--------------------------
आनन्द किरण
--------------------------
राजनैतिक जगत में जनता को निशुल्क सुविधाएं उपलब्ध कराने को राजनीति ने मुफ्तखोरी नाम दिया गया है। इसके अलावा मतदाता को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ऋणमाफी, उपहार वितरण, लुभावनी घोषणा तथा पद व पदवियों का वितरण किया जाने की परिपाटी चल पड़ी है। इससे कोई दल अछूता नहीं है। इसलिए जागरूक नागरिक के एक चिन्तन पेश किया है कि मुफ्तखोरी आवश्यकता है अथवा आपदा को निमंत्रण।
मुफ्तखोरी शब्द मुफ्त तथा खोर शब्द के संयोग से बना एक शब्द है, जिसका अर्थ होता है कि बिना परिश्रम के खाने की आदत का विकास। अर्थव्यवस्था में यह सूत्र विकास तथा प्रगति की रीढ़ को तोड़ देता है। इसलिए इसे अर्थव्यवस्था ने अपने सिद्धांत में स्थान नहीं दिया है। अर्थव्यवस्था का प्रथम सिद्धांत परिश्रम की महत्ता है। परिश्रम का जो परिणाम है, वह व्यक्ति तथा उसके परिवार के लिए उपयोग के लिए स्वीकृत किया गया है। भीक्षावृत्ति को अर्थव्यवस्था ने प्रारंभ स्तर से ही अस्वीकार किया है। अत: प्रथम दृष्टया में ज्ञात होता है कि मुफ्तखोरी अर्थव्यवस्था को रुग्ण बनाती है तथा कर्म हीनता को प्रोत्साहन देती है। इसलिए इसे किसी भी दृष्टिकोण से आवश्यकता नहीं बताई जा सकती है अतः द्वितीय विकल्प आपदा के नजदीक रखा जाना अधिक सुविधाजनक महसूस होता है।
प्रउत अर्थव्यवस्था में नागरिक, समाज से अपनी न्यूनतम आवश्यकता के आपूर्ति की गारंटी चाहता है अथवा समाज उन्हें इस बात की गारंटी देता है। इन दोनों ही स्थिति में व्यक्ति की अपनी न्यूनतम आय, न्यूनतम आवश्यकता पूर्ण करने के अनुकूल चाहता है। इसके लिए व्यक्ति समाज से रोजगार की मांग करता है अथवा अन्य शब्दों में कहा जाए तो शतप्रतिशत रोजगार की स्थिति में समाज स्थापित करना चाहता है। शतप्रतिशत रोजगार तथा न्यूनतम आवश्यकता के अनुकूल क्रयशक्ति को स्थापित किये बिना मुफ्तखोरी को आपदा करार देना न्यायपूर्ण मूल्यांकन नहीं होगा। मुफ्तखोरी को आपदा कहने से पहले समाज अथवा राज्य को यह देखना होगा कि क्या उन्होंने शतप्रतिशत रोजगार तथा क्रय क्षमता को निर्धारित मानदंड के अनुकूल किया है अथवा नहीं। यदि सरकार अथवा समाज उक्त आर्थिक तथ्यों की ओर ध्यान दिये बिना मुफ्तखोरी को रेवड़ियाँ अथवा बंदरबांट की उपमा देती है तो यह पूंजीवादी षड्यंत्र से अधिक कुछ नहीं है। जहाँ नागरिक कर्तव्यों का पाठ पढ़ाया जाता है, वहाँ सरकार तथा समाज को अपने फर्ज निभाने अथवा नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने के कर्तव्य का भी निवहन करना होता है।
भारतीय समाज में बहुसंख्यक लोग न्यूनतम आवश्यकता से कोसों दूर है, जबकि अति अल्पसंख्यक के पास संपदा का बहुत सारा हिस्सा है। लोग चाहकर भी संपदा का यह बहुत सारा हिस्सा जिनके पास है, उन्हें नहीं छुड़ा पाती है। अतः इस स्थिति में उन्हें दारिद्र्य पूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। ऐसी स्थिति में सरकार की ओर विद्युत, पानी, अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा तथा शिक्षा की कुछ आवश्यकता मुफ्त में अथवा आसानी से प्राप्त करती है तो यह उनका हक अथवा सरकार की ओर अभावग्रस्त की सेवा समझा जा सकता है। हमारे समाज ने समाज की व्यवस्था ठीक होने तक नारायण सेवा के महत्व को स्वीकार किया है। इसलिए राजनीति की नई परिपाटी में जो जनता को कुछ आवश्यकता सुविधाएं मुहैया कराई जा रही है। वह नारायण सेवा के तुल्य अथवा जनता का सरकार से न्यूनतम आवश्यकता पूर्ण करने की ओर बढ़ता कदम देखा जा सकता है। एक प्राउटिस्ट अपना चिंतन सर्वांगीण स्थित देखकर देता है। एक मूर्ख राजनेता राजनैतिक हास्य प्रस्तुत करता है तथा चिन्तक उसे स्वीकृति दे देता है अथवा अपने सिद्धांत को धरातल को देखे बिना रखता है तो वह अव्यवहारिक बन जाता है। इसलिए चिंतन के सभी पहलूओं को देखकर ही समाज तथा संगठन का वक्तव्य बनाना चाहिए।
धन्यवाद एवं नमस्कार
--------------------------
0 Comments: