---------------------------------
✒करण सिंह शिवतलाव की कलम से
---------------------------------
जब देश में कांग्रेस सत्तासीन थी तब भाजपा सहित विपक्ष कहता था कि महंगाई को मिटाने में कांग्रेस सरकार व उनकी नीति असफल रही तथा असफल रहेंगी अर्थात कांग्रेस के रहते हम महंगाई मुक्त भारत नहीं बना सकते है और महंगाई को एक मुद्दा बना कर राजनैतिक रोटियाँ बेलने लग गए। आज वाकई उल्टा हो गया भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए सत्ता में तब भी महंगाई मुद्दा बनकर राजनीति कर रहा है। फर्क इतना ही है, जो कल तक मंहगाई - महंगाई कर रहे थे, आज उन्हें महंगाई डायन नहीं लगती है। जो कल तक महंगाई सुलझा नहीं पा रहे थे, उन्हें आज महंगाई नजर आ रही है। राजनैतिक लोकतंत्र में सत्ता तथा शक्ति का यह खेल चलता है, इस तरह चलता ही रहता है, सामाजिक आर्थिक समस्याओं को मुद्दा बना कर राजनेता देश के साथ खिलवाड़ करते ही रहते है। लाचार जनता कभी इसकी पूंछ पकड़ती है, तो कभी उसकी। इससे मुद्दे तो भुनाये जा सकते है लेकिन समस्याएं जस की तस रहती है।
महंगाई कभी राष्ट्र के समक्ष राजनैतिक मुद्दा बनकर नहीं आई, यह एक सामाजिक आर्थिक समस्या है। इसका निदान वर्तमान व्यवस्था के पास तो नहीं है। इसलिए इससे आश लगाना ही बेकार है। अतः हमें नई सामाजिक आर्थिक व्यवस्था के बारे में सोचना चाहिए।
चलो थोड़ा समझने की कोशिश करते है कि महंगाई एक समस्या कैसे है? महंगाई तथा क्रय क्षमता का सीधा संबंध है। जिसकी क्रय क्षमता कमजोर है, उसके लिए महंगाई मार है तथा जिसकी क्रय क्षमता मजबूत है, उसे महंगाई नज़र नहीं आती है। मैंने किसी राजनैतिक समर्थक का वीडियो देखा उसमें वह मूछ पर तांव देकर कहता है कि महंगाई, बेरोजगारी इत्यादि से मुझे कोई मतलब नहीं मुझे तो पाकिस्तान व अफगानिस्तान चाहिए। वह शायद इसलिए कहता है कि उसे महंगाई रुपी डायन का साक्षात्कार नहीं हुआ है। महंगाई की मार गरीब को रूलाती है, अमीर को रुलाने की महंगाई की औकात नहीं है। इसलिए तो सिद्ध होता है कि महंगाई क्रय क्षमता के व्युत्क्रमानुपाती होती है, जैसे क्रय क्षमता बढ़ती जाती है वैसे वैसे महंगाई की मार कम होती जाती है। इस प्रकार महंगाई का प्रत्यक्ष व परोक्ष रुप से क्रय क्षमता से सीधा संबंध है। अतः क्रय क्षमता को ठीक करने से महंगाई की समस्या का निराकार हो जाएगा। इसके लिए समाज को शतप्रतिशत रोजगार तथा न्यूनतम आय की सीमा युग की आवश्यकता के अनुकूल रखने की ओर ले चलना चाहिए। जिससे मनुष्य आसानी से अपने रोजमर्रा की आवश्यकता को पूर्ण कर सके। यह वर्तमान व्यवस्था में संभव नहीं है, इसलिए नूतन व्यवस्था की खोज में निकल जाना ही बुद्धिमत्ता है। अब हम नूतन व्यवस्था की ओर दृष्टि घुमाते है। नूतन व्यवस्था के मूल में सर्वजन का हित तथा सुख होना तथा उसके प्रगतिशील उपयोग तत्व से सींचना आवश्यक है। जहाँ भी उक्त दोनों तथ्य दिखाई दे वहाँ सामाजिक आर्थिक समस्याएं जैसे मंहगाई, बेरोजगारी, निर्धनता इत्तल सामाजिक अपराध जैसे चोरी, डकैती, लूट खसोट, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, भाई भतीजावाद इत्यादि का स्थाई निराकरण है।
महंगाई राजनैतिक मुद्दा नहीं, सामाजिक आर्थिक समस्या है, जिसका निराकरण क्रय क्षमता में वृद्धि में निहित है जो 'प्रउत' के बिना संभव नहीं है, इसलिए प्रउत की ओर चलना सुपथ है।
-----------------------------
0 Comments: