किए जाते हैं।

आर्थिक लोकतंत्र की मूलभूमि आर्थिक शक्ति का विकेन्द्रीकरण तथा राजशक्ति का संगठित करना है।

अंतिम निष्कर्ष की ओर‌ : - आदर्श अधिनायक तंत्र के हिमायती है। अतः, हम तानाशाही के नहीं, अपितु एक आदर्श अधिनायक तंत्र के हिमायती हैं, जो लोकतांत्रिक मूल्यों को सदा जीवित रखता है। यद्यपि यहाँ लोकतंत्र भीड़तंत्र नहीं है (क्योंकि व्यस्क मताधिकार के स्थान पर आध्यात्मिक नैतिकवान व्यक्ति को मताधिकार है), तथापि यह लोकतांत्रिक मूल्यों की बलि नहीं देता है। सद्विप्रों का अधिनायक तंत्र वस्तुतः एक ऐसा नैतिक एवं आध्यात्मिक नियंत्रण है जो आर्थिक लोकतंत्र की नींव को सुदृढ़ करता है, जिससे शोषण रहित समाज की स्थापना संभव हो पाती है।

हम तानाशाही नहीं एक आदर्श अधिनायक तंत्र में विश्वास करते हैं, जो व्यक्ति के नेतृत्व में नहीं सामूहिक नेतृत्व की अवधारणा देता है। 

प्रस्तुति : आनन्द किरण
स्वधर्म एवं परधर्म                     (Self dharm and other dharm)

      आनन्द किरण
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आज विषय मिला है -स्वधर्म एवं परधर्म। स्व: शब्द का अर्थ अपना तथा पर शब्द का अर्थ पराया। अतः सरल अर्थ में विषय हो गया अपना धर्म एवं पराया धर्म। धृ धातु के मन प्रत्यय लगने से धर्म शब्द बना है। जिसका अर्थ सत्ता के अनुरूप भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तथ्यों को धारण करना। कुछ उदाहरण के द्वारा विषय थोड़ा सरल बनाया जा सकता है। पूजा करने की वृत्ति धारण करने वाला पूजारी कहलाता है। उसी प्रकार तपस्या वृत्ति वाला तपस्वी, सैन्य वृत्ति वाला सैनिक, चौर्य वृत्ति वाला चोर, डाक डालने वाला डाकू। अतः धर्म सदैव स्व: से जुड़ा रहता है। जब धर्म को स्व: से पृथक कर दिया जाए तो स्व: छिन्न भिन्न हो जाता है। अब हमने स्व, पर एवं धर्म शब्द को जान लिया इसलिए विषय को अधिक अच्छी तरह से समझ सकते हैं। 

स्व शब्द‌ -  स्व: अथवा स्वयं का अथवा अपना शब्द पर ओर अधिक समझने की कोशिश करते हैं। अपना अर्थात मेरा एक वचन में तथा हमारा बहुवचन में। सबसे पहले एक वचन पर ध्यान देते अपना अर्थात मेरा। अतः वाक्य पूरा हुआ मेरा धर्म। प्रश्न मेरा धर्म क्या है? उत्तर - सबसे पहले बताओ कि मैं कौन हूँ। जब तक मनुष्य 'मैं' अर्थात स्वयं से परिचित नहीं है तब तक 'मेरा धर्म क्या है' का उत्तर प्राप्त नहीं कर सकता है। अतः 'मैं' को समझने के लिए निकलते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि 'मैं' का सूक्ष्मत्तम एवं गहनतम अर्थ है लेकिन हमारा विषय आध्यात्मिक नहीं, सामाजिक है, इसलिए सामाजिक दृष्टि से ही मैं समझने की कोशिश करेंगे। सामाजिक अथवा जागतिक दृष्टि से 'मैं' मनुष्य के लिए व्यवहार हुआ है। अर्थात मैं मनुष्य हूँ। चूंकि हम गाय, भैंस सिंह इत्यादि नहीं है। इसलिए 'मैं' का अर्थ मनुष्य ही हुआ। अर्थात मनुष्य का धर्म मेरा अपना धर्म स्वधर्म हुआ। जो धर्म मनुष्य का नहीं है, वह पराया धर्म अर्थात परधर्म हुआ। 

मनुष्य का धर्म क्या है? 

 चूंकि मनुष्य का धर्म ही मेरे तथा हमारे लिए स्वधर्म है इसलिए विषय कहता है कि मनुष्य का धर्म क्या है समझ लिजीए स्वधर्म का सबसे बड़ा शोधपत्र तैयार हो जाएगा। सर्वप्रथम मनुष्य शब्द का अर्थ समझते हैं - मनु धातु से मनुष्य शब्द आया है। जिसका अर्थ है - मन प्रधान प्राणी। प्राणी जगत में एकमात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जिसका मन प्रधान है। शेष सभी प्राणियों के लिए शरीर प्रधान है। चूंकि मन का कार्य मननशीलता है। इसलिए मनुष्य शब्द का अर्थ हुआ, मननशील प्राणी। इससे सरल शब्द में चिन्तनशील अथवा विचारशील भी कह देते हैं। अतः मनुष्य के धर्म को समझने के मनुष्य शब्द की परिभाषा पर जोर देना आवश्यक है। मननशीलता मनुष्य का प्रधान गुणधर्म है। इसलिए मनुष्य की मननशीलता की ओर चलते हैं। मनुष्य की जन्मजात मननशीलता समग्र है। किसी भी प्रकार का भेद जनित मननशीलता मनुष्य की नहीं है। अतः जहाँ अपना-पराया, तेरा-मेरा का भेद है, वहाँ मनुष्य नहीं है। अतः मनुष्य का धर्म सार्वभौमिक एवं सर्वांगीण है। उसमें जाति, क्षेत्र, साम्प्रदायिक भेद जनित करना मनुष्य के धर्म छेद करना अथवा सेंधमारी है। अतः कोई जाति, देश, क्षेत्र तथा साम्प्रदाय मनुष्य का स्वधर्म नहीं है। मनुष्य का स्वधर्म मानव धर्म है। जिसे प्रथम स्तर पर पर हम मानवता कहते हैं। लेकिन सूक्ष्म दार्शनिक अर्थ में मानवता भी मनुष्य के स्वधर्म में नहीं समाती है। उसके लिए समग्र सृष्टि अपनी हैं। जैव तथा अजैव सत्ता उसकी अपनी है। अतः सभी के गुणधर्म की रक्षा करना ही मनुष्य का स्वधर्म है। अतः मानव धर्म के लिए उपयुक्त नवीन शब्द नव्य मानवता अथवा नव्य मानवतावाद दिया गया है। अतः हम कह सकते हैं कि मनुष्य का स्वधर्म नव्य मानवतावाद है। जिसमें सृष्ट व असृष्ट जगत के सभी तथ्य तथा उनके प्रति उत्तरदायित्व समाविष्ट है। अतः मनुष्य के स्वधर्म को परिभाषित करते समय जाति, क्षेत्र अथवा सम्प्रदाय का बोध कराने वाली युक्ति मनुष्य शब्द के साथ छेड़छाड़ करती है। अतः इस प्रकार के विषय के सभी तथाकथित धर्म के नाम परिचय देने वाले शब्द मनुष्य के परधर्म है, जो उसकी पहचान जाति, क्षेत्र एवं सम्प्रदाय के रूप में देते हैं। चूंकि हम समझ गए है कि मनुष्य का स्वधर्म क्या है, इसलिए मानव धर्म के बारें में विस्तार से जानना हमारा कर्तव्य है। 

मानव धर्म - धर्म मनुष्य को परिपूर्णता के पथ पर ले चलता है। इसलिए संस्कृत में वृहद प्रणिधान को मनुष्य का धर्म बताया गया है। वृहद अर्थात विराटता अथवा समग्र व्यापकता। अतः संकीर्णता में मानव धर्म नहीं रह सकता है। मानव धर्म को रहने के लिए जातिगत, क्षेत्रगत, साम्प्रदायिकगत संकीर्णता से उपर उठना होगा। मानव धर्म अर्थात मनुष्य को समग्र व्यापकता के पथ ले चलने वाले तथ्य मानव धर्म है। अतः शास्त्र में मानव धर्म के चार स्तंभ निर्धारित किये है। यह विस्तार, रस, सेवा एवं तद स्थित है। अब हम इन चारों को समझने की कोशिश करते हैं। 

विस्तार - मनुष्य वृहद बनना चाहता है। इसे संस्कृत में विराट तथा अंग्रेजी में Greatness कहते हैं। मनुष्य के धर्म का प्रथम स्तंभ विस्तार हैं। चूंकि मनुष्य का शरीरगत विस्तार एक विज्ञान है। अतः उसे अधिक विस्तार नहीं दिया जा सकता है। मन का विस्तार संभव है। अतः मन को सभी प्रकार की कुंठा से उपर उठाना ही मनुष्य का के मन विस्तार देना है। मनुष्य के मन को इतना बड़ा बनाया जा सकता है कि उसमें किसी भी प्रकार संकीर्णता नहीं रहती है। जो जातिगत , क्षेत्रगत एवं सम्प्रदायगत चिन्तन में संभव नहीं है। आत्मा समग्र शब्द है। इसलिए उसका विस्तार नहीं किया जाता है। जब मन माया के बंधन से हटकर आत्मा में विलीन हो जाता है, उस अवस्था का नाम परमात्मा है। इसलिए आत्मा सो परमात्मा कहा जाता है। 

रस - मानव धर्म का दूसरा स्तंभ रस को बताया गया है। यदि मनुष्य का विस्तार रसमय नहीं है तो निरस विस्तार कोई नहीं चाहेगा। अतः मनुष्य के विस्तार के साथ रस अथवा आनन्द का होना आवश्यक है। अतः मनुष्य के मन की गति का विज्ञान कहता है कि प्रत्येक मनुष्य अनन्त सुख की ओर गतिमान है। संस्कृत में अनन्त सुख के आनन्द शब्द का व्यवहार हुआ। अतः मनुष्य के व्यापकता की वह यात्रा जो मनुष्य आनन्दमय परिवेश दे। जिसे भक्ति शास्त्र में रस विज्ञान के द्वारा खुब अधिक स्पष्ट किया है। अतः कहा जाता है कि जिस भजन में रस न हो वह भजन नहीं गाना चाहिए। भेद में आनन्द नहीं मिलता है। 

सेवा - मानव धर्म का चतुर्थ तृतीय स्तंभ सेवा है। आनन्दमय विस्तार की यात्रा को जब सेवा से सिंचा जाता है तब धर्म वास्तविक रहता है। अन्यथा काल्पनिक अथवा पलायनवादी हो जाता है। अतः सेवा मनुष्य का धर्म व्रत है। नृयज्ञ, भूतयज्ञ, देवयज्ञ एवं आध्यात्मिक यज्ञ के नाम से मनुष्य की सेवा को सभी प्रकार की संकीर्णता मुक्त करके समझाया गया है। यज्ञ शब्द का अर्थ कर्म है। हवन, आहुति इत्यादि से यज्ञ का संबंध एक मत की अवधारणा है।जिसका सेवा से संबंध नहीं है। शरीर से, धन से, रक्षा करके तथा सत् शिक्षा देकर सतपथ दिखाकर सेवा की जाती है,इसलिए सेवा के चार वर्ग बताए गए हैं। अतः सेवा मनुष्य निर्माण का तृतीय स्तंभ है। मानव धर्म का तृतीय स्तंभ है। 

तदस्थिति - संस्कृत शब्द तदस्थिति का अर्थ वैसे स्थिति जैसी मनुष्य की होनी चाहिए। मनुष्य की स्थिति है। पूर्णत्व की प्राप्ति। पूर्णत्व को आध्यात्म में परमात्मा पद कहा गया है। अतः नर को नारायण रुप में प्रकट करना तदस्थिति है। धर्म, मनुष्य की वह गति है जो उसे भगवान बना देती है। अतः भगवान स्थिति प्राप्त करने को धर्म का चतुर्थ स्तंभ बताया गया है। अतः कहा गया है जहाँ भेद है वहाँ भगवान रहते हैं। अतः भगवान बनने के लिए भेद रहित अवस्था को तदस्थिति कहा गया है। 

मनुष्य का धर्म मानवधर्म के चतुष्पाद है। जो विस्तार, रस, सेवा एवं तदस्थिति के नाम से जाने जाते हैं। चूंकि मनुष्य की गति पूर्णत्व की है। जिसे सरल अर्थ में भगवद प्राप्ति है अतः संस्कृत में मानव धर्म को भावगत अर्थ में भागवत धर्म कहते हैं। भागवत शब्द का अर्थ वैष्णव संप्रदाय अथवा हिन्दू इत्यादि से लेना नही चाहिए। भगवद्गीता अथवा कोई भी शास्त्र समग्र मानवता के लिए लिखे गए हैं, उन्हें संस्कृत में भागवत शास्त्र कहते हैं। जहाँ संकीर्णता मुक्त है, वही  भागवत धर्म, भागवत शास्त्र रहते हैं। भागवत धर्म ही मानव धर्म है, ऐसा नहीं है - मनुष्य के धर्म का दुनिया सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत में भागवत अर्थ में भागवत धर्म कहा गया है। अतः मनुष्य के धर्म के लिए संस्कृत शब्द भागवत धर्म है। भागवत धर्म में मनुष्य की सोच नव्य मानवतावादी रहती है। जहाँ नव्य मानवतावाद से कम स्वीकार्य नहीं है।
एक आदर्श राज्य - रामराज्य  (An ideal state‌ - Ramrajya)
रामराज्य क्या एवं कैसे
भारतवर्ष में आदर्श राज्य की परियोजना का नाम 'रामराज्य' दिया गया है। इस परियोजना का निर्माण संभवतया महर्षि वशिष्ठ गुरुकुल के आचार्यों, तात्विकों एवं पुरोधाओं द्वारा किया गया था। जिसमें एक आदर्श व्यक्ति, आदर्श परिवार, आदर्श राज्य एवं आदर्श समाज का चित्रण गया था। उसके आधार पर नव भारतवर्ष का संगठन होना है। आज हम उसी आदर्श व्यवस्था 'रामराज्य' को समझने की कोशिश करेंगे। 

(१) रामराज्य का प्रथम संकल्प आदर्श व्यक्ति का निर्माण :- समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार में सर्वप्रथम व्यक्ति का निर्माण होता है। यद्यपि व्यक्ति की समाज में गुरुत्व भूमिका है तथापि व्यक्ति को समाज छोटी इकाई का दर्जा नहीं मिला है। क्योंकि एक व्यक्ति समाज नहीं होता है। यह भी सत्य है कि व्यक्तियों से मिलकर समाज बनता है। व्यक्ति का निर्माण आदर्श व्यवस्था की प्रथम योजना है। रामराज्य में राम को आदर्श रूप में स्थापित कर व्यक्ति के निर्माण की योजना का विकास किया गया था। यदि हमें नायक की भूमिका में रहना अथवा मिली है तो राम बनो। राम सहजता, प्रेम, मधुरता एवं महानता की प्रतिमूर्ति है। इसके अलावा यदि हमें सह नायक की भूमिका में रहना है तो पिता के रूप दशरथ, माता के रूप में कौशल्या, भाई के रूप भरत तथा पत्नी के रूप सीता के आदर्श को ग्रहण करना चाहिए। इसके अलावा आचार्य के रूप में महर्षि वशिष्ठ, मंत्री के रूप आर्यसुमन, ससूर के रूप में जनक तथा प्रजा के रूप अयोध्यावासी आदर्श नागरिक की भूमिका को आदर्श रूप में चित्रित किया गया है। इस प्रकार रामराज्य नामक परियोजना का प्रथम संकल्प व्यक्ति निर्माण है।  अतः रामराज्य नामक परियोजना कहती है कि हमारा प्रथम अभियान मनुष्य निर्माण होना चाहिए। यदि मनुष्य ही नहीं बना तो परिवार, राष्ट्र एवं समाज किसी का निर्माण नहीं हो सकता है। [Our mission is manav nirman (Man making) mission]

(२) रामराज्य का द्वितीय संकल्प आदर्श परिवार का निर्माण :- व्यक्ति का निर्माण परिवार व समाज में होता है। जबकि परिवार का निर्माण व्यक्ति के व्यक्तित्व से होता है। अतः परिवार के सभी सदस्यों को अपने व्यक्तित्व का ऐसा संगठन करना चाहिए कि परिवार सदैव एक अविभाजित इकाई के रूप में रहे। जिसको जो कर्तव्य मिला है उसे साधना, सेवा एवं त्याग की कसौटी पर रखकर स्वयं अधिक परिवार को महत्व देने की शिक्षा रामराज्य नामक परियोजना से मिलती है। परिवार एक ऐसा संगठन है जिसमें रक्तसंबंध, धर्म का संबध एवं अन्य संबंध के आधार पर अपनत्व, ममत्व तथा दायित्व पालन का स्थायी निर्माण होता है। अतः परिवार की परिभाषा किसी निश्चित शब्दावली में नहीं होती है। इसकी परिभाषा व्यक्ति की सोच एवं समझ में निहित है। किसी एक व्यक्ति के परिवार रक्तसंबंध का समूह, दूसरी के लिए रक्तसंबंध के साथ धर्म संबंध भी जुड़ जाते हैं, तीसरे के लिए परिवार कुछ बड़ा होता जिसमें उसकी आवश्यकता के लिए जो सहयोग देते हैं वह भी उनके परिवार के सदस्य समझता है तथा वृहद मानसिकता के वसुधैव कुटुबं परिवार है। परिवार का जो भी रुप हो उसमें दायित्व का प्रथम गुरुत्व दिया गया है। इसके साथ कभी भी अपनत्व एवं ममत्व को भी नहीं त्यागना है। अतः हमारा कर्तव्य है आदर्श परिवार, कुटुबं एवं गाँव का निर्माण करना। 

(३) रामराज्य में आदर्श राज्य :- रामराज्य का तीसरा संकल्प आदर्श सामाजिक आर्थिक इकाई का निर्माण करना है, जिसे रामराज्य कहा गया है। एक आत्मनिर्भर सामाजिक आर्थिक इकाई ही व्यक्ति को सुख दे सकती है। इसलिए रामराज्य परियोजना के मूल में इसे रखा गया है। यह इकाई समान आर्थिक समस्या, समान आर्थिक संभावना, भावनात्मक एकता एवं नस्लीय समानता नामक चारों स्तंभों पर खड़ी है। अतः रामराज्य की निर्माण की इस मूल को समझकर ही राष्ट्र निर्माण की साधना में लग जाना है। 

(४) रामराज्य से समाज निर्माण का संकल्प पत्र - रामराज्य नामक परियोजना के अंतिम चरण में एक अखंड अविभाज्य मानव समाज का निर्माण करना है। मानव समाज में भौगोलिक, सामाजिक, व्यवसायिक एवं अन्य कोई भी गुटबाजी है तो वह कभी भी स्वस्थ परिवेश का निर्माण नहीं होने देती है। इसलिए विश्व बंधुत्व की भावना लेकर महाविश्व निर्माण करना रामराज्य की असली समझ है। सामाजिक आर्थिक इकाइयाँ अखिल विश्व समाज निर्माण की योजना में सामाजिक आर्थिक न्याय स्थापित करता है। इसे मानवीय न्याय की परिधि में लाने के लिए समाज निर्माण का संकल्प आया है। 

[श्री] आनन्द किरण "देव"
प्रभात संगीत एवं रुहानी यात्रा (PS & ST)
संगीत का मानव मन की गहराइयों से गहरा रिश्ता है। एक भाव तंरग को दूसरी भाव तरंग से जोड़ता है तथा मानव मन में विशिष्ट रस की सरिता बहती है। मुझे गाना नहीं आता है इसलिए उस स्थित का रसास्वादन तो नहीं करा सकता लेकिन रुहानी यात्रा में ऐसी स्थितियाँ से रुबरु होना पड़ता है इसलिए इनके बारे में थोड़ी समझ रखता हूँ। मनुष्य का जीवन भाव से भरा हुआ है। भाव रस से अभिव्यक्त होता है। इसलिए संगीत का महत्व सभी के जीवन में अल्प एवं अधिक परिणाम में है। जो विभिन्न राग रागिनियों तथा लफ़्ज़ों से झलकता है। 

संगीत की दुनिया में आशा व निराशा, प्रेम एवं विरह, सकारात्मक एवं नकारात्मक तथा राग व द्वेष इत्यादि का संगम देखा है। जो संगीत मनुष्य को दुख के दलदल में ले जाकर रुलाते है, उदास करते हैं अथवा हताश करते हैं। यह मनुष्य की गति एवं प्रगति दोनों को रोक लेते हैं। इसके विपरीत जहाँ आनन्द प्रेम, उत्साह तथा ऊर्जा का संचार होता है। वे संगीत मनुष्य को गतिमान एवं प्रगतिशील बनाते हैं। संगीत शास्त्र की ऐसी शाखा को मनुष्य ने आनन्द संगीत नाम दिया है। जहाँ सुख शांति एवं कर्मशीलता का निवास होता है। आनन्द संगीत में प्रगति, अग्रगति एवं बृहद का आकर्षण दिखाई दे तो उस नूतन उषा की संज्ञा दी जाती है। इसलिए इसे एक नूतन विधा में रखना होता है। प्राचीन काल में जब भक्त रात्रि जागरण करते थे तब अपनी संगीत शास्त्र को दुनिया जगत से उठाकर ज्यौं ज्यौं निशा की घनघोर छाए में जाता था। वैराग्य तथा फकीरी में मन लिप्त होता था। फकीरी को गाते गाते जब एक नहीं उषा के नजदीक पहुँचता उसे ऐहसास होता था कि असली आनन्द प्रभु के साथ मिलकर प्रभु के कर्म करने है। इसलिए वह प्रभाती गाता था। भक्त एवं भगवान में एकरूपता दिखाई देती है। जो भक्त का है, वह भगवान‌ का है तथा जो भगवान है वह भक्त का है। सारे जहान से मोहब्बत करता है। वह फकीरी  पलायन में नहीं कर्तव्य कर्म में अनुभव करता है तथा जगत को साथ लेकर रुहानी यात्रा में निकलता है। जब प्रभात की यह अवस्था चौबीस घंटा, जीवनभर तथा हर क्षण रह जाए तो मनुष्य अपने जीवन को प्रफुल्लित, आनन्दित एवं प्रगतिशील बना देता है। इसलिए मनुष्य प्रभात संगीत की विधा एक पृथक विधा के रूप में आवश्यकता महसूस से कर रहा है।

मनुष्य की इस अभिलाषा को प्रतिफलित होने का आखिरकार अवसर मिली ही गया तथा मनुष्य ने परमपुरुष के कंठ से प्रभात संगीत को निकलवा ही दिया। परम पुरुष भक्त की इस आकूति को प्रभात संगीत का रुप देकर आनन्द मार्ग परिवार को प्रभात संगीत प्रदान किया। आनन्द मार्ग परिवार ने प्रथम प्रभात संगीत  14 सितम्बर 1982 सुना। उसके बाद आठ वर्ष तक परम पुरुष के मुख से एक पर एक 5018 संगीत का एक शास्त्र तैयार हो गया। 

प्रभात संगीत की हृदयस्पर्शी विधा को सजाए रखना भक्त का दायित्व है। साधक को अपने साधना में ओर भी प्रभात संगीत सुनाई देते रहेगें तथा अपनी मस्ती में गाता भी रहेगा। प्रभात संगीत एवं रूहानी यात्रा के बारे सबके अलग अलग अनुभव है इसलिए उसे एक सामान्य शब्दमाला में नहीं पिरोया जा सकता है। फिर भी प्रयास करना बुरा नहीं है। मनुष्य की आध्यात्मिक यात्रा को दर्शन पंचकोषात्मक के रूप में व्यष्टि  को तथा सप्तलोकत्मक कहकर समष्टि में समझाता है। भक्त अपने मन में उस अवस्था को देखकर जो नाम बन पाता है। दे देता है। इसलिए आध्यात्मिक जगत में आध्यात्मिक पड़ावों को अलग अलग नाम चित्रित किया गया। प्रभात संगीत प्रत्येक पड़ाव के साधक की मनोदशा का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत करता है। कई बार साधक अनुभव करता है कि यह प्रभात संगीत एक वर्ष पहले गाता था तब अलग अनुभूति देता है आज अलग। मैं पुनः कहता हूँ कि मुझे गाना बजाना नहीं आता है इसलिए प्रभात संगीत की विधा को सही नहीं समझा पाता हूँ। लेकिन रुहानी यात्रा में जो अनुभव करता हूँ उसे लिख लेता हूँ। 

प्रभात संगीत के संग हम सबकी रूहानी यात्रा चिरस्मरणीय रहे। 
🙏🙏🙏🙏🙏
श्री आनन्द किरण "देव"

ईश्वर प्रणिधान                       (Devotion to god)

जगत के नियंता को ईश्वर कहा गया है। प्रणिधान का अर्थ प्रयत्न करना। ईश्वर प्रणिधान शब्द का अर्थ हुआ ईश्वर बनने का प्रयत्न करना अथवा ईश्वर बनने विधि। चूंकि मनुष्य का चरम एवं परम लक्ष्य मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ है ईश्वर में मिलकर एक हो जाना। इसलिए साधना जगत का प्रथम सोपान का नाम ईश्वर प्रणिधान दिया गया है। यद्यपि नियम साधना में इसका स्थान अंतिम में रखा गया है लेकिन आध्यात्मिक साधना में यह प्रथम स्थान पर है। 

ईश्वर प्रणिधान का मूलभाव अहम ब्रह्मास्मि है। मैं  ब्रह्म हूँ भाव में प्रतिष्ठित होने का जो प्रयत्न है, उसे ईश्वर प्रणिधान नाम दिया गया है। मनुष्य की स्व: भाव से आनन्द भाव की साधना को ईश्वर प्रणिधान से समझा जाता है। शास्त्र कहता है कि सबसे उत्तम साधना ब्रह्म सद्भाव की है। ब्रह्म भाव की साधना का नाम ही ईश्वर प्रणिधान है।

ब्रह्म भाव में प्रतिष्ठित होने की प्रक्रिया को ईश्वर प्रणिधान कहा गया है। इसलिए इस प्रक्रिया को जानना, अपनाना एवं आत्मसात करना आवश्यक है। इस प्रक्रिया का मूल 'मैं' तथा 'वह' है। 'मैं साधक तथा वह साध्य है। जब साधक मैं वही हूँ' भाव लेते लेते अन्ततोगत्वा उसमें ही प्रतिष्ठित हो जाता है तो साधना पूर्ण हो जाती है। भाव का निर्माण में शब्द सहायक होता है। इसलिए इष्ट मंत्र की अवधारणा विकसित हुई। इष्ट में प्रतिष्ठित करने वाला शब्द शक्तिपूंज को इष्ट मंत्र कहा जाता है। यह मंत्र बीज अक्षरों के समूह से बनता है। चूंकि ब्रह्म भाव की साधना में मैं व वह नामक दो बिन्दु है। इसलिए यथासंभव दो अक्षरों का ही इष्ट मंत्र होता है। पहला अक्षर मैं तथा दूसरा अक्षर वह प्रतिनिधित्व करता है। चूंकि बीजाक्षर उस भाव मूल होता है इसलिए मंत्र को शक्तिपूंज कहा जाता है। मैं तथा वह को एक करने की प्रक्रिया साधना है। जहाँ मैं वह तथा वह मैं बन जाता है। इनमें पार्थक्य करना एवं देखना असंभव हो जाता है। इसलिए मैं ओर वह को बांधने वाले रस्सी के प्रतीक्षाकर के कई मात्रा युक्त तो कहीं ढ़ाई अक्षर का मंत्र भी देखा जाता है। फिर भी मंत्र में दो ही बिन्दु होते हैं। तीन बिन्दु की साधना एक अव्यवहारिक सोच है। तीन बिन्दु की साधना में मैं, वह के बीच तुम होता है अर्थात साधक, गुरु एवं भगवान। इसमें प्रथम क्रम गुरु एवं भगवान एक होते तथा तुम वह में तथा वह तुम में मिल जाता है तथा अंत में मैं तथा वह एक हो जाते हैं। 

ब्रह्म साधना की प्रक्रिया समझ रहे हैं इसलिए उसकी संक्रिया भी समझना आवश्यक है। संक्रिया के क्रम में व्यक्ति के चित्त को ब्रह्म रुप में बैठाना पड़ता है। शास्त्र इस चित्त शुद्धि नाम देता है। चित्त यदि ब्रह्म के अतिरिक्त किसी अन्य रुप में गोता लगा रहा है तो मैं वही हूँ की साधना ध्येय में प्रतिष्ठित करके जड़ बना देते हैं। जिस पथभ्रष्ट नाम भी दिया गया है। अतः साधक एक निश्चित संक्रिया के माध्यम से चित्त शुद्धि करता है तथा चित्त ब्रह्म में बैठता है। इस संक्रिया को संपन्न करने के लिए चित्त को अपने में लौटना होता है, इसलिए आसन शुद्धि की आवश्यकता होती है। चित्त जहाँ कही है वहाँ से उसे उन सभी केन्द्र से होकर चित्त को पुनः अपने चित्त में लाने की संक्रिया को आसान शुद्धि कहते हैं। चित्त को इसलिए सभी केन्द्रों से होकर लाना होता है तांकि चित्त आभागों को जी कर भोग रहित हो जाए तथा ब्रह्म भाव का आभोग शतप्रतिशत ग्रहण कर ले। आसान शुद्धि की इस संक्रिया में सिद्धि के पहले बाहरी परिवेश मन छुड़ाना होता है। इस संक्रिया को भूत शुद्धि कहा जाता है। भूत शुद्धि में मन बाहर के परिवेश हटाकर एक सीमाहीन परिवेश में लाकर रखा जाता है। जहाँ से आसान शुद्धि चित्त में ले जाती है तथा चित्त शुद्धि ब्रह्म में ले जाती है। यहाँ इष्ट मंत्र ब्रह्म भाव तथा ब्रह्म भाव मूल लक्ष्य में प्रतिष्ठित करता है। 

ईश्वर प्रणिधान भूत शुद्धि, आसान शुद्धि, चित्त शुद्धि, इष्ट मंत्र का जप तथा ब्रह्म भाव का अधिग्रहण की मिलित प्रणाली का नाम है। जिस साधक के पास यह प्रणाली है, वह अपना उद्धार करता है अर्थात यह पथ उसके उद्धार का पथ है। इसी को शास्त्र में सत् पथ कहा गया है। सत् पथ मनुष्य के लिए आनन्द ले आता है। इसलिए साधना मार्ग आनन्द मार्ग कहा जाता है। 

आओ आनन्द मार्ग पर चलते हैं। जीवन को धन्य बनाते हैं। मनुष्य होने का सुलाभ प्राप्त करते हैं। यही जीवन का सार है। 
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श्री आनन्द किरण "देव"
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आध्यात्मिक रामायण              (Spiritual Ramayana)
रामायण का नया रूप - आध्यात्मिक रामायण
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श्री आनन्द किरण "देव"
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आज आध्यात्मिक रामायण लिखने जा रहा हूँ। यह आलेख मेरी पुस्तक रामायण में ब्रह्म विज्ञान के सारांश के रूप में लिखा जा रहा है। रामायण श्रीराम की अयोध्या से लंका तथा लंका से पुनः अयोध्या आगमन का यात्रा वृतांत है। इस यात्रा के 14 वर्ष की अवधि में दिखाया है। आध्यात्मिक जगत में मानष शरीर में सहस्त्राचक्र से मूलाधार तक सात चक्रों का अलेख है। इस प्रकार 7+7 = 14, यदि एक चक्र एक वर्ष कहा जाए तो चौदह वर्ष हो जाते हैं। सहस्त्राचक्र को‌ अयोध्या तथा मूलाधार को लंका माना गया है। अयोध्या का मतलब अ + योध्य + आ है। योध्य का मतलब युद्ध द्वारा जय किया जाने वाला क्षेत्र, आ लगने से स्त्रिलिंग शब्द नगरी हो जाता है। अर्थात अयोध्या का मतलब वह नगरी जिसे साधना समर‌ द्वारा जयी नहीं किया जा सकता है। वह सहस्त्राचक्र है, जो साधना  द्वारा नहीं तारक ब्रह्म की कृपा से नियंत्रित होता है। आज्ञा चक्र पंचवटी है, जो पांचों तत्व का नियंत्रक बिन्दु है। विशुद्ध चक्र शब्द तंमात्रा वहन करने वाले आकाश तत्व का धारक है, जो शबरी का प्रतीक है। अनाहत चक्र पवन का प्रतीक हनुमान, अग्नि ऊर्जा का वाहक मणिपुर चक्र बालि सुग्रीव की नगरी किष्किन्धा, रामसेतू जल तत्व का धारक स्वाधिष्ठान चक्र  तथा सोने की लं से लंका मूलाधार वाला पृथ्वी तत्व है। हमारे शरीर के यह सप्तचक्र है। इसके अलावा नासिक अर्थात नासिका में स्थित ललना चक्र चित्रकूट एवं भरत मिलाप स्थली गुरुचक्र है। इन दोनों को सप्तचक्र की गिनती से पृथक रखा गया है। यद्यपि इन दोनों का साधना में महत्व है। निषादराज का क्षेत्र अयोध्या की परिधि में है। 

अब श्रीराम की अयोध्या से लंका तक की यात्रा रामायण का प्रथम पहलू वनवास कहलाता है। इसमें श्रीराम दक्षिण दिशा में अर्थात शरीर के निम्न भाग में गमन करते हैं। वन का अर्थ पेड़ पौधों का झुरमुट है। अर्थात चैतन्य से दूर की प्रदेश है। श्रीराम सकल धनात्मक शिव भाव  तथा सीता सकल ऋणात्मक जीव भाव कुल कुंडलीनी शक्ति है। लक्ष्मण सदैव लक्ष्य में मन रखने वाला सदैव लक्ष्य के साथ संयुक्त रहने वाला भक्त मन है। दशरथ तथा तीनों रानियाँ त्रिगुण युक्त प्रकृति एवं साक्षी पुरुष का प्रतीक है। भरत व शत्रुघ्न भी विशेष प्रकार के साधकों के प्रतीक है। वशिष्ठ आध्यात्मिक गुरु हैं, जो सदगुरु का प्रतीक है। रावण अंधकार का प्रतीक है। मेधनाथ, कुंभकर्ण इत्यादि रात सदृश्य रावण की शक्तियां है। विभीषण का अर्थ बुराई को सतपथ की राय देने वाले न्याय धर्म का साथी घर का भेदी अर्थात शरीर मन प्रदेश के रहस्य का ज्ञाता है। 

लंका से अयोध्या की यात्रा का साथी पुष्पक विमान साधना है। स्वास प्रवास पुष्पक विमान का पायलट हनुमान है। यह सैद्धांतिक पक्ष नहीं होने के कारण अधिक वर्णन नहीं मिलता है। व्यवहारिक पक्ष होने के कारण गुरु के अधिकार क्षेत्र में है। 
वैचित्र्यं प्राकृतधर्म:          (Vaecitryam prakrtadharmah)
   

विचित्रता प्रकृति का धर्म है। अत: प्रकृति के रहते सबकुछ समान नहीं हो सकता है। जो  समानता की बात करते हैं, वे प्राकृत धर्म के विरोध में जा रहे हैं। इनकी बातें सबको ध्वस्त करने वाली है। प्रउत दर्शन की यह घोषणा, विश्व के सभी अर्थशास्त्रियों एवं समाजशास्त्रियों के लिए विचारणीय है। आज का विश्व स्वतंत्रता, समानता एवं भातृत्व के आदर्श पर खड़ा है। आर्थिक जगत में खुली अर्थव्यवस्था एवं मुक्त बाजार का प्रचलन जोरों पर है। इसलिए 'विचित्रता प्रकृति का धर्म है।' यह सबके लिए समझने योग्य विषय है। 

आनन्द मार्ग एक अखंड अविभाज्य मानव समाज चाहता है, जो एक चुल्हा एक चौका तथा विश्व बंधुत्व की नारे में समाया हुआ है। वही प्रउत की प्रकृति के धर्म वाली घोषणा अवश्य ही विचारणीय है। 

प्रउत, विश्व के लिए अर्थव्यवस्था निर्माण करने चला है जबकि आनन्द मार्ग विश्व के लिए समाज का निर्माण कर रहा है। अर्थव्यवस्था का संबंध मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं व व्यक्ति के काम करने के सामर्थ्य से है।  प्रउत ने सर्वप्रथम समाज चक्र देकर व्यक्ति की  क्षमताओं को वर्गीकृत करता है तथा  बता है कि युग सभी वर्णों की प्रधानता को देखते हुए आगे बढ़ता है। इसलिए मनुष्य मनुष्य में भेद सृष्ट करने की एक भी लकीर समाज धर्म के प्रतिकूल है। अत: प्रकृति की विचित्रता को प्राकृत धर्म बताने वाले अध्याय का गहनता से अध्ययन आवश्यक है। विश्व को अपनी अर्थव्यवस्था का निर्माण करते समय प्राकृत धर्म, युग धर्म, नागरिक धर्म एवं  समाज धर्म इत्यादि सभी का आदर करना होता है। प्रउत ऐसा करके अपनी जिम्मेदारी निभाई है। 

प्रउत की मूलनीति से

१. प्राकृत धर्म - विचित्रता प्राकृत धर्म है। इसलिए अर्थव्यवस्था के निर्माण में इसको अंगीकार करते हुए सबके लिए एक समान व्यवस्था की कल्पना से अपने दूर रखता है। अर्थव्यवस्था को ऐसी माकूल व्यवस्था का निर्माण करना होता है, जहाँ बहुरंगी विविधता की यह सृष्टि एकता के सूत्र में बंध जाये‌‌ तथा विभिन्न रंगों फूलों को एकता के सूत्र में पिरोने वाली माला प्रउत है। 

२. युग धर्म - अर्थव्यवस्था समाज का अंग है तथा समाज युग का आदर करता है इसलिए युग धर्म का सम्मान करना अर्थव्यवस्था का दायित्व है‌। युग धर्म कहता है कि रहे न कोई भूखा नंगा ऐसा एक समाज बनेगा। इसलिए प्रउत ने युगस्य सर्वनिम्नप्रायोजनं सर्वेषविधेयम् माना है। प्रकृति कभी युग की सभी निम्न आवश्यकता के साथ छेड़छाड़ नहीं करती है। विचित्रता प्रकृति का धर्म है तो युग का धर्म है कि अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा सब के लिए सुलभ एवं सहज हो जाए ऐसे व्यवस्था करना। युग अर्थव्यवस्था से न्यूनतम मजदूरी एवं क्रयशक्ति का अधिकार मांगता हैै। विचित्रता मूलक प्रकृति युग की इस मांग आदर करते हुए, ऐसी व्यवस्था देती है। जिससे व्यक्ति की गरिमा तथा समाज का दायित्व दोनों ही सुरक्षित रहे। 

३. नागरिक धर्म - समाज का विकास नागरिक की कार्यक्षमता पर  टिका हुआ है। इसलिए व्यक्ति की कार्य क्षमता का आदर करना होता है। नागरिक का धर्म है कि अपने गुणों का सम्पूर्ण उपयोग करें तथा समाज का दायित्व है उसका आदर करें। अत: प्रउत कहता है कि अतिरिक्तं प्रदातव्यं गुणानुपातेन। प्रउत अतिरिक्त संपदा गुण के अनुपात में वितरित करके नागरिक को‌ अपने धर्म के रास्ते से भटकने नहीं देता है। यदि नागरिक अपने निजी धर्म से भटक जाए तो सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था डावांडोल हो जाएगी। इसलिए प्रउत नागरिक धर्म का सम्मान करता है तथा गुणीजन को अतिरिक्त संंपदा में से उनके गुण के अनुपात में कुछ विशेष देता है। 

४. समाज धर्म - प्रगति समाज का धर्म है। इसके बिना समाज का जीवन संकट में है‌। इसलिए प्रउत कहता है कि सर्वनिम्नमानवर्धनं समाजजीवलक्षणम्। साधारण मनुष्य की निम्न आवश्यकता का जो मान स्थिरीकृत है,  गुणियों को उससे कुछ अधिक अवश्य मिलेगा, किन्तु इस निम्नतम मान को ऊपर उठाने की भी अन्तहीन चेष्टा करनी होगी। यह समाज का जीवित रहने का लक्षण हैं। यह चेष्टा ही मनुष्य की जागतिक ऋद्धि दिलाता है। प्रउत समाज के निम्नतम मान में वृद्धि करता रहता है। 

प्रउत में प्रकृति, युग, नागरिक एवं समाज चारों का ध्यान रखा गया है। इसलिए प्रउत दर्शन दुनिया का निराला, अनोखा एवं विचित्र दर्शन है। जो आध्यात्मिकता को सामाजिक आर्थिकता का तथा सामाजिक आर्थिकता को आध्यात्मिक पाठ पढ़ाता है। बिना नैतिकता के इसकी सिद्धी नहीं होेती है। इसलिए प्रउत ने समाज की धूरि में सदविप्र को बैठाया है। प्रउत का सैनिक सदविप्र बनकर समाज में आदर्श स्थापित करता है। 

विचित्रता प्रकृति का धर्म है, समान कभी नहीं हो सकता। लेकिन मनुष्य को अपनी अर्थव्यवस्था को संगच्छध्वं के पथ पर चलना है। इसलिए व्यक्ति की 
गरिमा तथा समाज के आदर्श को सुरक्षित रखते हुए। प्रउत अर्थव्यवस्था का निर्माण हुआ। पूंजीवाद का व्यक्ति एवं समाजवाद का समाज दोनों ही प्रउत में सुरक्षित एवं प्रगतिशील है। इतना ही नहीं यह प्रगतिशील उपयोग तत्व भी है। 
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         श्री आनन्द किरण "देव"
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क्या शून्य का कोई मूल्य नहीं होता? (Does zero have no value?)

गणित एवं आध्यात्म में समस्या का हल करने की वैज्ञानिक प्रणाली होती है। आध्यात्म कभी भी आस्थाओं का पूंज नहीं अपितु सत्य का‌ आलोक है। जिस प्रकार गणित में अवधारणा को स्वत: सिद्ध माना जाता है, उसी प्रकार आध्यात्म में आस्थाओं के साथ छेड़छाड़ नहीं की जाती है। आस्थाओं का निर्माण अवधारणा की भांति ही होता है। जिनके पिछे एक ठोस सत्य होता है। आस्था का अर्थ अंधविश्वास की धारणा नहीं होता है। आस्था का अर्थ विश्वास को पक्का करना है। जिन आस्थाओं के पीछे को सत्य नहीं उन्हें आस्था कहना उचित नहीं है। आस्था शब्द से आस्तिक शब्द आता है। आस्तिक का ईश्वर, आत्मा एवं आत्मज्ञान में विश्वास रखने वाला। जो इन तीनों में विश्वास नहीं रखता है, उन्हें नास्तिक कहा जाता है। यही शून्य की अवधारणा आती है। 

शून्य का अर्थ कुछ नहीं बताया जाता है। लेकिन किसी के सापेक्ष इसका मूल्य बढ़ जाता है। अत: शून्य को निरपेक्ष कहना एक भूल है। शून्यवाद यहाँ मुह के बल पर गिर जाता है। शून्यवाद गिरने के साथ नकारात्मकता तथा संसार दुखों का घर की अवधारणा अप्रमाणित हो जाती है। यदि कोई इसे आस्था नाम दे तो यह उसका अंधविश्वास है। धर्म कहता है कि जहाँ युक्ति एवं तर्क कार स्थान नहीं, वहाँ ज्ञान नहीं रह‌ सकता है। यह लोग अंधभक्त कहलाते हैं। शून्य एक सापेक्ष मूल्यवान अंक है। जिसके बिना गणित रुक जाती है। 10 में शून्य का महत्व दस एक के बराबर हो जाती है। शून्य का यह महत्व एक की वजह से है। अत: वास्तव में शून्य का महत्व नहीं होते हुए भी सापेक्ष महत्व है। जगत को मिथ्या कहने वाले रस्सी में सर्प दर्शन का भ्रम‌ बताकर शून्य के पक्ष में एक प्रमाण देते है लेकिन रस्सी एवं सांप के ज्ञान रखने वाले को भ्रम होता है अर्थात जगत मिथ्या कहने वाले को पहले आपेक्षिक सत्य मानना पड़ता है। अत: शून्यवादी स्वयं भूलभुलैया में खोया हुआ है।

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        करण सिंह की कलम से
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