ईश्वर प्रणिधान (Devotion to god)


जगत के नियंता को ईश्वर कहा गया है। प्रणिधान का अर्थ प्रयत्न करना। ईश्वर प्रणिधान शब्द का अर्थ हुआ ईश्वर बनने का प्रयत्न करना अथवा ईश्वर बनने विधि। चूंकि मनुष्य का चरम एवं परम लक्ष्य मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ है ईश्वर में मिलकर एक हो जाना। इसलिए साधना जगत का प्रथम सोपान का नाम ईश्वर प्रणिधान दिया गया है। यद्यपि नियम साधना में इसका स्थान अंतिम में रखा गया है लेकिन आध्यात्मिक साधना में यह प्रथम स्थान पर है। 

ईश्वर प्रणिधान का मूलभाव अहम ब्रह्मास्मि है। मैं  ब्रह्म हूँ भाव में प्रतिष्ठित होने का जो प्रयत्न है, उसे ईश्वर प्रणिधान नाम दिया गया है। मनुष्य की स्व: भाव से आनन्द भाव की साधना को ईश्वर प्रणिधान से समझा जाता है। शास्त्र कहता है कि सबसे उत्तम साधना ब्रह्म सद्भाव की है। ब्रह्म भाव की साधना का नाम ही ईश्वर प्रणिधान है।

ब्रह्म भाव में प्रतिष्ठित होने की प्रक्रिया को ईश्वर प्रणिधान कहा गया है। इसलिए इस प्रक्रिया को जानना, अपनाना एवं आत्मसात करना आवश्यक है। इस प्रक्रिया का मूल 'मैं' तथा 'वह' है। 'मैं साधक तथा वह साध्य है। जब साधक मैं वही हूँ' भाव लेते लेते अन्ततोगत्वा उसमें ही प्रतिष्ठित हो जाता है तो साधना पूर्ण हो जाती है। भाव का निर्माण में शब्द सहायक होता है। इसलिए इष्ट मंत्र की अवधारणा विकसित हुई। इष्ट में प्रतिष्ठित करने वाला शब्द शक्तिपूंज को इष्ट मंत्र कहा जाता है। यह मंत्र बीज अक्षरों के समूह से बनता है। चूंकि ब्रह्म भाव की साधना में मैं व वह नामक दो बिन्दु है। इसलिए यथासंभव दो अक्षरों का ही इष्ट मंत्र होता है। पहला अक्षर मैं तथा दूसरा अक्षर वह प्रतिनिधित्व करता है। चूंकि बीजाक्षर उस भाव मूल होता है इसलिए मंत्र को शक्तिपूंज कहा जाता है। मैं तथा वह को एक करने की प्रक्रिया साधना है। जहाँ मैं वह तथा वह मैं बन जाता है। इनमें पार्थक्य करना एवं देखना असंभव हो जाता है। इसलिए मैं ओर वह को बांधने वाले रस्सी के प्रतीक्षाकर के कई मात्रा युक्त तो कहीं ढ़ाई अक्षर का मंत्र भी देखा जाता है। फिर भी मंत्र में दो ही बिन्दु होते हैं। तीन बिन्दु की साधना एक अव्यवहारिक सोच है। तीन बिन्दु की साधना में मैं, वह के बीच तुम होता है अर्थात साधक, गुरु एवं भगवान। इसमें प्रथम क्रम गुरु एवं भगवान एक होते तथा तुम वह में तथा वह तुम में मिल जाता है तथा अंत में मैं तथा वह एक हो जाते हैं। 

ब्रह्म साधना की प्रक्रिया समझ रहे हैं इसलिए उसकी संक्रिया भी समझना आवश्यक है। संक्रिया के क्रम में व्यक्ति के चित्त को ब्रह्म रुप में बैठाना पड़ता है। शास्त्र इस चित्त शुद्धि नाम देता है। चित्त यदि ब्रह्म के अतिरिक्त किसी अन्य रुप में गोता लगा रहा है तो मैं वही हूँ की साधना ध्येय में प्रतिष्ठित करके जड़ बना देते हैं। जिस पथभ्रष्ट नाम भी दिया गया है। अतः साधक एक निश्चित संक्रिया के माध्यम से चित्त शुद्धि करता है तथा चित्त ब्रह्म में बैठता है। इस संक्रिया को संपन्न करने के लिए चित्त को अपने में लौटना होता है, इसलिए आसन शुद्धि की आवश्यकता होती है। चित्त जहाँ कही है वहाँ से उसे उन सभी केन्द्र से होकर चित्त को पुनः अपने चित्त में लाने की संक्रिया को आसान शुद्धि कहते हैं। चित्त को इसलिए सभी केन्द्रों से होकर लाना होता है तांकि चित्त आभागों को जी कर भोग रहित हो जाए तथा ब्रह्म भाव का आभोग शतप्रतिशत ग्रहण कर ले। आसान शुद्धि की इस संक्रिया में सिद्धि के पहले बाहरी परिवेश मन छुड़ाना होता है। इस संक्रिया को भूत शुद्धि कहा जाता है। भूत शुद्धि में मन बाहर के परिवेश हटाकर एक सीमाहीन परिवेश में लाकर रखा जाता है। जहाँ से आसान शुद्धि चित्त में ले जाती है तथा चित्त शुद्धि ब्रह्म में ले जाती है। यहाँ इष्ट मंत्र ब्रह्म भाव तथा ब्रह्म भाव मूल लक्ष्य में प्रतिष्ठित करता है। 

ईश्वर प्रणिधान भूत शुद्धि, आसान शुद्धि, चित्त शुद्धि, इष्ट मंत्र का जप तथा ब्रह्म भाव का अधिग्रहण की मिलित प्रणाली का नाम है। जिस साधक के पास यह प्रणाली है, वह अपना उद्धार करता है अर्थात यह पथ उसके उद्धार का पथ है। इसी को शास्त्र में सत् पथ कहा गया है। सत् पथ मनुष्य के लिए आनन्द ले आता है। इसलिए साधना मार्ग आनन्द मार्ग कहा जाता है। 

आओ आनन्द मार्ग पर चलते हैं। जीवन को धन्य बनाते हैं। मनुष्य होने का सुलाभ प्राप्त करते हैं। यही जीवन का सार है। 
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श्री आनन्द किरण "देव"
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