नाम-मंत्र (NAAM-MANTRA)

 
                      ----------
नाम को मंत्र बनाने के विज्ञान एवं कला का नाम - नाम-मंत्र है। कभी कभी इसे नाम का मंत्र भी कहा जाता हैं। इसलिए नाम-मंत्र को समझने का प्रयास करना चाहिए। वास्तव में नाम-मंत्र अशाब्दिक है लेकिन उसमें मंत्र सी शक्ति होने कारण वह नाम-मंत्र कहलाया है। अतः नाम-मंत्र को समझना बहुत आवश्यक है। आध्यात्मिक साधक की यात्रा नाम-मंत्र से शुरू होती, इष्ट-मंत्र, गुरु-मंत्र एवं बीज-मंत्र से होकर ध्यान-मंत्र में प्रकाष्ठा पर पहुँचती है। मजेदार बात तो यह है कि नाम-मंत्र एवं ध्यान-मंत्र दोनों ही अशाब्दिक है। अतः नाम-मंत्र को समझना नितांत आवश्यक है। यद्यपि परिपक्व व्यक्ति को इष्ट-मंत्र से भी यात्रा शुरू कराई जाती है लेकिन चित्त शुद्धि की जानकारी रखने वाले यह नहीं कह सकते हैं कि परिपक्व व्यष्टि को नाम-मंत्र नहीं मिला। आओ नाम-मंत्र को समझने के लिए चलते हैं। 

जैसा कि आरंभ में ही कहा गया है कि नाम को मंत्र बनाने की कला एवं विज्ञान का नाम नाम-मंत्र है। इसलिए अपनी समझ की यात्रा यही से शुरू करनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति एवं सत्ता को जन्म से साथ एक नाम मिलता है, यह एक सामाजिक एवं जागतिक क्रिया है। उस नाम का महत्व होता है। वे व्यक्ति के चरित्र एवं सत्ता के अस्तित्व का निर्धारण करता है। अतः वस्तु जगत में नाम का सर्वाधिक महत्व है। आध्यात्मिक यात्री को अपने यात्रा में अनेक स्तर को पार करना होता है। उन स्तरों एवं उसके साक्षी पुरुष का एक नाम होता है। नाम के इस खेल में व्यक्ति स्वयं को नहीं भूल जाए इसलिए सद्गुरु नाम-मंत्र से व्यक्ति को परिचित कराते हैं। वास्तविक में व्यक्ति एवं सत्ता का कोई नाम नहीं है। यह सब देश, काल, पात्र की सीमा में है। जब तक व्यक्ति इन सीमाओं में होता है तब तक इन सबको को देखकर क्रीड़ा करता है। जब वे इन सीमाओं से बाहर हो जाता है तब इन क्रीड़ा का कोई महत्व नहीं रहता है। इसलिए नाम को मंत्र बनाने की कला एवं विज्ञान दोनों में दक्ष होना चाहिए। नाम को मंत्र बनाने की कला अनामी बनना है तथा नाम को मंत्र बनाने का विज्ञान अनामी बनकर जीना है‌। हम सुना है कि जिस का नाम है, उसका नाश है, जबकि जिसका नाम नहीं है उसका कभी भी नाश नहीं है। ऐसा क्यों? यह नाम-मंत्र का रहस्य है। नाम एक अवस्था जबकि अनाम एक सत्ता है, जो अनश्वर है। इसलिए तो पुराने लोग किसी के नाम पूछने पर कहते थे कि नाम तो ईश्वर का आनन्द किरण कहते हैं। अर्थात वह कहता है कि मेरा कोई नाम नहीं है। जगत पहचान के लिए ईश्वर के अनन्त नाम में से आनन्द किरण कहते हैं। इसलिए नाम-मंत्र अशाब्दिक है। सभी जानते हैं फिर भी नाम-मंत्र की प्रक्रिया को सार्वजनिक नहीं लिख सकता हूँ। क्योंकि यह भी आध्यात्मिक अनुशासन का अंग है। 

अब नाम-मंत्र को दूसरे दृष्टिकोण से समझते हैं। विषय के आरंभ लिखा था कि कभी कभी नाम-मंत्र को नाम का मंत्र भी कहते हैं। आओ इसे भी समझने का प्रयास करते हैं। नाम का मंत्र का अर्थ दो भाव तरंग सृष्ट करता है। प्रथम कोई मंत्र नहीं मात्र नाम का मंत्र कहलाता है। एक व्यक्ति को कहा गया कि इस पर्ची में तुझे सबसे बड़ा मंत्र जो आज दिन तक किसी को नहीं दिया गया है तु इस अपने पास गोपनीय रखना तब खोलना जब इसके सिवाय तुम्हारे पास कोई रास्ता नहीं हो। साधक अनुशासनात्मक ढंग से अपने पास रखता है तथा समझता है कि उसके पास बहुत बड़ी पूंजी है तथा गुरु द्वारा बताये आध्यात्मिक अनुशीलन का अभ्यास करता है। एक बार धर्म संकट मे होता है। उसके पास अन्य कोई रास्ता नहीं होता है तब अपने इस किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था में उसे खोलता है तो देखता है कि उस पर्ची में मात्र एक बिन्दु होता है। यह देखते ही उसकी चेतना शून्य हो जाती है तथा वह देखता है कि बिन्दु में ही सिन्धु है। अतः नाम का मंत्र बहुत बड़ा प्रभावशाली होता है। अर्थात अनाम ही नाम-मंत्र है। 

 अब हम नाम का मंत्र की दूसरी भाव तंरग नाम का मंत्र अर्थात एक नाम का मंत्र है। सृष्ट जगत में एक ईश्वर को अनेक नाम से पुकारते है। जब व्यक्ति इन नामों के माय जाल में फसकर परेशान हो जाता है तब कौन-सा नाम श्रेष्ठ की अवस्था में पहूँच जाता है? इस किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था को समझने के लिए एक कहानी का सहारा नहीं है। एक बार एक अनाथ बच्चा था। उसको युग की थप्पड़ें खाते देखकर दया आई तथा उसे एक सन्त के आश्रम में यह कहकर भेजा तुझे नाम-मंत्र देंगे जिससे तुम्हारे सभी कष्टों का अन्त हो जाएगा। उसे मन में युग की थप्पडों के अन्त की तड़प थी। इसलिए वह सन्त से सदैव नाम-मंत्र देने मांग करता था। प्राचीन काल नाम-मंत्र भी बहुत मुश्किल से मिलता था, उसके लिए गुरु सेवा कर निर्मल बनना पड़ता था। जब गुरु देखते थे कि बिल्कुल निर्मल हो गया है तब नाम-मंत्र देते थे। इस प्रकार शिष्य को परीक्षा पर परीक्षा देनी पड़ती थी। लेकिन उस बाल मन के पास तो एक ही चाहत थी नाम-मंत्र। संत का आश्रम में बड़ी मछली छोटी मछली को निगलने की प्रथा से अछूता नहीं था। अतः यहाँ वरिष्ठ शिष्य अपने अनुज गुरुभाई से अधिक से अधिक सेवा लेते थे तथा अनुशासन के नाम शारीरिक यातना भी देते थे। लेकिन वह बाल मन तो नाम-मंत्र के लालच में बैठा गुरु के कृपा निधान होने की राह देख रहा था। इस प्रकार बार-बार नाम-मंत्र की मांग परेशान होकर गुरु ने कह दिया की एकांत में होंगे तब नाम-मंत्र देंगे। एक दिन वे संत महात्मा दस्त से पीड़ित हो गए। बार-बार दस्त होने के कारण एकान्त में चले गए तथा शिष्य को कहा की पानी भिजवा देना। शिष्य दल जानता था कि गुरु दस्त से पीड़ित है इसलिए पानी ले जाने की डियूटी उस अनाथ बालक को दे दी जो नाम-मंत्र की चाहत में आया था। उस बालक ने देखा कि आज गुरु अकेले है तथा गुरु देव ने कहा था कि एकान्त में देंगे। गुरु के लिए लाया पानी रखते ही वह बालक गुरु से बोला नाम-मंत्र। संत तो दस्त से पीड़ित थे इसलिए मुह से निकल गया 'फट'। यानि जा फट यहाँ से। लेकिन बाल मन ने मंत्र मूलम् गुरु वाक्य समझकर फट को इष्ट मंत्र बना दिया तथा सिद्ध पुरुष बन गया। अर्थात हमारे चारों ओर जो कोई है, वह ब्रह्म है यही नाम-मंत्र है। शायद नाम-मंत्र का ऐसा ही भाव है। इसलिए नाम-मंत्र को शाब्दिक बनाने की आवश्यकता नहीं है। 

नाम-मंत्र कोई दूसरी श्रेणी नहीं होती है लेकिन आध्यात्मिक राही लोक बोलचाल की भाषा में भजन,कीर्तन, सिमरण एवं जप को नाम-मंत्र कह देते हैं। जो एकदम लोक बोलचाल के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इसी एक नाम, दो नाम, तीन नाम, चार नाम, पांच नाम एवं बहुत नाम की श्रेणियाँ विकसित हुई। यह हमारा विषय नहीं है इसलिए इस ओर नहीं जाएंगे। अन्त में लिखना चाहूँगा कि इष्ट-मंत्र एवं गुरु-मंत्र, बीज-मंत्र एवं ध्यान मंत्र का सही सही भान होना ही नाम-मंत्र है। यदि अधिक स्पष्ट कहा जाए तो साधना का भान ही नाम-मंत्र है। 

--------------------------------------
           आनन्द किरण
--------------------------------------
Previous Post
Next Post

post written by:-

0 Comments: