आओ मिलकर बनाते है - देवभूमि भारतवर्ष

         देवभूमि भारतवर्ष
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         श्री आनन्द किरण 'देव'
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भारतवर्ष को देवभूमि कहा गया है। बताया गया है कि प्राचीन काल में भारतभूमि पर देवता निवास करते थे। देव शब्द का अर्थ दिव्य पुरुष बताया गया है तथा दिव्य नारी को देवी कहा जाता था। अर्थात जहाँ दिव्य पुरुष तथा दिव्य नारी रहते है, वह भूमि देवभूमि है। 

भारतवर्ष में 'नर से नारायण' प्रकट होने वाला सूत्र बहुत अधिक लोकप्रिय है। आध्यात्मिक विज्ञान भी बताता है कि मनुष्य जीव कोटि से ब्रह्म कोटि में उन्नत हो सकता है।  अब इस विज्ञान को थोड़ा विस्तार से समझते हैं - जीव में आहार, निंद्रा, भय तथा मैथुन नामक चार वृत्तियां होती है। मनुष्य को जीव से पृथक करने वाली वृत्ति धर्म है। धर्म मनुष्य के मन में कर्तव्य-अकर्तव्य का भान करता है। इसलिए धर्म ने मनुष्य को अन्य जीवों से विशिष्ट बनाया है। जो मनुष्य आहार, निंद्रा, भय तथा मैथुन्य तक ही सीमित है। वह पशु के समान है, उन्हें आध्यात्मिक विज्ञान में जीव कोटि कहा गया है। धर्म के द्वारा उन्नत गुण धारण करने के कारण मनुष्य  क्रमशः ईश्वर कोटि तथा ब्रह्म कोटि तक क्रमोन्नत होता है। यहाँ एक बात स्मरण रखने योग्य है कि देवगण आसमान से उतरे फरिश्ते नहीं है। इसी धरा से कर्म साधना के बल पर निखरने वाली महापुरुष है। जब पृथ्वीवासी आध्यात्मिक नैतिकता के पथ का अनुसरण कर लेंगे, तब यह धरा पर देवभूमि बन जाएगी। 

आध्यात्मिक नैतिकता के बल पर बनती है देवभूमि

इस धरा अथवा धरा के किसी भूभाग को देवभूमि की उपमा आध्यात्मिक नैतिकता दिलाती है। इसलिए आध्यात्मिक नैतिकता को समझना आवश्यक है। आध्यात्मिक नैतिकता शब्द आध्यात्म व नैतिक नाम दो शब्दों से बना है। जिसमें नैतिक शब्द प्रधान है। आध्यात्म शब्द नैतिक शब्द के साथ विशेषण का कार्य करता है। नैतिक शब्द को नियत मापदंड के सापेक्ष परिभाषित किया गया है। मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते, समाज मनुष्य से एक निश्चित मापदंड में आचरण करने की आशा रखता है। यह सामाजिक मापदंड समाज की सुचिता, स्वच्छता एवं पवित्रता को बनाये रखने के लिए अति आवश्यक तत्व है। जब मनुष्य इन नैतिक मापदंड के अनुकूल तथा इससे अधिक पवित्र जीवन जीने लग जाता है तब उसे महात्मा, महापुरुष एवं दिव्य पुरुष शब्द से उपमित करते है। नैतिकता शब्द मनुष्य के सिद्धांतवादी एवं पवित्र जीवन जीने की कला द्योतक है। सिद्धांतवादी मनुष्य का समाज में आदर होता है तथा समाज उन्हें आदर्श भी मानता है। सिद्धांतवादी जीवन शैली के  समक्ष पवित्र जीवन जीने का लक्ष्य होने पर सिद्धांतवादी मनुष्य के सिद्धांत समाज के लिए बोझिल नहीं होते है। इसके विपरीत मनुष्य के सिद्धांत पवित्र वातावरण को खंडित करने लग जाए अथवा समाज की शांति के समक्ष प्रश्न बनकर खड़े हो जाए तो, ऐसे सिद्धांतों को नैतिकता की परिधि में नहीं लिया जा सकता है। नैतिकता को  आसान शब्दावली में कभी-कभी ईमानदार तथा चरित्रवान जीवनशैली है।  नैतिकता दो प्रकार की होती है - साधारण एवं आध्यात्मिक नैतिकता। साधारण नैतिकता में आत्मिक प्रगति का पथ आवश्यक नहीं जबकि आध्यात्मिक नैतिकता में आत्मिक प्रगति आवश्यक है। आध्यात्मिक नैतिकता मात्र आत्मिक प्रगति पथ पर चलते हुए नैतिक जीवन जीने की कला ही नहीं है अपितु  आध्यात्मिक तथा सामाजिक जीवन को उन्नत बनाने के लिए नैतिक नियमावली को जीवन साधना के रुप में मानकर चलना भी है। इसलिए आध्यात्मिक नैतिकता के बल पर दिव्य नर तथा नारी बनते है। जिन्हें प्राचीन संस्कृत में देव तथा देवी शब्द दिया गया था। जैसे-जैसे समाज में देव-देवियों की संख्या बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे समाज का वातावरण स्वर्ग तुल्य बनता जाता है। किसी भूभाग विशेष में ऐसा समाज दिखने पर उसे देवभूमि कहा जाता है। अतीत में भारतवर्ष का समाज ऐसा था इसलिए भारतवर्ष को देवभूमि कहते थे। 

आध्यात्मिक नैतिकता,  साधारण नैतिकता से श्रेयस्कर कैसे?

जिस नैतिकता में जीवन लक्ष्य परमपद को प्राप्त करने का समावेश नहीं है, उसे साधारण नैतिकता कहते है। यह लोग सहज बुद्धि संपन्न होते है - जीवन में एकबार संकल्प ले लेते अथवा एकबार सिद्धांत बनाने उसे जीवन भर निभाते है। देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुकूल जीवन मूल्य में बदलाव आने पर साधारण नैतिकतावान अपने को समायोजन नहीं कर पाते है। ऐसे लोग यहाँ तो स्वार्थी तत्वों के हाथों ठगे जाते है अथवा युग की आंधी के समक्ष उखड़ जाते है। यद्यपि यह सत्य है कि साधारण नैतिकवान व्यक्ति का समाज में मान सम्मान अधिक होता है तथापि इनकी सफलता भाग्य के तराजू के हाथ में होती है। आध्यात्मिक नैतिकवान व्यक्ति सत्य एवं धर्म के रक्षा सतपथ पर चलने का संकल्प लेता है तथा तदनुकूल उस पथ पर चलता है। सदैव युग के अनुरूप आदर्श जीवन मूल्यों अपनाता है। सकारात्मक एवं समाज कल्याणकारी मूल्यों के समक्ष अपने निजी सभी वचन त्यागने के लिए तैयार रहते है। स्वयं को मिटाकर भी सर्वाजनिक हित की रक्षा करने को तैयार रहने वाला आध्यात्मिक नैतिकवान सिपाही है।  साधारण नैतिकवान व्यक्ति के लिए कभी कभी खुद के सिद्धांत सामाजिक हित से बड़े बनकर, सतपथ में बाधक बन जाते है। साधारण नैतिकवान को सत असत की लड़ाई में कई बार हारते  अथवा अपने सिद्धांतों छोड़ते देखा गया है। जबकि आध्यात्मिक नैतिकवान व्यक्ति अपने सुख दुःख त्याग कर भी जीवन को सफल बनाते है। इसलिए आध्यात्मिक नैतिकता, साधारण नैतिकता से श्रेयस्कर है। 

आध्यात्मिकता क्या है?

श्री श्री आनन्दमूर्ति जी लिखते है कि प्रेत शास्त्र से संबंधित विषय अध्यात्मवाद तथा परमपुरुष से संबंधित विज्ञान आध्यात्मिकता है। इसलिए आध्यात्मिकता को समझना आवश्यक है।  आत्मा से संबंधित विज्ञान आध्यात्मिकता कहते है।  आत्म विज्ञान के प्रमेय को सप्रमाण सिद्ध करना आध्यात्मिक है। आत्म विज्ञान के इस निर्मेय को रचना कर  आत्म संतुष्टि प्राप्त करना ही आध्यात्मिकता है। इन प्रमेय व निर्मेय को आत्म विज्ञान प्रयोगशाला में जाए बिना भावजड़ लोक में विचरण करना अध्यात्मवाद है। जहाँ भूत प्रेत, देवी देवता की ओट में स्वयं को ही भटका देते है। आध्यात्मिकता का विद्यार्थी इस अभिज्ञान को जानते है, इसलिए वे इसमें नहीं भटकते है। ब्रह्म मन के सप्तलोक, अणु मन के पंचकोष, प्रकृति पुरुष की लीला, दर्शन व कर्म विज्ञान का ज्ञान व अभ्यास आध्यात्मिकता है। आध्यात्मिक शब्द का सरल अर्थ आत्मज्ञान बताया गया है। व्यक्ति का स्वयं से परिचित होने की कला को आध्यात्मिकता नाम दिया है। मैं कौन हूँ? , सृष्टि की रचना कैसे हुई? , विभुसत्ता क्या है? अणु सत्ता का भूमा सत्ता से क्या संबंध है? मनुष्य साधना से भयभीत क्यों होता है? मुक्ति व मोक्ष क्या है? इत्यादि इत्यादि प्रश्नों का जबाब पाने के अन्त: मन विज्ञान की प्रयोगशाला किया जाने वाला साधना का अभ्यास आध्यात्मिकता है। इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर जाने बिना धार्मिक आडंबर रचने वाले तथा पांखडी आध्यात्मिकता से कोसों दूर है। 

भारतवर्ष देवभूमि थी क्योंकि आध्यात्मिक नैतिकता प्रत्येक व्यष्टि का जीवन व्रत था

भारतवर्ष के देवभूमि होने के प्रमाण उपलब्ध है, साथ में भारतवर्ष के देवभूमि होने के कारण व लक्षण भी उपलब्ध है। भारतवर्ष का प्राणधर्म आध्यात्मिकता को बताया गया है तथा भारतीय समाज में नैतिकता कूट कूटकर भरी थी। इसी कारण ने भारतवर्ष को देवभूमि बनाया था। इसलिए तो आज भी गाया जाता है -"हर बाला देवी की प्रतिमा, बच्चा-बच्चा राम है।" 

 अन्त में विषय का सार यही प्राप्त होता है कि भारतवर्ष के व्यष्टि-व्यष्टि तथा समष्टि में आध्यात्मिक नैतिकता है तो भारतवर्ष देवभूमि है। अन्यथा वास्तविकता जानते हुए भी मिथ्या बोझ लेकर घुमने के सिवाय कुछ नहीं है। शेखी हांकने तथा बड़े-बड़े भाषण देने से देवभूमि भारतवर्ष नहीं बनता है।भारतवर्ष को देवभूमि बनाने के लिए प्रत्येक नागरिक को देव-देवी बनना ही होगा। देव-देवी बनने के लिए आध्यात्मिकता नैतिकता को जीवन व्रत, जीवन संकल्प के रूप में धारण करना ही होगा। 

आओ आध्यात्मिक नैतिकवान जीवन जिए तथा भारतवर्ष को देवभूमि बनाने में अपना अमूल्य योगदान दे। यही सच्ची राष्ट्रभक्ति है। सच्चे अर्थ यही राष्ट्र सेवा है। 
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श्री आनन्द किरण 'देव'
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