जाति, जातिवाद एवं हत्याएँ


प्रत्येक हत्या करने वाला हत्यारा नहीं होता है। प्रभु श्री राम ने रावण क का किया था लेकिन दुनिया के किसी ग्रंथ ने उन्होंने हत्यारा नहीं कहा, अपने राजा व मामा कंस को मारने वाले  श्रीकृष्ण को कोई हत्यारा कहने का साहस नहीं करता है। महाभारत के विजेता पांडवों को किसने हत्यारे नहीं बताया। आतंकी, बदमाश का एनकाउंटर करने वाले किसी सुरक्षा कर्मी को हत्यारा नहीं कहा जाता है तथा शत्रु सेना को कुचलने वाला कोई सैनिक हत्यारा नहीं है। फिर भी हम जिस देश व समाज में रहते है, उस देश व समाज में अहिंसा को परम धर्म माना गया है, इसलिए अकारण, झुठी आन मान व शान तथा निज स्वार्थ के लिए  खुन खराबा करना जघन्य अपराध है। लोकतंत्र में कानून एवं विधि का शासन है इसलिए न्याय की प्रक्रिया अपनाये बिना कानून को हाथ में लेना अनुचित रास्ता है। एक देश का जिम्मेदार नागरिक होने के नाते इस प्रकार के रास्ते का समर्थन नहीं करता हूँ तथा नहीं कर सकता हूँ। हर अपराध की जड़ में कुछ कारण होते है। वे कारण व्यक्ति को विक्षिप्त कर देते है तथा व्यक्ति अकरणीय कार्य कर लेता है। जो उसके भविष्य को बर्बाद कर देता है। अत: विधि निर्माताओं, न्यायकर्ताओं तथा विचारकों को उन कारणों पर मंथन कर समाज को दिग्भ्रमित होने से बचाना चाहिए। ऐसा न कर वोटों के लालची जनप्रतिनिधि तथा अपनी तथा अपने दल की राजनैतिक रोटियाँ सेकने वाले राजनैतिक नेता, हर हत्या व अपराध के बाद के परिवेश की भ्रमित कर पुलिस विभाग की परेशानी बढ़ा देते है। वे गैर जिम्मेदार जनप्रतिनिधि व कुटिल राजनेता मानव समाज के शत्रु है। इनके साथ समाज, सरकार एवं संविधान को समाज एवं देशद्रोही के साथ की जाने कार्यवाही जैसी कार्यवाही करनी चाहिए। यदि मीडिया व पत्रकार भी अपनी टीआरपी, विज्ञापन व अवैधानिक लाभ के स्वार्थ में ऐसा कार्य करता है तो वे भी समाज तथा देश का शत्रु है तथा उसके कार्य को भी समाज तथा देशद्रोह कहना चाहिए तथा उसके अनुरूप कार्यवाही करनी चाहिए। अब मूल विषय पर आता हूँ। जाति, जातिवाद एवं हत्याएँ। 

जाति शब्द की उत्पत्ति मनुष्य की एक श्रेणी के लिए हुई थी। समान कार्य करने वाले लोगों की एक श्रेणी होती थी तथा उसे एक नाम दिया जाता था। जैसे अध्यापन करवाने वाला अध्यापक, चिकित्सा करने वाला चिकित्सक तथा लिपिक चपरासी इत्यादि। ठीक उसी प्रकार भारतीय समाज में सुथार, लुहार, कुम्हार, सुनार, पंडित इत्यादि इत्यादि श्रेणियाँ जाति के नाम से परिचित हुई। जब यह श्रेणियाँ मनुष्य तथा उस के वंशधरों को सदैव सदैव के लिए उसी श्रेणी में बांधकर रखता है अथवा बंधने को मजबूर करता है तब जाति का शब्द दूषित हो जाता है तथा जाति का यह बंधन मनाव समाज विभेद को सृष्ट करता है, जिससे जाति व्यवस्था विकराल स्वरूप धारण कर लेती है। भारतीय एवं कथाकथित विश्व समाज में जाति व्यवस्था का दूषित स्वरूप व्यापक पैमाने पर दिखाई दिया है तथा दिखाई दे भी रहा है। समाज के शिल्पकारों तथा स्मृतिकारों को जाति व्यवस्था के दूषित स्वरूप तथा विभेद सृष्ट व्यवस्था से मुक्ति दिलानी चाहिए। जाति व्यवस्था के इस स्वरूप के चलते व्यक्ति के कार्य को पवित्रता अपवित्रता के तराजू में तौला गया है, जिसने श्रेणी विशेष की समाज में हैसियत तय की गई थी। जिसके परिणामस्वरूप प्रभावशाली लोगों ने निम्न वर्ग को अछूत घोषित कर दिया तथा समाज को मिल गई छूआछूत की दु:साध्य  बीमारी तथा यह रोग संक्रामक हो गया। जो भारतवर्ष की महान संस्कृति की आंचल में लगा एक काला धब्बा है। जिस मिटना ही चाहिए। 

लोकतंत्र के युग में जाति व्यवस्था के विकराल एवं दूषित स्वरूप को धराशायी करने का जिम्मा राजनेताओं ने अपने हाथ में लिया। राजनेताओं की सत्ता तथा शक्ति में बनने रहने की कमजोरी ने जातियों में जातिवाद पनपने दिया। जातिवाद का खेल राजनीति को देश व समाज नहीं बनने नहीं दे रहा है। समाज में हर पल जातिवादी गुटों की हुँकार भरी रहती है। कभी भी यह हुँकार विस्फोटक बनकर सामने आती है। जिसके कारण हमारे समाज को कलंकित होना पड़ता है। 

आजकल हमारे समाज में कुछ राजनैतिक दल एवं संगठन जाति, नस्ल तथा साम्प्रदायिक वैमनस्य फैलाने के लिए उत्तरदायी भूमिका निभाते है, जिसके मूल वोटों की गणित तथा सत्ता की लालसा छिपी रहती है। यह संगठन एवं राजनैतिक दल हर घटना में राजनीति ढूंढने से बाज नहीं आते है। जिसके कारण समाज व देश में एकता व अखंडता का भाव कमजोर होता जाता है। ऐसे राजनैतिक दलों व संगठनों पर नकेल कसने की आवश्यकता है। इसके समाज के शब्दकोश से जाति व्यवस्था व जातिवाद शब्द को ही तुरंत प्रभाव से हटा देना चाहिए। एक सूत्र होना चाहिए एक चुल्हा एक चौका एक है मानव समाज। 

अब विषय के अंत हत्याओं की ओर जाते है। हत्या के मूल में कारण होता है लेकिन यह जरुरी नहीं कि सदैव वह कारण जाति अथवा जातिवाद होता है। राजनीति का धंधा तथा संगठन विशेषों की महत्वाकांक्षा उस यह रुप देते है। पुलिस तथा न्याय विभाग अवश्य ही छानबीन कर मूल तथ्य पर पहुँचने की कोशिश करते है। अत: राजनीति व व्यक्ति विशेष को इसमें अपनी नाक नहीं घुसानी चाहिए। कानून तथा विधि व्यवस्था के रहते हत्याएँ होना अवश्य ही शर्म की बात है। इसलिए कानून के रक्षकों को देखना चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है। व्यक्ति कानून का सहारा लेने की बजाय कानून हाथ में लेने का रास्ता क्यों चुन रहा है। कई फिल्म दिखाई घटना अंधा कानून की कहानी सही तो नहीं है। ऐसा है तो कानून को अपनी नेत्र खोलनी ही होगी। शातिर व्यक्ति कानून का दुरूपयोग तो नहीं कर रहे है, यह भी अपराध की बढ़ती घटनाओं की रोकथाम के लिए जरूरी विचारणीय बिन्दु है। न्याय व्यवस्था को बढ़ते अपराधों को देखते हुए अपने स्वरूप पर विचार करना चाहिए। 

उपसंहार के रुप में  यद्यपि हर हत्या जाति व जातिवाद का परिणाम नहीं तथापि जाति तथा जातिवाद मानव समाज के घातक है। अतः इसका समूल विनाश ही एक अखंड़, अविभाज्य मानव समाज का निर्माण करेगा ।
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