(यह चित्र नाम है अथवा काम)
यदि प्रश्न 'नाम बनाम काम' के बीच में किया जाए तो काम के पक्ष में लगभग सभी वोट आते हैं। लेकिन भारत का भक्ति शास्त्र नाम की महिमा काम से अधिक करता है। इसलिए विषय अधिक प्रासंगिक हो जाता है कि 'नाम बनाम काम' में से हम किसको चुनेंगे?
भारत के आध्यात्मिक जगत का सिरमौर विद्या तंत्र का अधिकांश भाग प्रैक्टिकल है। प्रैक्टिकल का सीधा संबंध काम से है। भारत का वैदिक साहित्य भी पुरुषार्थ पर बल देता है। पुरुषार्थ का संबंध भी काम से है। लेकिन भक्ति साहित्य में नाम को महत्व दिया गया है। भारतवर्ष के कई पंथ तो अपने आध्यात्मिक साधना का ब्रह्मास्त्र नाम को ही स्वीकार करते है। रामचरितमानस सहित कुछ अन्य ग्रंथ ने तो कलयुग को नाम आधारा माना है। इसलिए भी 'नाम बनाम काम' विषय इस युग के लिए प्रासंगिक है।
'नाम बनाम काम' विषय को समझने के लिए नाम एवं काम को समझना आवश्यक है।
नाम शब्द का साधारण अर्थ पहचान का प्रतीकाक्षर होता है। लेकिन गूढ़ार्थ में नाम व्यक्ति के व्यक्तित्व का आधार है। इसलिए शिशु के नामकरण को उसका जातकर्म कहा जाता है। जात शब्द का अर्थ वर्तमान युग में प्रचलित जाति नहीं है। जात का अर्थ है कि शिशु के व्यक्तित्व का निर्धारण करना। हमसब मिलकर शिशु को क्या बनाना चाहते हैं, उसके लिए तदरुप नाम चुना जाता है। तथा वही नाम उसको दिया जाता है। यहाँ नाम में कर्मशक्ति दी जाती है। सरल शब्दों में कहा जाए तो नाम में कर्ममाला छिपी होती है अथवा कर्ममाला को एक नाम के माध्यम से हम जानते हैं।
नाम को आध्यात्मिक जगत में मंत्र का पर्याय में दिखाया जाता है। लेकिन यह सत्य नहीं है। मंत्र किसी सत्ता के निर्माण बीजाक्षर से होता है, जिसे आध्यात्मिक भाषा में बीजमंत्र कहा जाता है। इसके अलावा कुछ मंत्र मन की प्रगति के लिए बनाए जाते हैं। जिसमें से इष्टमंत्र एवं गुरुमंत्र सबसे महत्वपूर्ण होते हैं। यह सभी के लिए आवश्यक भी है। इसलिए इन्हें मंत्र विज्ञान के केन्द्र में रखा गया है। सभी मंत्र इनके इर्दगिर्द घूमते हैं। लग रहा है कि विषय कुछ जटिल रास्ता पकड़ रहा है। लेकिन नाम एवं काम समझने के लिए यह आवश्यक है। अब हमें इष्टमंत्र एवं गुरुमंत्र की निर्माण कला को जानना आवश्यक है। यद्यपि इसका सही राज तो सदगुरु ही बता सकते हैं। मैं गुरुदेव की अहैतुकी कृपा से जो जान पाया उसे साक्षी रखकर विषय की ओर बढ़ना चाहूँगा। इष्टमंत्र का निर्माण सदगुरु करते हैं। दीक्षार्थी को गुरु की ओर से जो इष्ट दिया जाता है, तदनुसार शिष्य को बनाने के लिए गुरु द्वारा इष्टमंत्र का निर्माण किया जाता है। यद्यपि सभी के लिए एक इष्टमंत्र नहीं होता है लेकिन गुरु युग की मानस गति देखकर कुछ इष्टमंत्र तैयार कर आचार्यों को देते हैं। आचार्य मानस गति श्रेणी देखकर इष्टमंत्रों के समूह में से एक दीक्षा भाई के मन में प्रवेश कराते हैं। इस इष्टमंत्र में प्रचंड कर्म शक्ति विद्यमान होती है। जिसका मंत्रचैतन्य की बेला पर अनुभव होता है।
अब गुरुमंत्र के निर्माण का विज्ञान समझने की कोशिश करते हैं। गुरुमंत्र का निर्माण गुरु द्वारा शिष्य को जैसा वस्तु को दिखाना चाहते हैं, उसके अनुसार गुरुमंत्र भी तैयार किये जाते हैं। गुरुमंत्र भी एकाधिक होते हैं। अब प्रश्न इष्ट एवं आदर्श सभी के एक हैं तो इष्ट एवं गुरुमंत्र एक क्यों नहीं? इसका एक उत्तर है सभी के मन की स्थित एक सी नहीं होने के कारण साधन में अनेकता है।
पुनः विषय की ओर लौटते हैं। नाम को हम समझ रहे हैं। नामदान की विद्या बताती है कि नाम आध्यात्मिक यात्रा में विभिन्न पड़ाव है। उसमें भाषाई विभिन्नता का रहना स्वभाविक है। कुछ नामदान के पंडित कहते हैं कि सच्चा नाम संस्कृत, फारसी, अरबी, लैटिन, ग्रीक इत्यादि विश्व की सभी भाषाओं के वर्णमाला के अक्षरों में नहीं है। यद्यपि मैं इस गुप्त रहस्य का ज्ञाता नहीं हूँ फिर भी इतना सत्य है कि ध्वनि विज्ञान से परे कोई नाम नहीं है। ध्वनि विज्ञान के सभी अक्षरों को संस्कृत वर्णमाला में सजाया गया है। संस्कृत वर्णमाला ने ध्वनि विज्ञान के एक अक्षर को भी नहीं छोड़ा है। फिर भी इस रहस्य को विषय के पुरोधा ही अधिक स्पष्ट कर सकते हैं। एक रुहानी यात्रा को कुछ लोग मोटे रुप से तीन पड़ाव में बांटते हैं। इसलिए तीन नाम देते हैं। कोई पांच तो कोई सात अथवा अधिक। उसी के अनुसार पांच, सात अथवा अधिक नाम देते हैं।
वस्तुतः प्रत्येक आध्यात्मिक लोक का एक ही साक्षी पुरुष होते हैं। तथापि प्रत्येक लोक में साधक में भाव सृष्ट होता है। उसी के अनुरूप साक्षी पुरुष नाम दिया गया है। उस लोक में साधक साक्षी पुरुष को अपने आश्रयदाता, अभिभावक, संरक्षक, पिता / पति / सखा / प्रियतम के रूप में मानता है। उसका पुकारु नाम सदैव एक होता है। अफसर के रुप में सभी डिपार्टमेंट में बॉस अथवा वरिष्ठ को सर, व्यापारिक जगत में सेठ तथा सामाजिक एवं पारिवारिक जगत में बाबा सबसे प्रचलित शब्द है। चूंकि परमपिता व गुरु से अपनत्व का रिश्ता होता है, जिसे पारिवारिक संबंध कहते हैं। अत: आध्यात्मिक जगत के सभी लोकों के साक्षी सत्ता सदैव "बाबा" रहते हैं। अत: एकमात्र नाम "बाबा" से आध्यात्मिक यात्रा पुरी संपन्न हो जाएगी। इसलिए भगवान श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने 'बाबा नाम केवलम' के रुप में कीर्तन देकर नाम लोक में महाविपल्वी कार्य किया है। रुहानी यात्रा के राही बताते हैं कि प्रत्येक लोक हमें एक विशेष प्रकार की ध्वनि सुनाई देती है। वह ध्वनि ही हमारा सबद है। यदि हम पूर्वघोषणा के अनुसार रुहानी यात्रा में निकलेंगे तो तदनुसार शब्द का गूंजना संभव है। मैंने इस यात्रा के आनन्द मार्गियों के अनुभव सुने तो किसी ने पहले बंशी ध्वनि सुनी है तो किसी ने शंख, मृदंग इत्यादि की ध्वनि। इसलिए यह कहना शायद गलत है कि किसी विशेष लोक की वही ध्वनि है, वही हमारा नाम है।
नाम को समझने के बाद काम को समझने की ओर चलते हैं। काम विषय एषणा अथवा काम (सेक्स) के अर्थ में लिया जाता है। लेकिन हमारा विषय काम को कर्म (work) के अर्थ में लेकर आया है। इसलिए काम रिपु की ओर नहीं चलेंगे। काम शब्द का अर्थ शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रगति के लिए किया गया प्रयास अथवा प्रयत्न है। मनुष्य एवं जगत के सभी जीव अजीवों को जीवन के प्रथम से अंतिम क्षण तक कर्म करना ही होता है। उसके प्रत्येक कर्म का एक नाम है। वस्तुतः काम व नाम में एकरूपता है। अत: काम के सलेक्शन में नाम का सलेक्शन हो जाता है तथा नाम के सलेक्शन में काम।
'नाम बनाम काम' जंग तब होती है जब नाम एवं कर्म में अंतर होता है। नाम राम तथा काम रावण का तो दोनों में जंग होगी। उस दशा में व्यक्ति अपनी मन की अवस्था के अनुसार नाम अथवा काम में से किसी को वोट देता है।
आध्यात्मिक जगत के रहस्य से निकल कर हम समाज में आते हैं। यहाँ भी काम एवं नाम के बीच द्वंद युद्ध चलता है। कोई नाम के लिए काम करता है। तो कोई अपने दायित्व धर्म के लिए काम करता है। प्रथम में अहंकार की पुष्टि होती है। ऐसे लोग प्रशंसा सुनने के आदी हो जाते हैं। यह उन्हें खुशी प्रदान करती है। निंदा इनको कर्कश लगती है। यह उन्हें दुखदायी लगती है। नाम के लिए काम करने वाला व्यक्ति इसकी अत्युग्र अवस्था में रोगी बन जाता है तथा उसकी गति को सुदिशा देने वाला भी शत्रु नजर आता है। समालोचना करने वाला अथवा सुझाव देने वाले पर भुखे भेडिये की तरह नोंचने को निकल पड़ता है। राजनैतिक जगत में ऐसे राजाओं को निरंकुश अधिनायक अथवा तानाशाह कहा गया है। इसके विपरीत जो लोग दायित्व धर्म के निवहन के लिए काम करते हैं, उन्हें अनुकूल-प्रतिकूल सभी परिस्थितियों में आनन्द मिलता है। वह विरोधी से भी बहुत प्यार करता है। उनमें घृणा होती ही नहीं है।
विषय का सारांश यही है कि प्रत्येक काम एक नाम है। प्रत्येक नाम का एक काम है। नाम एवं काम में एकरूपता होनी चाहिए। लेकिन काम नाम की चाहत में नहीं किया जाना चाहिये बल्कि नाम सदैव काम की चाहत में होना चाहिए। काम दायित्व धर्म की चाहत में रहता है। नाम व काम में से बड़ा काम है। लेकिन नाम भी छोटा नहीं है क्योंकि प्रत्येक काम नाम भी है। अंत में नाम एवं काम में से हमें किसी एक का चुनाव करना हो तो काम को चुनना चाहिए।
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श्री आनन्द किरण "देव"
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