करण सिंह शिवतलाव की कलम से
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राजनीति के प्यार में अंधा होकर लोकतंत्र भारतमाता का चिरहरण करता ही जा रहा है तथा हमारा संविधान मुकदर्शक बनकर इन सबको देखता रहता है तो संविधान पर टिप्पणी लिखने की आवश्यकता पड़ती है। मैं भारत राष्ट्र तथा भारत के संविधान का हृदय की अंतरंग गहराई से आदर करता हूँ तथा इनके प्रति सच्ची निष्ठा रखता हूँ। जब कभी भारत के महान संस्कार को राजनीति के समक्ष नतमस्तक होते देखता हूँ तो प्रश्न संविधान से पन्न पूछने चला जाता हूँ।
भारत के संविधान ने भारत में संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था दी है तथा उसमें बहुमत दल के नेता को सत्ता की बागडोर देने की व्यवस्था दी गई है। यह व्यवस्था स्वयं जब कभी लोकतांत्रिक गणित का असंतुलित समीकरण को लेकर संविधान के समक्ष गई है, तब महामहिम ने संविधान की ओर उत्तर देकर बिगड़ती व्यवस्था को संभाला है। लेकिन संविधान की ओर से दिया गया उत्तर भारतीय समाज के महान आदर्श की मर्यादा को छिन्न भिन्न करके आने वाले समीकरण सही संतुलित नहीं कर पाता है तो संविधान पर जवाब मांगने आ जाता हूँ।
स्थानीय निकायों के चुनाव के बाद उस निकायों के मुखिया एवं उप मुखिया को चुनने की यात्रा में तथाकथित जन प्रतिनिधि बाड़ाबंद हो जाते है तब लोकतंत्र तीन तेरह होती व्यवस्था पर संविधान अपने आँख लाल क्यों नहीं करता? क्यों नहीं वह लोकतंत्र को दलदल में ले जाती व्यवस्था पर करारा प्रहार नहीं करता? मैं संविधान से पूछता हूँ कि लोकतंत्र में तथाकथित जनप्रतिनिधियों की बाड़ाबंदी के पीछे पर्दे की ओट में छिपी हरकतें जब भारतमाता को रक्त के आंसू रूलाते है तब तुम मौन क्यों धारण कर लेते हो? इसके चलते हमारे समाज ने इसे परिपाटी के रुप में अपना लिया है। लेकिन कई तो कोई खून खोलना चाहिए अन्यथा लोकतंत्र में गुड़ागर्दी का अखाड़ा बन जाएगा। स्थानीय निकायों में हम भारत के संस्कारों का गला घोटते देखते रहे तो आज यह कुपरम्परा विधान मंडल में प्रवेश कर दी है। यही हाल चलता रहा तो यह दृश्य संसद में नंगा नृत्य करेंगी तथा महामहिम के चुनाव में भी प्रवेश कर लेगा। तब भी संविधान को मौन ही रहना पड़ेगा? मैं तो उस दिन भारतीय इतिहास सबसे बड़ा दुखद एवं शर्मीदगी भरा दिन कहूँगा।
आजकल राजनैतिक पार्टियां जनादेश का जवाब अपने दल को सत्ता के सिंहासन पर आरूढ़ करने के सभी अवैध तरीकों राजनैतिक उत्सव के रुप में देती है। संविधान इस दृश्य को देखकर भी कैसे चुप्पी साध लेता है? यह सबसे बड़ा आश्चर्य है। राजनीति का यह गंदा दृश्य भारतवर्ष को निगलने की कुचेष्टा करता है तथा पार्टी के प्यार के रोग से पीड़ित समर्थक इसे अपनी पार्टी की जीत का जश्न की उपमा देती है तो भारत का आदर्श लोकतंत्र शर्मीदा होता है। यह रोगी समर्थक हद तो तब पार कर जाते है जब उपरोक्त गंदे रचनाकार अपने दल के शकुनि को चाणक्य कहकर ठहाके लगाते है। इस दृश्य ने भारतीय इतिहास के महान कुटनीतिज्ञ आचार्य विष्णुगुप्त कौटिल्य को भी शर्मीदा कर दिया है। चाणक्य ने देश, समाज तथा भारत की संस्कृति की रक्षार्थ राजनीति कुटनीति को प्रयोग किया था। सत्य यह शकुनि ने धर्म को मिटाने में कपट का खेल रचा था। राजनीति में आज जो खेल हो रहे है, वह कुटनीति नहीं कपट नीति है।
लोकतंत्र, राजनैतिक दलों को जनादेश बनाने की जो व्यवस्था उपलब्ध कराता है उसमें उन्हें जन गण मन के समक्ष अपने दल के सिद्धांतों एवं कार्ययोजना को परोसकर जनमत को अपने पक्ष में करना होता है। दल के आदर्शों से जन भावना सिंचने की भी छूट देता है लेकिन इसका कार्य में अवैधानिक साधनों की अनुमति कभी भी नहीं दी गई है। फिर भी पर्दे के पीछ तथा खुलमखुल्ला अवैधानिक कार्य होते है। जनमत निर्माण के लिए जातिगत तथा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के जो प्रयास होते है, क्या हमारे संविधान ने इसकी अनुमति दी है? उत्तर नहीं फिर यह होते देखकर संविधान कुछ क्यों नहीं बोलता? उत्तर इसकी अनुमति तो नहीं है लेकिन यह गैर कानूनी नहीं है। मैंने किसी मौत मातम पर भी राजनैतिक रोटियाँ सिकती देखी है। नशे के विरोध में जन जागरण के अभियानों को राजनीति की चौपाल में नंगा होते हमने देखा है, कुछ इसे रिवाज तो कुछ इसे शिष्टाचार की भी उपमा देते है। मुझे नहीं लगता है कि राजनीति को जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए शराब, अफीम तथा अन्य नशीले पदार्थों को उपयोग करना जायज है, यह दृश्य भी हमारा संविधान देखता है। इसका कारण ढूँढना नहीं इस आलेख का उद्देश्य है।
संविधान ने अपनी ओर से दिशाहीन होते लोकतंत्र को रोकने के सभी प्रश्नों के जबाब देने के लिए जिसे नियुक्त किया है, वह सबल नहीं है तथा जो सबल है, वह राजनीति के दलगत दलदल के पैंदे है। महामहिम एक शोभा है, शक्ति नहीं। इसी कारण से संविधान आँखे खुली रखकर अपराध एवं पाप को देखता है। संविधान को यह व्यवस्था ही बेबस बना देती है। वह चाहकर भी वोटों की राजनीति के सामने कुछ नहीं कर सकता है।
क्या संविधान की विश्वसनीयता को लेकर उठ रहे संदेह पर महामहिम कुछ नहीं कर सकते है? मुझे इसका उत्तर देने को कहा जाए तो मैं कहूँगा कि महामहिम यदि करना चाहें तो बहुत कुछ कर सकते है, जिसकी कल्पना भी हमारी राजनीति ने नहीं की होगी। महामहिम देश तथा प्रदेश के प्रथम नागरिक है। उसकी यह शक्ति जनता की ओर सरकार, सत्ता एवं शक्ति से वे सभी प्रश्न करने अनुमति देती है, जिनकी जन गण मन को आवश्यकता है। वह प्रथम नागरिक की हैसियत से नागरिक शक्ति का जागरण तथा उसका नेतृत्व कर संविधान पर लगने वाले हर प्रश्न के समक्ष जबाब देने के लिए सत्ता को विवश कर सकता है। महामहिम यह शक्ति उन्हें नव व्यवस्था निर्माण की ओर समाज को ले चलने के लिए समक्ष बनाती है। विडम्बना यह है कि प्रथम नागरिक की शक्ति को महामहिम ने पहचानी नहीं है। यदि इस शक्ति के प्रयोग के समक्ष महाभियोग उनका रास्ता रोकता है तो उन्हें क्रांतिवीर बनने से कोई नहीं रोक सकता है। अब महामहिम को संवैधानिक प्रमुख तथा राष्ट्र व राज्य मुखिया होने की शक्ति याद दिलाता हूँ, इसके रुप में आप जनता से सीधा सहयोग मांग सकते है तथा जनक्रांति का अग्रदूत बन सकता है। मैं सेना तथा पुलिस की शक्ति सहयोग लेने के बात का समर्थक नहीं हूँ, यदि ऐसा होता है तो देश में गृहयुद्ध की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसलिए महामहिम को सेना के सर्वोच्च सेनापति होते हुए भी इस रास्ते को नहीं चुनना चाहिए। मैं तो इसे कायर प्रशासक हथियार मानता हूँ।
मैं अंत में सार के रुप में कहना चाहता हूँ लोकतंत्र को गलत दिशा में जाने से रोकना संविधान का दायित्व है तथा संविधान की ओर सभी व्यवस्था उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी महामहिम की है। महामहिम के पास प्रथम नागरिक तथा राष्ट्र तथा राज्य का मुखिया होने शक्ति है। उसका उपयोग कर राष्ट्र को गलत दिशा में जाने से रोका जा सकता है तथा संविधान के प्रति जन गण मन की आस्था को मजबूती प्रदान कर सकता है। इसके लिए राजभवन को नागरिकों से सीधा जोड़ने की आवश्यकता है।
संविधान पर मेरी टिप्पणी का एक ही जबाब है - महामहिम पहचाने अपनी शक्ति
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✍️ करण सिंह शिवतलाव
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