36 कौम की अवधारणा

4X9=36, 4= वर्ण तथा 9= गोत्र
बताया जाता है कि आज का समाज 36 कौम मिलकर बना है; लेकिन भारतीय जातियों सूची इस सूत्र की पुष्टि नहीं करती है। यह सूची सैकड़ों में है; फिर भी भारतीय जन गण मन में 36 कौम का समाज की अवधारणा पुष्ट है। अत: 36 कौम की अवधारणा का आधार ढूंढना आवश्यक है। भारतवर्ष में कौम व्यवस्था की जननी वर्ण तथा गौत्र व्यवस्था को माना गया है। 

वर्ण शब्द का अर्थ व्यक्ति में उपस्थित कार्य करने का सामर्थ्य है। भारतीय समाज समाज शास्त्रियों ने गहन अनुसंधान कर बताया है कि व्यक्ति के अंदर कार्य करने के दो गुणा दो चार प्रकार की कार्य क्षमता है। अतः हमारे समाज में चार वर्ण की अवधारणा का विकास हुआ। शूद्र तथा क्षत्रिय वर्ण शारीरिक क्षमता से कार्य करते है। शूद्र शारीरिक क्षमता का उपयोग सेवा तथा उत्पादन कार्य में श्रमिक के रुप में देते है जबकि क्षत्रिय अपने शारीरिक क्षमता का उपयोग साहसिक कार्य, समाज रक्षार्थ व शौर्य प्रदर्शन में करते है। प्रथम का समाज सेवार्थ तथा द्वितीय को सुरक्षार्थ कार्य में उपयोग करता है। विप्र व वैश्य मानसिक क्षमता का उपयोग कार्य करने में करते है। विप्र अपने मानसिक सामर्थ्य का उपयोग ज्ञान विज्ञान व आत्मिक प्रगति में करता है जबकि वैश्य अपने मानसिक सामर्थ्य का उपयोग विषय व्यवहार व भौतिक समृद्धि में करता है। समाज प्रथम का उपयोग शिक्षण, प्रशिक्षण, अनुसंधान, कला, दक्षता तथा चिकित्सा कार्य में करता है जबकि द्वितीय का उपयोग व्यापार, वाणिज्यिक व आर्थिक कार्य में करता है। इस प्रकार मनुष्य के कार्य सामर्थ्य के अनुसार चार वर्ण शूद्र, क्षत्रिय, विप्र व वैश्य हुए। जिन व्यक्ति में शूद्र सी सेवा, क्षत्रिय सा साहस, विप्र सा ज्ञान तथा वैश्य सा जोखिम उठाने का सामर्थ्य हो तथा आध्यात्मिक भावधारा से युक्त नैतिकतावान हो उन्हें सदविप्र कहा जाता है। समाज व्यवस्था का अंग न बनकर समाज चक्र के केन्द्र में रहकर समाज चक्र संचालन करते हैं। 

गोत्र शब्द का अर्थ पर्वत श्रृंखला अथवा रहने का स्थान होता है। भारतीय समाज शास्त्रियों ने गहन अनुसंधान कर पाया कि मानव सभ्यता 9 पर्वत श्रृंखला को केन्द्रित करके निकली है। उसी पर्वत श्रृंखला के क्षेत्र व परिक्षेत्र पर उसके सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व जीवन निर्वाहक के सभी कार्य संपन्न होते थे। वह मनुष्य की गोत्र अथवा गोष्ठी बन जाती है। इस गोष्ठी तथा गौत्र का मुख्य ऋषि कहलाता है। उसी ऋषि के नााम पर ऋषि गोत्र होती है इसलिए कहा जाता है कि मानव समाज 9 ऋषि गोत्र का विकास है। 5 ऋषि गोत्र उत्तर तथा 4 ऋषि गोत्र को दक्षिण बताया गया है। उत्तर ऋषि गोत्र मनुष्य को सूक्ष्म गुणों का विकास करती है तथा दक्षिण ऋषि गोत्र स्थूल कार्य का विकास करते है। शरीर विज्ञान में गर्दन के उपर वाले भाग को उत्तर तथा निचले वाले भाग को दक्षिण कहा गया है। उत्तर में शिश, कर्ण, चक्षु, ध्राण व मुख पर 5 ऋषि बैठाये गए हैं तथा दक्षिण में हाथ, सीना, जठर व पाद पर 4 ऋषि बैठाने का उल्लेख आता है। समाज में जीवन रेखा से उपर 5 तथा जीवन रेखा से निचे जीन 4 स्थान बताये जाते हैं। जीवन रेखा से उपर अति उच्च वर्ग, मध्यम उच्च वर्ग, निम्न उच्च वर्ग, उच्च मध्यम वर्ग तथा मध्यवाला मध्यम वर्ग का सामाजिक स्थान उपर अथवा उत्तर में रखा गया है। जो जीवन मूल्यों की चिंता धारा से उपर के स्थान है। जबकि निम्न मध्यम वर्ग, उपरी निम्न वर्ग, मध्यम निम्न वर्ग व अति निम्न वर्ग जीवन मूल्य की चिंता धारा के निचे स्थान है। इस प्रकार 5 उत्तर तथा 4 दक्षिण की गोत्र में मानव समाज को वर्गीकृत कर समग्र समाज का एक समाज शास्त्री अध्ययन करता है। मोटे रुप से यह वर्ग तीन ही दिखते है लेकिन सूक्ष्म अनुसंधान करने पर 9 स्पष्ट दिखाई देती है। 

चार वर्ण व नौ वर्ग के इस समाज को समाज शास्त्रियों ने 36 कौम कहा है। कितना भी सूक्ष्म वर्गीकरण किया जाए तो 9 से अधिक वर्ग नहीं हो सकते तथा कितना भी सूक्ष्म अनुसंधान करने पर भी 4 से अधिक वर्ण नहीं हो सकते है। इसलिए कौम व्यवस्था सदैव 36 रहती है। मानव समाज वर्ग विहीन होना चाहिए। जहाँ कोई वर्ग नहीं दिखाई देना चाहिए। ठीक उसी प्रकार जन्मगत व जातिगत वर्ण विहिन समाज ही मानव समाज है। आर्थिक जगत में मनुष्य के चार गुण तथा 9 श्रेणियाँ में बाटकर कार्य क्षमता का उपयोग लेने से कार्य कौशल में वृद्धि होती है तथा कुशल समाज बनता है लेकिन यह आधार सामाजिक होने पर भेद सृष्ट होता है। भेदभाव का समाज मंजूर नहीं लेकिन कुशल समाज सबको मंजूर है। 
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✒ करण सिंह "शिवतलाव"
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