सहकारिता बनाम प्रउत
------------------------------------------
श्री आनन्द किरण "देव"
------------------------------------------
मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी बताया गया है। उसे भौतिक जगत में कार्य करने के लिए किसी के सहयोग की आवश्यकता होती है। यह सहयोग मालिक नौकर का होने पर पूंजीवाद का जन्म होता है तथा सहयात्री का सहयोग होने पर समाजवाद का जन्म होता है। जबकि सहकार्य का सहयोग हो जाने पर सहकारी व्यवस्था अस्तित्व में आती है। प्रथम प्रकार के सहयोग में दो वर्ग उभर कर आते है तथा आपस में अपने हितों को लेकर संघर्ष करते है। जिस अर्थशास्त्र में 'वर्गसंघर्ष' नाम दिया है। द्वितीय प्रकार का सहयोग काल्पनिक साम्य में व्यक्ति को प्रतिष्ठित करता है, जो प्रकृत धर्म के अनुकूल नहीं होने के कारण ताश के पन्नों का महल साबित होता है। जो हवा के एक झांकें से धराशायी हो जाता है। तृतीय सहयोग प्रकार सहयोग में सहकार्य होता है। जिसमें त्याग, सहयोग एवं लग्न का अनुपातिक संतुलन होता है। जबकि प्रथम दोनों विचार में उक्त संतुलन होना आवश्यक नहीं है। प्रथम व्यवस्था में प्रथम पक्षकार सदैव प्रभावशाली होने कारण शोषक बनने की संभावना अधिक रहती है, जबकि द्वितीय प्रकार की व्यवस्था में कोई पक्ष प्रभावशाली नहीं होने के होने के कारण तीन तेरह होने की संभावना अधिक रहती है। तृतीय प्रकार की व्यवस्था में योग्य व गुणी पक्ष नेतृत्व करने के कारण सहभागिता के गुण को कायम रखने में सक्षम होता है। उपरोक्त कारणों से पूंजीवाद व साम्यवाद में सहकारी व्यवस्था असफल हुई है। पूंजीवाद में बड़ी मछली छोटी मछली को निगलने की व्यवस्था के कारण सहकारी तथा साझा व्यवस्था मर जाती है। साम्यवाद में डल व गल का एक ही भाव होने के कारण अंधेरी नगरी चौपट राजा बन जाती है। अतः सहकारी व्यवस्था को सही संरक्षण 'प्रउत व्यवस्था में ही मिलता है।
सहकारी व समाज
मनुष्य का समाज विविधता का गुलदस्ता है। जो रंग बिरंगे फूलों से सज्जा हुआ है। सभी फूलों की सुंगध एक सी नहीं होती है लेकिन वे आपस में एक दूसरे का सहयोग कर वातावरण को सुगंधित, पुष्टिवर्धनं तथा खुशनुमा बना देता है। इसलिए समाज को सहकारी होना आवश्यक हो जाता है। लघु स्तर को एक फूल ही महका देता है, जबकि बड़े स्तर को सजाने के लिए उनके फूलों की बगिया की जरूरत होती है। समाज में इस प्रकार के सहकार्य में आपसी सहयोग से सहकारिता को जन्म लेती है। समाज की सुव्यवस्था के लिए लघु व कुटीर उद्योग व्यक्ति तथा परिवार द्वारा, मध्यम स्तर के उद्योग सहकारिता द्वारा तथा बड़े, मूल उद्योग व सामरिक महत्व के उद्योग सामूहिक जिम्मेदारी से संचालित होने चाहिए, इसलिए इनका संचालन सरकार के हाथ में दिये जाता हैं। इस सुन्दर व्यवस्था की जननी 'प्रउत विचारधारा' है। अतः समाज तथा सहकारिता के लिए प्रउत व्यवस्था की नितांत आवश्यकता है।
प्रउत में सहकारिता
समाज की सुन्दर व्यवस्था में उपस्थित सहकारी के गुण प्रउत की देन है। इसलिए प्रउत क्रियात्मक व रचनात्मक कार्यों की पृष्ठभूमि सहकारिता से आरंभ होती है। प्रउत समाज की रचना में अद्वितीय योगदान देता है, इसलिए सहकारिता के गुण समाज के अंग-अंग में भरने के लिए प्रउत की आदर्श सहकारी व्यवस्था को आत्मसात करना आवश्यक है। प्रउत की आदर्श सहकारिता के अनुसार जमीन, पूंजी, श्रम तथा प्रबंधन का निश्चित अंश होता है तथा उसी के अनुसार प्रतिफल भी प्राप्त करता है, साथ में परिलाभ पर गुणानुपात का नियम लागू हो जाता है। इसलिए यह किसी एक की जेब नहीं जाता है। प्रउत की सहकारी व्यवस्था में प्रबंधन में सदगुणों का संचार किया जाता है। आध्यात्मिक नैतिकता को प्रबंधन के गुण की अनिवार्य शर्त के रुप में लागू किया गया है। इसलिए सहकारिता का किसी भी साझेदार लूटने का डर नहीं रहता है। सहकारिता के असफल होने का सबसे प्रभावशाली कारण यही है। जिसे प्रउत ने जड़ मूल से खत्म कर दिया है।
आदर्श सहकारिता के गुण
सहकारिता एक साथ मिलकर काम करने के एक प्रणाली का नाम है। आदर्श सहकारिता सहकारी संस्था के प्रत्येक अंग के साथ सदैव न्याय करने वाली व्यवस्था का नाम है। प्रउत आदर्श सहकारिता का सूत्रपात करती है। जो सहकारिता के प्रत्येक अंग में सुरक्षा, सक्रियता व जिम्मेदारी के गुणों का जागरण करता है। साथ काम करने से अधिक एक दूसरे के लिए मिलकर काम करने का गुण सहकारिता के लिए आवश्यक है। प्रउत इसलिए सहकारिता में उक्त गुणों को पढ़ाता है तथा अपनाता है। सद्विप्र बोर्ड के न्याय का तराजू उक्त पर दृष्टि रखता है। यद्यपि सद्विप्र बोर्ड प्रउत की संपूर्ण व्यवस्था का ध्यान रखता है तथापि सहकारी व्यवस्था में इसकी भूमिका अधिक महत्वपूर्ण है। आदर्श सहकारिता का द्वितीय गुण समान सामाजिक हित भी है। जब अलग-अलग सामाजिक हितों को लेकर सहकारी मिलकर सहकारिता करते है, तो समाज के प्रति दृष्टिकोण में अंतर आ जाता है तथा यह अंतर सहकारी कार्य पर भी पड़ सकता है। इसलिए समान सामाजिक व्यवस्था को आदर्श सहकारिता में अपनाया गया है। आदर्श सहकारिता के तृतीय गुण में आध्यात्मिक दर्शन तथा आध्यात्मिक यात्रा में समानता की आवश्यकता भी महसूस की गई है। आध्यात्मिक पथ की विभिन्नता का असर काम पर नहीं पड़ना चाहिए, यह वाक्य सुनने में अच्छा है लेकिन व्यवहारिकता में कई न कई असर छोड़ ही देता है। समान विश्वास नहीं होने पर कार्य के विश्वास पर भी असर पड़ता है। इसलिए एक आध्यात्मिक दर्शन के पथिकों की सहकारी आदर्श बनती दिखाई दी है। आदर्श सहकारिता का अंतिम तथा महत्वपूर्ण गुण आध्यात्मिक नैतिकता है। इसके अभाव में सभी किया कराये पर पानी फिर जाता है।
प्रउत व सहकारिता
सहकारिता संपूर्ण प्रउत नहीं है जबकि सहकारिता प्रउत के बिना संभव नहीं है। चूंकि सहकारिता प्रउत का अंग है इसलिए प्रउत की सामाजिक रचना में आदर्श सहकारिता के गुणों का प्रभाव दिखाई देता है। इसको देखकर कभी भ्रमित होकर सहकारिता को ही प्रउत मान लेता है। प्रउत अन्याय तथा शोषण के विरुद्ध संघर्ष भी करता है जबकि सहकारिता की विषय वस्तु में यह नहीं है। प्रउत की शब्दावली अधिकतम व न्यूनतम आय, संचय प्रवृत्ति पर समाज की लगाम, विवेकपूर्ण वितरण, चरम उपयोग, प्रगतिशील तथ्य का भी समावेश है। सहकारिता प्रउत की शब्दावली का एक अंग है, संपूर्ण प्रउत नहीं है। फिर भी सहकारिता समाज को पूंजीवाद की गोद में जाने से रोकता तथा साम्यवाद के छलावे से बचाता है। सहकारिता प्रउत के लिए आधार भूमि तैयार करती है।
0 Comments: