मानव निर्माण की नींव - यम-नियम           (The foundation of human creation - Yama-Niyama)
 
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          आनन्द किरण
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मनुष्य का जीवन निर्माण की आधारशिला यम-नियम है। जब तक मनुष्य को यम-नियम के पालन का पाठ नहीं पढ़ाया जाता है, तब तक मनुष्य के निर्माण के सभी दावे खोखले है। अतः मनुष्य के जीवन अथवा चरित्र निर्माण पर काम करने वालों को उनका बुनियादी पाठ्यक्रम (basic course) में यम-नियम को स्थापित करना चाहिए। इसके बिना मनुष्य को कोई भी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं धार्मिक जिम्मेदारी देने का अर्थ है कि जानबूझकर समाज को रसातल की ओर ले जाना है। इसलिए अब प्रश्न उठ रहा है कि यम-नियम क्या है? 

यम-नियम एक विधा है, जो मनुष्य के जीवन निर्माण के लिए अति आवश्यक है। यदि दूसरे शब्दों में कहा जाए तो इसके बिना मनुष्य का निर्माण असंभव है। इसलिए आज हम यम-नियम की शिक्षा पाएंगे। 

           यम (Yama) 

यम, मनुष्य के अंदर के उन संवेगों का नियंत्रण की शिक्षा देता है, जो मनुष्य को पशुत्व से प्राप्त हुए हैं, अथवा पशुत्व की ओर ले जाते हैं। सरल अर्थ में कहा जाए तो यम, मनुष्य के अंदर पाश्विक संवेगों को मानवीय संवेगों में बदलने की कला का नाम है। इसको उदाहरण द्वारा समझने की कोशिश करते हैं। हिंसा मनुष्य के अंदर पाश्विक जगत से आती है, यदि यह मनुष्य में यथावत बनी रहती है तो यह मनुष्य को न केवल पशु बनाती है अपितु पशु से अधम असुर, दानव, राक्षस, दैत्य, हैवान, शैतान एवं पिशाच बना सकती है। अतः मनुष्य अपने मनुष्यत्व से गिर जाता है, इसलिए अहिंसा प्रथम यम बनकर मनुष्य को पशुत्व की श्रेणी में जाने से रोकता है।  दूसरा यम सत्य है। असत्य अथवा झूठ की दुनिया में मनुष्य को जीवन खोखला तथा चरित्र अव्यवहारिक बनकर उभरता है, इसलिए सत्य उस पर पहरा बिठा दिया है ताकि मनुष्य अवास्तविक बनकर नहीं रह जाए। तीसरा यम अस्तेय है, जो मनुष्य को चौर्य वृत्ति से दूर रखता है। चोरी करना सामाजिक एवं वैधानिक अपराध है। यह मनुष्य में लालस के कारण जन्म लेता है तथा मनुष्य की सम्पूर्ण प्रतिष्ठा को धूमिल कर देते हैं। अतः अस्तेय अर्थात चोरी नहीं करने की शिक्षा मनुष्य के लिए बहुत जरूरी है। व्यर्थ के चिन्तन से बचने के लिए चतुर्थ यम के रूप में ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी जाती है। ब्रह्मचर्य का अर्थ मन को ब्रह्म भाव में रत रखना है। इसके अभाव में व्यर्थ एवं अवांछित चिन्तन की ओर ले जाती है। अपरिग्रह का अर्थ आवश्यक से अधिक वस्तुओं का संग्रह नहीं करने के नाम है। अपरिग्रह मनुष्य को सामाजिक प्राणी के रूप में स्थापित करने की एक मजबूत विधा है। इसलिए पांचवे यम के रूप में मनुष्य को अपरिग्रह की शिक्षा दी जाती है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का संयुक्त नाम यम है। अतः यम, सामाजिक शुचिता बनाये रखने तथा मनुष्य में दैवीय गुणों के विकास के लिए आध्यात्मिक पाठशाला में नैतिकता के प्रथम पाठ के रूप में पढ़ाया जाता है। यम का संबंध मन, वचन एवं कर्म तीनों की विधा से है। यद्यपि वैधानिक जगत में कर्म में परिणित को ही अपराध की श्रेणी में रखा गया है तथापि वचन से उत्पन्न अशुचिता सामाजिक दृष्टि में बुराई अथवा अन्याय कर्म में रखा गया है। मन के अंदर उत्पन्न यम विरोधी तत्व को आध्यात्मिक, नैतिक एवं धार्मिक दृष्टि पाप की श्रेणी में गण्य है। यद्यपि मन में उत्पन्न हिंसा, झूठ, चौर्य भाव, व्यर्थ चिन्तन एवं परिग्रह वृत्ति समाज की क्षति नहीं करते हैं तथापि मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में बाधक है तथा मनुष्य की ब्रह्मत्व प्राप्ति की यात्रा में अवरोध पैदा करते हैं। अतः यम-नियम विरोधी आचरण पाप है। 

यम को शास्त्र में मृत्यु का देवता बताया गया है। जबकि यम विधा के रूप में मनुष्य को मनुष्यत्व, दैवत्व, ईश्वरत्व एवं ब्रह्मत्व में प्रतिष्ठित करने की यात्रा का प्रथम द्वार है। अतः शास्त्र एवं विज्ञान के भाव को समझना बहुत जरूरी है। शास्त्र का यमराज एक धर्मराज भी है, जो मनुष्य के कर्मों का हिसाब करता है। हम जानते हैं कि धर्म मनुष्य को सत्पथ पर ले चलाता है। अतः यम अमंगल का प्रतीक नहीं अपितु जीवन का प्रथम एवं अन्तिम सत्य है। यम के बिना मनुष्य ही नहीं रहता है। अतः यम की शरण में मनुष्य को जाने से डर नहीं है, यम से वह डरता है, जिसको मनुष्योचित कर्म करने में भय है। जो जीवन भर यम से पृथक रहकर चलता है, उसे मृत्यु के बाद यम का हिसाब देने के लिए यमराज मृत्यु के देवता के रूप में स्थापित किया है। अर्थात यह बताया गया है कि मनुष्य के यम से बचने का कोई उपाय नहीं है। अतः बुद्धिमान मनुष्य जीवन भर यम को मानकर चलता है। 

                नियम (Niyama) 
नियम मनुष्य परिवेश से प्राप्त अवांछित कृत्य के हाथों सुरक्षात्मक उपाय है। शौच मनुष्य को गंदगी फैलाने से बचाता है तथा  स्वास्थ्य एवं स्वच्छता की ओर ले चलता है। संतोष मनुष्य को तृष्णा व अतृप्ति से बचाकर संतुष्टि, शांति एवं आनन्द की ओर ले चलता है। तप मनुष्य को गैरजिम्मेदार एवं निष्ठुरता से बचाकर मानवीय संवेदना की ओर ले चलता है। इसी प्रकार स्वाध्याय मनुष्य को सत्पथ की निर्देशना देता है तथा ईश्वर प्रणिधान मनुष्य को ईश्वरत्व प्राप्ति की ओर ले चलता है। इस प्रकार नियम के बल पर मनुष्य बाहरी अच्छाइयों को ग्रहण करता है तथा बुराइयों को अंदर प्रवेश नहीं कर देने की शिक्षा पाता है।

 मनुष्य के स्वास्थ्य एवं स्वच्छता के प्रति सजग रहने के लिए शौच को प्रथम नियम के रूप स्थापित किया है, संतोष की द्वितीय नियम में रुप में तृप्ति की ओर ले जाकर तड़पन एवं बैचेनी से बचाती है। इस प्रकार शौच शारीरिक, मानसिक स्वच्छता के लिए है तो संतोष सम्पूर्ण रूप से मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए। तप मनुष्य का मानसाध्यात्मिक स्वास्थ्य एवं स्वच्छता को सुरक्षित करता है। अर्थात मनुष्य साधुत्व का पाठ पढ़ाता है। दूसरों का दु:ख देखकर जिसका दिल द्रवित नहीं होता, वह मनुष्य कहलाने से चूक जाता है। इसलिए तृतीय नियम के रूप तप की शिक्षा दी जाती है। स्वाध्याय को चतुर्थ नियम बताया गया है, यह सत्पथ की निर्देशना के लिए आवश्यक है, इसके अभाव में मनुष्य के सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, नीति-अनीति तथा धर्म-अधर्म में भेद करना असंभव हो जाता है। अतः स्वाध्याय को नियमित अभ्यास के रूप में स्थापित किया है। अतः आध्यात्मिक मानसिक की स्वच्छता एवं स्वस्थता के लिए आवश्यक है। इसके अभाव में मनुष्य अधर्म को धर्म तथा धर्म को धर्म नहीं समझ सकता है। ईश्वर प्रणिधान पंचम नियम के रूप में मनुष्य को पूर्णत्व की प्राप्ति की ओर ले चलता है। बिना पूर्णत्व के मनुष्य अपना जीवन उद्देश्य सफल नहीं कर सकता है। अतः ईश्वर प्रणिधान मनुष्य के जीवन के लिए आवश्यक है। यह आध्यात्मिक स्वच्छता के लिए आवश्यक है। 


नोट - यम-नियम की शिक्षा लेने के लिए श्री श्री आनन्दमूर्ति जी कृति जीवन वेद को पढ़े।
ब्राह्मण जन्म से नहीं कर्म से बनता है            (A brahmin is made by his deeds, not by birth)

11 मई 2025 रविवार को अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा ने मुझे विप्र कुलभूषण सम्मान प्राप्त करने के लिए आमंत्रित किया। मैंने हमारे जयपुर के स्थानीय गृही आचार्य श्री रामफूल जी से अनुमति लेकर इस सम्मान को प्राप्त करने के लिए गया। उस कार्यक्रम में चर्चा ब्राह्मणत्व विषय पर चर्चा हो रही थी। सभी वक्ता ब्राह्मण के स्वभाव, कर्तव्य एवं सिद्धांत पर अपने अपने विचार रख रहे थे। मैंने भी इसी विषय पर आनन्द मार्ग की धारणा को समझाया। वह पाठकों के समक्ष रखकर अपने कर्तव्यों निर्वहन करता हूँ। 

उद्बोधन के मुख्य बिन्दु

(१) आध्यात्मिक नैतिकता सद्विप्र का प्रथम परिचय होता है - मैंने कहा कि भारतीय शास्त्रों में वर्णित सप्तर्षि मंडल के सबसे महत्वपूर्ण ब्रह्मर्षि वशिष्ठ अपने आध्यात्मिक नैतिकबल से पहचान बना लिए थे। वही कही जाते थे, उनकी परिचय उनकी आध्यात्मिक नैतिकता की शक्ति दे देती थी। इसलिए सद्विप्र बनने की यात्रा में निकले राही को अथवा अपने को ब्राह्मण अथवा सद्विप्र मानने वाले को आध्यात्मिक नैतिकता को धारण करना ही होगा। 

(२) केवल आध्यात्मिक ही आध्यात्मिक नैतिकतावान होना होगा - रामायण का पात्र रावण बहुत बड़ा आध्यात्मिक पुरुष बताया गया है। वह अष्ट सिद्धि एवं नव निधि का धनी होते हुए भी नैतिकता के अभाव में मारा गया। ऐसा ब्राह्मण होना भी धिक्कार है। ज्ञान के अभिमान के विप्र पतनोन्मुखी होने सैकड़ों उदाहरण है, इसलिए ज्ञान को पचाने आध्यात्मिक नैतिकता का जागरण करना एक सद्विप्र की पहचान है। केवल आध्यात्मिक ही नहीं नैतिकतावान भी होना आवश्यक है। केवल नैतिकतावान होने पर भी द्रोणाचार्य एवं कृपाचार्य की भांति अधर्म के हाथों ठगे जाओगे। अतः आध्यात्मिक नैतिकतावान व्यक्ति सद्विप्र की दीक्षा प्राप्त कर सकता है। 

(३) आध्यात्मिक नैतिकतावान होना ही पर्याप्त नहीं पाप शक्ति का दमन करने का साहस भी जरूरी है - परशुराम सभी ऋषियों में भगवान की उपाधि प्राप्त करने वालों की श्रेणी में अग्रणी थी। उनको आज का युवा अपना आदर्श मानता है क्योंकि उन्होंने आध्यात्मिक नैतिकता के साथ पाप को दमन करने का साहस दिखाया था। अतः सद्विप्र को सदैव पाप शक्ति के विरुद्ध अविराम संघर्ष जारी रखना ही होगा। चाणक्य ने अपने धर्म का निर्वहन किया था तथा अनैतिक शक्ति के समूल नाश का संकल्प धारण किया था। अतः आध्यात्मिक नैतिकता के साथ पाप के विरुद्ध संघर्ष करने की शक्ति ही सद्विप्र बनाती है। 

(४) ब्राह्मण अथवा सद्विप्र जन्म से नहीं कर्म से बनते हैं - शास्त्र कहता है कि जन्म से सभी शूद्र है, संस्कार ही मनुष्य को दूसरा जन्म देकर वैश्य, क्षत्रिय, विप्र एवं ब्राह्मण बनाते हैं। श्लोक के अनुसार वेद पाठी विप्र कहलाता है तथा ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण कहलाता है। यम नियम में प्रतिष्ठित भूमाभाव का साधक, जो पाप शक्ति के विरुद्ध संघर्ष करता है, वह सद्विप्र कहलाता है। अतः जन्मगत ब्राह्मण का अभिमान एवं सिद्धांत छोड़कर कर कर्मगत ब्राह्मण बनने के लिए निकल पड़ो। यही सच्चा मनुष्य धर्म है। बाल्मीकि जन्म से ब्राह्मण नहीं थे, विश्वामित्र भी जन्म से ब्राह्मण नहीं थे फिर भी उन्होंने कर्म के बल ब्राह्मणत्व अर्जित किया। 

(५) ब्राह्मणत्व के लिए ब्रह्म ज्ञान की आवश्यकता है, शिखा, तिलक एवं जनैऊ की आवश्यकता नहीं - मैं अपने वक्तव्य के अन्त: में वैदिक प्रमाण को सामने रखकर गर्व के साथ उद्घोषित करना चाहूंगा कि ब्रह्म प्राप्त की साधना में निकले व्यक्ति को बाहरी शिखा, जनैऊ एवं तिलक को छोड़कर आत्म ज्ञान की शिखा, आत्मसाक्षात्कार की जनैऊ तथा आत्मसमर्पण का तिलक धारण करना होगा। आत्मज्ञान, आत्मसाक्षात्कार एवं आत्मसमर्पण का तीन सूत्र धारण करने होगे, यही ब्रह्मत्व प्राप्त कराएगा। 


शांति संग्राम का परिणाम है।  (Peace is the result of struggle.)


महान दार्शनिक श्री प्रभात रंजन सरकार ने कहा है कि शांति संग्राम का परिणाम है। संग्राम का अर्थ युद्ध अथवा लड़ाई ही नहीं होता है। संग्राम का अर्थ कुव्यवस्था के विरुद्ध सुव्यवस्था का प्रहार है। जब तक कुव्यवस्था रहेगी तब तक सुव्यवस्था स्थापित नहीं होगी। इसलिए सुव्यवस्था को कुव्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करना ही होता है। यह संघर्ष शांति पूर्ण भी हो सकता है तथा शक्ति संचय के द्वार उग्र भी हो सकता है तथा तीव्र शक्ति संपात के द्वारा रक्तरंजित भी हो सकता है। अतः सत्पुरुषों को संघर्ष से दूर नहीं रहना चाहिए। 

सुव्यवस्था जब कुव्यवस्था को पराजित कर देती है तब उसे सुव्यवस्था होने का परिचय देने के लिए समाज की समृद्धि, ऋद्धि एवं सिद्धि को सुनिश्चित करना आवश्यक है। समाज की समृद्धि, ऋद्धि एवं सिद्धि व्यक्ति अथवा नागरिक की समृद्धि, ऋद्धि एवं सिद्धि में निहित है। व्यक्ति राष्ट्र के प्रति तब तक समर्पित रहेगा, जब तक राष्ट्र अथवा समाज उसके अभिभावक के रूप में सामाजिक आर्थिक संरक्षण प्रदान करता है। अतः व्यक्ति राष्ट्र के लिए है तथा राष्ट्र व्यक्ति के लिए है। इस बात को भूले बिना नहीं चल सकता है। 

जब सुव्यवस्था व्यक्ति की समृद्धि, ऋद्धि एवं सिद्धि के लिए चिन्तन करता है तब उसे सबसे पहले सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्र में जो असंतुलन दिखाई देता है, उसे खत्म करना चाहिए। व्यक्ति के सामाजिक एवं आर्थिक गतिविधियों के क्षेत्र अलग-अलग होंगे तब तक असंतुलन बना रहेगा, जब यह असंतुलन खत्म कर दिया जाएगा तब सुव्यवस्था का शुभारंभ होगा। सरल शब्दों में समझा जाए तो व्यक्ति की जन्मभूमि एवं कर्मभूमि में पार्थक्य नहीं होना चाहिए। जो जन्मभूमि है वही व्यक्ति की कर्मभूमि भी हो, यह सुव्यवस्था का प्रथम सूत्र है। जब व्यक्ति की जन्मभूमि एवं कर्मभूमि में पार्थक्य है तब तक व्यक्ति दोहरी जिन्दगी जीनी पड़ती है। दोहरी जिन्दगी किसी के लिए लाभप्रद नहीं होती है। अतः व्यक्ति को रोजगार मातृभूमि पर ही मिले, यह सफलता एवं सुव्यवस्था का प्रथम सूत्र है। मातृभूमि के संसाधनों, प्रशासनिक व्यवस्था एवं राजनैतिक व्यवस्था पर स्थानीय लोगों का ही प्रतिनिधि होना चाहिए। यही से सुव्यवस्था अपने द्वार को खोलती है। 

सुव्यवस्था का द्वितीय सूत्र स्थानीय लोगों की न्यूनतम आवश्यक को पूर्ण करना व्यक्ति का नहीं सम्पूर्ण समाज का दायित्व है। जब तक रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा एवं शिक्षा के लिए व्यक्ति मारामारा घूमता रहेगा तब तक सुव्यवस्था नहीं बन सकती है। अतः व्यक्ति को राष्ट्र की ओर क्रयशक्ति का मूल अधिकार मिलना चाहिए। कम से कम इतनी न्यूनतम आय प्राप्त करने का व्यक्ति को मूल अधिकार है कि वह अपने अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा की व्यवस्था कर सके। 

सुव्यवस्था का एक ओर संदेश है कि जिस देश में चिकित्सा एवं शिक्षा का व्यवसायीकरण होता है। चिकित्सा एवं शिक्षा बिकती है, वह देश कुछ भी हो सकता है लेकिन महान एवं विश्व गुरु नहीं हो सकता है। भारतवर्ष इतिहास में महान था तथा विश्वगुरु था, उसके तीन आधार थे, शिक्षा एवं चिकित्सा का बाजार नहीं सजता था, रोटी, कपड़ा, मकान के लिए व्यक्ति मारामारा नहीं घूमता था तथा समाज में आध्यात्मिक नैतिकतवान व्यक्ति को प्रभुत्व था। 

अतः सभी सोचना चाहिए कि यदि राष्ट्र उपरोक्त दिशा में चल रहा है तो सुरक्षित हाथों में है, अन्यथा राष्ट्र को सुरक्षित हाथों में होना चाहिए। इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को सुरक्षित हाथ ढूंढ़ना चाहिए।



✒️करण सिंह शिवतलाव की कलम से

सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है।                           (Only Sadvipra is the future of the world.)

                     आनन्द किरण
विश्व जिस द्रुतगति से आगे बढ़ रहा है, उस देखकर ही पता चलता है कि उस संभालने वाले व्यक्ति को साधारण व्यक्ति से कुछ विशेष ही नहीं अति विशिष्ट होना आवश्यक है। इस धरा का यह अति विशिष्ट व्यक्ति सद्विप्र है। जिसमें एक साथ शूद्रोचित्त सेवा, क्षत्रियोचित वीरता, विप्रोचित बौद्धिकता एवं विश्योचित्त कौशल है। यह यही नहीं रुकता इसमें आध्यात्मिक नैतिकता एवं पाप का दमन करने का भाव निहित है। अतः 'हमें सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है', विषय पर अवश्य ही चर्चा करनी चाहिए। 

विश्व भौतिक दृष्टि से वसुधैवकुटुम्बकम् में परिणत हो गई है, मानसिक स्थिति उसे वसुधैवकुटुम्बकम् से दूर रखकर बैठी है। जब मनुष्य यह बौद्धिक स्थित खत्म हो जाएगी तब वह मानवता से अपना नाता जोड़ेगा तथा अपना बौद्धिक दिवालियापन त्याग कर मन से मन जोड़ देगा। इसलिए अधिक से अधिक विश्व नागरिक बनाने की आवश्यकता है। इस महायज्ञ में आहुति तभी पडेगी, जब मनुष्य सद्विप्र के बारे में समझेगा। यद्यपि कौशल का सम्मान है तथापि आज का युग ऑलराउंडर व्यक्ति है। सद्विप्र एक ऐसा ही व्यक्तित्व है, जो कला कौशल, बौद्धिक क्षमता, शारीरिक बल एवं सेवा को एकसाथ धारण किया हुआ है, जो समय आने पर सभी प्रादर्श की भूमिका निभा सकता है। सद्विप्र यहाँ तक नहीं रुकता है, उसके अंदर व्याप्त आध्यात्मिक नैतिकता एवं शोषण के विरुद्ध अविराम संघर्ष का भाव उसे अतिविशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान करता है। उसे व्यक्ति कप्तान कहा जाता है। अपनी टीम को नेतृत्व, प्रशासन एवं गुणवत्ता देने के टीम का गुरुत्व बिन्दु बन जाता है। ठीक उसी प्रकार सद्विप्र भी समाज चक्र का प्राण केन्द्र है। इसलिए सद्विप्र के अध्याय में तीन शब्द का अध्ययन किया जाता है। सद्विप्र नेतृत्व, सद्विप्र राज एवं सद्विप्र समाज। आज हम तीनों बिन्दुओं को समझकर 'सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है' विषय को पूर्णता प्रदान करेंगे। 

 
समाज का पहला प्रश्न है कि हमारा नेता कैसा हो? उसका उत्तर है - सद्विप्र नेतृत्व। नेता जब तक नीति निपुण, आध्यात्मिक एवं शोषण के विरुद्ध संग्रामशील मानसिकता नहीं होगा तब नेतृत्व सत्ता एवं शक्ति के मद में मदहोश होकर अपने दायित्व को अपने सांसारिक ऐश्वर्य में लेकर समाप्त हो जाएगा। अतः नेतृत्व का सद्विप्र होना आवश्यक है। 


समाज का द्वितीय प्रश्न है कि हमारा राज कैसा हो? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है - सद्विप्र राज। जिस प्रकार सद्विप्र नेतृत्व समाज की आत्मा थी, उसी प्रकार राज समाज का मुखमंडल है। यदि वह कुपात्र से निर्मित होगी तो राजव्यवस्था रसातल में चली जाएगी, इस विपरीत राजव्यवस्था में सुपात्र का स्थान होगा तब धरती पर स्वर्ग दिखाई देने लगेगा। आज की अवस्था का मूल कारण है राजव्यवस्था में सद्विप्र का स्थान नहीं होना है। मनुष्य अपने अंहकार तथा स्वार्थ में बहकर राजव्यवस्था को बिगाड़ दी है। इसलिए सद्विप्रों का राज जगत में आवश्यक है। 

सद्विप्र समाज   (sadvipra society) 
समाज का तृतीय प्रश्न है कि हमारा समाज कैसा है? उत्तर है - हमारा समाज सद्विप्र समाज है। न केवल नेता अथवा राजशक्ति में काम करने वाले व्यक्ति ही सद्विप्र नहीं होंगे अपितु सम्पूर्ण समाज ही सद्विप्र होगा। जब समाज में अच्छे व्यक्ति बनाने की व्यवस्था नहीं होती है तब समाज अपने मूल अर्थ में चरितार्थ नहीं होता है। अतः समाज का स्वरूप सद्विप्र के बिना संभव नहीं है। सबका साथ, सबका विकास मात्र राजनैतिक नारा ही नहीं एक समाज की संरचना है, जो जातिधर्म एवं प्रदेश के बंधन से उपर सर्व भवन्तु सुखिनः में परिणत है। यह सद्विप्र समाज के बिना संभव नहीं है। 

पुनः विषय की ओर लौटते हैं। सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है। समाज को सद्विप्र नेतृत्व, सद्विप्र राज एवं सद्विप्र समाज की आवश्यकता है तब विश्व का भविष्य सद्विप्र को छूए बिना कैसे रह सकता है। यदि विश्व तथा वैश्विक समाज को बचाना है तो सद्विप्र नेतृत्व, सद्विप्र राज एवं सद्विप्र समाज की आवश्यकता है। अतः बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है। 

                 सद्विप्र कौन?  
             (Sadvipra who?

- जो प्रश्न विषय के प्रथम बिन्दु पर ही आना चाहिए था, वह बिन्दु विषय के अन्त में लेने का कारण है कि भूख लगे बिना भोजन दे देना भोजन के महत्व को चिन्हित नहीं करता है। अतः सद्विप्र कौन प्रश्न का उत्तर देने का ही वक्त है। 


इसका अर्थ है: "जन्म से सभी शूद्र होते हैं, लेकिन संस्कार से द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) बनते हैं। वेद के अध्ययन से विप्र (शिक्षित) और ब्रह्म को जानने से ब्राह्मण बनते हैं". 


भावार्थ‌ 
जन्म से सभी मनुष्य शूद्र होते हैं। अतः समाज शूद्र के आलावा कोई भी कौशल जन्म नहीं लेता है। उस निर्माण किया जाता है। जो व्यक्ति यह कहते हैं कि ब्राह्मण, विप्र, क्षत्रिय, वैश्य, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, यहुदी इत्यादि जन्म लेते हैं तो वह मिथ्या बोल रहा है। केवल एवं केवल शूद्र ही जन्मता है। उसका कर्म ही उसे वैश्य, क्षत्रिय इत्यादि में परिणत करता है। श्लोक कहता है कि यद्यपि जन्म से सभी शूद्र है, लेकिन संस्कार उसे दूसरा जन्म देकर द्विज बनाता है। संस्कार आते ही वह कौशल से शूद्र, क्षत्रिय, विप्र एवं वैश्य होने पर भी एक मनुष्य के रूप द्विज बनाता है। यदि संस्कार नहीं है तो कर्म कौशल के अनुसार आर्थिक श्रेणी में चला जाएगा लेकिन सच्चरित्र नहीं बन पाता है। अतः द्विज बनने के लिए संस्कार का होना आवश्यक है‌। श्लोक तृतीय में कहा गया है कि वेद का ज्ञान अर्थात आत्मज्ञान, अपौरुषेय ज्ञान प्राप्त करने से वह विप्र बन जाता है। विप्र का विशेष प्रज्ञा युक्त व्यक्ति। अन्त में कहा गया ब्रह्म को जानने वाला ही ब्राह्मण है। जब ऐसे व्यक्ति समाज के सामाजिक आर्थिक संगठन पर अपनी निगाहे केन्द्रित करते हैं तब सद्विप्र बनकर समाज में सत्य विप्र है, वह कभी भी जातिगत, वंशगत, कुल, गोत्र, सम्प्रदाय से बंधित अथवा निर्मित नहीं होते हैं। उसकी एक मात्र पहचान मनुष्य, मनुष्य एवं मनुष्य है। उसका लक्ष्य ब्रह्म संप्राप्ति एवं जगत सेवा है। अतः सद्विप्र को यम नियम में प्रतिष्ठित भूमाभाव साधक बताया गया है। जो सदैव धर्म प्रतिष्ठा में लगा रहता है।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता बनाम प्राकृतिक बुद्धिमत्ता ( AI vs NI)
कृत्रिम बुद्धिमत्ता बनाम प्राकृतिक बुद्धिमत्ता
(Artificial Intelligence vs. Natural Intelligence) 
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            करण सिंह
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आजकल AI ने तहलका मचा रखा है। यह बहुत से पब्लिक सेक्टर में प्रवेश करने के कारण NI को चुनौती मिलने जा रही है। इसलिए AI को लेकर चिंता भी है तो खुशी भी जाहिर की जा रही है। हमें धरा के भविष्य के विषय में चिन्तन करना है। इसलिए इस विषय को चर्चा में लाया जा रहा है।

धरातल पर रहने वाले सभी लोगों के अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा की व्यवस्था करना समाज उत्तरदायित्व है। यदि समाज इस उत्तरदायित्व का निवहन नहीं करता है तो उस समाज कहलाने का अधिकार नहीं है। अतः मनुष्य को घबराने की जरूरत नहीं है, AI के हस्तक्षेप से समाज उनकी रक्षा करेंगे। इसलिए AI पर बुद्धि लगाने से अधिक महत्वपूर्ण कार्य समाज का संगठन करना है। यह NI का AI को प्रथम जबाब होगा। वह एक ऐसे प्रगतिशील समाज की रचना करेगा, जो मनुष्य की न्यूनतम आवश्यक की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेगा तथा मनुष्य उसकी गुणवत्ता निखारने का पूर्ण अवसर देता है। 

पूर्णत्व प्राप्त करना, मनुष्य का का प्रथम कर्तव्य है। इसके मनुष्य को आध्यात्मिक पथ पर चलना होगा। AI के युग में मनुष्य को मिलने वाली सुविधाओं का फायदा लेते हुए अपने को आत्मिक पथ पर ले चलना होगा, यह NI को AI का दिया जाने वाला एक ओर अच्छा जबाब है। अतः AI से घबराएं बिना, उसको अपना सहायक मानकर अपने को आध्यात्मिक शक्ति से भर लेना होगा। AI एक यांत्रिक मानसिक शक्ति है। मानसिक शक्ति को आध्यात्मिक शक्ति द्वारा नियंत्रित की जाती है। चूंकि AI एक यांत्रिक मानसिक, उसका नियंत्रण मनुष्य की विशेष मानसिक शक्ति से ही हो रहा है। जब यह उसकी सीमा से पार हो जाएगा, तब आध्यात्मिक शक्ति AI को भी नियंत्रित कर लेगी। अतः मनुष्य की बुद्धिमत्ता यह है कि AI को चुनौती माने बिना AI का सांसारिक कार्यों में अधिकतम सहयोग लेते हुए अपने को अधिक से आध्यात्मिक जगत की ओर ले चलना है।

मानवीय संवेदना को संजोय रखना मनुष्य का स्वभाव है। इनको जीवन निर्माण लगाकर इसका सदुपयोग करना मनुष्य का कर्तव्य भी है। यह संवेदना शक्ति उसे सजग भी बनाती है। उसके बल पर वह नैतिकता में प्रतिष्ठित होता है। नैतिकता का पथ मनुष्य पकड़ रखना है तथा देखना है कि समाज एवं विज्ञान की व्यवस्था कभी भी अयोग्य लोगों के हाथों में नहीं चली जाए। यह व्यवस्था देकर AI का पूर्ण नियंत्रण सद्चरित्र व्यष्टियों के हाथ में देना ही होगा ताकि AI का कोई भी MI दुरूपयोग नही कर सकें। अतः अपनी संवेदना को अपनी दुर्बलता नहीं बनानी, उसे अपनी शक्ति बनाकर AI के काल्पनिक एवं सैद्धांतिक भय को कभी भी यथार्थ नहीं बनने देना है। 

AI कभी भी मानवीय बुद्धिमत्ता (HI) से बढ़कर नहीं होती है। मनुष्य के अंदर तो ईश्वर बुद्धिमत्ता (GI) का जागरण करने की क्षमता है। अतः कभी AI, NI से प्रभावशाली नहीं हो सकती है। AI के पास सीमित शक्ति स्रोत है, जबकि NI के पास असीम शक्ति स्रोत है। अतः सीम कभी असीम पर भारी नहीं हो सकता है। यदि AI मनुष्य की बुद्धिमत्ता को दबोचने की कोशिश करेंगीं तो NI असीम से शक्ति जुटाकर उसे उस प्यास को धूमिल कर देगी।

अन्त में हर AI पर भारी है NI. 
मनुष्य ही अपनी कलाकृति से डरने लगेगा तो उसको मनुष्य होने पर विश्वास नहीं। अतः AI के खेल से बचने के लिए मनुष्य आध्यात्मिक नैतिकता के पथ कर एक प्राकृत अर्थ युक्त एक अखंड एवं अविभाज्य मानव समाज की रचना करनी ही होगी।
हनुमान (Hanuman)
                    
             
           आनन्द किरण
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हनुमान श्री राम को ऋष्यमूक पर्वत की तलहटी में मिलने वाला रामायण का एक पात्र है। जिसे वानरमुखी, अतिबलशाली एवं राम भक्त के रूप में चित्रित किया गया है। इसके बाद कथा कहानियों में हनुमान के जन्म, परिवार एवं पराक्रम का भी चित्रण किया गया है। तत्पश्चात हनुमान को बजरंग बली, पवनपुत्र, मारुति, बालाजी इत्यादि नामों से एक देवता के रूप में पूजा गया है। रामचरितमानस के अनुसार जहाँ भी रामकथा होती है, वहाँ हनुमान पराभौतिक शरीर के साथ पहूँच जाते हैं तथा सच्चे व निर्मल दिल के राम भक्त को दिखते एवं मिलते भी है। यह लोगों की आस्था का प्रश्न है, इसलिए इसका सम्मान करना हम सभी का कर्तव्य है। हम हनुमान पर तो कुछ भी नहीं लिखेंगे लेकिन आध्यात्मिक पर अवश्य ही कुछ लिखना चाहेंगे। 

श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं पंचभूतों की पूजा करने वाला पंचभूतों को, वृक्ष इत्यादि प्रकृति की पूजा करने वाला प्रकृति को, देवी देवता की पूजा करने वाला देवयोनी को तथा मुझ परमब्रह्म का ध्यान करने वाला मूझे प्राप्त होता है। गीता का यह दृष्टांत आध्यात्मिक शास्त्र के विद्यार्थियों को सिखाता है कि परमब्रह्म के अतिरिक्त कोई भी मनुष्य का ध्येय नहीं है। अत: आध्यात्मिक विज्ञान मनुष्य के कल्याण के लिए परमब्रह्म का ध्यान करने हेतु ध्यान सिखाता है। यहाँ थोड़ा रुककर रामायण के हनुमान जी को ध्येय मानने वाले भक्तों से प्रश्न करते हैं कि हनुमान का ध्यान करना स्वयं श्री कृष्ण के गीता उपदेश का महात्म्य नहीं समझना नहीं है? क्योंकि हनुमान रामभक्त थे? उन्हें शिव का ग्यारहवाँ रुद्र मानने पर भी पूर्णब्रह्म में स्थापित नहीं किया जा सकता है। यह एक अंशावतार ही है। अतः खंड़ पूजा भारतीय शास्त्र की गरिमा में पूर्णत्व प्रदान करने वाली नहीं है। अतः हनुमान जी पूजा से राम मिलना एक गवेषणा को जन्म देता है। गीता कहती है कि देवताओं की पूजा से परमब्रह्म नहीं प्राप्त होते हैं तो हनुमान की पूजा से राम कैसे मिलते हैं? क्योंकि राम तो परमब्रह्म का ही एक नाम है, जो योगियों के हृदय में सदैव रमता है। मैंने पहले ही लिखा है कि हनुमान आपकी आस्था है, इसलिए मैं आपकी आस्था का सम्मान करता हूँ। लेकिन आध्यात्मिक को समझने की अवश्य ही कोशिश करूँगा। इसीक्रम में हनुमान जी का प्रसंग आता है। 

हनुमान शब्द का शाब्दिक अर्थ विकृत ठुड्डी वाला पुरुष है। इस अर्थ में क्या हम विकृत ठुड्डी वाले सभी मनुष्यों को हनुमान कह सकते हैं? चलो इस प्रश्न को अनुत्तरित ही छोड़ देते हैं तथा अन्य नामों की ओर से चलते हैं। हनुमान का मूल नाम मारुति बताया जाता है, जिसका मरुत तत्व से उत्पन्न देव है। माइक्रोविटा विज्ञान में देवयोनी शब्द के लिए अणुजीवत शब्द का प्रयोग आता है। अणुजीवत एवं देवयोनी दोनों ही शब्द का अर्थ तेज, मरु एवं व्योम तत्व से निर्मित शरीर के लिए प्रयोग हुआ है। मरुत तत्व एक पंचमहाभूत का अंग है। उससे उत्पन्न देव सहस्त्रारचक्र के अधिष्ठाता परमशिव पुरुषोत्तम तक कैसे ले जा सकता है? क्योंकि वह स्वयं ही मरुत ही है, जिसका सीमा अनाहत चक्र ही है। आध्यात्मिक जगत का प्रश्न है इसलिए सभी को सोचना है। चलो थोड़ा ओर आगे बढ़ते हैं, हनुमान का एक ओर नाम बजरंगबली भी है। जिसका अर्थ ब्रज की तरह शरीर वाला अर्थात कठोर शरीर वाला अथवा बाहुबल वाला। यह भौतिक जगत की व्याख्या है। आध्यात्मिक विज्ञान के विद्यार्थी को भौतिक विज्ञान अवश्य ही पढ़ना होता है लेकिन भौतिक विज्ञान कभी भी आध्यात्मिक यात्री का लक्ष्य नहीं होता है। रुहानी यात्रा में निकले राही को शरीर का ध्यान रखकर चलना ही होता है लेकिन रुहानी मंजिल ही उनका लक्ष्य होता है। इसलिए बजरंगबली की उपासना कैसे है, रुहानी मंजिल दिखा सकती है? महावीर एवं पवनपुत्र क्रमशः बजरंगबली एवं मारुति के ही पर्याय है। इसलिए चर्चा आवश्यक नहीं है। 

हनुमान जी की चर्चा के आगामी चरण में हनुमान के चिरंजीवीत्व पर चलते हैं। हनुमान भारतीय शास्त्र के चिरंजीवी व्यक्तियों में से एक है। चिरंजीवी का अर्थ है कि अमुक्त पुरुष अर्थात मोक्षप्राप्त नहीं। अर्थात पूर्ण पुरुष नहीं। अतः पूर्णत्व का साधक के आराध्य चिरंजीवी कैसे हो सकता है? परशुराम एक मात्र विष्णु की संभूति है कि विष्णु बनकर नहीं ऋषि बनकर चिरंजीवीत्व प्राप्त करते हैं, क्योंकि मर्यादापुरुषोत्तम राम के युग में अवतारत्व को छोड़ देते हैं। इसलिए परशुराम को देव पुरुष में मानकर पढ़ा जाता है। 

हनुमान के प्रति जिनकी भी आस्था है, मैं उनका आदर करते हुए आध्यात्मिक विज्ञान की चर्चा की है। उसमें मेरा उद्देश्य आध्यात्मिक ज्ञान को समझना था। आध्यात्मिक ज्ञान में शिक्षा दी जाती है कि इस जगत में रहकर किस‌ प्रकार अनन्त की यात्रा में निकलेंगे।? इसलिए अनन्त के अलावा कोई भी मनुष्य का ईष्ट एवं आदर्श नहीं हो सकता है। यही धर्म है। जहाँ धर्म है, वही ईष्ट है। ईष्ट तारकब्रह्म ही है।