गणित एवं आध्यात्म में समस्या का हल करने की वैज्ञानिक प्रणाली होती है। आध्यात्म कभी भी आस्थाओं का पूंज नहीं अपितु सत्य का आलोक है। जिस प्रकार गणित में अवधारणा को स्वत: सिद्ध माना जाता है, उसी प्रकार आध्यात्म में आस्थाओं के साथ छेड़छाड़ नहीं की जाती है। आस्थाओं का निर्माण अवधारणा की भांति ही होता है। जिनके पिछे एक ठोस सत्य होता है। आस्था का अर्थ अंधविश्वास की धारणा नहीं होता है। आस्था का अर्थ विश्वास को पक्का करना है। जिन आस्थाओं के पीछे को सत्य नहीं उन्हें आस्था कहना उचित नहीं है। आस्था शब्द से आस्तिक शब्द आता है। आस्तिक का ईश्वर, आत्मा एवं आत्मज्ञान में विश्वास रखने वाला। जो इन तीनों में विश्वास नहीं रखता है, उन्हें नास्तिक कहा जाता है। यही शून्य की अवधारणा आती है।
शून्य का अर्थ कुछ नहीं बताया जाता है। लेकिन किसी के सापेक्ष इसका मूल्य बढ़ जाता है। अत: शून्य को निरपेक्ष कहना एक भूल है। शून्यवाद यहाँ मुह के बल पर गिर जाता है। शून्यवाद गिरने के साथ नकारात्मकता तथा संसार दुखों का घर की अवधारणा अप्रमाणित हो जाती है। यदि कोई इसे आस्था नाम दे तो यह उसका अंधविश्वास है। धर्म कहता है कि जहाँ युक्ति एवं तर्क कार स्थान नहीं, वहाँ ज्ञान नहीं रह सकता है। यह लोग अंधभक्त कहलाते हैं। शून्य एक सापेक्ष मूल्यवान अंक है। जिसके बिना गणित रुक जाती है। 10 में शून्य का महत्व दस एक के बराबर हो जाती है। शून्य का यह महत्व एक की वजह से है। अत: वास्तव में शून्य का महत्व नहीं होते हुए भी सापेक्ष महत्व है। जगत को मिथ्या कहने वाले रस्सी में सर्प दर्शन का भ्रम बताकर शून्य के पक्ष में एक प्रमाण देते है लेकिन रस्सी एवं सांप के ज्ञान रखने वाले को भ्रम होता है अर्थात जगत मिथ्या कहने वाले को पहले आपेक्षिक सत्य मानना पड़ता है। अत: शून्यवादी स्वयं भूलभुलैया में खोया हुआ है।
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करण सिंह की कलम से
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