नव्य मानवतावाद (Neo humanism)


श्री आनन्द किरण "देव" का आलेख
मनुष्य के चलने, सोचने एवं जीने की दिशा तय करने के लिए विचारक सदैव प्रयत्नशील रहे हैं। मनुष्य की बुद्धि सेन्टिमेंट एवं विचारपूर्ण मानसिकता के द्वारा संचालित होती है। सेन्टिमेंट अथवा भाव प्रवणता मनुष्य की अपनी नहीं परिवेश एवं परिस्थितियों से उत्पन्न बाहरी शक्ति है, जो मनुष्य को अंदर से झकझोर कर विवेक को किसी खंड में आबद्ध कर देता है, जिसके कारण वह अपने स्वतंत्र एवं समग्र विचार शक्ति उस खंड में बांधकर रख देता है। यह मनुष्य की बुद्धि की अमुक्ति की अवस्था है‌। वही विचारपूर्ण मानसिकता (rational mentality) मनुष्य की अपनी धरोहर है, जो मनुष्य एक स्वतंत्र बौद्धिक शक्ति प्रदान करती है; जिसके कारण मनुष्य अंधभक्त नहीं बनता है। ऐसे लोग मनुष्य कहलाने के अधिकरी है।

आओ हम जानते हैं कि मनुष्य ने अब तक अपने चलने, सोचने एवं जीने के क्या-क्या रास्ते तय किये है? इस खोज में चलने से पूर्व हम उनके दिशा को वर्गीकरण कर लेते हैं, जिससे अध्ययन करने में सुविधा होगी। मनुष्य के चिन्तन की प्रथमधारा को‌ भूमि केन्द्रित मानसिकता, दूसरी गोष्ठी केन्द्रित मानसिकता,तीसरी मनुष्य केन्द्रित मानसिकता तथा चौथी समग्र मानसिकता है। हम प्रत्येक वर्ग में आने वाले चिन्तन का परिचय लेते हुए विषय के मूल में जाएंगे।

भू केन्द्रित चिन्तन में मुख्यतः साम्राज्यवाद, राष्ट्रवाद एवं उपनिवेशवाद आते हैं। इसके अलावा क्षेत्रवाद व अन्य खंडवाद को ले सकते हैं। राजा, नरेश, महाराजाओं, किंग, सुल्तान, नवाब एवं बादशाहओं की साम्राज्यवादी नीति ने बहते रक्त की धार पर विश्व भूगोल बनाया एवं बिगाड़ा है। उसके जबाब में राष्ट्रवाद आया, वह आया तो था अपने राष्ट्र को सत्यम् शिवम् सुन्दरम बनाने लेकिन जन्म दे दिया उपनिवेशवाद को जिसके चलते एक नये साम्राज्यवाद उदय हुआ। उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद सभी बुरा समझते हैं लेकिन राष्ट्रवाद में कमी नजर नहीं आती है। इसलिए हम राष्ट्रवाद को चर्चा में लेते हैं। राष्ट्रवाद मूलतः एक भावप्रवणता है। देश की भौगोलिक सीमा बदलते ही राष्ट्रवाद की परिभाषा बदल जाती है। जो कल तक ब्रिटिश इंडिया को अपना एक राष्ट्र समझते थे, वे आज अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, म्यांमार, बाग्लादेश, श्रीलंका इत्यादि नामों अलग-अलग नेशनलिज्म को परिभाषित करते हैं। अतः मातृभूमि, पितृभूमि की परिभाषा राजनीति की सीमारेखा निर्धारित करती है। जैसे एक समय कराची के नागरिक की मातृभूमि हिन्दुस्तान थी, आज उनकी मातृभूमि हिन्दुस्तान तो बिलकुल नहीं। राष्ट्रवाद का मूल स्वराज को सत्यम् शिवम् सुन्दरम में प्रतिष्ठित करना, लेकिन उसमें प्रदेशवाद अपने प्रदेश को सत्यम् शिवम् सुन्दरम में बदलने के लिए बाहरी प्रदेश अथवा शेष देश की जानमाल को अपने प्रदेश में रोक ले तो राष्ट्रवाद की नींव हिल जाती है। गतिविज्ञान के नियमानुसार राष्ट्रवाद में क्षेत्रवाद जन्म लेना स्वभाविक है। राष्ट्रवाद खंड पर स्थापित है, इसलिए उसमें भौतिकवाद भी जन्म ले लेता है। यह भौतिकवाद कहता है कि मेरा भारत महान है तो मेरा नागालैंड महान क्यों नहीं? यदि पंजाब मेरी महान मातृभूमि है तो मुझे भारतमाता की आवश्यकता क्या? मैं तो मेरा कश्मीर अलग ही बना दूंगा। यह अलगाववाद जन्म ले लेता है। अतः राष्ट्रवाद सफलता राजनैतिक धारणा नहीं है। अतः भू केन्द्रित मानसिकता व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में सहायक नहीं है तथा समाज शब्द के अर्थ राष्ट्रवाद बैठने योग्य नहीं है। 

गोष्ठी केन्द्रित मानसिकता जातिवाद, नस्लवाद, रंगभेद, साम्प्रदयवाद, मजहबवाद, मतवाद, पंथवाद, रिलिजनलिस्ट तथा नक्सलवाद इत्यादि के नाम से चिन्हित है। इसने मानवता को काल्पनिक आधार में विभाजित करके रखने के लिए धरती माँ को अपने पुत्र, पुत्रियों के रक्त से नहलाया है। ईसाई राष्ट्र, इस्लाम राष्ट्र, हिन्दूराष्ट्र, यहुदीराष्ट्र, सिख राष्ट्र (खालिस्तान), बंगालिस्तान इत्यादि धारणा मानवता को खून के ही आंसू देंगे, इसलिए यह सामाजिक भावप्रवणता को जन्म देता है। जो सम्पूर्ण मनुष्यत्व का विकास होने नहीं देती है। संस्कृतिवाद के नाम से गोष्ठी केन्द्रित नव मानसिकता का विकास हुआ है। जो संस्कृति के वैश्विक स्वरुप विकसित नहीं होने देता है। संस्कृति के नाम भाव जड़ता (Dogma) को अधिक पोषित होता है। टोपी पहनता, दाढ़ी रखना, मुछ काटना, तिलक लगाना, जनैऊ धारणा करना, शिखा बढ़ना, क्रोस पहनना, पगड़ी इत्यादि भौगोलिक विविधता से निखरने वाले अंश है। यह मनुष्य की अपनी संस्कृति नहीं है। मनुष्य की संस्कृति का संबंध सीधा सदवृत्ति एवं मानवीय गुणों से संबंधित है। जो सम्पूर्ण धरा के लिए समभाव सिखाती है। अतः संस्कृति को गोष्ठी में देखना मनुष्य की भूल है तथा ऐसा भाव गोष्ठी केन्द्रित मानसिकता है। संघवाद, संस्थावाद, समुदायवाद समाज नहीं गोष्ठीवाद का नया नामान्तर है।

समाजवाद, उदारवाद, भूमंडलीयवाद इत्यादि मनुष्य केन्द्रित मानसिकता है, जो मानववाद, एकात्म मानववाद एवं मानवतावाद का चिन्तन देते हैं। लेकिन यह चिन्तन भी पूर्ण नहीं है। यद्यपि भू केन्द्रित व गोष्ठी केन्द्रित मानसिकता से थोड़ा उच्चा है लेकिन इसने भी विश्व के साथ न्याय नहीं किया है। यह धरती, आसमान मनुष्य अकेले की बपौती नहीं है, यह अजीव, जीव, जन्तु, पेड़, पौधे, लतागुल्म, पशु, पक्षी, पर्यावरणीय अन्य सभी घटकों की साझा संपदा है। इसलिए मात्र मनुष्य को केन्द्रित कर चिन्तन का विकास जगत के साथ न्याय नहीं कर सकता है। पर्यावरणीय सोच, रिडिकल अथवा नव मानववाद (Radical or new Humanism), सर्व कल्याणकारी चिन्तन इत्यादि भी मनुष्य से उपर उठकर चिन्तन देते हैं लेकिन यह भी विश्व के न्याय किये बिना ही अतीत के अंधकार में समा जाते हैं। इसने अवश्य मनुष्य को सबके बारे सोचने का अवसर दिया लेकिन सबका कल्याण नहीं कर पाए। 

 मनुष्य एवं मनुष्योत्तर चिन्तन से भी उपर एक सर्वांगीण चिन्तन की आवश्यकता थी, जो लेकर आए युग के महानायक श्री प्रभात रंजन सरकार जिन्होंने सबके, सर्वांगीण कल्याण के लिए नव्य मानवतावाद (Neo humanism) का चिन्तन दिया। यह रिडिकल मानववाद से प्रभावित नहीं है। यह एक विशुद्ध नया चिन्तन है। अतः हम श्री प्रभात रंजन सरकार के नव्य मानवतावाद को समझने की कोशिश करते हैं। नव्य मानवतावाद अणु-परमाणु, जीव-अजीव तथा विश्व ब्रह्माण्ड के स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण सभी घटकों के लिए चिन्तन है। जब तक इन सभी अवयवों के साथ उचित न्याय नहीं किया जाता है तब मनुष्य के चलने, सोचने एवं जीने का कोई भी चिन्तन मनुष्य को मानव कहलाने का हक नहीं दिला सकते हैं। जीवदया जीवों के साथ न्याय नहीं है, अपितु जीव-अजीव को उसका उचित अधिकार देना जगत के साथ न्याय है। नव्य मानवतावाद सेवा को नारायण सेवा का रुप प्रदान करता है। जिससे सेव्य एवं सेवक में भेद नहीं रहता है। इसलिए नव्य मानवतावाद सृष्टि के भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तीनों पहलूओं को लेकर आगे बढ़ता है‌। मानवेन्द्र नाथ राय के रेडिकल मानववाद जिसे नव मानववाद कहा जाता है ने भौतिक एवं नैतिक पक्ष को तो महत्व दिया लेकिन आत्मिक पक्ष को छोड़ देने के कारण वैश्विक कल्याण नहीं कर पाये। नव्य मानवतावाद जीव-अजीव में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया है। अतः नव्य मानवतावाद मनुष्य का ही नहीं समग्र सृष्टि के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक कल्याण का चिन्तन प्रस्तुत करता है। व्यष्टि के रूप सभी घटक के व्यष्टिगत तथा समष्टि के रूप में समष्टिगत कल्याण का चिन्तन देते हैं। अतः नव्य मानवतावाद के संदर्भ में सबसे बड़ी बात लिखी जा सकती है कि यह एक पिपिलिका एवं एरावत के दर्द एवं हीत का समान अनुभव करता है। अतः निर्विवाद एवं निर्विघ्न कहा जा सकता है कि नव्य मानवतावाद केवल मनुष्य का ही हितकारी एवं सुखकारी चिन्तन नहीं है। यह सभी के हित एवं सुख को मध्य नज़र रखकर प्रदान किया गया है। यह बात सही है कि इसको अब मनुष्य ही समझ पाता है लेकिन वह दिन अधिक दूर नहीं है कि इसकी समझ अन्य में भी विकसित होगी।

नव्य मानवतावाद अकेले पर बहुत कुछ लिखा जाना है लेकिन आलेख के सारांश यही लिखा जाएगा कि भू, गोष्ठी, मनुष्य, मनुष्योत्तर केन्द्रित चिन्तन बुद्धि की मुक्ति की अवस्था नहीं है। बुद्धि की मुक्ति की अवस्था मात्र एवं मात्र नव्य मानवतावाद है। यही नव्य मानवतावाद का गागर में सागर समावेश है। आलेख को विराम देने की वेला है लेकिन नव्य मानवतावाद के बारे एक बात लिखे बिना आलेख को समाप्त कर दिया तो स्वयं नव्य मानवतावाद के साथ न्याय नहीं है। नव्य मानवतावाद ईश्वर केन्द्रित चिन्तन है। इसका ईश्वर जगतपिता, जगतपति और जगतगुरु है, इसलिए यह जीव में शिव का दर्शन कराता है। यही नव्य मानवतावाद के संदर्भ सबसे बड़ी एवं चोखी बात है।
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