शिव की शिक्षाएँ - प्रथम - शिवोक्ति [Teachings of Shiva - First - Shivokti(Shiva's Quotes)]


           नम: शिवाय शांताय 

आज हम नम: शिवाय शांताय में वर्णित शिव की शिक्षाओं के संदर्भ में चर्चा करेंगे। इससे पूर्व शिव का संक्षिप्त परिचय दिया जाना आवश्यक है। 

                शिव का परिचय
शिव सृष्टि का आदिकारक तत्व है। जिस पर यह विश्व ब्रह्माण्ड टिका हुआ है। अतः इस सृष्टि में कोई भी कार्य शिव के बिना संभव है। इसलिए नमो शिवाय शांताय शिव के सम्मान में सबका दिखाती है। यह शिव लगभग 7 हजार वर्ष पूर्व अर्थात 5 हजार ईसा पूर्व भारतवर्ष, नेपाल, तिब्बत वाले क्षेत्र कैलाश मानसरोवर वाले क्षेत्र में सदाशिव के नाम से आए थे। उन्होंने तात्कालिक मानव को एक समाज के सांचे में ढ़ालकर मनुष्य में देवत्व का अंकुरण किया। उसी यात्रा के क्रम में शिव के ईर्दगिर्द देव गण का समूह बन गया। इसलिए शिव को देवाधिदेव महादेव कहने लगे। सदाशिव, आदिशिव तथा परमशिव वस्तुतः एक सत्ता है। अतः शिव को आदिपिता, आदिगुरु, आदिदेव तथा आदिपुरुष कहते हैं। 

नम: शिवाय शांताय के लेखक श्री श्री आनन्दमर्ति जी ने शिव की  शिक्षाओं का संकलन किया। उनके संकलन पत्र में प्रथम 12 शिक्षाएँ शिवोक्ति है तथा अन्तिम 12 शिवोपदेश है। उनके शिवोक्ति के संकलन को समझने के क्रम में एक अध्ययन पत्र तैयार हुआ। वह सबके लिए प्रेषित है। लेकिन इसका गुढार्थ समझने के लिए श्री श्री आनन्दमूर्ति जी की कृति नम: शिवाय शान्ताय का अध्ययन करना नितांत आवश्यक है। 

                        1. 
       (Live in the present

शिव की प्रथम शिक्षा है कि वर्तमान में जीयो। भूत हमारे हाथ में नहीं तथा भविष्य अपने वश में नहीं है। अतः भूत तथा भविष्य में नहीं खोकर वर्तमान में जीना ही सफल जीवन का लक्षण हैं। इतिहास से शिक्षा ली जा सकती है लेकिन पुराना जमाना वापस नहीं लाया जा सकता है। भविष्य के सुन्दर तस्वीर बनाई जा सकती है लेकिन भविष्य में जिया नहीं जा सकता है। 

                          2. 
(Their only work is to inject disease into human life

शिव ने लोकव्यामोहकारक से बचने अथवा दूर रहने की शिक्षा दी। लोकव्यामोहकारक का अर्थ है। वह लोग जो समाज बीमारी फैलाते हैं। उनको आज युग में अव्यवहारिक पुरुष कहते हैं। बड़ी बड़ी शिक्षाएँ देते हैं लेकिन व्यवहार में उसका उल्टा ही काम करते हैं। यह लोग समाज को सत्पथ पर नहीं ले चल सकते हैं। इन लोगों से मनुष्य एवं उसके समाज को दूर रहना चाहिए। जिनका दर्शन, सिद्धांत एवं आदर्श मनुष्य की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रगतिशील नहीं है। वे भी लोकव्यामोहकारक है। उन्हें छोड़ देना आवश्यक है। जैसे आध्यात्मिक जगत में भावजड़ता लोकव्यामोहकारक है इस प्रकार मानसिक जगत में भौम भावप्रवणता, सामाजिक भावप्रवणता तथा संकीर्ण मानसिकता लोकव्यामोहकारक है। भौतिक जगत में जातिवाद, सम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भाषावाद, नस्लवाद, लिंगवाद, प्रदेशवाद, राष्ट्रवाद, पूंजीवाद एवं साम्यवाद इत्यादि सभी वे व्यवस्था जो मानव को मानव से दूर ले जा रही है, वह लोकव्यामोहकारक है। शिव इन सभी दूर रहकर नव्य मानवतावाद चलने की शिक्षा देते हैं। 

                         3. 
(A wife who seeks the welfare of her husband alone

पत्नी अथवा भार्या वही है, जो सदैव पति का हित चाहती है। वह नारी कभी भी पत्नी नहीं हो सकती है, जो अपने हित के खातिर पति का प्रयोग करें। जब नारी अपना परिवार छोड़कर पति के परिवार को संवारने आई है तो उसे पति का परिवार बिगाड़ने का कोई अधिकार नहीं है। अतः शिव चाहते थे कि पति का हित एवं कल्याण जिसमें उस चाहत को रखने वाली स्त्री को पत्नी बनना चाहिए। यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि शिव पत्नी के गुण तो विश्लेषित कर रहे हैं। लेकिन पति को शिक्षा क्यों नहीं देते हैं कि पत्नी का भी ख्याल रखे। इसके माध्यम पतियों को भी शिक्षा देते हैं कि जिस प्रकार पत्नी पति की हितकारणी है उसी प्रकार पति भी पति का कल्याण चाहने वाला हो। 

                      4. 
 (Anger is the greatest enemy

क्रोध को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु बताया गया है। क्रोध व्यक्ति को समाज से तथा अपने आप से दूर ले जाता है। अतः क्रोध मनुष्य के लिए शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक सभी दृष्टि से पीड़ादायक है। अतः शिव क्रोध से बचने की शिक्षा देता है। नीतिशास्त्र कहता है कि अपना क्रोध सर्वप्रथम अपने को खाता है, तत्पश्चात अपनो को खाता है तथा आखीर में अपने आसपास के परिवेश को खाता है। यह जिस डाल पर बैठता है उसी को काटता है। 

                       5.
        (Greed the cause of sin

लोभ पाप का कारण होता है अथवा लोभ मनुष्य को पाप के पथ पर ले चलता है। अतः शिव मनुष्य को लोभ से बचने की शिक्षा देते हैं। मनुष्य को अपने कल्याण के लिए लोभ से दूर रहना चाहिए। वरना पाप को पोखर में इस प्रकार गिर जाता है कि मनुष्य पदवाच्य भी नहीं रहता है। अतः लोभ को पाप की जननी कह सकते हैं। किसी भी प्रकार के लोभ से मनुष्य को दूर रहने के दानशीलता के गुणों का विकास करना चाहिए। लेने के गुण से अधिक देने का गुण आवश्यक है। लेकिन दानशीलता यदि लोकेष्णा हो जाती है तो लोभ को जन्म दे देती है। अतः सभी प्रकार के लोभ से दूर रहकर पाप से मुक्त रह सकते हैं। 

                       6. 
       (Ego is the root of fall‌

अहंकार को पतन का मूल कारण बताया गया है। अतः मनुष्य को घमंड से दूर रहना चाहिए, ऐसी शिव शिक्षा देते हैं। मनुष्य को किस बात का घंमड है, उसके पास जो कुछ है, वह परमात्मा की दिया ही तो है। उसको लेकर घंमड कैसा? अतः मनुष्य कुल, शील, मान इत्यादि बोझिल धारणाओं का मर्दन करना चाहिए। धन, शक्ति एवं भक्ति का भी अंहकार उचित नहीं है। यदि मनुष्य को किसी भी प्रकार का शक्ति एवं सामर्थ्य मिला है तो वह सेवार्थ है। 

                            7. 
(Without effort it is rare to accomplish a task‌

 शिव की शिक्षा है कि परिश्रम के बिना कार्य की सिद्धि दुर्लभ है। अतः आलस्य व भाग्य को छोड़कर पर परिश्रमी बनना चाहिए। मनुष्य का पथ ही कर्म का है। उसे उससे विमुख नहीं रखना चाहिए। अतः जो परिश्रमी नहीं तथा चमत्कार की आश में है। उनको कभी भी सिद्धि नहीं मिल सकती है। परमपुरुष से कोई भी प्रकार की मांग करना अनुचित है। भक्ति, साधना एवं कीर्तन परमात्मा को समर्पण के लिए जागतिक उद्देश्य सिद्धि के लिए नहीं। भले ही आपके जागतिक उद्देश्य में समष्टि कल्याण क्यों न हो? वह सत् प्रयास से दूर ले चलता है तथा श्रेय से प्रेय की ओर ले चलता है‌। विश्व शांति अधर्म, अनीति, असत्य, संकीर्णता एवं शोषण के विरुद्ध संग्राम मिलती है‌। इसके विश्वशांति कीर्तन अविधेय है‌। 

                         8. 
(Dharm is that which is not where there is no truth

धर्म वहां नहीं होता है जहां सत्य न हो‌। अतः धर्म, न्याय एवं नीति के लिए सत्य का होना आवश्यक है। सत्य के मूल पर स्थापित किया गया जीवन एवं समाज धर्म का प्रतीक है। उससे विहिन जीवन अधर्म की संपदा है। 

                        9.
     (Liars are always miserable

झूठ बोलने वाला सदा दुखी रहता है। झूठ में दु:ख का बीज तथा सत्य में सुख का है। अतः शिव मिथ्या तथा मिथ्यावादी से दूर रहने की शिक्षा देते हैं। यदि ऐसा नहीं किया गया तथा मिथ्यावादी बन रहे तो सुख की आश नहीं रखनी है। क्योंकि यह दु:ख का द्वार है। 

                       10. 
   (The crooked course of sin

पाप की गति कुटिल होती है। वह कभी भी सीधे रास्ते नहीं जा सकती है। उसे सदैव ज्ञात अथवा अज्ञात डर से होकर गुजरना होगा। अतः शिव की शिक्षा है कि पाप से बचे। 

                     11. 
(The subtle movement of the dharma

धर्म की गति सूक्ष्म होती है। धर्म सदैव निर्भय होकर सरल, सुगम एवं सीधे पथ पर चलता है। उसकी चाल को कुटिल करने की आवश्यकता नहीं होती है। अतः शिव धर्म व पूण्य के पथ वरण करने की शिक्षा देते हैं। 

                     12. 
(For self-redemption and for the welfare of the world)

 शिव की शिक्षा है कि मनुष्य का पथ आत्म मोक्ष का तथा जगत हित का है। आत्म मोक्ष के लिए साधना पथ तथा जगत सेवा के लिए सुव्यवस्था की ओर को ले चलना है।

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  अध्ययन कर्ता - [श्री] आनन्द किरण "देव"
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