मनुष्य के 9 प्रश्न एवं आनन्द मार्ग (9 questions of human and Ananda Marga)


मनुष्य के 9 प्रश्नों को लेकर श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने आनन्द मार्ग का प्रारंभिक दर्शन दिया। वस्तुतः महासंभूति मनुष्य के प्रश्नों का उत्तर लेकर ही आते हैं। सदाशिव ने मनुष्य के प्रश्न पार्वती के माध्यम से लेकर आगम-निगम दिया तथा श्रीकृष्ण ने मनुष्य के प्रश्न अर्जुन के माध्यम से लेकर श्रीमद्भगवद्गीता दी। शिव युग के मनुष्य के मन क्या-क्या प्रश्न, जिज्ञासा तथा आवश्यकता थी। उसको लेकर सदाशिव ने मानव सभ्यता एवं मानव संस्कृति का निर्माण किया। ठीक उसी प्रकार श्री कृष्ण ने अपने युग के मनुष्य के प्रश्न, जिज्ञासा एवं आवश्यकता को लेकर महाभारत बनाया। आज के युग के प्रश्न, जिज्ञासा एवं आवश्यकता को लेकर श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने महाविश्व की संकल्पना दी। जिसमें सामाजिक जगत में एक अखंड, अविभाज्य मानव समाज है, आर्थिक जगत में प्रगतिशील उपयोग तत्व की व्यवस्था है, धर्म एवं आध्यात्मिक जगत में आनन्द मार्ग है तथा चिन्तन एवं सोच के रूप नव्य मानवतावाद है। महाविश्व की संकल्पना की प्रथम पुस्तक आनन्द मार्ग का प्रारंभिक दर्शन लेकर आई थी। अतः प्रत्येक मनुष्य को आज युग के प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए आनन्द मार्ग दर्शन एवं आदर्श को जानना एवं ग्रहण करना चाहिए। 

हम आनन्द मार्ग नामक पुस्तक जो आनन्द मार्ग का प्रारंभिक दर्शन है। उसमें लिए 9 के उत्तर का संक्षेपिकरण करने का प्रयास करेंगे। जिस पाठक को इन प्रश्नों का उत्तर विस्तार से एवं गहराई से जानना है। उन्हें श्री श्री आनन्दमूर्ति जी की प्रथम कृति आनन्द मार्ग (आनन्द मार्ग का प्रारंभिक दर्शन) को पढ़ना चाहिए। 

             
      (What is Dharma?)

श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने बताया है कि मनुष्य का धर्म आनन्द की प्राप्ति करना है। आनन्द सुख-दु:ख के अतीत की अवस्था है। जिसे अनन्त सुख के रूप में परिभाषित किया गया है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी बताते हैं कि अनन्त सुख आनन्द की प्राप्ति अनन्त सत्ता से होती है। वे बताते हैं कि अनन्त सत्ता की खोज में मनुष्य प्रथम प्रयास वस्तु जगत में धन, पद एवं प्रतिष्ठा में ढूँढ़ता है। यहाँ उन्हें क्षणिक सुख ही मिलता है क्योंकि यह अनन्त नहीं है। इसलिए वे अनन्त सत्ता की चलने का मार्गदर्शन देते हैं। वे बताते हैं कि वृहद को प्राप्त करने अथवा वृहतत्व का प्रणिधान करने की एषणा ही धर्म है। अतः इससे सिद्ध होता है कि समस्त मनुष्य का एक ही धर्म ब्रह्मत्व प्राप्त करना। यहाँ एक पूरक भी लेते हैं कि क्या यह संभव है? इसकी खोज में मनुष्य को ब्रह्म की ओर ले चलते हैं। वे बताते हैं कि मनुष्य अपने इस यात्रा में प्रथम इन्द्रियों को ही कर्ता मानता है लेकिन वह देखता है कि यह बहिष्करण या उपकरण, अन्त:करण अथवा करण अथवा मन के बिना कोई कार्य नहीं करते हैं। अतः उन्हें पल-पल मन की सहायता की आवश्यकता है। मन का जो अंश इन्द्रियों से संयुक्त होकर वस्तु का रुप धारण करता है, उसे चित्त कहते हैं। चित्त वस्तु का रुप धारण कर लेने के कारण उस देखने, सुनने, सुंधने एवं अनुभव करने के मन के दूसरे अंश अहम् की आवश्यकता होती है। यह अहम्‌ ही कर्ता है। लेकिन कर्ता 'मैं' को भी कार्य करने के अस्तित्व बोध कराने वाले 'मैं' महत् को आवश्यकता होती है। इसमें 'मै हूँ' का बोध है। वे समझाते हैं कि चित्त, अहम् तथा महत् का संयुक्त नाम मन है। यह 'मैं हूँ' भी 'मैं जानता हूँ मैं हूँ' के बिना अपने अस्तित्व की रक्षा नहीं कर सकता है। 'मै जानता हूँ कि मै हूँ' का प्रथम 'मैं' अणु चैतन्य आत्मा कहलाती है। यह सर्व निरपेक्ष सत्ता है। यह अणु चैतन्य अनन्त है। इस अणु चैतन्य का समष्टि स्वरूप भूमाचैतन्य अथवा परमात्मा है। जिसे ब्रह्म कहते हैं। जो बृहद‌ है। उसे नापा अथवा मापा नही जा सकता है। क्योंकि इसका स्वयं वृहद ही है। अतः मनुष्य पूर्णत्व यानि ब्रह्मत्व की प्राप्ति कर सकता है। 
 

            
        What is Vibhusatta (great power)?

मनुष्य के देखा कि विभुसत्ता अथवा ब्रह्म अणु चैतन्य का समष्टि रुप है। लेकिन इतना कहने से ही विभुसत्ता क्या है नामक प्रश्न का उत्तर नहीं मिल जाता है। इसके लिए विभुसत्ता (ब्रह्म) समझना आवश्यक है। ब्रह्म पुरुष एवं प्रकृति का संयुक्त नाम है। जिसमें पुरुष एवं प्रकृति नामक दो तत्व का अस्तित्व है। आत्मा अथवा अणु चैतन्य तथा परमात्मा अथवा भूमाचैतन्य कहने का अर्थ मात्र पुरुष अथवा प्रकृति नहीं। प्रकृति एवं पुरुष का संयुक्त स्वरूप है। इन दोनों को किसी भी स्थित में अलग नहीं किया जा सकता है। अतः यह अविच्छिन्न है। पुरुष एवं प्रकृति की प्रधानता अप्रधानता के आधार पर ब्रह्म की दो अवस्था निर्गुण ब्रह्म एवं सगुण ब्रह्म का ज्ञान होता है। जब पुरुष प्रधान तथा प्रकृति आश्रित होती है तब निर्गुण ब्रह्म की अवस्था तथा प्रकृति जब पुरुष को गुणान्वित कर देती है तब पुरुष गुण के बंधन में होता है तब सगुण ब्रह्म की अवस्था होती है। उन्होंने इन दोनों अवस्था को समझाने के लिए महासागर एवं उसमें तैर रही हिमशीला का उदाहरण दिया है। महासागर के किसी प्रदेश में पानी हिम में परिवर्तित हो गया है। उसी प्रकार निर्गुण के एक प्रदेश विशेष में प्रकृति की क्रियाशीलता के कारण पुरुष गुणान्वित हुआ है। उसे सगुण ब्रह्म का कहा गया है। निर्गुण के अंदर ही सगुण है। सगुण के अंदर जगत। 


  (What is the universe?) 

सगुण के भीतर ही जगत है। अतः निश्चित रूप से जगत की उत्पत्ति सगुण ब्रह्म हुई है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी लिखते हैं कि जगत ब्रह्म के मानस में है। यद्यपि जगत, ब्रह्म की कल्पना है तथापि यह मिथ्या नहीं है। क्योंकि कल्पना मिथ्या नहीं होती है। तो इसे शास्वत सत्य भी नहीं कहा जा सकता है। अतः ब्रह्म सत्य है, यह शास्वत सत्य तथा जगत आपेक्षिक सत्य है। मिथ्या अथवा शास्वत सत्य नहीं है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी बताते हैं कि कल्पना जब तक चल रही है, तब तक कल्पना मिथ्या नहीं है। कल्पना के भीतर स्थित पात्रों के लिए भी जगत मिथ्या नहीं है। वे जादूगर का उदाहरण देकर समझाते हैं कि जादूगर का जादू देखकर कोई न तो सत्य मानते तथा न ही उसे सत्य मानने को तैयार है। एक परिधि विशेष के बाहर वाले के लिए जादूगर की स्थिति अलग तथा भीतर वाले के लिए अलग है। ठीक उसी प्रकार ब्रह्म की कल्पना चक्र के बाहर जाने साधक के लिए जगत अदृश्य हो जाता है लेकिन परिधि के भीतर वाले के लिए मिथ्या नहीं होता है। जगत को शास्वत सत्य मान लेने से उसकी गतिशीलता रुक जाती है तथा स्थिरता जगत का धर्म नहीं है। अतः जगत आपेक्षिक सत्य ही सही अवधारणा है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी बताते हैं कि ब्रह्म ने जगत बनाने से पूर्व उन्होंने अपने मन भूमा मन का सृजन किया। उनके प्रथम कल्पना में प्रकृति के सत्वगुण के कारण बुद्धि तत्व अथवा महत्ततत्व को बनाते हैं। जहाँ मै हूँ का बोध होता है। तत्पश्चात रजोगुण के द्वारा अहम् तत्व बनाते हैं। जिसमें मैं कर्ता हूँ का बोध रहता है। उसके बाद तमोगुण के प्रभाव से चित्त तत्व का निर्माण होता है। महत्त, अहम् तथा चित्त का सयुंक्त नाम भूमामन है। यह भूमाचैतन्य का ही विकास भूमाचैतन्य के भीतर ही है, लेकिन दोनों पृथक है। उसके बाद तमोगुण के प्रभाव से भूमा चित्त क्रमशः व्योम, मरु, तेज, अप एवं क्षिति तत्व में परिवर्तित होता है। इस प्रकार कर्म वर्धमान के द्वारा ब्रह्म अपने भीतर ही पंचभूत जगत का निर्माण करते हैं। यह कल्पना तब तक चलती रहेगी जब तक सगुण ब्रह्म मुक्त नहीं हो जाता है। सगुण ब्रह्म तब मुक्त होंगे जब उसका प्रत्येक अणु मन मुक्त नहीं हो जाता है। अतः सृष्टि प्रलय की अवधारणा सत्य प्रतीत नहीं होती है। इस प्रकार देखा कि जगत ब्रह्म की कल्पना है। 

    
(Who am I or what am I?) 

मनुष्य के चौथे प्रश्न के उत्तर में श्री श्री आनन्दमूर्ति जी बताते हैं कि अणु चैतन्य, अणु मन तथा अणु देह के रूप में मनुष्य परिचय पाता है। लेकिन देह तथा चैतन्य वह नहीं है। क्योंकि वह मेरी आत्मा एवं मेरा शरीर नहीं कहता। अणु चैतन्य साक्षी भाव होने पर भी वह मैं नहीं है। यह उसका आदि करण है। शरीर पंचभूत से बना हुआ है। यह मैं का उपकरण है। अतः अणु मन ही मै है। लेकिन सम्पूर्ण अणु मन मै नहीं है। चित्त विषय के साथ संयुक्त होने पर भी मैं का भूमिका का निवहन नहीं करता है। वे बताते हैं कि अहम् कर्म कर्ता तथा फल भोक्ता होने पर मैं भूमिका नहीं निभा सकता है। अतः मैं महत्त तत्व अर्थात बुद्धि तत्व ही मैं है। यही मनुष्य का मनुष्यत्व है। मैं कौन हूँ का उत्तर है मैं महत्त तत्व (बुद्धि तत्व हूँ)। यद्यपि मै जानता हूँ कि मैं हूँ का साक्षी मैं आणु चैतन्य के कारण ही मैं हूँ महत्त तत्व का अस्तित्व है तथापि वह मैं का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। यह भूमाचैतन्य का प्रतिनिधि हैं अथवा अंश है। 


( What is my connection with the universe and the cosmic power (Brahma)?) 

मनुष्य के इस प्रश्न के उत्तर में आनन्दमूर्ति जी समझाते हैं कि अणु चैतन्य, अणु मन एवं अणु देह के रूप में मनुष्य भूमासत्ता के भीतर ही है तथा वही चेतना उसमें विद्यमान है जो भूमासत्ता में है। अतः अणु तथा भूमा संबंध मनुष्य एवं भगवान में है। बिन्दु एवं महासागर सा संबंध मेरे तथा परमब्रह्म में है। आगे समझाते हैं कि जगत का मनुष्य का संपर्क जन्म मृत्यु के चक्र का है। जब तक संस्कार शून्य नहीं होता है अथवा मुक्ति मोक्ष को नहीं पाता है तब तक वह सगुण ब्रह्म की कल्पना के भीतर है। उसी के अंदर उसे घूमना है। लेकिन ब्रह्म का अंश होने के कारण वह मुक्त होने के प्रचेष्टा करता है। अन्ततोगत्वा ब्रह्म उसपर मुक्त करने की कृपा कर ही लेता है। वे समझाते हैं कि भूत प्रेत, आत्मा का भटकना एक भ्रम है तथा स्वर्ग नरक नाम की जगह नहीं है। इसलिए शरीर त्यागने के बाद विदेही मन को अपने संस्कार भोगने की कोई जगह नहीं है। अतः पुनः जन्म लेना ही होता है। यह जरुरी नहीं की उसे पुनः इस धरा पर ही पर जन्म लेने का सुयोग मिले। उसकी अणु प्रकृति अपने संस्कार के अनुकूल चराचर जगत में किसी भी ग्रह या अन्य जगह चुन लेगी। 


(How should man live in this universe?) 

मनुष्य के छठे सवाल के जबाब में श्री श्री आनन्दमूर्ति जी कहते हैं कि जगत में मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है, जिसको कर्म करने के लिए स्वतंत्र छोड़ा गया है। मनुष्य ने यह स्वतंत्रता अपने विकसित चैतन्य के कारण पाई है। इस सुयोग के साथ बड़ी जोखिम भी उसके कंधों पर है। अतः मनुष्य को सुकर्म करना चाहिए तथा कुकर्म से दूर रहना चाहिए। जब तक मनुष्य बंधन से मुक्त नहीं होता है तब तक कर्मफल के हाथ से छूटना संभव नहीं है। अतः ब्रह्म भाव युक्त सत्कर्म कर्म करते चलना होगा। इस उत्तम कर्म और विवेक तथा वैराग्य युक्त विद्या माया कहते हैं। वे बताते हैं कि वैराग्य अर्थ संसार का त्याग नहीं उचित व्यवहार है। उन्होंने बताया कि विद्यामाया या अविद्यामाया का अनुशीलन करने वालों को चार श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम : जो प्रकृति का नियम मान कर चलते हैं तथा अणुचैतन्य को विकशित करते हैं- ये सभी सपुरुष हैं; द्वितीय : जो प्रकृति का नियम मानकर चलते हैं, किन्तु अणुचैतन्य को विकशित करने की दिशा में उदासीन रहते हैं; तृतीय: जो प्रकृति का नियम नहीं मानते हैं और अणुचैतन्य के विकाश में भी उदासीन रहते हैं; चतुर्थः जो प्रकृति का नियम नहीं मानते हैं और इसके अलावे अणुचैतन्य की अवनति कराते हैं। ये लोग हीन से भी हीन हैं। इसमें से प्रथम श्रेणी का पथ चयन करने पर बल देते हैं। वे बताते हैं कि कर्मफल से छूटकारा ग्रह शांति, प्रायश्चित एवं अविद्या तांत्रिक प्रक्रिया करना अर्थहीन है। यह कोई भी कर्मफल के हाथों छूटकारा नहीं दे सकते हैं। यह मात्र समय को इधरउधर करके क्षीण शान्ति देते हैं। वे तो यह भी बताते हैं कि कर्मफल से बचने के भगवान के सामने प्रार्थना करना भी उचित नहीं है। भगवान प्रकृति का नियम नहीं बदलने के लिए वचनबद्ध है। अतः कर्मफल से छूटकारा का एक ही रास्ता प्रकृति के नियम मानकर चलना तथा अणु चैतन्य को उन्नति के पथ पर ले चलना। परमपुरुष की भावना लेना तथा उसके प्रति समर्पण भक्ति है। भक्ति मनुष्य को मांगना नहीं सिखाते है अपितु कर्तव्य करने का पथ दिखाता है तथा अविद्या के विरुद्ध संग्राम कर जयी होना सिखाती है। उन्होंने कुकर्म को सुकर्म से तथा सुकर्म को कुर्म से काटने वाली धारणा को गलत बताया है। सुकर्म से मुक्ति का रास्ता सुफल तथा कुकर्म से मुक्ति का रास्ता कुफल भोगना है। इसलिए कुछ लोग सोचते हैं कि मैं अपने कुकर्म को सुकर्म के द्वारा संस्कार शून्य कर दूंगा, एक गलत सोच है। उनके शब्दों में "दुर्भोग के लिए भगवान को दोष देना अथवा कष्ट भोग से छुटकारा पाने के लिए प्रार्थना या स्तुति का आश्रय लेना बिल्कुल युक्तिपूर्ण नहीं है बुद्धिमान मनुष्य दुखः कष्ट भोग के माध्यम से परम कल्याणमय भगवान का अमोघ निर्देश ग्रहण करते हैं तथा कुकर्म से निवृत्त होने की साधना में लग जाते हैं। इसलिए कुकर्म का त्याग करना बुद्धिमान आदमी का काम है।"


(What is the goal of human?)

मनुष्य के इस प्रश्न के उत्तर में श्री श्री आनन्दमूर्ति जी कहते हैं कि मनुष्य का लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है। मोक्ष का अर्थ कैवल्य मुक्ति अथवा स्थायी मुक्ति अथवा प्रकृति बंधन पूर्णतया मुक्ति है। इसको निर्गुणत्व अर्जन करना कहते हैं। यद्यपि मनुष्य सगुण से आया है, सगुण बनकर ही निर्गुण बन सकता है तथापि सुगणत्व अर्जन करना मनुष्य का चरम लक्ष्य नहीं है। यदि ऐसा है तो सगुण का सृष्टि बनाना ही व्यर्थ हो जाता है। अतः सगुण की इच्छा है कि उसका प्रत्येक अणु मुक्ति के पथ पर चलता हुआ चरम एवं परम मुक्ति निर्गुण में विलीन हो जाना है। मनुष्य अपने साधना के द्वारा अपने मोक्ष पाने का अधिकारी बना ले शेष परमपुरुष पर छोड़ दे। 


(Spiritual practice and its applicability)

मनुष्य ने अपना आठवां प्रश्न आध्यात्मिक अनुशीलन (साधना) तथा उसकी प्रायोजनीयता को लेकर किया। अणु मन को प्रकृति के बंधन से मुक्त होने के लिए जो प्रायोजन किया जाता है। उसे आध्यात्मिक अनुशीलन अथवा धर्म साधना कहते हैं। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी बताते हैं कि सगुण ब्रह्म साधना के बल पर अपने बद्धावस्था प्रजापति से मुक्तावस्था हिरण्यगर्भ हो सकते हैं तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अणु चैतन्य, भूमाचैतन्य बन सकता है। अतः आध्यात्मिक अनुशीलन अथवा धर्म साधना का प्रायोजन है। वे बताते हैं कि जिस प्रकार महत्त से चित्त का उद्भव हुआ है। उसी प्रकार साधना के द्वारा चित्त से महत्त की यात्रा करना साधना के प्रथमावस्था है। वे बताते हैं कि चित्त में साधना का सूत्रपात होता है, अहमत्व में परिपक्व होती है तथा महत्तत्व में सम्यक् रुप प्राप्त करती है। आध्यात्मिक अनुशीलन को विस्तार से समझाते हुए श्री श्री आनन्दमूर्ति जी लिखते हैं कि अणु महत्त का भूमा महत्त में स्थापित होना सविकल्प समाधि है। यहाँ उसे सगुणत्व प्राप्त होता है, जो मनुष्य लक्ष्य नहीं होने पर भी इसी प्रक्रिया से होकर जाना है। वे समझाते हैं कि तत्पश्चात साधना निर्गुणत्व अर्जित करने के लिए महत्त भूमाचैतन्य में स्थापित होने साधना करता है, जिससे उसे निर्विकल्प समाधि मिलती है। वे बताते हैं कि यह प्रक्रिया इतनी सरल नहीं है। इसके उसे परमा प्रकृति के विरुद्ध संग्राम करना होता है। संग्राम में जयी होने पर ही पुरुषत्व मिलता है। वे बताते हैं कि माया के दो रुप है। जो माया सूक्ष्म से जड़ की ओर ले चलती है, वह अविद्या माया है। जबकि जो माया जड़ से सूक्ष्म पथ का वरण करती है, वह विद्या माया है, उसी के साथ चलकर परमपुरुष का आश्रय पाता है। तब प्रकृति उसे बाधित नहीं कर सकती है। इस यात्रा के लिए मनुष्य को गुरु की आवश्यकता होती है तथा गुरु वह ही हो सकता है, जो बंधन मुक्त है। अतः ब्रह्म ही गुरु हैं तथा गुरु ही ब्रह्म है। उसके अतिरिक्त कोई भी गुरु मनुष्य को बंधन मुक्त नहीं कर सकता है। सदगुरु के बताये पथ पर चलना ही बंधन मुक्त करने की विधा है। 


(Why is human afraid of sadhana?)

मनुष्य अपना नवां प्रश्न लेकर जब आनन्दमूर्ति के पास आता है तब श्री श्री आनन्दमूर्ति जी का जबाब आता है कि तुम अकारण ही भयभीत हो साधना तुम्हारे कल्याण के लिए है, इसलिए हे मनुष्य इससे दूर रहनी की मत सोच। वे बताते है कि मनुष्य में संसार त्याग का भय, ब्रह्मचर्य की गलत धारणा, साधना को वृद्धावस्था की सामग्री समझने की भूल तथा भोग छूट जाने का भय, मनुष्य को साधना से भयभीत करता है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी मनुष्य को समझाते हैं कि साधना के गृहत्याग की जरूरत नहीं है। संसारी व्यक्ति साधना का जितना सुयोग पाता है उतना सुयोग संसार त्याग करने वाला नहीं पा सकता है। संसार के भीड़ का व्यवधान से अधिक कष्टकर वन का एकांत जीवन है। इसलिए कष्टकारी बनकर साधना नहीं की जा सकती है। वे बताते है कि स्त्री संग छोड़ना साधना के लिए आवश्यक शर्त नहीं है। परिवारी व्यक्ति साधना के बल सबसे बड़ा त्यागी बन जाता है। अतः यह भय भी उचित नहीं है। तीसरा भय वृद्धावस्था में साधना करेंगे, कितना निराधार है कि वृद्धावस्था नहीं मिली तो साधना कब करेगा। यदि वृद्धावस्था मिल भी गई तो शरीर अस्वस्थ रहेगा तब साधना कैसे कर पाएगा? अतः वृद्धावस्था के भरोसे साधना से दूर रहना भी युक्तिकर नहीं बताया है। मनुष्य का चौथा भय भोग को बलांत छोड़ना है। भोग बलांत नहीं छूटता है तथा छोड़ना भी नहीं चाहिए। भोग मनुष्य के मन साधना के द्वारा ही होता है। भोग छोड़ कर कोई साधना नहीं कर सकता है। उसकी इच्छा मन सताती रहती है। अतः यह भी उपयुक्त कारण नहीं है। अतः श्री श्री आनन्दमूर्ति जी कहते हैं कि मनुष्य को अकारण भयभीत होकर साधना से दूर नहीं रहना चाहिए। साधना के द्वारा ब्रह्मोपल्लबधि मनुष्य का धर्म है। अतः कर्तव्य पथ विमुख नहीं होना ही सुपथ है। 

मनुष्य अपने मुख्य 9 प्रश्न लेकर संसार में आया था उसका श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने जबाब देकर दुनिया को आनन्द मार्ग दिया तथा यही आनन्द मार्ग का प्रारंभिक दर्शन बनकर दुनिया के सामने आया।

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      श्री आनन्द किरण "देव"
(Shri Anand Kiran "Dev") 
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