वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में, जहाँ एक ओर आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना की बात ज़ोर पकड़ रही है, वहीं दूसरी ओर कुछ विचारकों द्वारा एक विशेष संगठन पर तानाशाही व्यवस्था का वाहक होने का आरोप लगाया जा रहा है। यह भ्रांति संभवतः 'बाबा' (श्री श्री आनन्दमूर्ति जी) के गूढ़ विचारों को पूर्ण रूप से आत्मसात न कर पाने के कारण उत्पन्न हुई है। बाबा का स्पष्ट उद्घोष रहा है कि समाज के सर्वांगीण कल्याण और उत्थान हेतु सद्विप्रों का अधिनायक तंत्र (Dictatorship of the Sadvipras) आवश्यक है। यह वक्तव्य किसी व्यक्ति विशेष या व्यक्तियों के समूह की निरंकुश सत्ता का समर्थन नहीं करता, बल्कि एक आदर्श, नैतिकवान और आध्यात्मिक नेतृत्व की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
अतः, यह स्पष्ट करना नितांत आवश्यक है कि तानाशाही व्यवस्था को बढ़ावा देना संगठन के मूल आदर्शों को खोखला करना है। हमें आज यह समझना होगा कि सद्विप्रों का अधिनायक तंत्र और आर्थिक लोकतंत्र क्या हैं और उनका वास्तविक आशय क्या है।
पहला प्रश्न
सद्विप्र शब्द का अर्थ एवं विशेषताएँ
श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने 'आनन्द सूत्रम' के अध्याय-05, सूत्र-02 में सद्विप्र को परिभाषित किया है : - "जो नीतिवादी आध्यात्मिक साधक अपने शक्ति सम्प्रयोग से पाप का दमन करना चाहते हैं, वे ही सद्विप्र हैं।"
इस परिभाषा के अनुसार, सद्विप्र में दो मूलभूत विशेषताएँ अनिवार्य हैं।
(1) नीतिवादी आध्यात्मिक साधक : -
(i) नीतिवाद का पैमाना : - व्यक्ति को यम-नियम में प्रतिष्ठित होना चाहिए तथा पंचदश शील (पंद्रह आध्यात्मिक नैतिक सामाजिक सिद्धांत) का अनुसरण करना चाहिए। उनके आचरण, व्यवहार और सिद्धांतों में इन गुणों की स्पष्ट झलक मिलनी चाहिए।
(ii) आध्यात्मिक साधक का पैमाना : - उन्हें ब्रह्मभाव (भूमाभाव) की साधना में पारंगत होना चाहिए, जिसका अर्थ है चरम चेतना के साथ एकाकार होने की साधना।
(2) पाप का दमन करने की शक्ति : - उनमें अपनी नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति का प्रयोग कर समाज में व्याप्त अनैतिकता और शोषण को समाप्त करने का सामर्थ्य होना चाहिए।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि 'सद्विप्र का अधिनायक' नहीं, अपितु 'सद्विप्रों का अधिनायक' कहा गया है। यह स्पष्ट रूप से किसी एक व्यक्ति के निरंकुश शासन का नहीं, अपितु एक समूह के संगठित एवं नैतिक नेतृत्व की स्थापना का संदेश देता है।
यह क्या है? - यह आध्यात्मिक और नैतिकवान साधकों का सामूहिक अधिनायक तंत्र है। यह किसी व्यक्ति विशेष, सामान्य समूह या पापी स्वभाव के लोगों का अधिनायक नहीं है।
यह कैसा है? :- सद्विप्र वस्तुतः सम्पूर्ण समाज है, जिसका नियंत्रण एक सद्विप्र बोर्ड द्वारा होगा। इस बोर्ड में कुल पाँच अलग-अलग श्रृखंलाबद्ध बोर्ड होंगे, जो एक-दूसरे से एक मजबूत चेन के माध्यम से जुड़े होंगे। इस बोर्ड के संगठन और सदस्यों के चयन में भी लोकतांत्रिक मूल्यों का समावेश होता है।
दूसरा प्रश्न
आर्थिक लोकतंत्र (Economic Democracy) एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था है जो भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग और न्यायसंगत वितरण पर बल देती है।
आर्थिक लोकतंत्र की मुख्य विशेषताएँ : -
* (१) न्यूनतम आवश्यकता की गारंटी : यह वह सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था है, जहाँ प्रत्येक नागरिक को उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं (जैसे अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा, शिक्षा) की गारंटी मिले
* (२) क्रयशक्ति का मूल अधिकार : - यह वह सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था है, जहाँ व्यक्ति के पास अपनी आवश्यकतानुसार वस्तुओं और सेवाओं को क्रय करने की शक्ति का मूल अधिकार प्राप्त हो।
* (३) शत-प्रतिशत रोज़गार की अवस्था : - समाज में काम करने योग्य जनसमुदाय को शत-प्रतिशत रोज़गार की गारंटी प्रदान करना।
* (४) समन्वित सहकारी व्यवस्था : - यह आर्थिक क्षेत्र में सीमित व्यक्तिवाद और सीमित समाजवाद के बीच समन्वय स्थापित करती है। बड़े तथा वैश्विक महत्व के उद्योग सरकार द्वारा 'न लाभ, न हानि' की नीति से संचालित होंगे, जबकि छोटे उद्योग व्यक्तिगत तथा मध्यम उद्योग समन्वित सहकारिता पर आधारित होंगे। इस व्यवस्था में आर्थिक क्षेत्र वंशवाद नहीं, अपितु योग्यता (Merit) का क्षेत्र होगा।
* (५) गुणीजन का सम्मान : - आर्थिक लोकतंत्र गुणीजनों के गुण का सम्पूर्ण आदर करता है और उन्हें सामाजिक एवं आर्थिक परिलाभ प्रदान करता है। हालांकि, यह सामाजिक उच्च-नीच तथा किसी अन्य प्रकार के भेद को स्वीकार नहीं करता है।
* (६) वृद्धिमान सामाजिक मानक : - समाज के विकास एवं प्रगति को मापने वाला मानक कभी भी स्थिर या ह्रासमान नहीं होता है। यह सदैव वृद्धिमान (Progressive) होता है।
* (७) संपत्ति संचयन पर समाज की लगाम : - संचय वृत्ति को एक आर्थिक रोग मानते हुए, इसको अनियंत्रित छोड़ना समाज को दूषित करना माना गया है, अतः इस पर समाज का नियंत्रण आवश्यक है।
* (८) संसाधनों का अधिकतम उत्कर्ष एवं विवेकपूर्ण वितरण: भौतिक, अधिभौतिक एवं मानस-भौतिक संसाधनों का चरम उत्कर्ष करना तथा उत्पादित सामग्री का विवेकपूर्ण और न्यायसंगत वितरण करना। इसका अर्थ है: पहले सभी की न्यूनतम आवश्यकता को पूर्ण करना, तथा अतिरिक्त संपदा को गुणीजनों में उनके गुण के अनुपात में वितरित करना
* (९) मानवीय संसाधन का अधिकतम एवं सुसंतुलित उपयोग : - मानवीय क्षमता के उपयोग में अधिकतम तथा सुसंतुलित (Good Balance) नीति का समावेश है।
* (१०) उपयोगिता की परिवर्तनशीलता : - उपयोगिता सबके लिए एक समान नहीं होती। यह देश-देश, काल-काल व पात्र-पात्र के अनुसार परिवर्तनशील होना आवश्यक है।
* (११) वैचित्र्यता का सम्मान : - आर्थिक मूल्य प्रकृति के धर्म वैचित्र्यता (Diversity) का सम्मान करते हुए निर्धारित किए जाते हैं।
आर्थिक लोकतंत्र की मूलभूमि आर्थिक शक्ति का विकेन्द्रीकरण तथा राजशक्ति का संगठित करना है।
अंतिम निष्कर्ष की ओर : - आदर्श अधिनायक तंत्र के हिमायती है। अतः, हम तानाशाही के नहीं, अपितु एक आदर्श अधिनायक तंत्र के हिमायती हैं, जो लोकतांत्रिक मूल्यों को सदा जीवित रखता है। यद्यपि यहाँ लोकतंत्र भीड़तंत्र नहीं है (क्योंकि व्यस्क मताधिकार के स्थान पर आध्यात्मिक नैतिकवान व्यक्ति को मताधिकार है), तथापि यह लोकतांत्रिक मूल्यों की बलि नहीं देता है। सद्विप्रों का अधिनायक तंत्र वस्तुतः एक ऐसा नैतिक एवं आध्यात्मिक नियंत्रण है जो आर्थिक लोकतंत्र की नींव को सुदृढ़ करता है, जिससे शोषण रहित समाज की स्थापना संभव हो पाती है।
हम तानाशाही नहीं एक आदर्श अधिनायक तंत्र में विश्वास करते हैं, जो व्यक्ति के नेतृत्व में नहीं सामूहिक नेतृत्व की अवधारणा देता है।
प्रस्तुति : आनन्द किरण
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