सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है। (Only Sadvipra is the future of the world.)


                     आनन्द किरण
विश्व जिस द्रुतगति से आगे बढ़ रहा है, उस देखकर ही पता चलता है कि उस संभालने वाले व्यक्ति को साधारण व्यक्ति से कुछ विशेष ही नहीं अति विशिष्ट होना आवश्यक है। इस धरा का यह अति विशिष्ट व्यक्ति सद्विप्र है। जिसमें एक साथ शूद्रोचित्त सेवा, क्षत्रियोचित वीरता, विप्रोचित बौद्धिकता एवं विश्योचित्त कौशल है। यह यही नहीं रुकता इसमें आध्यात्मिक नैतिकता एवं पाप का दमन करने का भाव निहित है। अतः 'हमें सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है', विषय पर अवश्य ही चर्चा करनी चाहिए। 

विश्व भौतिक दृष्टि से वसुधैवकुटुम्बकम् में परिणत हो गई है, मानसिक स्थिति उसे वसुधैवकुटुम्बकम् से दूर रखकर बैठी है। जब मनुष्य यह बौद्धिक स्थित खत्म हो जाएगी तब वह मानवता से अपना नाता जोड़ेगा तथा अपना बौद्धिक दिवालियापन त्याग कर मन से मन जोड़ देगा। इसलिए अधिक से अधिक विश्व नागरिक बनाने की आवश्यकता है। इस महायज्ञ में आहुति तभी पडेगी, जब मनुष्य सद्विप्र के बारे में समझेगा। यद्यपि कौशल का सम्मान है तथापि आज का युग ऑलराउंडर व्यक्ति है। सद्विप्र एक ऐसा ही व्यक्तित्व है, जो कला कौशल, बौद्धिक क्षमता, शारीरिक बल एवं सेवा को एकसाथ धारण किया हुआ है, जो समय आने पर सभी प्रादर्श की भूमिका निभा सकता है। सद्विप्र यहाँ तक नहीं रुकता है, उसके अंदर व्याप्त आध्यात्मिक नैतिकता एवं शोषण के विरुद्ध अविराम संघर्ष का भाव उसे अतिविशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान करता है। उसे व्यक्ति कप्तान कहा जाता है। अपनी टीम को नेतृत्व, प्रशासन एवं गुणवत्ता देने के टीम का गुरुत्व बिन्दु बन जाता है। ठीक उसी प्रकार सद्विप्र भी समाज चक्र का प्राण केन्द्र है। इसलिए सद्विप्र के अध्याय में तीन शब्द का अध्ययन किया जाता है। सद्विप्र नेतृत्व, सद्विप्र राज एवं सद्विप्र समाज। आज हम तीनों बिन्दुओं को समझकर 'सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है' विषय को पूर्णता प्रदान करेंगे। 

 
समाज का पहला प्रश्न है कि हमारा नेता कैसा हो? उसका उत्तर है - सद्विप्र नेतृत्व। नेता जब तक नीति निपुण, आध्यात्मिक एवं शोषण के विरुद्ध संग्रामशील मानसिकता नहीं होगा तब नेतृत्व सत्ता एवं शक्ति के मद में मदहोश होकर अपने दायित्व को अपने सांसारिक ऐश्वर्य में लेकर समाप्त हो जाएगा। अतः नेतृत्व का सद्विप्र होना आवश्यक है। 


समाज का द्वितीय प्रश्न है कि हमारा राज कैसा हो? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है - सद्विप्र राज। जिस प्रकार सद्विप्र नेतृत्व समाज की आत्मा थी, उसी प्रकार राज समाज का मुखमंडल है। यदि वह कुपात्र से निर्मित होगी तो राजव्यवस्था रसातल में चली जाएगी, इस विपरीत राजव्यवस्था में सुपात्र का स्थान होगा तब धरती पर स्वर्ग दिखाई देने लगेगा। आज की अवस्था का मूल कारण है राजव्यवस्था में सद्विप्र का स्थान नहीं होना है। मनुष्य अपने अंहकार तथा स्वार्थ में बहकर राजव्यवस्था को बिगाड़ दी है। इसलिए सद्विप्रों का राज जगत में आवश्यक है। 

सद्विप्र समाज   (sadvipra society) 
समाज का तृतीय प्रश्न है कि हमारा समाज कैसा है? उत्तर है - हमारा समाज सद्विप्र समाज है। न केवल नेता अथवा राजशक्ति में काम करने वाले व्यक्ति ही सद्विप्र नहीं होंगे अपितु सम्पूर्ण समाज ही सद्विप्र होगा। जब समाज में अच्छे व्यक्ति बनाने की व्यवस्था नहीं होती है तब समाज अपने मूल अर्थ में चरितार्थ नहीं होता है। अतः समाज का स्वरूप सद्विप्र के बिना संभव नहीं है। सबका साथ, सबका विकास मात्र राजनैतिक नारा ही नहीं एक समाज की संरचना है, जो जातिधर्म एवं प्रदेश के बंधन से उपर सर्व भवन्तु सुखिनः में परिणत है। यह सद्विप्र समाज के बिना संभव नहीं है। 

पुनः विषय की ओर लौटते हैं। सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है। समाज को सद्विप्र नेतृत्व, सद्विप्र राज एवं सद्विप्र समाज की आवश्यकता है तब विश्व का भविष्य सद्विप्र को छूए बिना कैसे रह सकता है। यदि विश्व तथा वैश्विक समाज को बचाना है तो सद्विप्र नेतृत्व, सद्विप्र राज एवं सद्विप्र समाज की आवश्यकता है। अतः बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है। 

                 सद्विप्र कौन?  
             (Sadvipra who?

- जो प्रश्न विषय के प्रथम बिन्दु पर ही आना चाहिए था, वह बिन्दु विषय के अन्त में लेने का कारण है कि भूख लगे बिना भोजन दे देना भोजन के महत्व को चिन्हित नहीं करता है। अतः सद्विप्र कौन प्रश्न का उत्तर देने का ही वक्त है। 


इसका अर्थ है: "जन्म से सभी शूद्र होते हैं, लेकिन संस्कार से द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) बनते हैं। वेद के अध्ययन से विप्र (शिक्षित) और ब्रह्म को जानने से ब्राह्मण बनते हैं". 


भावार्थ‌ 
जन्म से सभी मनुष्य शूद्र होते हैं। अतः समाज शूद्र के आलावा कोई भी कौशल जन्म नहीं लेता है। उस निर्माण किया जाता है। जो व्यक्ति यह कहते हैं कि ब्राह्मण, विप्र, क्षत्रिय, वैश्य, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, यहुदी इत्यादि जन्म लेते हैं तो वह मिथ्या बोल रहा है। केवल एवं केवल शूद्र ही जन्मता है। उसका कर्म ही उसे वैश्य, क्षत्रिय इत्यादि में परिणत करता है। श्लोक कहता है कि यद्यपि जन्म से सभी शूद्र है, लेकिन संस्कार उसे दूसरा जन्म देकर द्विज बनाता है। संस्कार आते ही वह कौशल से शूद्र, क्षत्रिय, विप्र एवं वैश्य होने पर भी एक मनुष्य के रूप द्विज बनाता है। यदि संस्कार नहीं है तो कर्म कौशल के अनुसार आर्थिक श्रेणी में चला जाएगा लेकिन सच्चरित्र नहीं बन पाता है। अतः द्विज बनने के लिए संस्कार का होना आवश्यक है‌। श्लोक तृतीय में कहा गया है कि वेद का ज्ञान अर्थात आत्मज्ञान, अपौरुषेय ज्ञान प्राप्त करने से वह विप्र बन जाता है। विप्र का विशेष प्रज्ञा युक्त व्यक्ति। अन्त में कहा गया ब्रह्म को जानने वाला ही ब्राह्मण है। जब ऐसे व्यक्ति समाज के सामाजिक आर्थिक संगठन पर अपनी निगाहे केन्द्रित करते हैं तब सद्विप्र बनकर समाज में सत्य विप्र है, वह कभी भी जातिगत, वंशगत, कुल, गोत्र, सम्प्रदाय से बंधित अथवा निर्मित नहीं होते हैं। उसकी एक मात्र पहचान मनुष्य, मनुष्य एवं मनुष्य है। उसका लक्ष्य ब्रह्म संप्राप्ति एवं जगत सेवा है। अतः सद्विप्र को यम नियम में प्रतिष्ठित भूमाभाव साधक बताया गया है। जो सदैव धर्म प्रतिष्ठा में लगा रहता है।
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