आज का प्रश्न धर्म/सत्य/ आनन्द के पथ पर चल रहे सभी पथिकों से है। इसका उत्तर देना सबका प्रथम कर्तव्य है क्योंकि आज धर्म/सत्य/आनन्द संक्रमण काल से गुजर रहा है। जो होना चाहिए, वह नहीं हो रहा है तथा जो नहीं होना चाहिए वह हो रहा है। इस परिस्थिति में सबको अपने मानस पटल को टटोलना होता है कि कई हम अपने उद्देश्य से भटक तो नहीं रहे हैं? इस प्रकार के प्रश्न मनुष्य अक्सर दूसरों से करता है लेकिन यह प्रश्न खुद से करने की आवश्यकता है।
मठ अथवा मजहब की अवधारणा मनुष्य के पथ रुग्ण कर देती हैं। इसलिए हे धर्म/सत्य/आनन्द के राही! मठ व मजहबवादी अवधारणा में अपने को मत ले चल। यदि धर्म/सत्य/आनन्द का पथ कठिन है तो भी उसका ही वरण करना चाहिए यही महाजन एवं शास्त्र ने बताया है। मठ अथवा मजहब की राह कितनी भी सरल दिखती हो तो भी उस पर नहीं चलना चाहिए। पथिक के लिए यह संदेश आप्त वाक्य अथवा प्राण वाक्य है।
मठ शब्द का प्रयोग भिक्षुओं के रहने के स्थान के लिए प्रयोग होने लगा। भिक्षु शब्द उन लोगों के लिए प्रयोग होता था जो सांसारिक दुखों से निवृत्ति के लिए उपाय करते थे। उन्हें सांसारिक जिम्मेदारी में दुख तथा जिम्मेदारी से पलायन में सुख दिखाई देता था। यह पथ मनुष्य को धर्म अथवा धम्म की शरण में नहीं ले जाकर दिशाहीन पथ पर ले जाता है। भिक्षु तथा मठवादी अवधारणा ने भारतवर्ष को अंधकार की काल कोठरी में धकेला था। जिसका परिणाम दासता की बेडियां रहा। कुछ लोग भूलवश मठ को केन्द्र के अर्थ में प्रयोग करते है। केन्द्र उस क्षेत्र के लिए प्रयोग होता है, जहाँ प्रगति का कुछ उद्देश्य होता है जबकि मठ उद्देश्य विहिन विहार है, जहाँ रहकर भिक्षु अपने कर्तव्य तथा उत्तरदायित्व से मुह मोड़ता है। भारतवर्ष के संस्कार इसको कभी भी अपने प्राण धर्म के रुप में अंगीकार नहीं करते है। इसलिए तो राजशक्ति के बल पर जो मठ प्रभावशाली हुए थे वह राजशक्ति के हटते ही समाज से ओझल हो गए। विराट पुरुष का आह्वान है कि हे मनुष्य अपने को मठ तथा मठाधीशों के विकराल हाथों में जकड़ने मत दो, यह तुम्हारे मनुष्यत्व को मार देगा। हे मठाधीशी तुम्हें आनन्द/सत्य/ धर्म के मार्ग पर ले चलने का झांसा देकर अपने ही मायाजाल में फसा देंगे। जहाँ साधक रामस्वरूप बनने की बजाए रामदास बनकर रह जाएगा। इसलिए अपने आप से प्रश्न करें क्या मैं धर्म/सत्य/आनन्द मार्ग को छोड़कर कर अंधभक्ति के अंधविश्वास में तो नहीं जा रहा हूँ। जब किसी व्यक्ति को पथ प्रणेता, त्रिशास्त्र तथा व्यवस्था से अधिक अपने प्रिय मठाधीशी की बातें अथवा मठाधीशी प्यार लगने लग जाए तब समझना होगा कि तुम मठवासी बन रहे हो। अमुक आचार्य ही मेरे पारिवारिक उत्सव व पर्व तथा आध्यात्मिक कार्यक्रम संपन्न कराएंगे, यह मनोभाव आपको मठाधीशी की माया में जकड़ रहा है। याद रखना होगा कि कोई भी विशेष सन्यासी हमारी भाग्य रेखा को नहीं बदल सकता है।भाग्यरेखा कर्म शक्ति के बल पर बदलती है।इसलिए परम पुरुष के व्यवस्था से निकला हर आचार्य हमारे पारिवारिक उत्सव व आध्यात्मिक कीर्तन का निर्देश करने के लिए उपयुक्त तथा सही है। यह अनुशासन आते मनुष्य मठवादी अवधारणा से उपर उठकर धर्म/सत्य/आनन्द के मार्ग पर चलने लग जाता है।
मजहब शब्द मननशील मानसिकता का दमन करने वाली शब्दावली का प्रतीक है। जब मनुष्य में से मननशील मानसिकता खत्म हो जाएगी तब मनुष्य के चलता फिरता शव अथवा कंकाल है। जिसकी जगह मनुष्य के समाज में नहीं कब्रिस्तान में है। हे मनुष्य! जब तुम मननशीलता को परित्याग कर भावजड़ता की ओर अग्रसर हो जाओगे तब तुम पशु बन जाओगे तथा पशुचारक के हाथों चरने को मजबूर होने के अलावा कोई रास्ता तुम्हारे पास नहीं रहेगा। सदगुरु कभी भी मनुष्य को मननशीलता से पृथक नहीं करते है। वे सदैव अपने शिष्य को अपनी शिक्षाओं पर अनुसंधान करने का पथ दिखाते है। यह साहस केवल सदगुरु में होता है कि वह अपने शिष्यों अंधकार का नहीं आलोक के पथ पर ले चलते है। शिष्य को सदैव उनके बताए रास्ते पर चलना होता है लेकिन आँख बंद कर चलने का आदेश नहीं देते है, वे सदैव अपने प्रगति का मूल्यांकन करने की सलाह देते है। मजहबवादी कभी भी अपने दीक्षा भाई की इस ओर ले जाना नहीं चाहेंगे क्योंकि उन्हें उनकी दुकान बंद होने का डर है, उन्हें जेब की चिंता है। "मेरा नहीं मेरे आदर्श का प्रचार करो" यह विप्लवी आदेश परम पुरुष का ही होता है। उस पर चलना ही एक आनन्द मार्गी का कर्तव्य है। कमजोर तथा अपरिपक्व तात्विक तत्व परोसने की बजाए बार बार तत्व प्रणेता को परोसता है। क्योंकि वह तत्व प्रणेता के अलौकिक चित्रण कर मनुष्य की बुद्धि के द्वारा किसी न किसी रुप में बंद कर अपने अधूरे सामर्थ्य को सिद्ध करना चाहता है। एक मजबूत व परिपक्व तात्विक सेमिनार लेते समय तथा धर्म चर्चा के दरमियान अति आवश्यक होने पर दृष्टांत का सहारा लेते है। जो खोखला पुरोधा है, वह ही अधिक से अधिक अपने प्रणेता की अलौकिक शक्तियों का प्रचार करता है। मजबूत पुरोधा साधकों परम पुरुष के विराट स्वरूप की ओर ले चलता है। इसलिए तो बाबा को कहना पड़ा, "मेरा नहीं मेरे आदर्श का प्रचार करो।" मजहब ज्ञान विज्ञान पर प्रवचन देने की बजाए बजाए कथाकार बन पसंद करते है। उसके नाम पर मनुष्य के चिंतन के द्वार सदैव सदैव के लिए बंद किया जा सकता है। धर्म/सत्य/ आनन्द दर्शन, मनुष्य को ज्ञान विज्ञान, आध्यात्म व भक्ति का संदेश सुनता है। यही मजहबी जब मायावी बन जाता है तब उसके मुख से निकली शब्दावली से परम पुरुष का नाम तथा परम पुरुष के उपकार को लेकर इस प्रकार का अभिनय करता है कि परम पुरुष सम्पूर्ण कृपा उनमें समा दी है तथा मायावी मौका मिलते ही राम राम जपना व पराया माला अपना को सिद्ध कर लेते हैं। उनका एक शब्द भी बिना राम नाम के नहीं निकलेगा, लोग समझेंगे कि यह बहुत निर्मल फकीर हैं। अभिवादन नमस्कार की बजाय कीर्तन मंत्र बना देना मायावियों का ही खेल है। हे मनुष्य हम सदगुरु को देखकर तथा समझकर सतपथ पर आए है उनके दिशा निर्देश ही हमारा आदर्श है। उसके आलावा मन अच्छी लगने वाली शब्दावली सदगुरु के आदेश से आगे बढ़ जाती है, वह ढ़ोंगी बनाने से अधिक कुछ नहीं कर सकती है। ढ़ोग, मायावी प्रवृत्ति, ठगी इत्यादि सभी मनुष्य का निर्माण नहीं कर सकते है। आनन्द/ सत्य/ धर्म का मार्ग मनुष्य निर्माण का पथ है।
मठाधीशी व मजहबी प्रवृत्ति कभी समाज को जोडकर नहीं रख सकती है। उसमें दरार पड़ती है तथा वह संस्था तथा समाज को फाड़ो में विभाजित करती है। धर्म मनुष्य तथा उसके समाज को कभी भी टूटने नहीं देता है। इसलिए सतपुरुष मजहब तथा मठ की ओर नहीं जाते है। हम सभी धर्म के पथिक है इसलिए प्रश्न रहा है कि हम मठ/ मजहब की ओर तो नहीं जा रहे हैं?
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✒श्री आनन्द किरण "देव"
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