महाभारत के पात्र कर्ण को धनुर्धर कर्ण, सुतपुत्र कर्ण, राधेय कर्ण, अंगराज कर्ण, परशुराम शिष्य कर्ण एवं कुन्ती पुत्र कर्ण के रूप में चित्रित किया गया है। आज हम इस पात्र के संदर्भ में अध्ययन करते है।
१. धनुर्धर कर्ण - हस्तिनापुर के रंगमंच पर तात्कालिक भारतवर्ष अर्थात विश्व के सभी राजकुमारों की शिक्षाओं का प्रदर्शन हो रहा था। (उस समय गुरूकुल से शिक्षा पूर्ण करने के बाद अपनी योग्यता की परीक्षा का यह एक तरीका था। जहाँ प्रश्न पत्र विद्यार्थी स्वयं बनाता था। परीक्षक जन साधारण के बीच में अलग-अलग जगह बैठकर मूल्यांकन करते थे। यह परीक्षा शिक्षक तथा शिष्य दोनों की होती थी। जिसमें शिक्षक मुखदृष्टा की शिष्य को नकल नहीं करने देने की भूमिका में होता था) सभी राजकुमार अपने प्रश्नपत्र हल कर रहे थे। उसी बीच अर्जुन के परीणाम पर सभी परीक्षक सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर की मोहर लगा चुके थे कि एक धनुर्धर आ खड़ा हुआ और कहने लगा यह परीक्षा फल गलत है - मैं सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हूँ, मै भी परीक्षा दूंगा। आयोजकों ने परीक्षार्थी, गुरुकुल तथा मूल निवास का नाम पूछा? इसके जबाब में उस बालक ने अपना परिचय धनुर्धर कर्ण के रुप में दिया। यह उत्तर प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए पर्याप्त नहीं था। इसलिए उसे प्रतियोगिता के लिए अयोग्य (disqualified) करार दे दिया। इस प्रकार धनुर्धर कर्ण प्रतियोगिता में भाग लेने से वंचित हो गया।
उपरोक्त घटना का वर्तमान संदर्भ - आज यदि कोई प्रतियोगिता चल रही हो तथा कोई व्यक्ति बिना फार्म भरें, यदि पेन लेकर आ जाए ओर कहने लग जाए मैं भी आईएएस अथवा अन्य किसी भी प्रतियोगिता में बैठुंगा तो क्या केन्द्राध्यक्ष अथवा प्रतियोगिता का सबसे बड़ा अयोजक परीक्षा में बैठने की अनुमति दे देगा? उत्तर नहीं आज तो आवेदन किये हुए को भी बिना प्रवेश पत्र तथा पहचान पत्र के भी रोका जाता है। इस स्थिति को देखकर आप बताइये कर्ण को प्रतियोगिता से बाहर करना उचित था अथवा अनुचित?
(२) अंगराज कर्ण - धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन ने राजा के परिवार के निर्वाह के लिए संरक्षित निजी भूभाग में से एक क्षेत्र अंगदेश, उस धनुर्धर को देकर उसे अंगदेश का राजा बना दिया। ऐसा करने के बाद दुर्योधन ने फिर से प्रतियोगिता आयोजक तथा प्रतियोगिता के संरक्षक महाराज धृतराष्ट्र के समक्ष दावा पेश किया कि मेरे मित्र कर्ण अंगराज है। इसलिए प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए योग्य (eligible) है। इस प्रकार एक बार फिर सन्नाटा छा गया। सबकी निगाहें आयोजक मंडल की ओर टिकी हुई थी। आयोजक मंडल ने अंगराज कर्ण से पुछा आप अपने गुरु तथा गुरुकुल का नाम बताया तथा शिक्षा पूर्ण करने का प्रमाण पत्र बताइये। इसपर अंगराज कर्ण मौन हो गए। (क्योंकि कर्ण अंतिम परीक्षा में असफल हो गया था तथा बिना प्रमाण पत्र के ही गुरुकुल से लौट आया था। क्योंकि उसने अपनी झूठी पहचान के आधार पर अपने गुरु से शिक्षा ली थी।) जब आयोजक द्वारा बार-बार पूछे जाने पर पर कर्ण ने अपने धनुष को ही प्रतियोगिता के लिए पर्याप्त बताया। इस प्रकार एक फिर बिना उचित प्रमाण पत्र के कर्ण अयोग्य घोषित कर दिया गया। क्योंकि वह प्रतियोगिता, गुरुकुल से शिक्षा संपन्न किये राजकुमारों के बीच थी। इस पर दुर्योधन आगबबूला गया लेकिन इसका आयोजक मंडल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
आज के संदर्भ में देखे तो बताइये कि केवल आईडी प्रुफ मिलने तथा केवल ज्ञान होने पर कोई व्यक्ति किसी प्रतियोगिता योग्य हो सकता है? नहीं उसे अपने उचित शैक्षणिक योग्यता एवं निर्धारित समयावधि में आवेदन करना अनिवार्य है।
(३) सुतपुत्र कर्ण - अंगराज कर्ण के रुप में भी प्रतियोगिता में प्रवेश नहीं मिलने पर आगबबूला हुए दुर्योधन की हिंसक दहाडों से जनता में भय का वातावरण छा गया। इसी बीच महाराज धृतराष्ट्र का पूर्व सारथी एवं हस्तिनापुर के वयोवृद्ध नागरिक अधिरथ निकल कर सामने आया तथा कर्ण से कहने लगा चल बेटा!, घर चलते हैं। हमें इस प्रकार झगड़ों में नहीं पडना है। इस पर प्रकार दुनिया कर्ण की तीसरी पहचान सारथी पुत्र अर्थात् सुतपुत्र के रूप में मिलती है। सुत का अर्थ रथ हाकने वाले का पुत्र। तात्कालिक व्यवस्था के अनुसार मनुष्य का वर्ण कर्म प्रधान था। इसलिए कर्ण एक क्षत्रिय थे लेकिन उसके पालक पिता एक सूत अथवा शूद्र थे। किसी भी पुत्र को अपने पिता के व्यवसाय तथा पहनावे, ओढ़ावे, तथा रहन सहन से धृणा नहीं होनी चाहिए। कर्ण प्रतियोगिता से बाहर था लेकिन उसके मन में अर्जुन का प्रतियोगिता जीतना सहन नहीं हो रहा था। इसमें अर्जुन का कोई कसूर नहीं था। कर्ण प्रतियोगिता में भाग नहीं लेने देने में अर्जुन का कोई योगदान नहीं था। फिर भी कर्ण अर्जुन को शत्रु समझ बैठा, जिसका परिणाम सुतपुत्र कर्ण के गाली बन गई। जो कर्ण को कभी भी पांडवों के नजदीक नहीं आने दिया। अब कर्ण के अतीत के बारे में अनुसंधान होने लगे। यह अनुसंधान हस्तिनापुर की मंत्रीपरिषद तथा पांडव सभी पक्षों की ओर से किये गए। हस्तिनापुर की राज परिषद ने अनुसंधान में पाया कि कर्ण ने भगवान परशुराम गुरुकुल से ब्राह्मण बनकर शिक्षा पायी थी तथा अधिरथ को गंगा नदी से कर्ण मिला था।
(४) परशुराम शिष्य कर्ण - महाभारत युग में विभिन्न विषयों के गुरुकुल एवं विद्यापीठ चलते थे। विद्यापीठ एवं गुरुकुल में यह अंतर था कि गुरुकुल शिक्षालय होते थे, जहाँ विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करता था, जबकि विद्यापीठ में अनुसंधान होते थे। व्यास विद्यापीठ थी जबकि द्रोण का गुरूकुल था। कर्ण सबसे पहले द्रोण गुरुकुल में गया। वहाँ वह प्रवेश नहीं कर पाया क्योंकि यह गुरुकुल अस्थायी राजपरिवार के बच्चों के लिए बनाया गया था। सुरक्षा कारणों से अन्य को प्रवेश नहीं दिया जाता था। कर्ण इसे जातिगत कारण मान गया तथा ब्राह्मण वेश बनाकर परशुराम गुरुकुल में प्रवेश कर लिया। परशुराम गुरुकुल में मात्र ब्राह्मणों को शिक्षा व दीक्षा दी जाती थी। ब्राह्मण शब्द किसी जाति अथवा वर्ण द्योतक नहीं है। ब्राह्मण शब्द का अर्थ जिनका लक्ष्य ब्रह्म प्राप्ति हो, जो शिक्षा राज्य अथवा जागतिक सुख सुविधा के लिए नहीं आध्यात्मिक विकास के लिए लेता है। कर्ण का तात्कालिक लक्ष्य योद्धा बनना था, ब्राह्मण का लक्ष्य समाज सेवा के लिए एक त्यागी सन्यासी बनने का होता है। वर्ण व्यवस्था में विप्र वर्ण होता है। ब्राह्मण अथवा सन्यासी बनने के लिए द्वार सभी के लिए खुले थे। कर्ण का गुप्त लक्ष्य जागतिक ऐश्वर्य का आकर्षण था, गुरुकुल में अंतिम दिनों में पकड़ में आया, जो गुरुकुल के नियमों के प्रतिकूल था होगा। इसलिए प गुरुकुल से निकाल दिया गया। यदि कर्ण चाहता तो अन्य किसी गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त कर सकता था, जो आम लोगों के लिए तथा जन साधारण के लिए संचालित थे प्राप्त कर सकता था। उसे सरकारी स्कूल की बजाए निजी स्कूल सुख अधिक आकर्षित करता था। आम गुरुकुल में शिष्यों को अधिक कष्ट उठाने पड़ते थे।
वर्तमान संदर्भ में आज आर्मी स्कूल में कोई पढ़ने के हठ करे तो पढ़ सकता है? यदि किसी सन्यासी परिक्षण केन्द्र पर जाकर राजनीति के शिक्षा पाना चाहें तो देंगे क्या❓
(५) दानवीर कर्ण - कर्ण अंगराज बन गया लेकिन उनके योद्धा बनने का तरीका उसे खलता था। झूठ तथा कपट बल पर शिक्षा पाना अयुक्ति संगत लगता था तथा वह जानता था कि पांडव नहीं कौरव अधर्मी है। अत: अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिए दान पुण्य अधिक करने लगा। धीरे धीरे यह उसके अभिमान का बिन्दु बन गया। युधिष्ठिर धर्मवीर है तो मैं दानवीर हूँ। मेरे यहाँ मांगने की अभिलाषा से आया व्यक्ति खाली हाथ नहीं लौट सकता है। इसलिए तो कुंती, इन्द्र एवं श्रीकृष्ण के आगे अपनी मौत तथा पराजय ही दान में दे दिया। मनुष्य को सतकर्म करने चाहिए लेकिन उसका अंहकार नहीं होना चाहिए। यदि उसे कर्म का भी अहंकार आ गया तो भी पतन निश्चित है। यही कारण था कि श्रीकृष्ण के समझाने पर भी कर्ण का अहंकार उसे समझने नहीं दे रहा था।
(६) राधेय कर्ण - कर्ण की पालक माता राधा थी। इसलिए कर्ण राधेय कहला सकता है। कर्ण राधा भाव की साधना करता था इसलिए अपने आप को राधेय कहता था। राधा भाव का साधक परमपुरुष के बिना एक पल भी नहीं रह सकता है। लेकिन कर्ण परमपुरुष के पास रहकर भी कर्म मार्ग से उनसे दूर रहता था। उनके द्वारा द्रोपदी को वैश्या कहना राधा भाव की साधना में द्रोपदी से जलन का परिणाम था। द्रोपदी भी राधा भाव की साधिका थी। जो कर्ण से सदैव आगे रहती थी। उस युग में भीष्म, द्रोण, विदुर, कुन्ती, कर्ण, द्रोपदी, अर्जुन तथा शेष पांडव अच्छे तथा तगड़े साधक थे। लेकिन कर्ण ओर द्रोपदी को छोड़कर शेष की भक्ति राधा भाव से दूर थी। अर्जुन ने सखा भाव से साधना की थी जबकि भीष्म तथा कुन्ती वात्सल्य भाव के भक्त थे। विदुर की भक्ति केवला भक्ति थी। द्रोण की भक्ति रागात्मिका तथा पांडवों की रागानुगा भक्ति थी। गांधारी भी उस युग सात्विक भक्ति प्राप्त साधिका थी। शकुनि तामसिक साधक तथा कौरव राजसिक भक्ति के उपासक थे। राधेय कर्ण के मन में प्रतियोगिता करने का जो भाव था, वही उसे अच्छे होने पर अच्छा नहीं बनने दिया।
(७.) कुन्ती पुत्र कर्ण - कर्ण को कुन्ती पुत्र कर्ण के रुप में अंतिम पहचान मिली। जब कुन्ती को ज्ञात हुआ कि अधिरथ का पालक पुत्र कर्ण ही उसका पुत्र है। तब तक कर्ण पूर्णतया दलदल में फस गया था। (महाभारत की पात्र कुन्ती पंच पूजनीय कन्याओं में से एक है। कुन्ती ने विवाह से पूर्व सूर्य नामक राजा से एक पुत्र तथा शादी के बाद पति की आज्ञा से तीन पुत्र धर्मराज, पवनराज, इन्द्रराज नामक राजाओं तीन पुत्र प्राप्त किये थे।) शादी पूर्व माता बनना उस युग में निंदनीय नहीं था। इसलिए किसी ने कभी भी कुन्ती के ओर अंगुली नहीं उठाई। कर्ण से किसी ने कुन्ती पुत्र होने के कारण अथवा सुतपुत्र के आधार पर धृणा नहीं की। कर्ण पर उठने वाले सभी अंगुलियाँ उसके आचरण के कारण थी। द्रोपदी के हाथ में वरमाला थी। वह स्वतंत्र थी कि किसके गले में वरमाला डाले, इसलिए प्रतियोगिता में वही भाग ले सकता था जिसका आवेदन कन्या स्वीकृत करती है। इसे द्रोपदी को गाली देने का आधार नहीं बन सकता था। अर्जुन से प्रतिस्पर्धा करना भी उसकी मुर्खता थी। आज बहुत से अच्छे विद्यार्थी, शिक्षक एवं कर्मचारी सर्वश्रेष्ठता खिताब नहीं जीत पाते है, इसका अर्थ यह नहीं होता है कि वे खिताब प्राप्त करने वालों से धृणा करें। यद्यपि कर्ण छल व कपट का पक्षधर नहीं था लेकिन छलकपट होते देखता था तथा उसका मुक समर्थक भी बन जाता था। जब कर्ण को ज्ञात हुआ कि वह कौन्तेय है। तब तक वह पाप के दलदल में पूर्णतया फस चुका था। उससे बाहर निकलना मुश्किल ही नामुमकिन मानता था। इसलिए महाभारत के निर्णायक युद्ध में उसने पांडवो का साथ नहीं दिया लेकिन वह चाहता था कि पांडवों की विजय हो ताकि धर्म की स्थापना हो। इससे प्रतीत होता है कि कर्ण बुरा नहीं था। वह परिस्थितिवश तथा संगति के कारण बुरा कहलाया। इसलिए मनुष्य को अपनी संगति सोच समझ कर करनी चाहिए।
श्री आनन्द किरण "देव"
0 Comments: