आनन्द किरण की कलम से
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परमात्मा के बारे में कहाँ जाता है कि वह यहाँ, वहाँ एवं सभी जगह है। फिर भी मनुष्य उन्हें खोजता ही आ रहा है। मनुष्य की इस खोज को समझने के लिए आज हम यत्र - तत्र - सर्वत्र विषय लेकर आए हैं।
(परमात्मा यहाँ है?)
सबसे पहले कहाँ गया कि परमात्मा यहाँ है। यह सभी को अपने पास बुलाता है। कहता है कि कहीं जाने की जरूरत नहीं है। परम पुरुष यहाँ है, क्योंकि यहाँ धर्म है। इसलिए कहा जाता है - "यतो धर्म: ततो कृष्ण:।" अतः परम पुरुष को यहाँ रखने के लिए धर्म को यहाँ रखना आवश्यक है। धर्म के विषय में शास्त्र कहा है कि धर्मो रक्षति रक्षितः अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी रक्षा धर्म भी करता है। परमपुरुष का निवास स्थान धर्म को बताया गया है। यद्यपि भक्ति शास्त्र में बताया जाता है -
"नाहं तिष्ठामि वैकुंठे योगिनां हृदये न च।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद:।।"
परमपुरुष कहते हैं कि मेरे भक्त जहाँ मेरे नाम का संकीर्तन करते हैं, मैं वही रहता हूँ। मेरे निवास स्थान के संदर्भ में बैंकुठ, योगियों का हृदय इत्यादि कहा जाता है, वह बिल्कुल गलत है। आज हमारा विषय उक्त श्लोक की समालोचना करना नहीं है। इसलिए इस पर विस्तार से चर्चा नही करेंगे लेकिन 'मदभक्ता' शब्द को अवश्य ही समझेंगे - मदभक्ता माने परमपुरुष के भक्त। तो परमपुरुष भक्त कौन? क्या अनैतिक, दुराचारी एवं अधर्मी यदि संकीर्तन करते हैं तो परमपुरुष का प्राण केन्द्र वहाँ होता है? उत्तर - नहीं,कदापि नहीं। केवल परमपुरुष के भक्त गाएंगे, वही परमपुरुष हैं। परमपुरुष के भक्त अर्थात परमपुरुष के बताये सिद्धांत को मानकर चलने वाले, आध्यात्मिक नैतिकवान, यम नियम, षोडश विधि व पंशदशशील पर चलने वाले तथा सत्याश्रयी क्योंकि परमपुरुष सत्य है। इससे स्पष्ट होता है कि सत्य, नीति एवं न्याय को जिसने आत्मसात किया है, वह ही परमपुरुष का भक्त है। इसलिए तो परमपुरुष का भक्त बनने के लिए धर्म का वरण करना आवश्यक है। यदि धर्म का वरण नहीं कर, केवल परमपुरुष का कीर्तन करने से कोई यह दावा करें कि मेरे कीर्तन की वाणी में परमपुरुष है तो उसका दावा बिल्कुल खोखला अथवा चराचर झूठा है। परमात्मा का भक्त बनने के लिए धर्म का वरण करना ही होता है। अतः परमपुरुष मेरे पास यानि यत्र निवास करते हैं, कहने से पहले अपने पास धर्म को स्थापित करना ही होता है। इसलिए तो गुरुदेव कह गए हैं कि 'मेरा नहीं, मेरे आदर्श का प्रचार करो'। जहाँ श्री श्री आनन्दमूर्ति जी का आदर्श है, वही तो आनन्दमूर्ति का निवास स्थान है। आदर्श से विमुख व्यष्टि अथवा व्यष्टि का समूह के अपने पास परमपुरुष की कृपा वर्षा होने का कथा-कीर्तन कहते करते हैं, वे मायवी, ठगी तथा धूर्त हैं। जिससे भक्त समाज को सावधान रहना चाहिए। यत्र शब्द का अर्थ स्पष्ट हो गया है कि परमपुरुष जहाँ धर्म है, वहाँ निवास करते हैं।
(परमात्मा वहाँ है)
इदं तीर्थमिदं तीर्थ भ्रमन्ति तामसा: जना:।
आत्मतीर्थं न जानन्ति कथं मोक्ष वरानने।।
यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ तीर्थ के लिए भटकने वाले 'यत्र' नहीं 'तत्र' कह कर संबोधित करते हैं। शास्त्र में इन्हें तामस स्वभाव का व्यक्ति कहते हैं। उसके पास धर्म नहीं है, इसलिए तीर्थाटन पर तीर्थाटन किये जा रहा है। वह कभी यहाँ, मेरे में परमपुरुष होने का दावा कभी भी नहीं जता सकता है। इसलिए परमपुरुष की खोज में इधर उधर भटकता रहता है। शास्त्र तो कहता है कि आत्म को तीर्थं नहीं जानने वाला, मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है। यह लोग सदैव धर्म से दूर रहते हैं। अतः इनसे सावधान रहने की आवश्यकता है। धर्म प्रचार के उद्देश्य के अलावा यहाँ, वहाँ परमपिता की खोज में घूमता है, वह कदापि आनन्दमूर्ति को नहीं पा सकता है। जो धर्म को धन-यश एवं पद-प्रतिष्ठा इत्यादि से तौलता है, वह कभी परमपुरुष का थाह प्राप्त नहीं कर सकता है। मैं, तत्र कहने वाले सभी को अधर्म के राही नहीं कह सकता हूँ लेकिन परमपुरुष के विश्वास पर कह सकता हूँ कि उनके पास धर्म नहीं है, इसलिए उनके पास परमपुरुष भी नहीं है। जब तक अपने को साधना शक्ति तथा भक्ति की पुष्ट नहीं करोंगे तब तक मृगतृष्णा में यत्र तत्र भटकते रहोगे। कोई तंत्र पीठ परमपुरुष नहीं मिला सकती है, जब तक भक्त के भक्ति एवं साधना शक्ति नहीं है। इधर उधर भजन-कीर्तन, कथा-प्रवचन, सिद्ध-तंत्रपीठ की खोज में इत्यादि की खोज में भटकने की आवश्यकता नहीं है। प्रभु हमारे घट में है। धर्मचक्र अवश्य ही साधकों का समागम है। अतः धर्मचक्र में उपस्थित देना साधक का कर्तव्य है। इसके लिए स्वयं में ईश्वर प्रणिधान करना आवश्यक है। धर्म प्रचार के अतिरिक्त यहाँ वहाँ माया तथा छाया की चाह में रहने वाले ही तत्र कहते हैं।
(सभी जगह परमात्मा है।)
परमपुरुष के बारे में सबसे लोकप्रिय उक्ति हैं - परमपुरुष सर्वत्र हैं, सर्वव्यापी हैं, सबकुछ है। इसलिए सर्वत्र को समझना आवश्यक है। यद्यपि यह सत्य है कि परमपुरुष सर्वत्र हैं तथापि परमपुरुष का सर्वत्र अनुभव वही कर सकता है, जिसने परमपुरुष को अपना बनाया है। अन्यथा तो यत्र तत्र के भ्रम में ही रहता है। अतः सर्वत्र परमपुरुष की अनुभूति करने के लिए ब्रह्म भाव में प्रतिष्ठित होना होता है। इसलिए शास्त्र कहता है -
उत्तमो ब्रह्म सद्भाव, मध्यमा ध्यानधारणा।
जपस्तुति स्यादधमा, मूर्तिपूजाधमाधमा।।’’
केवल ब्रह्म सद्भाव का साधक ही सर्वत्र परमपुरुष की अनुभूति करता है। इसके अभाव में 'तु-तु मैं-मैं' में बटकर रह जाता है, आपस में ईश्वर एवं धर्म के नाम लड़कर मर जाता है। इसलिए गुरुदेव अपने शिष्यों को गुटबाजी के दलदल से दूर रहने की शिक्षा देते हैं। वह समाज को संगच्छध्वं में प्रतिष्ठित करते हैं लेकिन गुटबाजी से दूर रहने की शिक्षा देते हैं। संगच्छध्वं वही गा सकता है, सुना सकता है, जो सर्वत्र परमपुरुष को देखना जानता है, मानता है तथा देखता है। जो व्यक्ति पद प्रतिष्ठा एवं पैसों की दौड़ में रहता है, उसके जुबान में संगच्छध्वं की ध्वनि फीकी, कमजोर एवं मायवी दिखती है। वह सदैव डरता-डरता फिरता है। 'भक्तस्य भगवान्' कथन को समझने वाला ही 'सर्वत्र' को समझ सकता है। भक्ति = कर्म - ज्ञान, जो व्यवहारिक नहीं, वह भक्त नहीं, साधक नहीं। सैद्धांतिक लोग थोथा चणा बाजे घणा है। ऐसे लोग वाक विप्लवी कहलाते हैं। यह लोग सुविधा भोगी होते हैं। अतः सुविधा ही जिनकी चाहत है, वे सर्वत्र को नहीं समझ सकते हैं।
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