यम-नियम से समाधि की ओर (towards Yama-Niyama to Samadhi)


 आज इस धरती पर  भक्त, ज्ञानी, ध्यानी, योगी, तपस्वी एवं त्यागी होने के बड़े-बड़े दावें आते हैं। यदि इसकी सही से पड़ताल की जाए तो उसमें अधिकांश दावें खोखले निकले जाएंगे। इसका एकमात्र कारण है, उनकी आध्यात्मिक यात्रा का व्यवस्थित नहीं होना है।  अतः जांचने की आवश्यकता है कि आध्यात्मिक यात्रा की सुव्यवस्था क्या है? आध्यात्मिक यात्रा  को जांचने,परखने एवं देखने लिए आज का विषय 'यम-नियम से समाधि की ओर' लिया गया है। 

मनुष्य होने का पथ दावा पत्र यम-नियम है। इनको दार्शनिक भाषा में नीतिमता तथा साधारण भाषा में आध्यात्मिक नैतिकता कहते हैं। जब तक मनुष्य अपने के मानवता की कसौटी पर नहीं कसेगा तब तक उसकी आध्यात्मिक यात्रा श्रेय के पथ पर नहीं चल सकती है। वह भटक कर प्रेय के पथ चलने लग जाएगा। जो मनुष्य का लक्ष्य नहीं है। अतः हमें देखना होगा कि मनुष्य को सदैव श्रेय के पथ पर कैसे रखा जा सकता है। इसके लिए यम-नियम से समाधि की ओर चलना  होता है। 

               यम-साधना

यम साधना की प्रथम स्थली है। यहाँ मनुष्य अपने आपको एक मनुष्य के रूप में तैयार करता है। यम पांच अभिव्यक्ति का समुच्चय है। जिसमें प्रथमतः हिंसा वृत्ति को मन से पूर्णतया दूर किया है। जब तक मनुष्य के अंदर हिंसा वृत्ति है, तब तक मनुष्य में मनुष्यत्व का जन्म नहीं होता है। जहाँ मनुष्यत्व नहीं है, वहाँ देवत्व की आशा ही रखना गलत है। अतः आध्यात्मिक यात्री को प्रथमतः अपने आप को हिंसात्मक भावधारा से दूर रहना तथा मन में इस भाव का अंकुरण ही रोक देना है। अतः आध्यात्मिक यात्री को प्रथमतः अहिंसा को धारण करना ही सुपथ है। यम की द्वितीय अवस्था का नाम झूठ एवं मिथ्याचार से दूर रहना है। यदि मानव मन में इस प्रकार का भाव जन्म लेता है तो समझना होगा कि वह मनुष्य बनने की योग्यता से अपने आप को दूर ले जाता है। इसके मनुष्य को सत्य का पथ चुनना होता है। यम की तृतीय अवस्था का मनुष्य को अपने आप को चौर्य वृत्ति से दूर रखना है। इसके लिए मन के कौने उठने वाली चौर्य भाव को ही रोक देना है। इसके साधक अस्तेय मानकर चलना होता है। यम चतुर्थ अवस्था का ब्रह्मचर्य है। यहाँ मनुष्य को जागतिक नहीं परमार्थी बनकर रखना सिखना होता है। इसके लिए ब्रह्मभाव लीन रहना होता है। इसको ही ब्रह्मचर्य कहते हैं। यम का पांचवा स्वरूप अपरिग्रह है। परिग्रह से साधक दूर रहने का संकल्प ही देवत्व की ओर ले चलता है। साधना मार्ग की यह यात्रा कहलाने तो नीतिमता है लेकिन साधक निर्माण की आधारभूमि यही है। इसके अभाव में बनने वाला साधक एक कमजोर स्तंभ पर खड़ा है, जो शीघ्र ही धराशायी हो सकता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का समुच्चय 'यम' साधक के लिए जीवन पथ है। जहाँ साधक को साधक होनी प्राणशक्ति मिलती है। अतः यम कहने का अर्थ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह में प्रवीण साधक है। 

              नियम-साधना

शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान का समुच्चय नियम है। यम साधकों बुराई शून्य करता है, वही नियम साधकों अच्छाई से परिपूर्ण करता है। इसलिए यम के साथ नियम सदैव रहते हैं। प्रथम नियम शौच है। व्यक्ति को परिवेश, शरीर, मन की सफाई में निपुण होना होता है। मलिन तन-मन में देवत्व का अंकुरण नहीं होता है। देवत्व के अंकुरण के लिए तन-मन का निर्मल होना आवश्यक है। इसलिए शौच का व्रत धारण करना चाहिए। संतोष नियम का दूसरा अंग है, जो मनुष्य को आनन्द भाव में रहना सिखाता है। मनुष्य को देवत्व में प्रतिष्ठित होने आनन्द भाव में रहना आवश्यक है। कर्म के प्रतिफल में जो कुछ भी मिलता है, उससे विचलित नही होना देवत्व की योग्यता है। इसलिए संतोष साधना करनी होती है। नियम का तीसरा अंग तप होता है। तप स्वयं को कष्ट में डालने का नाम नहीं है अपितु तप स्वेच्छा से कष्ट को स्वीकारना कहलाता है। पर हितार्थ अथवा समष्टि हितार्थ स्वयं कष्ट का वरण करना देवत्व की योग्यता का अंग है। इसलिए मनुष्यत्व से देवत्व की यात्रा करने वाले साधक के लिए तप आवश्यक अंग है। नियम साधना का चतुर्थ अंग स्वाध्याय है। स्वयं से किया गया अध्ययन स्वाध्याय कहलाता है। लेकिन स्वाध्याय का वह अध्याय अथवा अध्ययन कहलाता है, जो व्यक्ति को सम्पूर्णत्व से परिचित करवाता है। एक देवत्व प्राप्त साधक के लिए यह योग्यता अनिवार्य है। अतः स्वाध्याय शील होना एक आवश्यक नियम है। ईश्वर को प्रणिधान के रूप में धारण करना देवत्व साधक के लिए अनिवार्य है। ईश्वर प्रणिधान की आवश्यकता एक नियम के रूप में है। यम साधक को मनुष्य बनाता है तो नियम साधक को देवत्व प्रदान करता है। 

             आसन-साधना

यम-नियम से समाधि की ओर यात्रा के तीसरे पड़ाव में आसन का आता जहाँ मनुष्य का तन व मन  दिव्य बनानी की कला व विज्ञान का परिचय होता है। जहाँ यम मनुष्यत्व, नियम देवत्व प्रदान करती है, वही आसन, प्राणायाम एवं प्रत्याहार ईश्वरत्व प्रदान कराते हैं। आसन तन व मन को को दिव्य बनाते हैं वही प्राणायाम प्राण एवं मन को दिव्यता देता है। प्रत्याहार ईश्वरत्व प्रदान करने अन्तिम सीढ़ी है। जहाँ मन से ईश्वरत्व के गुण अर्जित करता है। आसन, मुद्रा एवं बंध शरीर को विशेष आकृति में समायोजित कर ग्रंथि रस को देवत्व के अनुकूल तन-मन के लिए उपयोग किया जाता है। तन-मन का संगठन में आसन का अहम महत्व है। इसलिए आसन को साधना की तरह करना होता है। 


प्राण व भाव को दिव्यत्व देने की कला एवं विज्ञान को प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम मन की चंचल तंरगों को नियंत्रित एवं नियमित करने के साथ प्राण एवं भाव में ब्रह्मभाव को अधिष्ठत करने विद्य है। यात्रा के इस पड़ाव में प्राण एवं भाव से दिव्यता अर्जित करता है। जो ईश्वरकोटि के मनुष्य के आवश्यक है। इसलिए प्राणायाम को ब्रह्मभाव के साथ किया जाना आवश्यक है। 


मनुष्य ईश्वरकोटि में यहाँ आकर पूर्णतया स्थापित होती है। प्रत्याहार भाव को सद्भाव की ओर ले चलता है। भौतिक लोक से आत्मिक लोक की ओर ले जाने की कला एवं विज्ञान का नाम प्रत्याहार है। यहाँ मन पूर्णतया ईश्वर के रंग में रंग जाता है। ईश्वरकोटि की प्रतिष्ठा की यात्रा आसन से शुरू होकर प्राणायाम के रास्ते प्रत्याहार में पहूँचकर सम्पूर्ण रूप ईश्वरकोटि में प्रतिष्ठित होता है। व्यक्ति शरीर, मन एवं आत्मा से अपने में ईश्वरत्व का अनुभव करना ही ईश्वरकोटि है। प्रत्याहार मात्र मन को प्रेय पथ से श्रेय पथ पर लाता ही नहीं अपितु श्रेय पथ की ओर दृढ़ता से आगे बढ़ता है। 


धारणा, ध्यान एवं समाधि ईश्वरकोटि से मनुष्य को ब्रह्मकोटि में प्रतिष्ठित करने विधाएँ है। मनुष्य अपनी धारणा के बल की भाव से भावातीत की ओर चलता है। धारणा शब्द का शाब्दिक अर्थ किसी विशेष देश में मन को बद्ध करना। इसलिए धारणा से पहले प्रत्याहार आवश्यक है। क्योंकि प्रत्याहार मनुष्य को जागतिक लोक से परमार्थी लोक में प्रतिष्ठित करता है। अतः धारणा किसी रुढ़ तथ्य में अटक कर नहीं रहती है। मनुष्य असली देश सत्यलोक है। धारणा जब मनुष्य सत्यलोक में आबद्ध कर सकती तब ही धारणा सार्थक होती है। अतः अब मनुष्य मात्र ईश्वरकोटि का ही नहीं ब्रह्मकोटि का तय होता है। जागतिक बंधन से मुक्ति का पथ मिल जाता है। प्रत्याहार तक वह जागतिक बंधन से मुक्त चाहता लेकिन जागतिक लोक रहकर ही उपाय करता है। पहली बार प्रत्याहार उसे परमार्थी लोक का संस्पर्श कराता है लेकिन वह पुनः लौट जाना चाहता है। इसलिए धारणा साधना की आवश्यकता हुई। यह केवल ध्यान एकाग्र करने की साधना अपितु यह भाव को स्वभाव की ओर ले जाता मनुष्य महसूस करता है लेकिन यह ब्रह्माण्ड मेरे भीतर है और एक एक ब्रह्माण्ड के तत्व को अपने को धारणा करता है। यहाँ तक की अनन्त प्राण व भूमामन को अपने अणु मन में धारणा करता है। जिसके बल पर मनुष्य ईश्वरकोटि से ब्रह्मकोटि की ओर प्रथम कदम रखता है। 

                ध्यान-साधना

ध्यान तेल की बहती मन की धारा का नाम है। यहाँ मन की सभी गतिविधियाँ एवं क्रियाकलाप ध्येय में स्थापित होते हैं। अन्त तो स्वयं मन ध्येय में स्थापित हो जाता है। अतः धारणा बल मनुष्य को ब्रह्मत्व की शक्ति हासिल करनी होती है। ध्यान, साधक कोपूर्णतया ब्रह्मत्व की ओर ले जाने का प्रयास करता है। जब उसका बिन्दु ध्यान होता है, तब वह एक देश में, जो भूमामन है,उसमें बद्ध होता है तथा वह भूमामन साथ एकाकार होने का प्रयास करता है। जब मनुष्य निराकार निर्गुण की ओर बढ़ता है तब सबसे बड़े देश सगुण के बंधन से मुक्त होता तथा जीवन लक्ष्य को  प्राप्त करने का प्रयास करता है। इसको निर्गुण के साथ एकाकार होना कहलाता है। 

               समाधि-साधना

ध्यान से ध्येय में स्थापित होना समाधि कहलाती है। जब विराट देश भूमा महत् में अणु महत् स्थापित होता है तब इसे सगुणा स्थित सविकल्प समाधि कहते हैं। यहाँ मन अपने कारण में लय नहीं होता अपितु मन कारण का अनुभव अवश्य करता है। इसलिए संस्कार की डोर उसे पुनः वस्तु लोक की ओर ले आता है। लेकिन उसे याद रहते तथा उसे स्मरण कर कर आनन्द की अनुभूति करता है। जब मनुष्य भूमा चैतन्य में अणु महत् मिलाने की साधना करता तब निर्गुण स्थित निर्विकल्प समाधि प्राप्त होता है। यहाँ पर कारण में लयबद्ध होता है। वह परम आनन्द की अनुभूति करता है। लेकिन संस्कार की डोर उसे पुनः अपनी वस्तु स्थित में ले आती है। तब वह उस अवस्था का  व्याख्यान नहीं कर पाता है। क्यों वह चरम अभाव की अवस्था में होता है। इसलिए समाधि को स्वभाव में अभाव में ले जाना कहते हैं। अब साधक ब्रह्मकोटि में पूर्णतः स्थापित है। फिर भी पतन की संभावना निहित है। अतः समाधि ही सम्पूर्ण यात्रा नहीं है। योग व तंत्र तो यहाँ थक जाता है। लेकिन भक्ति भक्त को एक ऐसी स्थिति में ले जाती है। जहाँ से मनुष्य का कभी पतन नहीं होता है। 

                 मुक्ति-मोक्ष

सगुण में विलीन होना मुक्ति तथा निर्गुण में विलीन होना मोक्ष कहलाता है। समाधि की दोनों अवस्था में मन रहता है लेकिन एक भाव व अभाव तरंग में बहता है लेकिन मुक्ति एवं मोक्ष में मन का सच्चे अर्थ में प्राणाश हो जाता है। उसके बाद अणु मन का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है। वह भूमामन अथवा भूमा चैतन्य बन जाता है। अतः उसका निजी क्षेत्र शून्य हो जाता है। मोक्ष प्राप्त मनुष्य कभी भी लौट कर नहीं आया है। लेकिन मुक्ति प्राप्त मनुष्य जगत में एक विराट उद्देश्य लेकर आता है, तब मनुष्य का निजी अथवा अणु मन नहीं होता है। वह भूमामन से ही परिचालित होता है। अतः यह कहना गलत होता है कि अणु मन पुनः लौट आया। वह संकल्प देह होती है। इसलिए उसे संभूति बोलते है। जब तारकब्रह्म एक महासंकल्प देह लेकर आते है तब महासंभूति कहलाते हैं। संभूति की धारणा में सबकुछ परमपुरुष की ही संभूति है लेकिन उसमें संभूति का अनुभव कर पाते हैं। वही संकल्प देह होता है। जिसके हाथ मृत्यु होती है। अतः संकल्प मृत्यु को अपने साथ लेकर आते है। वह उसकी इच्छा के बिना उन तक नहीं पहूँचती है। 

ब्रह्म में विलीन को कुछ लोग शून्य कहते हैं। जो आंशिक रूप सही होने पर पूर्ण सही नहीं है। अभाव की अवस्था भी चैतन्य होती है। इसलिए शून्य को चैतन्य समझना होता है। अतः कुछ नहीं वाला शून्य दर्शन गलत है। विषय यम-नियम से समाधि की ओर था लेकिन हम समाधि से मुक्ति मोक्ष में भी पहूँच गए। वास्तविक में यही समाधि का मूल भाव है। अतः भक्ति को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। भक्ति ही भगवान को मिलाते है। इसलिए नीतिशास्त्र कहता है कि भक्त का भविष्य है।

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     श्री आनन्द किरण "देव"
 Shri Anand Kiran "Dev"
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