साधना के दूसरे सौपान का नाम मधु विद्या है। मधु शब्द का शाब्दिक अर्थ मिठास है। अर्थात मधु विद्या का अर्थ हुआ वह विद्या जिसमें मिठास अथवा मधुरता की अनुभूति होती है। मधुरता के मूल में आनन्द का निवास होता है। इसलिए मधु विद्या से आनन्दोपब्लधि की साधना भी कहा जाता है। चूंकि आनन्द ही ब्रह्म है इसलिए मधु विद्या ब्रह्म विद्या भी हो जाती है। मधु विद्या की प्रणाली में कर्ता, कर्म, करण, क्रिया इत्यादि सबको ब्रह्म के रुप में देखा जाता है। मधु विद्या में 'सब कुछ ब्रह्म है' का भाव लिया जाता है। सर्वत्र ब्रह्म देखने तथा दिखाने वाली विधा का नाम मधु विद्या है।
जब भी हम एक स्थित से दूसरी स्थित में जाते हैं तब दूसरी स्थित पर ब्रह्म भाव का आरोपण किया जाना ही मधु विद्या की प्रणाली है। हमारे मन का विज्ञान बताता है कि एक स्थित में मन रहने पर स्थिरता रहती है। जैसे शांत पानी में स्थिरता है, जैसे ही पानी में अन्य वस्तु का प्रवेश होता है वैसे ही चंचलता आ जाती है तथा स्थिरता भंग हो जाती है। जीवन के कर्म मार्ग में भी बारबार चंचलता का सामना करना पड़ता है। उस नवीन स्थित में ब्रह्म भाव लेने से निरंतरता बनी रहे। समष्टि तथा व्यष्टि जीवन की प्रथम स्थित को ब्रह्म भाव की स्थिति स्वीकार कर ली जाती है तथा द्वितीय स्थित में ब्रह्म भाव द्वारा निरंतरता बनाये रखने के लिए मधु विद्या है। इसलिए मधु विद्या से पहले ईश्वर प्रणिधान की दीक्षा दी जाती है। ईश्वर प्रणिधान प्रथम स्थित है, जो ब्रह्म भाव की अवस्था है।
मधु विद्या में ब्रह्म भाव लेने की प्रणाली के लिए एक मंत्र की आवश्यकता महसूस की गई थी। मानव मनीषा की इस लंबी सोच को क्रिया रुप परिणत करते हुए श्री श्री आनन्द मूर्ति जी ने साधना जगत में पहली बार मधु विद्या के लिए मंत्र अथवा मंत्रों का सर्जन कि किया जिन्हें गुरुमंत्र नाम दिया गया। गुरुमंत्र मधु विद्या की एक प्रक्रिया कहा जा सकता है।
गुरुमंत्र मधु विद्या की शाब्दिक अभिव्यक्ति है। शब्द भाव के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण उपकरण होता है। यद्यपि परमतत्व शब्द की पकड़ के उपर है। भाव ही उनके पास ले जाता है लेकिन वे भावातीत है। मधु विद्या को गुरु मंत्र कहा जाता है। गुरु अंधकार हटाकर प्रकाश करने वाली शक्ति नाम है। गुरु मंत्र के प्रयोग से मनुष्य जीवन में ब्रह्म ज्योति का प्रकाश होता हैं। जिसके फलस्वरूप मनुष्य नूतन संस्कार के बंधन में नहीं बंधता है। आध्यात्मिक जगत यात्रा के दोरान मनुष्य के सामने प्रथम प्रकाशपुंज गुरु के रूप में ही आता है। अत: गुरु साधक के लिए प्रेरणा स्रोत होते है। जिस प्रकार गुरुदेव ने दुनिया में निर्लिप्त रहते हुए सांसारिक कर्तव्यों का निवहन किया है उसी प्रकार हम भी जगत को जिये एवं जीवन लक्ष्य को प्राप्त करें। यही मधु विद्या को गुरु मंत्र कहने का गुढ़ार्थ है। गुरु मंत्र का एक अर्थ यह भी गुरु द्वारा प्रदान किया गया ऐसा मंत्र जो मनुष्य को सभी बंधनों से मुक्त रखता हुआ बंधन से मुक्त करता है।
गुरु मंत्र, मधु विद्या एवं ब्रह्म भाव सब एक ही है। इसलिए सेकण्ड लेशन को संक्रिया एवं प्रक्रिया से मुक्त रखा गया है। प्रथम लेशन मनुष्य की आंतरिक सुरक्षा को मजबूत करता तथा द्वितीय लेशन बाहरी सुरक्षा प्रदान करता है। साधना करते समय हमारे अन्दर एवं बाहर जगने शत्रु अर्थात नकारात्मक अणुजीवत को साधक से दूर रखता है तथा मित्र अर्थात नकारात्मक अणुजीवत को नजदीक लाता है। भारतीय कर्मकांड में एक प्रथा प्रचलित है कि किसी भी क्रिया को करने से पूर्व कर्ता को सुरक्षित होना पड़ता है। यद्यपि आध्यात्मिक साधना का कर्मकांड से दूर दूर तक का कोई रिश्ता नहीं है तथापि रहस्यमय जगत में प्रवेश कर रहे हैं इस रूहानी यात्रा में सदैव परमपुरुष के साथ होने की अनुभूति गुरु मंत्र के माध्यम से होती है तथा साधक अपने को अकेला महसूस नहीं करता है। पूर्णतया सुरक्षित अनुभव करता है।
प्रथम लेशन कर्म बंधन को काटता तथा सेकण्ड लेशन नये कर्म के बंधन से मुक्त रखता है। इसलिए पूर्णत्व प्राप्ति के बाद को बंधन उसे रोक नहीं पाता है।
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श्री आनन्द किरण "देव"
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