बुद्धि की मुक्ति (liberation of the intellection)

 
         
मनुष्य की बुद्धि, जहाँ अटक कर रह जाती है। वहाँ जकड़ जाती है। इसलिए मनुष्य को अपनी बुद्धि की मुक्ति का पाठ पढ़ना चाहिए। इस पाठ में जानना चाहिए कि हमारी बुद्धि कहाँ कहाँ अटक कर रह सकती है तथा उस अटकन से क्या क्या परिणाम निकलते हैं? तत्पश्चात बुद्धि की मुक्ति का अन्तिम पाठ 'मुक्ति' कैसे? पढ़ने की आवश्यकता है। अतः बिना विलंब किये बुद्धि की मुक्ति का पाठ पढ़ने की ओर चलते हैं। 

बुद्धि की मुक्ति का पाठ पढ़ने निकले हैं, तो यह भी देखना होगी कि हमसे पहले इस पाठ किसी ने पढ़ा है? उनका अध्ययन पत्र क्या बताता है? बुद्धि पर दुनिया में ढ़ेरों अध्ययन पत्र लिखें गए लेकिन बुद्धि की मुक्ति का एकमात्र अध्ययन पत्र श्री प्रभात रंजन सरकार द्वारा तैयार किया गया। इसलिए श्री प्रभात रंजन सरकार के अध्ययन पत्र को आधार मानकर हम बुद्धि की मुक्ति पाठ पढ़ने को चलेंगे। उनके अध्ययन पत्र से मिलता है कि मनुष्य की बुद्धि के विकास की यात्रा सामाजिक भावप्रवणता (Socio sentiment) एवं भौम भावप्रवणता (Geo sentiment) के आपेक्षिक तत्वों के बीच से होकर गुजरती है। अतः उस पर सामाजिक भावप्रवणता एवं भौम भावप्रवणता के छींटे लगते है। जब मनुष्य के समक्ष कोई विराट आदर्श नहीं होता है तब मनुष्य की यह बुद्धि सामाजिक भावप्रवणता एवं भौम भावप्रवणता में अटक कर रह जाती है। इसलिए बुद्धि की मुक्ति का एक अभियान चलाने की आवश्यक है। 

भावप्रवणता (sentiment) से बुद्धि की मुक्ति की ओर :- मनुष्य जैसे उन्नत चैतन्य युक्त प्राणी की बुद्धि का भावप्रवणता की ओट में गोते खाते रहना निस्संदेह दुखद विषय है। भावप्रवणता सामाजिक हो अथवा भौगोलिक हो दोनों ही मनुष्यत्व के विकास को अवरुद्ध कर देती है। इसलिए ऐसी स्थिति को गाढ़ देना ही मनुष्य का कर्तव्य है। बुद्धि की मुक्ति यात्रा को कुछ समय के लिए यहाँ रोक कर सामाजिक भावप्रवणता एवं भौम भावप्रवणता की भयानक तस्वीर को देख लेते हैं।

सामाजिक भावप्रवणता एक गोष्ठी में मनुष्य की बुद्धि को आबद्ध कर देती है। यह गोष्ठीगत बुद्धि ने इतिहास में कई लहूलुहान पृष्ठ को लिखे है, जिसने मनुष्य की विकास यात्रा को दूषित किया है। अतः सामाजिक भावप्रवणता की भयानक तस्वीर मनुष्य के समक्ष रखना आवश्यक है। जाति एवं सम्प्रदाय की यह लड़ाइयाँ विकास की नहीं अवनति की कहानियाँ लिखती हैं, जो मनुष्य के मस्तिष्क पर एक कलंक का काला टिका लगाती है। अतः इस दैत्यो चित्त तस्वीर फाड़ देना ही होगा। जाति एवं सम्प्रदाय मनुष्य के नैसर्गिक गुण नहीं है, यह‌ परिस्थितियों से उत्पन्न मानवता पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव है। इसने मानवता को ग्रहण लगाने का काम किया है। इन राहु-केतु के हाथों मानवता को बचाना ही बुद्धि की मुक्ति की यात्रा का प्रथम चरण है। जब मनुष्य जाति अथवा सम्प्रदाय की ओट में अपनी पहचान खो देता है तब वह स्वधर्म को छोड़कर परधर्म में खो जाता है। उसकी दशा हड्डी चबाते श्वान जैसी हो जाती है, जो अपने ही रक्त का रसास्वादन कर खुशी का एहसास करता है। यह दृश्य मनुष्य को परम शांति अर्थात आनन्द नहीं दे सकता है। अतः मनुष्य की बुद्धि को रुग्ण करने वाली इस मानसिकता के विरुद्ध मनुष्य को लड़ना ही होगा। जातिवाद एवं साम्प्रदायिकता की जहर को उगलने वाले इन विषधर नागों के फन कुचल देने होगें। इससे लड़कर मनुष्य को आगे बढ़ना ही होगा। अन्यथा मानव के वेश में हमें शैतान मिलेगा। 

भौम भावप्रवणता भी सामाजिक भावप्रवणता जैसा ही दूसरा दैत्य है। जो गोष्ठी की बजाए भूमि में समाया होता है। भूमि केन्द्रित मानसिकता को लेकर यह बुद्धि अपने कुएँ को ही समुद्र मान लेते हैं। उसकी रंगरोगन में दूसरे कुओं की बालू मिट्टी खोद खोदकर सुखा देते हैं। उदाहरण के लिए उग्र राष्ट्रवाद ने उपनिवेशवाद को जन्म दिया था। इस उपनिवेशवाद ने मानवता को अपने पैरों तले कुचल डाला था।यह उपनिवेशवाद आज भी मरा नहीं है। यह नया रूप लेकर अपने आपको आर्थिक जगत में स्थापित कर दिया है। उसके जरीये उसने सामाजिक आर्थिक इकाइयों के स्व:निर्भर होने की जिजीविषा को ही खत्म करने में आतुर है। इसके चलते भौम भावप्रवणता ने सामाजिक भावप्रवणता से भी खतरनाक तस्वीर बना दी है। इससे बुद्धि को मुक्त होने के लिए बहुत अधिक परिश्रम करने की आवश्यकता है। यह देशप्रेम जैसे आदर्श को मनुष्य के समक्ष रखकर अपने शोषण के यंत्र चलाते रहते हैं। मैं देशप्रेम का विरोधी नहीं हूँ लेकिन देशप्रेम की उक्ति देकर दूसरे देश के प्रति जहर उगलना तथा दूसरे देश प्रदेश के संसाधनों का हित में प्रयोग करना निस्संदेह बुद्धि के साथ किया जाने वाला दुष्कर्म है। कभी कभी तो यह वैश्विककरण का नाम देकर निजी कंपनियों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नाम पर मानव मस्तिष्क में उतारकर स्थानीय उत्पाद को शून्य में धकेल देती है तथा स्थानीय बाजार पर अपना नियंत्रण स्थापित कर देती है। जिससे स्थानीय जनता का जीवन नौकर सा बनकर रह जाता है और स्थानीय पूंजी एवं संसाधनों का दोहन निजी कंपनियाँ जो तथाकथित तौर पर बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कहलाती है, वे अपने हित में करती है‌। यहाँ मनुष्य की बुद्धि किसी भी रुप से मुक्त नहीं है। अतः बुद्धि की मुक्ति के अभियान को यहाँ रोकने से नहीं चलेगा। उसे आगे बढ़ना ही होगा। अपनी सामाजिक आर्थिक इकाई को सभी दृष्टि से सशक्त बनाना ही होगा लेकिन इस तस्वीर को बनाते समय सार्वभौमिक चिन्तन को अवरुद्ध करने से काम नहीं चलेगा। 

मनुष्य बुद्धि की मुक्ति की क्रमिक यात्रा सामाजिक भावप्रवणता (Socio sentiment) तथा भौम भावप्रवणता (Geo sentiment) के हाथों स्वयं को किसी न किसी रुप से बचाकर मानववाद अथवा मानवतावाद में लटक जाता है। श्री प्रभात रंजन सरकार का शोधपत्र कहता है कि यहाँ भी बुद्धि की मुक्ति नहीं है। मानववाद, एकात्मक मानववाद एवं मानवतावाद मनुष्य की बुद्धि को मनुष्य तक सीमित करके रख देते हैं। जीव‌जन्तु, पर्यावरण तथा विश्व ब्रह्माण्ड में पारिस्थितिकी तंत्र से जुड़े हुए हैं। मनुष्य की बुद्धि की मुक्ति के लिए मानववाद, एकात्मक मानववाद तथा मानवतावाद कारगर नहीं है। इसके लिए एक नूतन अवधारणा नव्य मानवतावाद की आवश्यकता है।

मानववाद सीधा मानव को ही प्राथमिकता देता है, जबकि मानवतावाद मानवीय गुणों को लेता है। फिर भी मानवतावाद मनुष्य के साथ न्याय नहीं करता है। इसका उद्देश्य मानववाद के तुल्य ही होता है। मानववाद सीधा मानव तक ही ले जाता है जबकि मानवतावाद घुमा फिरा कर मानव तक ही सीमित रखता है। अब यदि एकात्मक मानववाद को देखा जाए तो यह मनुष्य को सपना बड़ा दिखाकर मानव में लाकर पटक देता है। यह ब्रह्माण्ड अवश्य ही दिखाते हैं लेकिन चैतन्य में प्रतिष्ठित करने की बजाएं जड़ भौतिक अवस्था में ही मनुष्य को बिठा देता है। अतः एकात्मक मानववाद भी बुद्धि की मुक्ति नहीं दे सकता है। 

नव्य मानवतावाद में बुद्धि की मुक्ति होती है। यह शास्वत चैतन्य में मनुष्य प्रतिष्ठित करने के लिए ले चलता है। यह सभी मनुष्य को सामाजिक भावप्रवणता,भौम भावप्रवणता, मानववाद, एकात्मक मानववाद तथा मानवतावाद से बुद्धि को मुक्त करने के साथ बौद्धिक मायाजाल से स्वतंत्र करता है। नव्यमानवतावाद यही नहीं रुकता है। यह मनुष्य को परम चैतन्य में भी अधिष्ठ करने के लिए आनन्द मार्ग पर ले चलता है। जब तक मनुष्य के एक विराट आदर्श नहीं होता है तब मनुष्य की मुक्ति कई अटक रह जाती है। अतः सप्रमाण सिद्ध होता है कि एक मात्र नव्यमानवतावाद में ही बुद्धि की मुक्ति प्रदान करता है।
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