मानव निर्माण की नींव - यम-नियम           (The foundation of human creation - Yama-Niyama)
 
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          आनन्द किरण
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मनुष्य का जीवन निर्माण की आधारशिला यम-नियम है। जब तक मनुष्य को यम-नियम के पालन का पाठ नहीं पढ़ाया जाता है, तब तक मनुष्य के निर्माण के सभी दावे खोखले है। अतः मनुष्य के जीवन अथवा चरित्र निर्माण पर काम करने वालों को उनका बुनियादी पाठ्यक्रम (basic course) में यम-नियम को स्थापित करना चाहिए। इसके बिना मनुष्य को कोई भी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं धार्मिक जिम्मेदारी देने का अर्थ है कि जानबूझकर समाज को रसातल की ओर ले जाना है। इसलिए अब प्रश्न उठ रहा है कि यम-नियम क्या है? 

यम-नियम एक विधा है, जो मनुष्य के जीवन निर्माण के लिए अति आवश्यक है। यदि दूसरे शब्दों में कहा जाए तो इसके बिना मनुष्य का निर्माण असंभव है। इसलिए आज हम यम-नियम की शिक्षा पाएंगे। 

           यम (Yama) 

यम, मनुष्य के अंदर के उन संवेगों का नियंत्रण की शिक्षा देता है, जो मनुष्य को पशुत्व से प्राप्त हुए हैं, अथवा पशुत्व की ओर ले जाते हैं। सरल अर्थ में कहा जाए तो यम, मनुष्य के अंदर पाश्विक संवेगों को मानवीय संवेगों में बदलने की कला का नाम है। इसको उदाहरण द्वारा समझने की कोशिश करते हैं। हिंसा मनुष्य के अंदर पाश्विक जगत से आती है, यदि यह मनुष्य में यथावत बनी रहती है तो यह मनुष्य को न केवल पशु बनाती है अपितु पशु से अधम असुर, दानव, राक्षस, दैत्य, हैवान, शैतान एवं पिशाच बना सकती है। अतः मनुष्य अपने मनुष्यत्व से गिर जाता है, इसलिए अहिंसा प्रथम यम बनकर मनुष्य को पशुत्व की श्रेणी में जाने से रोकता है।  दूसरा यम सत्य है। असत्य अथवा झूठ की दुनिया में मनुष्य को जीवन खोखला तथा चरित्र अव्यवहारिक बनकर उभरता है, इसलिए सत्य उस पर पहरा बिठा दिया है ताकि मनुष्य अवास्तविक बनकर नहीं रह जाए। तीसरा यम अस्तेय है, जो मनुष्य को चौर्य वृत्ति से दूर रखता है। चोरी करना सामाजिक एवं वैधानिक अपराध है। यह मनुष्य में लालस के कारण जन्म लेता है तथा मनुष्य की सम्पूर्ण प्रतिष्ठा को धूमिल कर देते हैं। अतः अस्तेय अर्थात चोरी नहीं करने की शिक्षा मनुष्य के लिए बहुत जरूरी है। व्यर्थ के चिन्तन से बचने के लिए चतुर्थ यम के रूप में ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी जाती है। ब्रह्मचर्य का अर्थ मन को ब्रह्म भाव में रत रखना है। इसके अभाव में व्यर्थ एवं अवांछित चिन्तन की ओर ले जाती है। अपरिग्रह का अर्थ आवश्यक से अधिक वस्तुओं का संग्रह नहीं करने के नाम है। अपरिग्रह मनुष्य को सामाजिक प्राणी के रूप में स्थापित करने की एक मजबूत विधा है। इसलिए पांचवे यम के रूप में मनुष्य को अपरिग्रह की शिक्षा दी जाती है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का संयुक्त नाम यम है। अतः यम, सामाजिक शुचिता बनाये रखने तथा मनुष्य में दैवीय गुणों के विकास के लिए आध्यात्मिक पाठशाला में नैतिकता के प्रथम पाठ के रूप में पढ़ाया जाता है। यम का संबंध मन, वचन एवं कर्म तीनों की विधा से है। यद्यपि वैधानिक जगत में कर्म में परिणित को ही अपराध की श्रेणी में रखा गया है तथापि वचन से उत्पन्न अशुचिता सामाजिक दृष्टि में बुराई अथवा अन्याय कर्म में रखा गया है। मन के अंदर उत्पन्न यम विरोधी तत्व को आध्यात्मिक, नैतिक एवं धार्मिक दृष्टि पाप की श्रेणी में गण्य है। यद्यपि मन में उत्पन्न हिंसा, झूठ, चौर्य भाव, व्यर्थ चिन्तन एवं परिग्रह वृत्ति समाज की क्षति नहीं करते हैं तथापि मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में बाधक है तथा मनुष्य की ब्रह्मत्व प्राप्ति की यात्रा में अवरोध पैदा करते हैं। अतः यम-नियम विरोधी आचरण पाप है। 

यम को शास्त्र में मृत्यु का देवता बताया गया है। जबकि यम विधा के रूप में मनुष्य को मनुष्यत्व, दैवत्व, ईश्वरत्व एवं ब्रह्मत्व में प्रतिष्ठित करने की यात्रा का प्रथम द्वार है। अतः शास्त्र एवं विज्ञान के भाव को समझना बहुत जरूरी है। शास्त्र का यमराज एक धर्मराज भी है, जो मनुष्य के कर्मों का हिसाब करता है। हम जानते हैं कि धर्म मनुष्य को सत्पथ पर ले चलाता है। अतः यम अमंगल का प्रतीक नहीं अपितु जीवन का प्रथम एवं अन्तिम सत्य है। यम के बिना मनुष्य ही नहीं रहता है। अतः यम की शरण में मनुष्य को जाने से डर नहीं है, यम से वह डरता है, जिसको मनुष्योचित कर्म करने में भय है। जो जीवन भर यम से पृथक रहकर चलता है, उसे मृत्यु के बाद यम का हिसाब देने के लिए यमराज मृत्यु के देवता के रूप में स्थापित किया है। अर्थात यह बताया गया है कि मनुष्य के यम से बचने का कोई उपाय नहीं है। अतः बुद्धिमान मनुष्य जीवन भर यम को मानकर चलता है। 

                नियम (Niyama) 
नियम मनुष्य परिवेश से प्राप्त अवांछित कृत्य के हाथों सुरक्षात्मक उपाय है। शौच मनुष्य को गंदगी फैलाने से बचाता है तथा  स्वास्थ्य एवं स्वच्छता की ओर ले चलता है। संतोष मनुष्य को तृष्णा व अतृप्ति से बचाकर संतुष्टि, शांति एवं आनन्द की ओर ले चलता है। तप मनुष्य को गैरजिम्मेदार एवं निष्ठुरता से बचाकर मानवीय संवेदना की ओर ले चलता है। इसी प्रकार स्वाध्याय मनुष्य को सत्पथ की निर्देशना देता है तथा ईश्वर प्रणिधान मनुष्य को ईश्वरत्व प्राप्ति की ओर ले चलता है। इस प्रकार नियम के बल पर मनुष्य बाहरी अच्छाइयों को ग्रहण करता है तथा बुराइयों को अंदर प्रवेश नहीं कर देने की शिक्षा पाता है।

 मनुष्य के स्वास्थ्य एवं स्वच्छता के प्रति सजग रहने के लिए शौच को प्रथम नियम के रूप स्थापित किया है, संतोष की द्वितीय नियम में रुप में तृप्ति की ओर ले जाकर तड़पन एवं बैचेनी से बचाती है। इस प्रकार शौच शारीरिक, मानसिक स्वच्छता के लिए है तो संतोष सम्पूर्ण रूप से मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए। तप मनुष्य का मानसाध्यात्मिक स्वास्थ्य एवं स्वच्छता को सुरक्षित करता है। अर्थात मनुष्य साधुत्व का पाठ पढ़ाता है। दूसरों का दु:ख देखकर जिसका दिल द्रवित नहीं होता, वह मनुष्य कहलाने से चूक जाता है। इसलिए तृतीय नियम के रूप तप की शिक्षा दी जाती है। स्वाध्याय को चतुर्थ नियम बताया गया है, यह सत्पथ की निर्देशना के लिए आवश्यक है, इसके अभाव में मनुष्य के सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, नीति-अनीति तथा धर्म-अधर्म में भेद करना असंभव हो जाता है। अतः स्वाध्याय को नियमित अभ्यास के रूप में स्थापित किया है। अतः आध्यात्मिक मानसिक की स्वच्छता एवं स्वस्थता के लिए आवश्यक है। इसके अभाव में मनुष्य अधर्म को धर्म तथा धर्म को धर्म नहीं समझ सकता है। ईश्वर प्रणिधान पंचम नियम के रूप में मनुष्य को पूर्णत्व की प्राप्ति की ओर ले चलता है। बिना पूर्णत्व के मनुष्य अपना जीवन उद्देश्य सफल नहीं कर सकता है। अतः ईश्वर प्रणिधान मनुष्य के जीवन के लिए आवश्यक है। यह आध्यात्मिक स्वच्छता के लिए आवश्यक है। 


नोट - यम-नियम की शिक्षा लेने के लिए श्री श्री आनन्दमूर्ति जी कृति जीवन वेद को पढ़े।
ब्राह्मण जन्म से नहीं कर्म से बनता है            (A brahmin is made by his deeds, not by birth)

11 मई 2025 रविवार को अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा ने मुझे विप्र कुलभूषण सम्मान प्राप्त करने के लिए आमंत्रित किया। मैंने हमारे जयपुर के स्थानीय गृही आचार्य श्री रामफूल जी से अनुमति लेकर इस सम्मान को प्राप्त करने के लिए गया। उस कार्यक्रम में चर्चा ब्राह्मणत्व विषय पर चर्चा हो रही थी। सभी वक्ता ब्राह्मण के स्वभाव, कर्तव्य एवं सिद्धांत पर अपने अपने विचार रख रहे थे। मैंने भी इसी विषय पर आनन्द मार्ग की धारणा को समझाया। वह पाठकों के समक्ष रखकर अपने कर्तव्यों निर्वहन करता हूँ। 

उद्बोधन के मुख्य बिन्दु

(१) आध्यात्मिक नैतिकता सद्विप्र का प्रथम परिचय होता है - मैंने कहा कि भारतीय शास्त्रों में वर्णित सप्तर्षि मंडल के सबसे महत्वपूर्ण ब्रह्मर्षि वशिष्ठ अपने आध्यात्मिक नैतिकबल से पहचान बना लिए थे। वही कही जाते थे, उनकी परिचय उनकी आध्यात्मिक नैतिकता की शक्ति दे देती थी। इसलिए सद्विप्र बनने की यात्रा में निकले राही को अथवा अपने को ब्राह्मण अथवा सद्विप्र मानने वाले को आध्यात्मिक नैतिकता को धारण करना ही होगा। 

(२) केवल आध्यात्मिक ही आध्यात्मिक नैतिकतावान होना होगा - रामायण का पात्र रावण बहुत बड़ा आध्यात्मिक पुरुष बताया गया है। वह अष्ट सिद्धि एवं नव निधि का धनी होते हुए भी नैतिकता के अभाव में मारा गया। ऐसा ब्राह्मण होना भी धिक्कार है। ज्ञान के अभिमान के विप्र पतनोन्मुखी होने सैकड़ों उदाहरण है, इसलिए ज्ञान को पचाने आध्यात्मिक नैतिकता का जागरण करना एक सद्विप्र की पहचान है। केवल आध्यात्मिक ही नहीं नैतिकतावान भी होना आवश्यक है। केवल नैतिकतावान होने पर भी द्रोणाचार्य एवं कृपाचार्य की भांति अधर्म के हाथों ठगे जाओगे। अतः आध्यात्मिक नैतिकतावान व्यक्ति सद्विप्र की दीक्षा प्राप्त कर सकता है। 

(३) आध्यात्मिक नैतिकतावान होना ही पर्याप्त नहीं पाप शक्ति का दमन करने का साहस भी जरूरी है - परशुराम सभी ऋषियों में भगवान की उपाधि प्राप्त करने वालों की श्रेणी में अग्रणी थी। उनको आज का युवा अपना आदर्श मानता है क्योंकि उन्होंने आध्यात्मिक नैतिकता के साथ पाप को दमन करने का साहस दिखाया था। अतः सद्विप्र को सदैव पाप शक्ति के विरुद्ध अविराम संघर्ष जारी रखना ही होगा। चाणक्य ने अपने धर्म का निर्वहन किया था तथा अनैतिक शक्ति के समूल नाश का संकल्प धारण किया था। अतः आध्यात्मिक नैतिकता के साथ पाप के विरुद्ध संघर्ष करने की शक्ति ही सद्विप्र बनाती है। 

(४) ब्राह्मण अथवा सद्विप्र जन्म से नहीं कर्म से बनते हैं - शास्त्र कहता है कि जन्म से सभी शूद्र है, संस्कार ही मनुष्य को दूसरा जन्म देकर वैश्य, क्षत्रिय, विप्र एवं ब्राह्मण बनाते हैं। श्लोक के अनुसार वेद पाठी विप्र कहलाता है तथा ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण कहलाता है। यम नियम में प्रतिष्ठित भूमाभाव का साधक, जो पाप शक्ति के विरुद्ध संघर्ष करता है, वह सद्विप्र कहलाता है। अतः जन्मगत ब्राह्मण का अभिमान एवं सिद्धांत छोड़कर कर कर्मगत ब्राह्मण बनने के लिए निकल पड़ो। यही सच्चा मनुष्य धर्म है। बाल्मीकि जन्म से ब्राह्मण नहीं थे, विश्वामित्र भी जन्म से ब्राह्मण नहीं थे फिर भी उन्होंने कर्म के बल ब्राह्मणत्व अर्जित किया। 

(५) ब्राह्मणत्व के लिए ब्रह्म ज्ञान की आवश्यकता है, शिखा, तिलक एवं जनैऊ की आवश्यकता नहीं - मैं अपने वक्तव्य के अन्त: में वैदिक प्रमाण को सामने रखकर गर्व के साथ उद्घोषित करना चाहूंगा कि ब्रह्म प्राप्त की साधना में निकले व्यक्ति को बाहरी शिखा, जनैऊ एवं तिलक को छोड़कर आत्म ज्ञान की शिखा, आत्मसाक्षात्कार की जनैऊ तथा आत्मसमर्पण का तिलक धारण करना होगा। आत्मज्ञान, आत्मसाक्षात्कार एवं आत्मसमर्पण का तीन सूत्र धारण करने होगे, यही ब्रह्मत्व प्राप्त कराएगा। 


शांति संग्राम का परिणाम है।  (Peace is the result of struggle.)


महान दार्शनिक श्री प्रभात रंजन सरकार ने कहा है कि शांति संग्राम का परिणाम है। संग्राम का अर्थ युद्ध अथवा लड़ाई ही नहीं होता है। संग्राम का अर्थ कुव्यवस्था के विरुद्ध सुव्यवस्था का प्रहार है। जब तक कुव्यवस्था रहेगी तब तक सुव्यवस्था स्थापित नहीं होगी। इसलिए सुव्यवस्था को कुव्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करना ही होता है। यह संघर्ष शांति पूर्ण भी हो सकता है तथा शक्ति संचय के द्वार उग्र भी हो सकता है तथा तीव्र शक्ति संपात के द्वारा रक्तरंजित भी हो सकता है। अतः सत्पुरुषों को संघर्ष से दूर नहीं रहना चाहिए। 

सुव्यवस्था जब कुव्यवस्था को पराजित कर देती है तब उसे सुव्यवस्था होने का परिचय देने के लिए समाज की समृद्धि, ऋद्धि एवं सिद्धि को सुनिश्चित करना आवश्यक है। समाज की समृद्धि, ऋद्धि एवं सिद्धि व्यक्ति अथवा नागरिक की समृद्धि, ऋद्धि एवं सिद्धि में निहित है। व्यक्ति राष्ट्र के प्रति तब तक समर्पित रहेगा, जब तक राष्ट्र अथवा समाज उसके अभिभावक के रूप में सामाजिक आर्थिक संरक्षण प्रदान करता है। अतः व्यक्ति राष्ट्र के लिए है तथा राष्ट्र व्यक्ति के लिए है। इस बात को भूले बिना नहीं चल सकता है। 

जब सुव्यवस्था व्यक्ति की समृद्धि, ऋद्धि एवं सिद्धि के लिए चिन्तन करता है तब उसे सबसे पहले सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्र में जो असंतुलन दिखाई देता है, उसे खत्म करना चाहिए। व्यक्ति के सामाजिक एवं आर्थिक गतिविधियों के क्षेत्र अलग-अलग होंगे तब तक असंतुलन बना रहेगा, जब यह असंतुलन खत्म कर दिया जाएगा तब सुव्यवस्था का शुभारंभ होगा। सरल शब्दों में समझा जाए तो व्यक्ति की जन्मभूमि एवं कर्मभूमि में पार्थक्य नहीं होना चाहिए। जो जन्मभूमि है वही व्यक्ति की कर्मभूमि भी हो, यह सुव्यवस्था का प्रथम सूत्र है। जब व्यक्ति की जन्मभूमि एवं कर्मभूमि में पार्थक्य है तब तक व्यक्ति दोहरी जिन्दगी जीनी पड़ती है। दोहरी जिन्दगी किसी के लिए लाभप्रद नहीं होती है। अतः व्यक्ति को रोजगार मातृभूमि पर ही मिले, यह सफलता एवं सुव्यवस्था का प्रथम सूत्र है। मातृभूमि के संसाधनों, प्रशासनिक व्यवस्था एवं राजनैतिक व्यवस्था पर स्थानीय लोगों का ही प्रतिनिधि होना चाहिए। यही से सुव्यवस्था अपने द्वार को खोलती है। 

सुव्यवस्था का द्वितीय सूत्र स्थानीय लोगों की न्यूनतम आवश्यक को पूर्ण करना व्यक्ति का नहीं सम्पूर्ण समाज का दायित्व है। जब तक रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा एवं शिक्षा के लिए व्यक्ति मारामारा घूमता रहेगा तब तक सुव्यवस्था नहीं बन सकती है। अतः व्यक्ति को राष्ट्र की ओर क्रयशक्ति का मूल अधिकार मिलना चाहिए। कम से कम इतनी न्यूनतम आय प्राप्त करने का व्यक्ति को मूल अधिकार है कि वह अपने अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा की व्यवस्था कर सके। 

सुव्यवस्था का एक ओर संदेश है कि जिस देश में चिकित्सा एवं शिक्षा का व्यवसायीकरण होता है। चिकित्सा एवं शिक्षा बिकती है, वह देश कुछ भी हो सकता है लेकिन महान एवं विश्व गुरु नहीं हो सकता है। भारतवर्ष इतिहास में महान था तथा विश्वगुरु था, उसके तीन आधार थे, शिक्षा एवं चिकित्सा का बाजार नहीं सजता था, रोटी, कपड़ा, मकान के लिए व्यक्ति मारामारा नहीं घूमता था तथा समाज में आध्यात्मिक नैतिकतवान व्यक्ति को प्रभुत्व था। 

अतः सभी सोचना चाहिए कि यदि राष्ट्र उपरोक्त दिशा में चल रहा है तो सुरक्षित हाथों में है, अन्यथा राष्ट्र को सुरक्षित हाथों में होना चाहिए। इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को सुरक्षित हाथ ढूंढ़ना चाहिए।



✒️करण सिंह शिवतलाव की कलम से

सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है।                           (Only Sadvipra is the future of the world.)

                     आनन्द किरण
विश्व जिस द्रुतगति से आगे बढ़ रहा है, उस देखकर ही पता चलता है कि उस संभालने वाले व्यक्ति को साधारण व्यक्ति से कुछ विशेष ही नहीं अति विशिष्ट होना आवश्यक है। इस धरा का यह अति विशिष्ट व्यक्ति सद्विप्र है। जिसमें एक साथ शूद्रोचित्त सेवा, क्षत्रियोचित वीरता, विप्रोचित बौद्धिकता एवं विश्योचित्त कौशल है। यह यही नहीं रुकता इसमें आध्यात्मिक नैतिकता एवं पाप का दमन करने का भाव निहित है। अतः 'हमें सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है', विषय पर अवश्य ही चर्चा करनी चाहिए। 

विश्व भौतिक दृष्टि से वसुधैवकुटुम्बकम् में परिणत हो गई है, मानसिक स्थिति उसे वसुधैवकुटुम्बकम् से दूर रखकर बैठी है। जब मनुष्य यह बौद्धिक स्थित खत्म हो जाएगी तब वह मानवता से अपना नाता जोड़ेगा तथा अपना बौद्धिक दिवालियापन त्याग कर मन से मन जोड़ देगा। इसलिए अधिक से अधिक विश्व नागरिक बनाने की आवश्यकता है। इस महायज्ञ में आहुति तभी पडेगी, जब मनुष्य सद्विप्र के बारे में समझेगा। यद्यपि कौशल का सम्मान है तथापि आज का युग ऑलराउंडर व्यक्ति है। सद्विप्र एक ऐसा ही व्यक्तित्व है, जो कला कौशल, बौद्धिक क्षमता, शारीरिक बल एवं सेवा को एकसाथ धारण किया हुआ है, जो समय आने पर सभी प्रादर्श की भूमिका निभा सकता है। सद्विप्र यहाँ तक नहीं रुकता है, उसके अंदर व्याप्त आध्यात्मिक नैतिकता एवं शोषण के विरुद्ध अविराम संघर्ष का भाव उसे अतिविशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान करता है। उसे व्यक्ति कप्तान कहा जाता है। अपनी टीम को नेतृत्व, प्रशासन एवं गुणवत्ता देने के टीम का गुरुत्व बिन्दु बन जाता है। ठीक उसी प्रकार सद्विप्र भी समाज चक्र का प्राण केन्द्र है। इसलिए सद्विप्र के अध्याय में तीन शब्द का अध्ययन किया जाता है। सद्विप्र नेतृत्व, सद्विप्र राज एवं सद्विप्र समाज। आज हम तीनों बिन्दुओं को समझकर 'सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है' विषय को पूर्णता प्रदान करेंगे। 

 
समाज का पहला प्रश्न है कि हमारा नेता कैसा हो? उसका उत्तर है - सद्विप्र नेतृत्व। नेता जब तक नीति निपुण, आध्यात्मिक एवं शोषण के विरुद्ध संग्रामशील मानसिकता नहीं होगा तब नेतृत्व सत्ता एवं शक्ति के मद में मदहोश होकर अपने दायित्व को अपने सांसारिक ऐश्वर्य में लेकर समाप्त हो जाएगा। अतः नेतृत्व का सद्विप्र होना आवश्यक है। 


समाज का द्वितीय प्रश्न है कि हमारा राज कैसा हो? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है - सद्विप्र राज। जिस प्रकार सद्विप्र नेतृत्व समाज की आत्मा थी, उसी प्रकार राज समाज का मुखमंडल है। यदि वह कुपात्र से निर्मित होगी तो राजव्यवस्था रसातल में चली जाएगी, इस विपरीत राजव्यवस्था में सुपात्र का स्थान होगा तब धरती पर स्वर्ग दिखाई देने लगेगा। आज की अवस्था का मूल कारण है राजव्यवस्था में सद्विप्र का स्थान नहीं होना है। मनुष्य अपने अंहकार तथा स्वार्थ में बहकर राजव्यवस्था को बिगाड़ दी है। इसलिए सद्विप्रों का राज जगत में आवश्यक है। 

सद्विप्र समाज   (sadvipra society) 
समाज का तृतीय प्रश्न है कि हमारा समाज कैसा है? उत्तर है - हमारा समाज सद्विप्र समाज है। न केवल नेता अथवा राजशक्ति में काम करने वाले व्यक्ति ही सद्विप्र नहीं होंगे अपितु सम्पूर्ण समाज ही सद्विप्र होगा। जब समाज में अच्छे व्यक्ति बनाने की व्यवस्था नहीं होती है तब समाज अपने मूल अर्थ में चरितार्थ नहीं होता है। अतः समाज का स्वरूप सद्विप्र के बिना संभव नहीं है। सबका साथ, सबका विकास मात्र राजनैतिक नारा ही नहीं एक समाज की संरचना है, जो जातिधर्म एवं प्रदेश के बंधन से उपर सर्व भवन्तु सुखिनः में परिणत है। यह सद्विप्र समाज के बिना संभव नहीं है। 

पुनः विषय की ओर लौटते हैं। सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है। समाज को सद्विप्र नेतृत्व, सद्विप्र राज एवं सद्विप्र समाज की आवश्यकता है तब विश्व का भविष्य सद्विप्र को छूए बिना कैसे रह सकता है। यदि विश्व तथा वैश्विक समाज को बचाना है तो सद्विप्र नेतृत्व, सद्विप्र राज एवं सद्विप्र समाज की आवश्यकता है। अतः बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है। 

                 सद्विप्र कौन?  
             (Sadvipra who?

- जो प्रश्न विषय के प्रथम बिन्दु पर ही आना चाहिए था, वह बिन्दु विषय के अन्त में लेने का कारण है कि भूख लगे बिना भोजन दे देना भोजन के महत्व को चिन्हित नहीं करता है। अतः सद्विप्र कौन प्रश्न का उत्तर देने का ही वक्त है। 


इसका अर्थ है: "जन्म से सभी शूद्र होते हैं, लेकिन संस्कार से द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) बनते हैं। वेद के अध्ययन से विप्र (शिक्षित) और ब्रह्म को जानने से ब्राह्मण बनते हैं". 


भावार्थ‌ 
जन्म से सभी मनुष्य शूद्र होते हैं। अतः समाज शूद्र के आलावा कोई भी कौशल जन्म नहीं लेता है। उस निर्माण किया जाता है। जो व्यक्ति यह कहते हैं कि ब्राह्मण, विप्र, क्षत्रिय, वैश्य, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, यहुदी इत्यादि जन्म लेते हैं तो वह मिथ्या बोल रहा है। केवल एवं केवल शूद्र ही जन्मता है। उसका कर्म ही उसे वैश्य, क्षत्रिय इत्यादि में परिणत करता है। श्लोक कहता है कि यद्यपि जन्म से सभी शूद्र है, लेकिन संस्कार उसे दूसरा जन्म देकर द्विज बनाता है। संस्कार आते ही वह कौशल से शूद्र, क्षत्रिय, विप्र एवं वैश्य होने पर भी एक मनुष्य के रूप द्विज बनाता है। यदि संस्कार नहीं है तो कर्म कौशल के अनुसार आर्थिक श्रेणी में चला जाएगा लेकिन सच्चरित्र नहीं बन पाता है। अतः द्विज बनने के लिए संस्कार का होना आवश्यक है‌। श्लोक तृतीय में कहा गया है कि वेद का ज्ञान अर्थात आत्मज्ञान, अपौरुषेय ज्ञान प्राप्त करने से वह विप्र बन जाता है। विप्र का विशेष प्रज्ञा युक्त व्यक्ति। अन्त में कहा गया ब्रह्म को जानने वाला ही ब्राह्मण है। जब ऐसे व्यक्ति समाज के सामाजिक आर्थिक संगठन पर अपनी निगाहे केन्द्रित करते हैं तब सद्विप्र बनकर समाज में सत्य विप्र है, वह कभी भी जातिगत, वंशगत, कुल, गोत्र, सम्प्रदाय से बंधित अथवा निर्मित नहीं होते हैं। उसकी एक मात्र पहचान मनुष्य, मनुष्य एवं मनुष्य है। उसका लक्ष्य ब्रह्म संप्राप्ति एवं जगत सेवा है। अतः सद्विप्र को यम नियम में प्रतिष्ठित भूमाभाव साधक बताया गया है। जो सदैव धर्म प्रतिष्ठा में लगा रहता है।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता बनाम प्राकृतिक बुद्धिमत्ता ( AI vs NI)
कृत्रिम बुद्धिमत्ता बनाम प्राकृतिक बुद्धिमत्ता
(Artificial Intelligence vs. Natural Intelligence) 
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            करण सिंह
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आजकल AI ने तहलका मचा रखा है। यह बहुत से पब्लिक सेक्टर में प्रवेश करने के कारण NI को चुनौती मिलने जा रही है। इसलिए AI को लेकर चिंता भी है तो खुशी भी जाहिर की जा रही है। हमें धरा के भविष्य के विषय में चिन्तन करना है। इसलिए इस विषय को चर्चा में लाया जा रहा है।

धरातल पर रहने वाले सभी लोगों के अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा की व्यवस्था करना समाज उत्तरदायित्व है। यदि समाज इस उत्तरदायित्व का निवहन नहीं करता है तो उस समाज कहलाने का अधिकार नहीं है। अतः मनुष्य को घबराने की जरूरत नहीं है, AI के हस्तक्षेप से समाज उनकी रक्षा करेंगे। इसलिए AI पर बुद्धि लगाने से अधिक महत्वपूर्ण कार्य समाज का संगठन करना है। यह NI का AI को प्रथम जबाब होगा। वह एक ऐसे प्रगतिशील समाज की रचना करेगा, जो मनुष्य की न्यूनतम आवश्यक की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेगा तथा मनुष्य उसकी गुणवत्ता निखारने का पूर्ण अवसर देता है। 

पूर्णत्व प्राप्त करना, मनुष्य का का प्रथम कर्तव्य है। इसके मनुष्य को आध्यात्मिक पथ पर चलना होगा। AI के युग में मनुष्य को मिलने वाली सुविधाओं का फायदा लेते हुए अपने को आत्मिक पथ पर ले चलना होगा, यह NI को AI का दिया जाने वाला एक ओर अच्छा जबाब है। अतः AI से घबराएं बिना, उसको अपना सहायक मानकर अपने को आध्यात्मिक शक्ति से भर लेना होगा। AI एक यांत्रिक मानसिक शक्ति है। मानसिक शक्ति को आध्यात्मिक शक्ति द्वारा नियंत्रित की जाती है। चूंकि AI एक यांत्रिक मानसिक, उसका नियंत्रण मनुष्य की विशेष मानसिक शक्ति से ही हो रहा है। जब यह उसकी सीमा से पार हो जाएगा, तब आध्यात्मिक शक्ति AI को भी नियंत्रित कर लेगी। अतः मनुष्य की बुद्धिमत्ता यह है कि AI को चुनौती माने बिना AI का सांसारिक कार्यों में अधिकतम सहयोग लेते हुए अपने को अधिक से आध्यात्मिक जगत की ओर ले चलना है।

मानवीय संवेदना को संजोय रखना मनुष्य का स्वभाव है। इनको जीवन निर्माण लगाकर इसका सदुपयोग करना मनुष्य का कर्तव्य भी है। यह संवेदना शक्ति उसे सजग भी बनाती है। उसके बल पर वह नैतिकता में प्रतिष्ठित होता है। नैतिकता का पथ मनुष्य पकड़ रखना है तथा देखना है कि समाज एवं विज्ञान की व्यवस्था कभी भी अयोग्य लोगों के हाथों में नहीं चली जाए। यह व्यवस्था देकर AI का पूर्ण नियंत्रण सद्चरित्र व्यष्टियों के हाथ में देना ही होगा ताकि AI का कोई भी MI दुरूपयोग नही कर सकें। अतः अपनी संवेदना को अपनी दुर्बलता नहीं बनानी, उसे अपनी शक्ति बनाकर AI के काल्पनिक एवं सैद्धांतिक भय को कभी भी यथार्थ नहीं बनने देना है। 

AI कभी भी मानवीय बुद्धिमत्ता (HI) से बढ़कर नहीं होती है। मनुष्य के अंदर तो ईश्वर बुद्धिमत्ता (GI) का जागरण करने की क्षमता है। अतः कभी AI, NI से प्रभावशाली नहीं हो सकती है। AI के पास सीमित शक्ति स्रोत है, जबकि NI के पास असीम शक्ति स्रोत है। अतः सीम कभी असीम पर भारी नहीं हो सकता है। यदि AI मनुष्य की बुद्धिमत्ता को दबोचने की कोशिश करेंगीं तो NI असीम से शक्ति जुटाकर उसे उस प्यास को धूमिल कर देगी।

अन्त में हर AI पर भारी है NI. 
मनुष्य ही अपनी कलाकृति से डरने लगेगा तो उसको मनुष्य होने पर विश्वास नहीं। अतः AI के खेल से बचने के लिए मनुष्य आध्यात्मिक नैतिकता के पथ कर एक प्राकृत अर्थ युक्त एक अखंड एवं अविभाज्य मानव समाज की रचना करनी ही होगी।
हनुमान (Hanuman)
                    
             
           आनन्द किरण
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हनुमान श्री राम को ऋष्यमूक पर्वत की तलहटी में मिलने वाला रामायण का एक पात्र है। जिसे वानरमुखी, अतिबलशाली एवं राम भक्त के रूप में चित्रित किया गया है। इसके बाद कथा कहानियों में हनुमान के जन्म, परिवार एवं पराक्रम का भी चित्रण किया गया है। तत्पश्चात हनुमान को बजरंग बली, पवनपुत्र, मारुति, बालाजी इत्यादि नामों से एक देवता के रूप में पूजा गया है। रामचरितमानस के अनुसार जहाँ भी रामकथा होती है, वहाँ हनुमान पराभौतिक शरीर के साथ पहूँच जाते हैं तथा सच्चे व निर्मल दिल के राम भक्त को दिखते एवं मिलते भी है। यह लोगों की आस्था का प्रश्न है, इसलिए इसका सम्मान करना हम सभी का कर्तव्य है। हम हनुमान पर तो कुछ भी नहीं लिखेंगे लेकिन आध्यात्मिक पर अवश्य ही कुछ लिखना चाहेंगे। 

श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं पंचभूतों की पूजा करने वाला पंचभूतों को, वृक्ष इत्यादि प्रकृति की पूजा करने वाला प्रकृति को, देवी देवता की पूजा करने वाला देवयोनी को तथा मुझ परमब्रह्म का ध्यान करने वाला मूझे प्राप्त होता है। गीता का यह दृष्टांत आध्यात्मिक शास्त्र के विद्यार्थियों को सिखाता है कि परमब्रह्म के अतिरिक्त कोई भी मनुष्य का ध्येय नहीं है। अत: आध्यात्मिक विज्ञान मनुष्य के कल्याण के लिए परमब्रह्म का ध्यान करने हेतु ध्यान सिखाता है। यहाँ थोड़ा रुककर रामायण के हनुमान जी को ध्येय मानने वाले भक्तों से प्रश्न करते हैं कि हनुमान का ध्यान करना स्वयं श्री कृष्ण के गीता उपदेश का महात्म्य नहीं समझना नहीं है? क्योंकि हनुमान रामभक्त थे? उन्हें शिव का ग्यारहवाँ रुद्र मानने पर भी पूर्णब्रह्म में स्थापित नहीं किया जा सकता है। यह एक अंशावतार ही है। अतः खंड़ पूजा भारतीय शास्त्र की गरिमा में पूर्णत्व प्रदान करने वाली नहीं है। अतः हनुमान जी पूजा से राम मिलना एक गवेषणा को जन्म देता है। गीता कहती है कि देवताओं की पूजा से परमब्रह्म नहीं प्राप्त होते हैं तो हनुमान की पूजा से राम कैसे मिलते हैं? क्योंकि राम तो परमब्रह्म का ही एक नाम है, जो योगियों के हृदय में सदैव रमता है। मैंने पहले ही लिखा है कि हनुमान आपकी आस्था है, इसलिए मैं आपकी आस्था का सम्मान करता हूँ। लेकिन आध्यात्मिक को समझने की अवश्य ही कोशिश करूँगा। इसीक्रम में हनुमान जी का प्रसंग आता है। 

हनुमान शब्द का शाब्दिक अर्थ विकृत ठुड्डी वाला पुरुष है। इस अर्थ में क्या हम विकृत ठुड्डी वाले सभी मनुष्यों को हनुमान कह सकते हैं? चलो इस प्रश्न को अनुत्तरित ही छोड़ देते हैं तथा अन्य नामों की ओर से चलते हैं। हनुमान का मूल नाम मारुति बताया जाता है, जिसका मरुत तत्व से उत्पन्न देव है। माइक्रोविटा विज्ञान में देवयोनी शब्द के लिए अणुजीवत शब्द का प्रयोग आता है। अणुजीवत एवं देवयोनी दोनों ही शब्द का अर्थ तेज, मरु एवं व्योम तत्व से निर्मित शरीर के लिए प्रयोग हुआ है। मरुत तत्व एक पंचमहाभूत का अंग है। उससे उत्पन्न देव सहस्त्रारचक्र के अधिष्ठाता परमशिव पुरुषोत्तम तक कैसे ले जा सकता है? क्योंकि वह स्वयं ही मरुत ही है, जिसका सीमा अनाहत चक्र ही है। आध्यात्मिक जगत का प्रश्न है इसलिए सभी को सोचना है। चलो थोड़ा ओर आगे बढ़ते हैं, हनुमान का एक ओर नाम बजरंगबली भी है। जिसका अर्थ ब्रज की तरह शरीर वाला अर्थात कठोर शरीर वाला अथवा बाहुबल वाला। यह भौतिक जगत की व्याख्या है। आध्यात्मिक विज्ञान के विद्यार्थी को भौतिक विज्ञान अवश्य ही पढ़ना होता है लेकिन भौतिक विज्ञान कभी भी आध्यात्मिक यात्री का लक्ष्य नहीं होता है। रुहानी यात्रा में निकले राही को शरीर का ध्यान रखकर चलना ही होता है लेकिन रुहानी मंजिल ही उनका लक्ष्य होता है। इसलिए बजरंगबली की उपासना कैसे है, रुहानी मंजिल दिखा सकती है? महावीर एवं पवनपुत्र क्रमशः बजरंगबली एवं मारुति के ही पर्याय है। इसलिए चर्चा आवश्यक नहीं है। 

हनुमान जी की चर्चा के आगामी चरण में हनुमान के चिरंजीवीत्व पर चलते हैं। हनुमान भारतीय शास्त्र के चिरंजीवी व्यक्तियों में से एक है। चिरंजीवी का अर्थ है कि अमुक्त पुरुष अर्थात मोक्षप्राप्त नहीं। अर्थात पूर्ण पुरुष नहीं। अतः पूर्णत्व का साधक के आराध्य चिरंजीवी कैसे हो सकता है? परशुराम एक मात्र विष्णु की संभूति है कि विष्णु बनकर नहीं ऋषि बनकर चिरंजीवीत्व प्राप्त करते हैं, क्योंकि मर्यादापुरुषोत्तम राम के युग में अवतारत्व को छोड़ देते हैं। इसलिए परशुराम को देव पुरुष में मानकर पढ़ा जाता है। 

हनुमान के प्रति जिनकी भी आस्था है, मैं उनका आदर करते हुए आध्यात्मिक विज्ञान की चर्चा की है। उसमें मेरा उद्देश्य आध्यात्मिक ज्ञान को समझना था। आध्यात्मिक ज्ञान में शिक्षा दी जाती है कि इस जगत में रहकर किस‌ प्रकार अनन्त की यात्रा में निकलेंगे।? इसलिए अनन्त के अलावा कोई भी मनुष्य का ईष्ट एवं आदर्श नहीं हो सकता है। यही धर्म है। जहाँ धर्म है, वही ईष्ट है। ईष्ट तारकब्रह्म ही है।
 यत्र - तत्र - सर्वत्र (here-there- everywhere)

          
        आनन्द किरण की कलम से
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परमात्मा के बारे में कहाँ जाता है कि वह यहाँ, वहाँ एवं सभी जगह है। फिर भी मनुष्य उन्हें खोजता ही आ रहा है। मनुष्य की इस खोज को समझने के लिए आज हम यत्र - तत्र - सर्वत्र विषय लेकर आए हैं। 

                    यत्र (Here) 
               (परमात्मा यहाँ है?) 
सबसे पहले कहाँ गया कि परमात्मा यहाँ है। यह सभी को अपने पास बुलाता है। कहता है कि कहीं जाने की जरूरत नहीं है। परम पुरुष यहाँ है, क्योंकि यहाँ धर्म है। इसलिए कहा जाता है - "यतो धर्म: ततो कृष्ण:।" अतः परम पुरुष को यहाँ रखने के लिए धर्म को यहाँ रखना आवश्यक है। धर्म के विषय में शास्त्र कहा है कि धर्मो रक्षति रक्षितः अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी रक्षा धर्म भी करता है। परमपुरुष का निवास स्थान धर्म को बताया गया है। यद्यपि भक्ति शास्त्र में बताया जाता है - 
"नाहं तिष्ठामि वैकुंठे योगिनां हृदये न च। 
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद:।।" 
परमपुरुष कहते हैं कि मेरे भक्त जहाँ मेरे नाम का संकीर्तन करते हैं, मैं वही रहता हूँ। मेरे निवास स्थान के संदर्भ में बैंकुठ, योगियों का हृदय इत्यादि कहा जाता है, वह बिल्कुल गलत है। आज हमारा विषय उक्त श्लोक की समालोचना करना नहीं है। इसलिए इस पर विस्तार से चर्चा नही करेंगे लेकिन 'मदभक्ता' शब्द को अवश्य ही समझेंगे - मदभक्ता माने परमपुरुष के भक्त। तो परमपुरुष भक्त कौन? क्या अनैतिक, दुराचारी एवं अधर्मी यदि संकीर्तन करते हैं तो परमपुरुष का प्राण केन्द्र वहाँ होता है? उत्तर - नहीं,कदापि नहीं। केवल परमपुरुष के भक्त गाएंगे, वही परमपुरुष हैं। परमपुरुष के भक्त अर्थात परमपुरुष के बताये सिद्धांत को मानकर चलने वाले, आध्यात्मिक नैतिकवान, यम नियम, षोडश विधि व पंशदशशील पर चलने वाले तथा सत्याश्रयी क्योंकि परमपुरुष सत्य है। इससे स्पष्ट होता है कि सत्य, नीति एवं न्याय को जिसने आत्मसात किया है, वह ही परमपुरुष का भक्त है। इसलिए तो परमपुरुष का भक्त बनने के लिए धर्म का वरण करना आवश्यक है। यदि धर्म का वरण नहीं कर, केवल परमपुरुष का कीर्तन करने से कोई यह दावा करें कि मेरे कीर्तन की वाणी में परमपुरुष है तो उसका दावा बिल्कुल खोखला अथवा चराचर झूठा है। परमात्मा का भक्त बनने के लिए धर्म का वरण करना ही होता है। अतः परमपुरुष मेरे पास यानि यत्र निवास करते हैं, कहने से पहले अपने पास धर्म को स्थापित करना ही होता है। इसलिए तो गुरुदेव कह गए हैं कि 'मेरा नहीं, मेरे आदर्श का प्रचार करो'। जहाँ श्री श्री आनन्दमूर्ति जी का आदर्श है, वही तो आनन्दमूर्ति का निवास स्थान है। आदर्श से विमुख व्यष्टि अथवा व्यष्टि का समूह के अपने पास परमपुरुष की कृपा वर्षा होने का कथा-कीर्तन कहते करते हैं, वे मायवी, ठगी तथा धूर्त हैं। जिससे भक्त समाज को सावधान रहना चाहिए। यत्र शब्द का अर्थ स्पष्ट हो गया है कि परमपुरुष जहाँ धर्म है, वहाँ निवास करते हैं। 

                  तत्र (there) 
              (परमात्मा वहाँ है
इदं तीर्थमिदं तीर्थ भ्रमन्ति तामसा: जना:।
आत्मतीर्थं न जानन्ति कथं मोक्ष वरानने।।

यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ तीर्थ के लिए भटकने वाले 'यत्र' नहीं 'तत्र' कह कर संबोधित करते हैं। शास्त्र में इन्हें तामस स्वभाव का व्यक्ति कहते हैं। उसके पास धर्म नहीं है, इसलिए तीर्थाटन पर तीर्थाटन किये जा रहा है। वह कभी यहाँ, मेरे में परमपुरुष होने का दावा कभी भी नहीं जता सकता है। इसलिए परमपुरुष की खोज में इधर उधर भटकता रहता है। शास्त्र तो कहता है कि आत्म को तीर्थं नहीं जानने वाला, मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है। यह लोग सदैव धर्म से दूर रहते हैं। अतः इनसे सावधान रहने की आवश्यकता है। धर्म प्रचार के उद्देश्य के अलावा यहाँ, वहाँ परमपिता की खोज में घूमता है, वह कदापि आनन्दमूर्ति को नहीं पा सकता है। जो धर्म को धन-यश एवं पद-प्रतिष्ठा इत्यादि से तौलता है, वह कभी परमपुरुष का थाह प्राप्त नहीं कर सकता है। मैं, तत्र कहने वाले सभी को अधर्म के राही नहीं कह सकता हूँ लेकिन परमपुरुष के विश्वास पर कह सकता हूँ कि उनके पास धर्म नहीं है, इसलिए उनके पास परमपुरुष भी नहीं है। जब तक अपने को साधना शक्ति तथा भक्ति की पुष्ट नहीं करोंगे तब तक मृगतृष्णा में यत्र तत्र भटकते रहोगे। कोई तंत्र पीठ परमपुरुष नहीं मिला सकती है, जब तक भक्त के भक्ति एवं साधना शक्ति नहीं है। इधर उधर भजन-कीर्तन, कथा-प्रवचन, सिद्ध-तंत्रपीठ की खोज में इत्यादि की खोज में भटकने की आवश्यकता नहीं है। प्रभु हमारे घट में है। धर्मचक्र अवश्य ही साधकों का समागम है। अतः धर्मचक्र में उपस्थित देना साधक का कर्तव्य है। इसके लिए स्वयं में ईश्वर प्रणिधान करना आवश्यक है। धर्म प्रचार के अतिरिक्त यहाँ वहाँ माया तथा छाया की चाह में रहने वाले ही तत्र कहते हैं। 

       (सभी जगह परमात्मा है।)

परमपुरुष के बारे में सबसे लोकप्रिय उक्ति हैं - परमपुरुष सर्वत्र हैं, सर्वव्यापी हैं, सबकुछ है। इसलिए सर्वत्र को समझना आवश्यक है। यद्यपि यह सत्य है कि परमपुरुष सर्वत्र हैं तथापि परमपुरुष का सर्वत्र अनुभव वही कर सकता है, जिसने परमपुरुष को अपना बनाया है। अन्यथा तो यत्र तत्र के भ्रम में ही रहता है। अतः सर्वत्र परमपुरुष की अनुभूति करने के लिए ब्रह्म भाव में प्रतिष्ठित होना होता है। इसलिए शास्त्र कहता है -
उत्तमो ब्रह्म सद्भाव, मध्यमा ध्यानधारणा।
जपस्तुति स्यादधमा, मूर्तिपूजाधमाधमा।।’’ 
केवल ब्रह्म सद्भाव का साधक ही सर्वत्र परमपुरुष की अनुभूति करता है। इसके अभाव में 'तु-तु मैं-मैं' में बटकर रह जाता है, आपस में ईश्वर एवं धर्म के नाम लड़कर मर जाता है। इसलिए गुरुदेव अपने शिष्यों को गुटबाजी के दलदल से दूर रहने की शिक्षा देते हैं‌। वह समाज को संगच्छध्वं‌ में प्रतिष्ठित करते हैं लेकिन गुटबाजी से दूर रहने की शिक्षा देते हैं। संगच्छध्वं‌ वही गा सकता है, सुना सकता है, जो सर्वत्र परमपुरुष को देखना जानता है, मानता है तथा देखता है। जो व्यक्ति पद प्रतिष्ठा एवं पैसों की दौड़ में रहता है, उसके जुबान में संगच्छध्वं‌ की ध्वनि फीकी, कमजोर एवं मायवी दिखती है। वह सदैव डरता-डरता फिरता है। 'भक्तस्य भगवान्' कथन को समझने वाला ही 'सर्वत्र' को समझ सकता है। भक्ति = कर्म - ज्ञान, जो व्यवहारिक नहीं, वह भक्त नहीं, साधक नहीं। सैद्धांतिक लोग थोथा चणा बाजे घणा है। ऐसे लोग वाक विप्लवी कहलाते हैं। यह लोग सुविधा भोगी होते हैं। अतः सुविधा ही जिनकी चाहत है, वे सर्वत्र को नहीं समझ सकते हैं। 

यत्र-तत्र-सर्वत्र विषय यही कहता है कि संगच्छध्वं‌ की चाल में परमपद है लेकिन गुटबाजी के फंदे में पतन का गर्त है। गुटबाजी के मायाव्यूह को तोड़कर संगच्छध्वं‌ के मंत्र में प्रतिष्ठित होकर चलना ही अपने में तथा सर्वत्र परमपुरुष का अनुभव करता है। जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्रवाद, राष्ट्रवाद, प्रदेशवाद, रिलिजनिज्म, मजहबवाद एवं गुटबाजी में ईश्वर नहीं है। ईश्वर धर्म में है। जो धर्म का निवहन न करके आकाओं को खुश करने में रहता है, वह ईश्वर की छाया भी नहीं पा सकता है, थाह तो बहुत दूर की बात है। वह अपने धर्म के चौले का सम्मान भी नहीं कर सकता है।
      प्रउत  - विचारधारा एवं आंदोलन              (Prout - Ideology and Movement)
            
                
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            आनन्द किरण
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सामाजिक आर्थिक दर्शन एवं व्यवस्था प्रउत के स्थापना की जिम्मेदारी प्राउटिस्ट यूनिवर्सल (PU) की है। यह आनन्द मार्ग प्रचारक संघ के जनसम्पर्क सचिव (PRS) के निर्देशन में चलने वाली एक संस्थान है। PU अपना काम पंच फेडरेशन एवं समाज आंदोलन के द्वारा आगे बढ़ाएगा। प्रउत प्रणेता ने PU की जिम्मेदारी पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं (WTs) पर डाली है जबकि पंच फेडरेशन एवं समाज आंदोलन की जिम्मेदारी गृही कार्यकर्ताओं पर डाली है। PU कोई भी प्रत्यक्ष पब्लिक कार्यक्रम नहीं करता है। उसके कार्यक्रम पंच फेडरेशन अथवा समाज आंदोलन के माध्यम से संपन्न होते हैं। अतः PU के ऊपर फेडरेशन को नियंत्रित, नियमित एवं निर्देशित करने की जिम्मेदारी है। लेकिन किसी भी प्रकार से फेडरेशन अथवा समाज आंदोलन के पब्लिक कार्यक्रम में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से भाग लेने का दायित्व, अधिकार एवं जिम्मेदारी PU की नहीं है। प्रउत प्रणेता के आंदोलन की पृष्ठभूमि, रुपरेखा एवं दिशानिर्देश से ज्ञात होता है कि PU की एक मात्र जिम्मेदारी फेडरेशन तथा समाज आंदोलन के लिए कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देना तथा आंदोलन के लिए तैयार करना है। यहाँ आकर PU की जिम्मेदारी प्रथम दृष्टया समाप्त हो जाती है। आगे की जिम्मेदारी, उत्तरदायित्व एवं नेतृत्व करने का कार्य फेडरेशन एवं समाज आंदोलन के कार्यकर्ताओं का है। अतः PU के कार्यकर्ताओं को पर्दे पर न आकर पर्दे के पीछे रहकर फेडरेशन एवं समाज आंदोलन को संसाधन उपलब्ध कराने का कार्य दिया गया है। यह PU की द्वितीय जिम्मेदारी एवं भूमिका है। अतः पब्लिक कार्यक्रम से PU के कार्यकर्ताओं को फेडरेशन एवं समाज आंदोलन दोनों ही कार्यक्रम में आगे नहीं आना चाहिए। PU के कार्यकर्ताओं के लिए यह त्याग की परिभाषा स्वयं प्रउत प्रणेता के प्रउत विचारधारा एवं आंदोलन की अवधारणा में स्पष्ट झलकता है। प्रउत की विचारधारा नेतृत्व का दायित्व सद्विप्र बोर्ड को देता है। वही भविष्य में समाज का नेतृत्व, निदेशन एवं नियमन करेगा। एक सद्विप्र को आदर्श गृहस्थ होना आवश्यक है। यह चर्याचर्य के भुक्ति प्रधान चुनाव प्रक्रिया के अवलोकन की ओर ले जाता है, जहाँ सदविप्र अपने बीच में से एक भुक्ति प्रधान चुनेंगे। भुक्ति प्रधान आचार्य व तात्विक नहीं भी हो सकता है लेकिन एक शिक्षित गृही होना आवश्यक है। अर्थात सद्विप्र की परिभाषा में सम्पूर्ण खरा कार्यकर्ता गृही हैं। अर्थात सद्विप्र शब्द गृही कार्यकर्ताओं के लिए ही है। सैद्धांतिक दृष्टि से सन्यासी सद्विप्र शब्द की परिभाषा से ऊपर एवं अलग है। अब आंदोलन की ओर दृष्टि ले जाते हैं तो आंदोलन के दोनों ही अंग फेडरेशन एवं समाज आंदोलन गृहस्थ को लेकर तैयार होते हैं। इसलिए सन्यासियों की अवहेलना किये बिना गृहस्थों को प्रउत के लिए कमर कसनी ही होगी। PU के पदाधिकारियों (WTs) का काम प्रउत के आंदोलनकारियों को प्रशिक्षण देना है तथा गृहियों का काम इसे मूर्त रुप देना है। 

पंच फेडरेशन - विद्यार्थी, युवा, मजदूर, किसान एवं बुद्धिजीवी संघ सरकारी, अर्द्ध सरकारी, गैर सरकारी एवं निजी संस्थानों से समन्वय बनाकर तथा साथ चलकर सम्पूर्ण व्यवस्था को प्रउत आधारित बनाने की मांग को बुलंद करेगा तथा दबाव बनाकर अथवा सीख देकर चलने के लिए तैयार करेगा। यह सभी कार्य पंच फेडरेशन के कार्यकर्ताओं को ही करना होगा। इसलिए यथासंभव गृही का ट्रेड नहीं बदलता है। 

समाज आंदोलन - समाज को नूतन व्यवस्था देने का काम सामज आंदोलन का है। यह प्राउटिस्ट सर्व समाज समिति एवं सामाजिक आर्थिक इकाइयों के माध्यम से प्रउत आधारित व्यवस्था उपलब्ध कराएगा। यह प्रउत व्यवस्था पर ठीक ढंग से चले इसलिए समाज आंदोलन के भीतर भी समाज की पंच शाखा को स्थापित किया गया है। यह समाज की रचनात्मक इकाइयों को प्रउत के डगर पर स्पष्ट रूप से चलने का प्रावधान देता है तथा डगर से भटकने नहीं देगा। अतः समाज आंदोलन का सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक दोनों ही पक्ष है। शत-प्रतिशत रोजगार की गारंटी के लिए स्थानीय क्षेत्र का औद्योगिक विकास करेगा, कृषि, उद्योग व्यापार इत्यादि को प्रउत आधार पर चलाएगा तथा आंदोलन कर समाज को इस चलने के तैयार करेगा। 

 PSS - PSS सामाजिक आर्थिक इकाइयों को संगठित करने, सहयोग करने एवं समन्वित कार्य योजना तैयार करने के लिए मंच देने का कार्य करेगा। भविष्य में विश्व सरकार एवं राष्ट्रीय सरकारों का स्वरूप भी तैयार करने के लिए PSS की भूमिका है। यह भी शुद्ध गृही संगठन है। 

सद्विप्र - विश्व सरकार, राष्ट्रीय सरकार, राज्य सरकार, जिला, तहसील एवं पंचायत निकाय को नेतृत्व देने के लिए दृढ़ संकल्पित व्यष्टि है। जो यम नियम में प्रतिष्ठित एवं भूमाभाव का साधक होगा। सरकार के नेतृत्व का दायित्व नि:संदेह गृही को ही दिया गया है। सन्यासी वर्ग को प्रउत प्रणेता द्वारा सरकार या सत्ता संचालन से दूर रखा गया है। 

प्रउत की स्थापना की सम्पूर्ण जिम्मेदारी सन्यासी पर होने पर भी वह त्यागमूर्ति के रूप में अवस्थित रहेगा। वह कभी राजभोग अथवा सत्ता सुख नहीं भोगेगा। उन्हें तो सदैव साधना, सेवा एवं त्याग के पथ पर ही चलना है। अतः गृही एवं सन्यासी दोनों ही अपने कर्तव्य एवं भूमिका को समझकर प्रउत की स्थापना में सहयोग दे तथा अपने उत्तरदायित्व का उचित निर्वहन करें। सन्यासी इनडोर तथा गृही आउटडोर आन्दोलन की जिम्मेदारी लें तथा इसे प्रतिफलित करें। यही प्रउत विचारधारा एवं आंदोलन का मूल है।
वैचारिक स्वतंत्रता बनाम वैचारिक प्रदुषण (Ideological freedom versus ideological pollution)

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       [श्री] आनन्द किरण "देव"
     [Shri] Anand Kiran "Dev"
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आज मै हैलमेट लगाकर आया हूँ। क्योंकि भारतवर्ष के राजनैतिक परिदृश्य में कुछ भी अनहोनी हो सकती है। कसूर कुणाल कामरा का टूट गया बेचारा स्टूडियो, उसको तो यह भी पता नहीं है कि मेरा इस्तेमाल क्यों किया गया है। यदि गुस्सा स्टूडियो मालिक से भी था तो उसका क्या दोष, उसका तो व्यापार है। इसलिए आज हर भारतीय को अपनी सुरक्षा का इन्तजाम करे के ही निकलना चाहिए। मैं यहाँ कुणाल कामरा का समर्थन अथवा विरोध करने नहीं आया हूँ। मैं तो भारतवर्ष की वह महान तस्वीर बनाने आया हूँ, जिसके कारण भारतवर्ष वसुधैव कुटुबंकम एवं सर्वे भवन्तु सुखिनः का आदर्श दे पाया। भारतवर्ष की यह तस्वीर निस्संदेह विचारों की हत्या अथवा विचारों के दमन से नहीं बनी है। इस तस्वीर को गढ़ने में दिमाग के खुलेपन एवं वैचारिक क्रांति की आवश्यकता पड़ी थी। इसलिए कहना पड़ता है कि हम विचारों के दमन एवं हत्या कर किस प्रकार विश्वगुरु भारतवर्ष का निर्माण कर पाएंगे। अतः आइये आज हम विचारों के प्रदूषण एवं विचारों की स्वतंत्रता समझ ही लेते हैं। 
(Today I have come wearing a helmet. Because in the political scenario of India, anything can happen. Kunal Kamra's fault is that the poor studio got broken, he does not even know why he was used. If the studio owner was angry then what is his fault, it is his business. Therefore, today every Indian should go out only after making arrangements for his safety. I have not come here to support or oppose Kunal Kamra. I have come to create that great picture of India, due to which India was able to give the ideal of Vasudhaiva Kutumbakam and Sarve Bhavantu Sukhinah. This picture of India is undoubtedly not created by the killing of ideas or suppression of ideas. Openness of mind and ideological revolution was required to create this picture. Therefore, it has to be said that how will we be able to create Vishwaguru Bharatvarsh by suppressing and killing ideas. So let us understand today the pollution of ideas and freedom of ideas.) 

वैचारिक स्वतंत्रता मनुष्य का आभूषण है जबकि वैचारिक प्रदुषण मनुष्यत्व की ग्लानि है। अतः भारतवर्ष को अपने संविधान के अनुच्छेद 19(१) ए में वर्णित वैचारिक स्वतंत्रता को स्पष्ट परिभाषित करने की आवश्यकता है। इसके बिना वैचारिक स्वतंत्रता एवं वैचारिक प्रदुषण के बीच स्थित भेद रेखा को समझना दुष्कर है। मनुष्य को अपने महान विचार के आधार पर अपना संसार बनाने के स्वतंत्रता है लेकिन किस के विचारों के संसार को गिराने अथवा खंडित करने वाले विचारों के आधार पर मनुष्य द्वारा खड़ा किया गया संसार अवश्य ही विचारों की महानता का परिचय नहीं है। इसलिए प्रथम कार्य वैचारिक स्वतंत्रता है तथा द्वितीय कार्य वैचारिक प्रदुषण है। हमें संकीर्णता तथा विध्वंसक की ओर ले जाने वाले विचारों को प्रकट करना वैचारिक प्रदुषण का अंग है। जबकि सर्वांगीणता तथा सृजन की ओर ले जाने वाले विचार वैचारिक स्वतंत्रता है। अतः वैचारिक स्वतंत्रता की एक सीमा रेखा अवश्य खिंची जानी चाहिए। 
(Freedom of thought is the ornament of man, while ideological pollution is the disgrace of manhood. Therefore, India needs to clearly define the freedom of thought mentioned in Article 19(1)A of its Constitution. Without this, it is difficult to understand the line of distinction between freedom of thought and ideological pollution. Man has the freedom to create his world on the basis of his great ideas, but the world created by man on the basis of ideas that destroy or break someone else's world is certainly not an introduction to the greatness of ideas. Therefore, the first task is freedom of thought and the second task is ideological pollution. Revealing the thoughts that lead us towards narrow-mindedness and destruction is a part of ideological pollution. Whereas the thoughts that lead us towards comprehensiveness and creation are ideological freedom. Therefore, a boundary line of ideological freedom must be drawn.) 

किसी को गाली देना, अभद्र भाषा से संबोधित करना तथा अमर्यादित शब्दावली का प्रचलन करना इत्यादि, वैचारिक अभिव्यक्ति के नाम कदापि वैचारिक स्वतंत्रता का अंग नहीं माना जा सकता है, लेकिन किसी के विचारों का विरोध करना, आलोचना करना तथा समालोचना प्रस्तुत करना इत्यादि कदापि वैचारिक प्रदुषण का अंग नहीं बताया जा सकता है। किसी विचारधारा के पक्ष में तथा विरोध में भाषण देना, आंदोलन चलाना अथवा जनमत निर्माण करना वैचारिक स्वतंत्रता का आवश्यक अंग है लेकिन यह कार्य तब वैचारिक प्रदुषण का अंग बन जाता है, जब महान विचारों को अपने संकीर्ण मानसिकता के तले अवैध पद्धति, छल, कपट अथवा बल प्रयोग के द्वारा कुचल दिया जाता है। अतः भारतवर्ष में संवाद की भूमि अवश्य बनानी चाहिए लेकिन ऐसा वाद तैयार नहीं करना चाहिए जिस पर होने वाला विवाद वैमनस्य तैयार कर दे तथा उसमें भारतवर्ष के महान संस्कार ही दम तोड़ दे।
( Abusing someone, addressing them in indecent language and using indecent language etc., in the name of ideological expression can never be considered a part of ideological freedom, but opposing someone's ideas, criticizing them and presenting critiques etc. can never be considered a part of ideological pollution. Giving speeches in favor or against an ideology, running a movement or creating public opinion is an essential part of ideological freedom, but this work becomes a part of ideological pollution when great ideas are crushed under narrow mindset through illegal methods, deceit, fraud or use of force. Therefore, a ground for dialogue must be created in India, but such a debate should not be prepared on which the debate creates animosity and the great values ​​of India die in it.) 

भारतवर्ष की सभ्यता एवं संस्कृति तथा शास्त्र एवं संस्कार वैचारिक स्वतंत्रता के बल पर अपने को महानता के शिखर पर स्थापित किया था लेकिन वह तब महानता के शिखर से गिरकर गर्त की ओर भी गया था, जब उसने मानव-मानव में भेद करने वाले लकीर खिंची थी। किसी को जन्म, लिंग, रंग एवं पेश के आधार हीन मानकर उसका तिरिस्कार किया था अथवा उसका रक्त शोषण किया था। अतः निस्संदेह कहा जा सकता है कि जाति भेदभाव, साम्प्रदायिक द्वेष, रंगभेद, लैंगिक असमानता एवं क्षेत्रवाद की सोच वैचारिक स्वतंत्रता नहीं वैचारिक प्रदुषण है। आतंकवाद, उग्रवाद तथा निरीह जनता को गोलियों से रोंदना इत्यादि वैचारिक स्वतंत्रता नहीं अपितु वैचारिक प्रदुषण है। इससे सृष्ट मनुष्य अवश्य ही समाज के लिए खतरनाक है। अतः वैचारिक स्वतंत्रता की दीवार को सर्वजन हितार्थ, सर्वजन सुखार्थ खड़ा करना चाहिए। जब कभी बहुसंख्यक अल्पसंख्यक, अधिकारवान एवं अधिकारहीन का भाव सृजित होगा तब समाज में एक दूसरे के प्रति विद्वेष सृष्टि होता है। वैचारिक प्रदुषण की ओर लेकर चलती है। अतः बहुजन सुखार्थ, बहुजन हितार्थ धारणा भी समाज में वैचारिक प्रदुषण की ही खाई खोदतती है। अतः समाज को सबके हित में तथा सबके सुख की ओर ले जाना चाहिए। 
(The civilization and culture of India, its scriptures and sanskars established themselves at the peak of greatness on the strength of ideological freedom, but it fell from the peak of greatness to the abyss when it drew a line of discrimination between humans. Considering someone as inferior on the basis of birth, sex, colour and profession, he was despised or exploited. Therefore, it can be said without any doubt that caste discrimination, communal hatred, apartheid, gender inequality and regionalism are not ideological freedom but ideological pollution. Terrorism, extremism and shooting innocent people with bullets etc. are not ideological freedom but ideological pollution. The man created by this is definitely dangerous for the society. Therefore, the wall of ideological freedom should be built for the benefit of all, for the happiness of all. Whenever the feeling of majority and minority, the powerful and the powerless is created, then hatred towards each other is created in the society. It leads to ideological pollution. Therefore, the concept of 'for the welfare of all' also digs a trench of ideological pollution in the society. Therefore, the society should be taken towards the welfare of all and happiness of all.) 

वैचारिक प्रदुषण एवं वैचारिक स्वतंत्रता के विचार को राजनीति के अखाड़े में उतारता हूँ। जिसके लिए हेलमेट लगाकर आया हूँ। भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, भाई भतीजावाद, पद लोलुपता, जोड़तोड़ की राजनीति, तानाशाही, सरकारी एजेन्सियों का दुरूपयोग, वैचारिक दमन, सरकारी धन का दुरूपयोग, राजनैतिक द्वेष को निकालने के गलत रास्ता का उपयोग करना, राजनीति में जातिवाद, साम्प्रदायिकता का उपयोग करना इत्यादि वैचारिक स्वतंत्रता का नहीं वैचारिक प्रदुषण का ज्वलंत उदाहरण है। वस्तुतः अधिकांश वैचारिक प्रदुषण का जन्म यही से होता है। अतः वैचारिक स्वतंत्रता के नाम सरकार बनाने के लिए विधायकों, सांसदों एवं जनप्रतिनिधियों की बाड़ा बंदी अवश्य वैचारिक दिवालियेपन की निशानी है। जो वैचारिक प्रदुषण का अंग है। यह सब महान देश का निर्माण कदापि नहीं कर सकते हैं। अतः राजनैतिक गंद को दूर कर लोकतांत्रिक मूल्यों की ओर देश को ले जाना वैचारिक स्वतंत्रता का प्रतीक है। 

(I bring the idea of ​​ideological pollution and ideological freedom into the arena of politics. For which I have come wearing a helmet. Corruption, bribery, nepotism, greed for power, politics of manipulation, dictatorship, misuse of government agencies, ideological suppression, misuse of government money, using wrong means to vent political hatred, using casteism, communalism in politics etc. are not examples of ideological freedom but of ideological pollution. In fact, most of the ideological pollution is born from here. Therefore, the confinement of MLAs, MPs and public representatives to form a government in the name of ideological freedom is definitely a sign of ideological bankruptcy. Which is a part of ideological pollution. All these can never build a great country. Therefore, removing political filth and taking the country towards democratic values ​​is a symbol of ideological freedom.) 

हास्य विनोद में किसी मिमक्री करना, गंदा मजाक उडाना, अश्लील मजाक करना, मर्यादा रहित व्यंग्य करना अथवा हास्य विनोद के लिए किसी मर्यादा भंग करना अवश्य ही वैचारिक प्रदुषण है लेकिन सत्य बात का आदर्शमय, मर्यादित भाषा में तथा निस्पक्ष सत्य को अच्छी भाषा में प्रस्तुत करना एक वैचारिक स्वतंत्रता है। धोखा को धोखा कहना तथा गलत को गलत कहना वैचारिक प्रदुषण नहीं है, जब तक समष्टि की महान कृति भंग नहीं हो, जब किसी के शब्द से समष्टि कृति पर कुठाराघात होता है तो अवश्य ही अपनी वैचारिक स्वतंत्रता को परिभाषित करने की आवश्यकता है। लोकतंत्र को वैचारिक मतभेद की ओर स्वतंत्रता देता है लेकिन वह कदापि वैचारिक द्वेष को फैलाने की अनुमति नहीं है। 

(Mimicking someone in the name of humour, making dirty jokes, vulgar jokes, making indecorous satires or crossing any limit for the sake of humour is certainly ideological pollution but presenting the truth in ideal, decent language and presenting the unbiased truth in good language is ideological freedom. Calling a deception a deception and wrong a wrong is not ideological pollution till the great work of the society is not destroyed. When someone's words attack the work of the society then there is certainly a need to define one's ideological freedom. Democracy gives freedom towards ideological differences but it never allows the spreading of ideological hatred.) 

विषय के अन्त में इस आलेख की भूमिका पर बंधन को स्पष्ट करते हुए लिखना चाहूँगा कि मैं न तो कुणाल कामरा का समर्थक हूँ तथा नहीं विरोधी हूँ। लेकिन उसकी भाषा अवश्य ही आपत्तिजनक थी लेकिन तथ्य निस्संदेह यथार्थ से दूर नहीं है। उसकी प्रतिक्रिया में जो कुछ हुआ, वह किसी भी दृष्टिकोण से प्रशंसनीय नहीं है। हिंसात्मक एवं तोडफोड की कार्यवाही संविधान, लोकतंत्र एवं राष्ट्र के हित में नहीं है। इसलिए इसका समर्थन कदापि नहीं किया जा सकता तथा राष्ट्र एवं समाज हित में तथा न्याय के दृष्टिकोण से उसकी निंदा तथा भर्त्सना की जानी आवश्यक है। इससे हम अपने नेता को कमजोर बनाने है तथा विरोधी को ख्याति दिलाते हैं। अतः कुछ भी अनुचित लगे तो संवैधानिक उपायों के माध्यम से अपना विरोध दर्ज करना चाहिए। 
(At the end of the topic, I would like to clarify the obligation of this article and write that I am neither a supporter nor an opponent of Kunal Kamra. But his language was definitely objectionable but the facts are undoubtedly not far from reality. Whatever happened in response to that is not praiseworthy from any point of view. Violent and vandalistic actions are not in the interest of the constitution, democracy and the nation. Therefore, this cannot be supported at all and it is necessary to condemn and denounce it in the interest of the nation and society and from the point of view of justice. By doing this, we weaken our leader and give fame to the opponent. Therefore, if anything seems inappropriate, one should register one's protest through constitutional measures.) 

धन्यवाद
(Thanks)
भावजड़ता (हठधर्मिता) की टकराती तलवारें (The clashing swords of Dogma)
 बोधगया को ब्राह्मणों से मुक्ति को लेकर चल रहा सत्याग्रह दो भावजड़ता अथवा हठधर्मिता की टकराती अदृश्य तलवारों की झंकार सुना रही है। यरुशलम में ऐसी तलवारें युगों से चल रही है। इस प्रकार भावजड़ता अथवा हठधर्मिता‌ की यह लडाई ईश्वर को नहीं पहचान पाने के कारण है। 
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श्री प्रभात रंजन सरकार ने बताया कि पृथ्वी पर अर्थव्यवस्था की एक क्रमिक गति है। प्रारंभ में स्व-केन्द्रित दर्शन (Self-centred Philosophy) आता है। जो मात्र स्वयं के बारे में सोचता है। जिसके चलते समाज में वर्गसंघर्ष पैदा होता है तथा स्व-केन्द्रित दर्शन की जगह पदार्थ-केन्द्रित दर्शन (Matter-centred philosophy) ले लेता है। पदार्थ के बारे में सोचते सोचते समाज में भावजड़ता (Dogma) के प्रभुत्व में विस्तार होता है तथा पदार्थ-केन्द्रित दर्शन की जगह भावजड़ता-केन्द्रित दर्शन (Dogma-centered philosophy) ले लेता है। यह अपने मत मतान्तर को प्रभुत्व दिलाने के लिए आपस में लडते है। यह लडाई नरम, गरम, छद्म एवं रक्तरंजित भी होती है। जिसके चलते समाज ईश्वर-केन्द्रित मानसिकता तैयार होती है तथा भावजड़ता-केन्द्रित दर्शन की जगह ईश्वर-केन्द्रित दर्शन (God-centered philosophy) लेता है। यही सामाजिक-आर्थिक मनोविज्ञान एवं समाजिक-आर्थिक विज्ञान का सिद्धांत है। अतः मनुष्य को इस यथार्थ को जानकर अपने लिए तथा अपने समाज के व्यवस्था निर्माण में लग जाना चाहिए। 

यद्यपि हमें‌ इन‌ चारों दर्शन का विस्तृत अध्ययन करना चाहिए तथापि हम आज मात्र भावजड़ता-केन्द्रित दर्शन (Dogma-centered philosophy) का ही अध्ययन करेंगे। क्योंकि प्रथम दोनों इतिहास बन चुकी है तथा अन्तिम भविष्य की विषय वस्तु है। अतः वर्तमान वर्तते (live in the present) के सिद्धांत का अनुसरण करते हुए आज चर्चा में भावजड़ता-केन्द्रित दर्शन (Dogma-centered philosophy) को ही लेंगे। 

आज विश्व में भावजड़ताओं के बीच में युद्ध छिड़ा हुआ है। यह युद्ध एक दूसरे पर घात प्रतिघात के मध्य से आगे बढ़ता है। यह साम्प्रदायिक, जातिवाद, क्षेत्रीयता, नक्सलवाद, उग्रवाद, आतंकवाद, प्रदेशवाद, राष्ट्रवाद एवं मजहबवाद के नाम से दृश्य होता है। यह सभी मनुष्य के भावजड़ता का परिणाम है। अतः इसका परिणाम भी तथाकथित भावजड़ता में आबद्ध मनुष्य को भुगतान ही पडेगा। सामाजिक भाव प्रवणता‌ (Socio-Sentiment) तथा भौम भाव प्रवणता (Geo-Sentimen) मनुष्य की बुद्धि को इन भाव प्रवणता में जकड़ रख देता है। उनके सोचने क्षमता मात्र भौगोलिक एवं सामाजिक सीमाओं तक सीमित हो जाती है। जिसके परिणामस्वरूप पृथ्वी पर भावजड़ताओं के बीच में लड़ाइयाँ देखने को मिलती है। इसके विकराल हाथों से बचाने के तथाकथित मानवतावाद आगे आता है। लेकिन मानवतावाद भी मनुष्य का कल्याण नहीं कर पाता है। बुद्धि की मुक्ति के लिए मानवतावाद कभी कारगर नहीं है। अतः मनुष्य की बुद्धि की मुक्ति के लिए श्री प्रभात रंजन सरकार ने नव्य मानवतावाद (Neo humanism) नामक अवधारणा दी है। चूंकि आज हमारा विषय नव्य मानवतावाद नहीं है इसलिए इस चर्चा नही करेंगे तथा भावजड़ताओं के बीच युद्ध देखने के लिए चलते हैं। 

दो राष्ट्रों की टकराव के भीतर प्रदेशवाद जन्म होना स्वाभाविक है। उदाहरण स्वरूप सोवियत संघ का विघटन ले सकते हैं। अतः राष्ट्रवाद आज के विश्व के लिए कारगर नहीं है। प्रदेशवाद में क्षेत्रवाद की तलवारें निकल कदाचित अस्वभाविक नहीं कहा जा सकता है। यह भौम भाव प्रवणता (Geo-Sentimen) का भविष्य है। यह भावजड़ताओं की लड़ाई का प्रथम क्षेत्र है। द्वितीय इसे थोड़ा बड़ा अथवा छोटा जाति, नकस्ली, साम्प्रदायिक, रंगभेद तथा नस्लीयता का संघर्ष है। आज मजहब के आधार पर राष्ट्र गठन करने का स्वप्न देखने वाले जाति, सम्प्रदाय, वर्ग, श्रेणी एवं गोत्र के संघर्ष करने से छूटकारा नहीं पा सकते हैं। जातिगत एवं सामाजिक वर्गगत संघर्ष इसका ही परिणाम है। यही सामाजिक भाव प्रवणता‌ (Socio-Sentiment) की नियति है। यह भावजड़ताओं की लड़ाई का दूसरा दृश्य है। तथाकथित मानवतावाद का मानव केन्द्रित कर एकात्मक मानववाद, उदार मानववाद तथा अन्य मानववाद में प्रणीत हो जाते हैं। यह प्रकृति, पर्यावरण, जन्तु जगत, वनस्पति जगत एवं पराभौतिक सत्ता की ओर ध्यान नही दे पाते हैं तथा मानव को एक नूतन प्रकार की भावजड़ता में बंद कर देते हैं। इसमें घूटता मानव अवसर पाते ही भावजड़ताओं के बीच चल रहे संघर्ष में कूद जाता है। अतः भावजड़ता-केन्द्रित दर्शन (Dogma-centered philosophy) मनुष्य के लिए अच्छी नहीं है। जो अच्छी नहीं वह कदापि सच्ची भी नहीं है। अतः मनुष्य को प्रगतिशील उपयोग तत्व को खोज निकालना चाहिए एवं अर्थव्यवस्था ही सम्पूर्ण समाज व्यवस्था को ईश्वर-केन्द्रित दर्शन (God-centered philosophy) की ओर ले चलना चाहिए। अतः यह घोषणा असिद्ध करनी चाहिए कि मनुष्य एक आर्थिक प्राणी है तथा उससे स्थान पर एक नूतन घोषणा करनी चाहिए कि मनुष्य एक आध्यात्मिक प्राणी है। वह आत्मसाक्षात्कार करना चाहता है। इसलिए वह अपने लिए ईश्वर-केन्द्रित दर्शन (God-centered philosophy) लेकर आया है। इसी आध्यात्मिक साधना के लिए शरीर की जरूरत है, शरीर की रक्षा के लिए जगत की सभी व्यवस्था को ईश्वर-केन्द्रित दर्शन (God-centered philosophy) पर स्थापित कर सुव्यवस्था का निर्माण करेगा।